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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पाठ ८ - गौरवशाली व्यक्तित्व

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    आचार्यश्रीजी ने रामटेक, १९९३, ‘भावपाहुड' की कक्षा में कहा- ‘हमें इस बात पर गौरव है, गौरव ही नहीं स्वाभिमान भी है कि कम से कम महावीर भगवान् के वीतराग विज्ञान का जो मूर्तरूप है, उसका हम पालन तो कर रहे हैं। इसमें गौरव होना भी सहज है। मात्र बातों के जमा खर्च से काम नहीं चल सकता, किंतु आगम की जो आज्ञा है, उसका सेवन करना सर्वप्रथम आवश्यक है।' गौरवशाली व्यक्तित्व के धनी आचार्य श्री विद्यासागरजी श्रमण के २८ मूलगुणों में कथित षट् आवश्यक के प्रति कैसा गौरव का भाव रखते हैं ? इससे जुड़े कुछ प्रसंग प्रस्तुत पाठ के विषय हैं।

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    0093 - Copy.jpgमोक्ष मंजिल के दिशासूचक : षट् आवश्यक

    आगम की छाँव

     

    यद्वयाध्यादि.........................रात्रिकं मुनेः॥१६॥

    रोग आदि से पीड़ित होने पर भी इन्द्रियों के अधीन न होकर मुनि के द्वारा जो दिन-रात के कर्तव्य किए जाते हैं, उन्हें आवश्यक कहते हैं। जो वश्य अर्थात् इन्द्रियों के अधीन नहीं होता है उसे अवश्य कहते हैं। और अवश्य के कर्म को आवश्यक कहते हैं।

     

    इस प्रकार वश्य उसे कहते हैं जो किसी के अधीन होता है और जो किसी के अधीन नहीं होता है। उसे अवश्य कहते हैं। श्रमण इन्द्रियों के अधीन नहीं होते हैं इसलिए उन्हें आगम में ‘अवश्य' कहा गया है। अवश्य अर्थात् श्रमण के द्वारा किए जाने वाले कार्य को आवश्यक कहते हैं। इस प्रकार मुनियों के जो नित्य, नियम पूर्वक किए जाने वाले कार्य हैं, उन्हें आवश्यक कहते हैं, जो आगम में छह प्रकार के बताए गए हैं-

     

    सामायिकं.........इमान्यावश्यकानि षट्॥७१५॥

    १. सामायिक, २.स्तव, ३. वंदना, ४. प्रतिक्रमण,  ५. प्रत्याख्यान ६. कायोत्सर्ग


    0093.jpgआचार्यश्री का भाव

    • आवश्यक को अपरिहारिणी कहा गया है। जिस समय जो कहा गया है, उस समय वह करना चाहिए। ऐसी आगम की आज्ञा है। इनका पालन निर्दोष करना चाहिए। ये तीर्थंकर प्रकृति के बंध के कारण हैं।
    • आवश्यक साधकों के प्राण हैं। संयम के बिना संयमी का क्या जीवन? छह आवश्यक तो निर्विकल्पता पूर्वक होना चाहिए, अन्यथा भव बिगड़ते हैं। इसलिए भीतरी परिणामों को टटोलना आवश्यक है, नहीं तो घाटा ही घाटा है।
    • यह छह आवश्यक आमदनी (पुण्यास्रव) के स्रोत हैं।आवश्यकों में रत रहना भी बड़ी साधना है, ये पुण्य का उदय समझना। जैसे भोजन थाली में विभिन्न व्यंजन अलग-अलग होते हैं, उनका स्वाद अलग-अलग आता है, उसी प्रकार प्रतिदिन षट् आवश्यकों का अलग-अलग आनंद लेना चाहिये, जो उत्साह पूर्वक ही संभव है। यह प्रफुल्लता के साथ होना चाहिए।
    • जिस प्रकार भोजन-पानी से भरे पेट में लू नहीं लगती, उसी प्रकार छह आवश्यकों को समय पर करने से सांसारिक लू नहीं लगती।

     

    समता का मधुर मकरंद : सामायिक

     

    आगम की छाँव

    जीविदमरणे.....................सामाइयं णाम।।२३।।

    जीवन-मरण में, लाभ-अलाभ में, संयोग-वियोग में, मित्र-शत्रु में तथा सुख-दुःख इत्यादि में सम (समान) भाव होना ‘सामायिक' नाम का व्रत (आवश्यक) है।

     

    0094.jpgआचार्यश्री का भाव

    • किसी भी प्रकार की चाह नहीं रखना ही सामायिक है।
    • सामायिक व्रत व्रतों में शिरोमणि है, क्योंकि सारे व्रतों में निर्दोषता इसी से आती है। निश्चय स्वाध्याय तप इसी में गर्भित हैं।
    • अन्य व्रतों के साथ हमारा उपयोग बाहर रहता है, लेकिन सामायिक के समय अंतर्मुखी होता है। सामायिक अपनी ओर आने का सौभाग्य है।
    • सामायिक परीक्षा के समान है। जैसे परीक्षा में गड़बड़ी होने से साल भर का अध्ययन कोई मायने नहीं रखता, वैसे ही सामायिक ठीक से नहीं होती, तो व्रत लेने के उपरांत भी आत्म तत्त्व तक पहुँचने का अवसर प्राप्त नहीं हो पाएगा। और आत्म तत्त्व के साक्षात्कार बिना व्रतों की पूर्णता नहीं मानी जाती। सभी व्रत सामायिक में लीन होने से पूर्ण होते हैं।
    • आसमान को छूना आसान है, लेकिन अंतर्मुहूर्त तक मन को स्थिर करना बहुत कठिन है। संसार में बस एक ही कार्य बचा है हम लोगों को करने के लिए, वह है समता/सामायिक केवलज्ञान सामायिक में ही हुआ करता है, भगवान् जैसे बैठना शुरू कर दो।
    • दृढ़ता और निष्ठा के साथ सामायिक करना चाहिए। सामायिक के समय समता रूपी लकड़ी के पाटे पर बैठ जाओ, तब परीषह रूपी करंट का प्रभाव नहीं पड़ेगा। समता रूपी तड़ित चालक लगाने से बिजली रूपी परीषह से आत्मा को क्षति नहीं पहुँचती।
    • श्रावक को आर्त-रौद्र ध्यान से बचने का एक मात्र अवसर सामायिक ही है।
    • श्रमण वही है, जो समता के द्वारा अपना श्रृंगार करता है। सामायिक में कुछ भी करना नहीं पड़ता। जो कर रहे हैं, उन सबको छोड़ना पड़ता है।

     

    सामायिक में

    तन कब हिलता

    इसको देखो।

     

    आचार्यश्री का स्वभाव

    जितना समय बताया, उतना ही करो - दक्षिण भारत में कर्नाटक के आस-पास विशेष रूप से बेलगाम जिले में प्रायः ज्वार की खेती अधिक होती है। वहाँ कुछ लोग पानी पड़ जाने के डर से यदि समय से पूर्व ८-१० दिन पहले ही ज्वार को काट कर छाया में रख लेते हैं, तो घाटे में पड़ जाते हैं। लेकिन जो अनुभवी किसान हैं, वे जानते हैं कि यदि मोती जैसी ज्वार चाहिए हो, तो उसे पूरी तरह पक जाने पर ही काटना चाहिए। इसलिए वे पानी की चिंता नहीं करते और पूरी की पूरी अवधि को पार करके ही ज्वार काटते हैं। जो पूरी की पूरी सीमा तक तपन देकर ज्वार काटता है, उसके ज्वार हुँघरू की तरह आवाज करने वाले और आटे से भरपूर रहते हैं। वे वर्ष भर रखे भी रहें, तो भी उनमें कीड़े आदि नहीं लगते, खराबी नहीं आती। इसी प्रकार पूरी तरह तप का योग पाकर रत्नत्रय में निखार आता है। फिर कैसी भी परिस्थिति आए, रत्नत्रय के धारी मुनि हमेशा अपनी विशुद्धि बढ़ाते रहते हैं। संक्लेश परिणाम नहीं करते। जो आधा घंटे सामायिक करके उठ जाते हैं, वे जल्दी थक जाते हैं और विचलित हो जाते हैं। लेकिन जो प्रतिदिन दो-दो, तीन-तीन घंटे सामायिक और ध्यान में लीन होने का अभ्यास करते हैं, उनकी विशुद्धि हमेशा बढ़ती ही जाती है। इधर-उधर के कामों में उनका मन नहीं भटकता और वे एकाग्र होकर अपने में लगे रहते हैं।

     

    सामायिक बिना भाव सामायिक कहाँ - एक बार आचार्यश्रीजी के पास कुछ ऐसे श्रावक, जिनकी वर्तमान के मुनियों के प्रति कम निष्ठा रहती है, तत्त्वचर्चा कर रहे थे। चर्चा के बीच में ही गुरुदेव की दृष्टि घड़ी पर गई, साढ़े ग्यारह बज गये थे। समय के पाबंद गुरुदेव ने कहा कि हमारा सामायिक का समय हो गया, इतना कहकर वह आवर्त्त (दिशाओं में नमस्कार पूर्वक कार्योत्सर्ग) करने लगे। तब उन श्रावकों में से कारंजा, वाशिम, महाराष्ट्र निवासी माणिकचंद्र चवरे ‘तात्या' ने कहा- “देखो! भाव सामायिक को छोड़ कर द्रव्य सामायिक की बात करने लगे। मात्र रीढ़ सीधी करने से सामायिक नहीं होती।' श्रावक की अज्ञानता भरी बात सुनकर, मन ही मन करुणा से भर गए गुरुदेव। उस समय तो सामायिक करनी थी, सो मौन रहे। मध्याह्न की कक्षा में गुरुजी की अज्ञानहरण करने वाली वाणी खिरी- ‘क्या द्रव्य सामायिक के बिना भाव सामायिक होती है? जब द्रव्य सामायिक करेंगे उस समय क्या भाव सामायिक नहीं होगी? जो यह नहीं समझता, वह सामायिक के स्वरूप को नहीं समझ सकता। जो सामायिक के समय स्वाध्याय करता है, उसने सामायिक को समझा ही नहीं। जब तक मन-वचन-काय को द्रव्य से स्थिर नहीं करते तब तक भाव सामायिक नहीं होती। (मुस्कराकर बोले) ध्यान रखना, यदि रीढ़ सीधी करने से सामायिक नहीं होती, तो भीड़ जोड़ने से भी सामायिक नहीं होती है। स्वाध्याय करते-करते आज तक किसी को शुद्धोपयोग नहीं हुआ, और न ही केवल ज्ञान हुआ है, न हो रहा है और न होगा।'

     

    सामायिक अच्छे से करना चाहिए। जितना काल बताया उतना करना अनिवार्य है। उसे छोड़ना नहीं चाहिए। अन्य व्रतों की अपेक्षा इसे मुख्य बताया है। सारे व्रत इसमें आ जाते हैं। अन्य व्रतों में लगे दोषों का संशोधन सामायिक से हो जाता है। किसी ने प्रश्न किया- ‘आचार्यश्रीजी ! सामायिक में कभीकभी विशुद्धि बढ़ती है, रोज क्यों नहीं?' आचार्यश्रीजी बोले- ‘भगवान् हजारों वर्ष तक दिन में तीन बार सामायिक करते हैं। परन्तु केवलज्ञान एक ही सामायिक में हुआ, अर्थात् जब भगवान् की विशुद्धि एक जैसी नहीं रहती, तो हम क्या...? जिस सामायिक में विशुद्धि बढ़ती है, उसे ध्यान रखना चाहिए।' मन-वचन-काय की स्थिरता ‘द्रव्य सामायिक' एवं आत्मस्थ भाव, ज्ञाता-द्रष्टा भाव ‘भाव सामायिक' कहलाती है।

     

    घड़ी पर दृष्टि, तो सामायिक कैसी - एक बार आचार्यश्रीजी ने पूछा- “आज हमारे पास घड़ी किसने रखी थी?' सभी मौन रहे, एक ब्रह्मचारीजी ने कहा- ‘जी हमने रखी थी, क्योंकि आप बहुत जल्दी (सोकर) उठ जाते हैं।' आचार्यश्रीजी बोले- ‘शरीर को आराम देने के लिये दो-तीन घण्टे पर्याप्त हैं। फिर कौतूहल रूप में ब्रह्मचारीजी से बोले- क्या तुम्हारे यहाँ घड़ी की दुकान है? फिर तो तुम कमण्डलु-पिच्छी के साथ घड़ी भी लेकर चलोगे।' और मंद-मंद मुस्कराने लगे। शिक्षा देने का ढंग भी गुरुजी का अनोखा है। गुरुजी ने उस घड़ी को उल्टा रखा और सामायिक करने बैठ गए। आचार्यश्रीजी कहते हैं- यदि सामायिक में घड़ी पर दृष्टि जा रही, तो सामायिक नहीं हो रही। काल का तो पता ही नहीं चलना चाहिए। श्वासोच्छ्वास को घड़ी बनाकर सामायिक करें, घड़ी सामने रखकर नहीं।

     

    भक्ति की अभिव्यक्ति : स्तव

     

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    आगम की छाँव

    उसहादिजिणवराणं...........................थवो णेओ॥२४॥

    ऋषभ आदि तीर्थंकरों के नाम का कथन और गुणों का कीर्तन करके तथा उनकी पूजा करके उनको मन-वचन-काय पूर्वक नमस्कार करना ‘स्तव' नाम का आवश्यक जानना चाहिये।

     

    आचार्यश्री का भाव

    • भगवान् बनने की एक युक्ति है- भगवान् के गुणों के प्रति अनुराग रखो, भक्ति करो। भगवान् को देखते रहने से भी स्तुति होती है, भक्ति होती है। वह भाव-विभोर हो जाता है, और भगवान् के सामने कुछ बोल ही नहीं पाता।
    • अर्हत भगवान् की जय-जयकार करने से असंख्यातगुणी कर्मों की निर्जरा होती है। जैसे दो पृष्ठों के बीच गोंद लगाने पर दोनों पृष्ठ एक हो जाते हैं, ठीक उसी प्रकार भक्त और भगवान् के बीच भक्ति रूपी गोंद लगाने से दोनों एकमेक हो जाते हैं। भक्ति करने से चित्त को शांति मिलेगी, अहंकार घटेगा एवं नर पर्याय सार्थक होगी।
    • स्तुत्य प्रत्यक्ष हो या न हो, स्तुति करने वाला तो उनके गुणों का स्मरण कर पवित्र हो जाता है।
    • ‘हे भगवन्! आप तो सुन नहीं रहे।' यह भी एक प्रकार का स्तव है। सम्मेदशिखरजी में चन्द्रप्रभ भगवान् की टोंक पर बैठी एक वृद्धा जब कहती है- “हे भगवान् तुम कहाँ आकर बैठे हो ? हम तो यहाँ पर आते हुए थक गए हैं। धन्य हैं प्रभो! हमारा भी कल्याण करो।' यह भी स्तव ही है।
    • जिस प्रकार सीप के योग से तुच्छ जल कण भी महान् मुक्ताफल बन जाते हैं, ठीक उसी प्रकार भगवान् के प्रति किया गया अल्प स्तवन भी महत् फल प्रदान करता है।
    • भगवान् से मुनि बनने की भावना करना। हमारे कर्मों का नाश हो कहना। भक्ति में भगवान् के प्रति जो कर्तव्य की बात की जाती है वह सब अनुभय वचन है।
    • आपकी कृपा से मेरा सब काम हो गया। आपकी वजह से मेरे लिये सब कारण बन सकते हैं।
    • एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ नहीं करता, ऐसा कहकर लोग उपादान की योग्यता को कम कर रहे हैं। अगर निमित्त को उपादान का कारण नहीं मानते, तो जिनवाणी और वाणी दोनों ही जड़ हैं। फिर ये हमारे उपादान के कारण कैसे हो सकती हैं? जबकि ये हमारे उपादान के लिए कारण हैं।
    • भगवान् , भक्ति और भक्त का तालमेल गायन, वाद्य और नृत्य जैसा ही है।
    • भगवान् की भक्ति में द्रव्य, गुण व पर्याय को लेकर के स्वाध्याय हो जाता है। धीरे-धीरे ‘स्वयंभू-स्तोत्र' करेंगे, तो एक घंटा लगेगा। न्याय, योगी भक्ति, चारित्र भक्ति, सिद्ध भक्ति, अध्यात्म, अर्हद् भक्ति, तप आदि सभी ‘स्वयंभू-स्तोत्र' में आ जाता है। स्वाध्याय भी हो जाता है।

     

    आगे बनूंगा

    अभी प्रभुपदों में

    बैठ तो लूं।

     

    आचार्यश्री का स्वभाव

    स्तव, आनंद का स्रोत - जब ‘स्तव' नामक द्वितीय आवश्यक का प्रसंग सामने आता है, तब ‘स्वयंभू-स्तोत्र' (आचार्य श्री समंतभद्र स्वामीजी द्वारा रचित १४३ श्लोक प्रमाण २४ तीर्थंकरों की स्तुति स्तोत्र) का पाठ करते हुए आचार्यश्रीजी का बिम्ब आँखों के सामने उपस्थित हो जाता है। वह प्रतिदिन, दिन में तीन बार प्रातः, मध्याह्न और सायं तीनों कालों की सामायिक के पहले अथवा बाद में इस स्तोत्र का पाठ बड़ी ही तन्मयता के साथ अड़तालीस मिनट या एक घण्टे में पूर्ण करते हैं। सामायिक के आसन को हिलाए बिना दोनों हाथ जोड़ कर, गुनगुनाते हुए करते हैं। जब उन्हें पाठ करते हुए देखो तो ऐसा लगता है मानो वह शब्द-शब्द पी रहे हों, उसके साथ आत्मसात् हो, जी रहे हों, उनके चेहरे से आनंद का स्रोत बह रहा हो।

     

    चौबीस भगवंतों की स्तुतिगान करने वाले छोटे-छोटे अन्य स्तोत्र भी हैं, पर आचार्यश्रीजी का सन् २००५, बीना बारहा (सागर, मध्यप्रदेश) से बृहद् स्वयंभू-स्तोत्र का पाठ तीनों संध्याओं में अनवरत जारी है। और हर बार उन्हें नई ऊर्जा, नए उत्साह, नए भावों के साथ पाठ करते हुए, उस ही रूप में डूबे हुए देखा जाता है। ऐसी तन्मयता अत्यंत दुर्लभ है।

     

    निज दर्शन की परिचायिका : वंदना

     

    आगम की छाँव

     

    अरहंतसिद्ध.........................संकोचणं पणमो।।२५।।

    अहँत, सिद्ध और उनकी प्रतिमा, तप में श्रुत या गुणों में बड़े गुरु का और स्व-गुरु का कृतिकर्म पूर्वक अथवा बिना कृतिकर्म (सिद्ध, श्रुत एवं आचार्य भक्ति पूर्वक) के मन-वचन-काय पूर्वक प्रणाम करना ‘वंदना' है।

     

    एयरस्य तित्थयरस्यणमंसणं वंदणाणाम...।

    एक तीर्थंकर को नमस्कार करना वंदना है।

     

    वन्दना त्रिशुद्धिः द्वयासना चतुःशिरोऽवनतिः द्वादशावर्तना...।

    मन-वचन-काय की शुद्धि पूर्वक कायोत्सर्ग मुद्रा या पद्मासन से चार बार शिरोनति और बारह आवर्तपूर्वक वंदना होती है।

     

    आचार्यश्री का भाव

    • जिन दर्शन के प्रति हमेशा विशुद्धि बनी रहनी चाहिए। प्रभु के चरणों में जो विशुद्धि प्राप्त होती है, वह अन्यत्र कहीं भी प्राप्त नहीं हो सकती। प्रभु की भक्ति से उनके पादमूल में मोहनीय कर्म का क्षय हो जाता है, क्षायिक सम्यग्दर्शन भी प्राप्त हो जाता है।
    • जब कभी भी वंदना करें, स्तुति करें, पाठ करें, उस समय मन-वचन-काय की चेष्टा शुद्ध रखें, एक-एक शब्द का उच्चारण हो, प्रत्येक शब्द के अर्थ की ओर दृष्टि जाए। प्रवृत्ति भले ही हो, लेकिन वह मनोयोग के साथ ही हो।
    • अज्ञान रूपी अंधकार को नष्ट करने के लिए भक्ति रूपी दीपक का सहारा लेना चाहिए।
    • स्तुति, वंदना मोक्ष की जननी/माँ के समान है। यदि कुछ विशिष्ट तप करना चाहते हो तो संहनन का योग न मिलने पर, नहीं कर सकते। इसीलिए मन लगाने के लिए प्रभु भक्ति रूप स्तुति में मन लगाओ।
    • आज शुद्धोपयोग के लिये कम समय मिलता है तो पंच परमेष्ठी की आराधना करो। उसमें लगे रहो। यह पंच परमेष्ठी की वंदना ही हमें मुक्ति रूपी उपवन के लिये समीचीन वृष्टिवत् है।
    • वंदना आदि आवश्यक अपना कर्तव्य समझ कर उत्साह के साथ सहज भाव से करना चाहिए। वंदना करते समय डरना नहीं चाहिए।
    • स्तुति का लक्ष्य वैराग्य की ओर होता है। वंदना करते हैं और गुणों की ओर दृष्टि गई नहीं तो हम वंदना कह ही नहीं सकते। केवल काया की थोड़े ही हम वंदना कर रहे हैं। यदि दिगम्बरत्व को देखते हैं तो वहाँ पर गुण आता है और यदि दिगम्बरत्व नहीं है तो ना चारित्र आएगा, ना सर्वज्ञत्व आएगा, क्षुधा-तृषा आदि अठारह दोष हैं ना इनसे रिक्तता आएगी और इस प्रकार वह सर्वज्ञ है ऐसी मान्यता भी समाप्त होगी। ये एक मात्र symbol यथाजात रूप देखते हैं सारेसारे गुण उभर कर के आते हैं।
    • पंच परमेष्ठी की भक्ति एवं ध्यान से विशुद्धि बढ़ेगी, संक्लेश घटेगा एवं वात्सल्य बढ़ेगा।
    • भगवद् भक्त बीहड़ घनघोर जंगल में भी रास्ता पा लेता है और भगवान् को भूल जाने वाला साफ़-सुथरे रास्ते पर भी भटक जाता है।

     

    देख सामने

    प्रभु के दर्शन हैं।

    भूत को भूल।

     

    आचार्यश्री का स्वभाव

    प्रभुदर्श पा हर्ष से झूम उठते - बीना बारहा (सागर, मध्यप्रदेश), २०१५ में चातुर्मास का प्रसंग है। आचार्य भगवन् का स्वास्थ्य अनुकूल नहीं था। वे अत्यंत कमजोर हो गए थे। पर जैसे ही वंदना आवश्यक का समय हुआ। वह अपने कमरे से बाहर दहलान तक चलकर आए। उस समय की अस्वस्थता वाली मुखमुद्रा सामने बने मानस्तंभ में विराजित अहँत प्रभु का दर्श पाकर परिवर्तित हो गई। पिच्छी हाथों में झूल गई। चेहरे की वीतरागता सहस्र गुणित हो गई। अस्वस्थता का भाव चेहरे से पलायित हो गया। उन्होंने प्रफुल्लित हावभाव से विधि पूर्वक अर्हत प्रभु की वंदना की। उस समय का दृश्य ऐसा लग रहा था मानो जैसे गौतम स्वामीजी महावीर स्वामीजी को साक्षात् पाकर हर्षित हो रहे हों।

     

    ऐसा माँगो, दोबारा न माँगना पड़े - ०३ अक्टूबर, २००५ को अतिशय क्षेत्र बीना बारहा (सागर, मध्यप्रदेश) में एक श्रावक ने आचार्यश्रीजी से पूछा- ‘गुरुदेव! सभी लोग प्रभु के सामने कुछ न कुछ याचना करते हैं, उनसे कुछ माँगना चाहिए या नहीं ?' आचार्यश्रीजी बोले- ‘भगवान् के सामने ऐसी माँग करें ताकि दोबारा न माँगना पड़े।'वन्दे तद्गुण लब्धये'- हे प्रभु! आपको नमस्कार कर रहा हूँ मात्र आपके गुणों की प्राप्ति के लिए। प्रभु के पास रत्नत्रय रूप ऐसी निधियाँ हैं कि अनादिकाल की निर्धनता समाप्त हो जाती है। और आत्मवैभव उपलब्ध हो जाता है।

     

    anivarchniya-vyaktitv-part-3-002.jpgव्रत शोधक यंत्र : प्रतिक्रमण

    आगम की छाँव

     

    अतीतदोषनिवर्तनं प्रतिक्रमणम्।

    अतीत में किए गए दोषों की निवृत्ति प्रतिक्रमण है।

     

    प्रतिक्रम्यते प्रमादकृतदैवसिकादिदोषो निराक्रियते अनेनेति प्रतिक्रमणं....

    प्रमाद के द्वारा किए (लगे हुए) दोषों का जिसके द्वारा निराकरण किया जाता है, उसको प्रतिक्रमण कहते हैं।

     

    मिथ्यादुष्कृताभिधानादभिव्यक्तप्रतिक्रियं प्रतिक्रमणम्....

    ‘मेरा दोष मिथ्या हो'- गुरु से ऐसा निवेदन करके अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करना प्रतिक्रमण है। प्रतिक्रमण सात प्रकार के होते हैं-

    १. दैवसिक-दिन में लगे दोषों का।

    २. रात्रिक-रात्रि में लगे दोषों का।

    ३. ईर्यापथ-गमन-आगमन में चलने पर लगे दोषों का

    ४. पाक्षिक-पक्ष (१५ दिन) में लगे दोषों का।

    ५. चातुर्मासिक-चातुर्मास में लगे दोषों का।

    ६. सांवत्सरिक-वर्ष भर में लगे दोषों का।

    ७. औत्तमार्थिक-जीवन भर में लगे दोषों की आलोचना करना औत्तमार्थिक प्रतिक्रमण कहलाता है। इसे क्षपक यानी समाधि ग्रहण करने वाला जीव करता है।

     

    आचार्यश्री का भाव

    • प्रतिक्रमण प्रतिदिन की दीक्षा है।
    • अध्यात्म तक पहुँचने के लिए प्रतिक्रमण अनिवार्य होता है। जैसे कड़वी दातौन से मुख शुद्धि कर लेने पर मिठाई का स्वाद अच्छा लगता है। उसी प्रकार शुद्धात्मानुभूति रूपी मिठाई का स्वाद (अनुभव) लेने से पहले प्रतिक्रमण द्वारा उसकी भूमिका बना ली जाती है।
    • प्रसन्नचित्त होने के लिए प्रतिक्रमण रामबाण के समान अचूक दवाई है।
    • प्रतिक्रमण जीवन पर्यंत करते रहना चाहिए। अतिक्रमण होता है तो प्रतिक्रमण करना भी आवश्यक है।
    • हमें आत्मोन्मुखी होकर प्रतिक्रमण करना चाहिये।
    • मोक्षमार्ग में प्रतिक्रमण करने वाला व्यक्ति पर की निंदा-गर्दा न कर, अपनी ही (आलोचना) निंदा गर्दा करता है।
    • केवल प्रतिक्रमण का पाठ नहीं, भाव-भाषा सहित पाठ होना चाहिए, वही मूलगुण है।
    • समुद्र के जल की भाँति परिणामों में भी हमेशा-हमेशा आरोहण-अवरोहण होता रहता है। प्रतिक्रमण एक ऐसा आवश्यक है, जिसके द्वारा सारे के सारे दोष प्रलय को प्राप्त हो जाते हैं।
    • प्रतिक्रमण सामायिक की भाँति दिन में तीन बार, तीनों योगों सहित होना चाहिये। आचार्य श्री ज्ञानसागरजी कहते थे-जो ईर्यापथ प्रतिक्रमण है वह आहार, विहार व निहार आदि में जो जल्दी-जल्दी चलते हैं, रात में या दिन में आना-जाना, प्रवृत्ति आदि जो भी होती है, वंदना आदि करके आए हैं, उस संबंधी दोषों के निवारण के लिये ईर्यापथ की शुद्धि की जाती है। मात्र आहार संबंधी दोष के लिए नहीं। असंयमी के यहाँ जाकर जो भोजन करते हैं वह भोजन करना भी असंयमवत् कहा है।
    • जिस प्रकार घर, आंगन को प्रतिदिन साफ़ कर रंगोली डालते हैं, उसी प्रकार प्रतिक्रमण द्वारा अपनी आत्मा को साफ़ कर उत्तम भावों की रंगोली डालें। जो भी दुराग्रही परिणाम आवे, तो उन्हें फटकार लगा देवें।
    • प्रतिक्रमण करने वाला स्वाध्याय ही कर रहा है। आचार्य कुंदकुंद देव कहते हैं स्वाध्याय करने वाला अभिमान भी कर सकता है, पर प्रतिक्रमण करने वाला किए गए अभिमान पर पश्चात्ताप कर रहा है।
    • प्रतिक्रमण का लाभ- इससे अतीत भी, अनागत भी एवं वर्तमान भी सुधर जाता है।
    • प्रत्येक संसारी प्राणी अपने दोषों को मंजूर नहीं करता और न ही उन दोषों का निवारण करने का प्रयास करता है। वह तो प्रायः दूसरे को दंड देना चाहता है, पर अपने आप दंडित होना नहीं चाहता। किन्तु मोक्षमार्ग का पथिक वही है, जो इस संसार में अपने दोषों को छोड़ने के लिए हर क्षण तैयार रहता है। मुनिराज संसारी प्राणी होते हुए भी दूसरे को दण्ड देना नहीं चाहते, बल्कि खुद प्रत्येक प्राणी के प्रति चाहे वह सुने या न सुने, प्रतिक्रमण के माध्यम से अपनी पुकार पहुँचा देते हैं। कल चतुर्दशी का दिन था, ऐसा कहें कि कल ‘पनिशमेंट डे' था, दंड लेने का दिन था यानी पाक्षिक प्रतिक्रमण का दिवस था।

     

    आलोचन से

    लोचन खुलते हैं।

    सो स्वागत है।

     

    आचार्यश्री का स्वभाव

    आचार्यश्रीजी के प्रत्येक आवश्यक का समय निश्चित है। प्रतिक्रमण में उनके दोनों हाथ प्रायः पूरे समय जुड़े रहते हैं एवं मुख मुद्रा से आनंद का स्रोत बहता रहता है। पाक्षिक (१५ दिन/एक पक्ष) प्रतिक्रमण में कभी-कभी तो उन्हें ढाई से पौने तीन घंटे तक लगते हैं। वे पुस्तक (में देखकर) को सामने रखकर ही प्रतिक्रमण करते हैं। उनका कहना है प्रतिक्रमण-पाठ आदि पुस्तक से करने पर मन भटक नहीं पाता और उसके एक-एक शब्द का अर्थ स्पष्ट होता जाता है। कंठस्थ विषय का प्रतिदिन पाठ करने से पाठ चलता रहता और मन यहाँ-वहाँ चहलकदमी करता रहता है। इसीलिए पहले पाठ को कंठस्थ करो ताकि स्वाश्रित चर्या हो सके। और जब अनुकूलता रहे पुस्तक को देखकर पाठ करो।

     

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    जो आवश्यक वही करते - सन् २००४, तिलवाराघाट, दयोदय, जबलपुर (मध्यप्रदेश) में आचार्य ससंघ विराजमान था। प्रातः सूचना आई कि मध्यप्रदेश शासन की मुख्यमंत्री माननीया उमा भारतीजी गुरु दर्शनार्थ प्रातः साढ़े सात बजे पधार रही हैं। गुरुवर ने सूचना सुन ली। उस दिन चतुर्दशी थी। पाक्षिक प्रतिक्रमण करने का दिन था। सो गुरुजी तो प्रातः सात बजे प्रतिक्रमण करने बैठ गए। मुख्यमंत्री सुश्री उमाभारतीजी अन्य नेताओं के साथ आईं, पर गुरुजी की न तो नज़र उठी और न ही आशीर्वाद हेतु हाथ ही उठा। वह तो अपने प्रतिक्रमण आवश्यक में तल्लीन रहे। वह एक घण्टे तक इंतजार करती रहीं और चली गईं। पर गुरुवर की कोई भी हलचल नहीं हुई। अपने आवश्यकों के प्रति इतनी निष्ठा अकथनीय ही है।

     

    अपूर्व शांति का कोश : प्रत्याख्यान

     

    आगम की छाँव 

    आगामी काल में दोष न करने की प्रतिज्ञा करना प्रत्याख्यान है अथवा सीमित काल के लिए आहार आदि का त्याग करना प्रत्याख्यान है।'

     

    अयोग्यानां......................षडविधः।।१०९८-११००।।

    जो पदार्थ अपने योग्य हैं अथवा अयोग्य हैं उन पदार्थों का नियमपूर्वक तपश्चरण के लिए त्याग कर देना प्रत्याख्यान है अथवा कर्मों का संवर करने के लिए नाम आदिक छह निक्षेपों के द्वारा आगत अथवा अनागत पदार्थों का त्याग करना भगवान् जिनेन्द्रदेव ने ‘प्रत्याख्यान' कहा है। प्रत्याख्यान के छह भेद हैं- नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के रूप में छह प्रकार का माना जाता है।

     

    आचार्यश्री का भाव

    प्रत्याख्यान के माध्यम से मन को संयमित बनाया जा सकता है। मन को संयमित बनाने के लिए प्रत्याख्यान अमोघ शस्त्र के समान है। हमें पहले अच्छी, पक्की धारणा बना लेना चाहिए और बाद में फिर प्रत्याख्यान लेना चाहिए। प्रत्याख्यान लेने के बाद कमजोर व्यक्ति के पास नहीं जाना चाहिए। प्रत्याख्यान भंग होने से मूलगुण-उत्तरगुण आदि सबका भंग हो जाता है तथा मूल और उत्तरगुण भंग होने से नरक का कारण ऐसा महापाप उत्पन्न होता है, उस महापाप से वचनातीत दुःख होता है। 

    भोजन का प्रत्याख्यान होता है। जितना आवश्यक था, उतना करके आ गए। अब फिर उसकी कथा भी नहीं करेंगे। आज किसका मुख देखा था, कैसा कर्म का उदय है, उनके यहाँ जाते हैं, तो ऐसा ही होता है, आदि-आदि बातें हो सकती हैं, ऐसी घटनाएँ हो सकती हैं, होती रहती हैं, इसलिए उस संबंधी कथा का भी त्याग बताया है।

    प्रत्याख्यान न सिर्फ आहार का बल्कि योग्य पदार्थों का भी होता है। प्रत्याख्यान (त्याग) उचित एवं अनुचित का भी होता है। आज मैं इस दिशा में जाऊँगा, यहाँ तक जाऊँगा आदि रूप संकल्प करना भी प्रत्याख्यान है। बोलने का त्याग, बोलने रूप प्रत्याख्यान है। जैसे हमें रात्रि में बोलने का त्याग करना है। इतना मात्र ठीक नहीं, दिन में भी बोलने का त्याग होना चाहिए, जैसे आज मैं एक घंटा ही बोलूंगा, इतने समय मौन रखेंगा, ये उचित प्रत्याख्यान है। इसमें सत्य एवं झूठ सबका त्याग हो जाता है। जिस प्रकार एस.टी.डी. से फोन करते हैं, उसमें कम शब्द बोलकर अपना सारा काम चला लेते हैं, वैसे ही मुनि महाराज भी अपने काम बिना बोले कर सकते हैं, लेकिन हम बोलने में लगे रहते हैं। सामायिक के समय सत् का भी प्रत्याख्यान होता है। इस समय हम पिच्छी, कमण्डलु एवं शास्त्रादि नहीं उठाएँगे, यह सत् का प्रत्याख्यान हो गया। इस प्रकार योग्य एवं अयोग्य किसी भी पदार्थ का त्याग करना प्रत्याख्यान है।

     

    भोग-भोग के

    पेट पे हाथ नहीं

    पीठ फेरना।

     

    आचार्यश्री का स्वभाव

    छोड़ा तो छोड़ा - आचार्य भगवन् के प्रसंगों को ज्यों-ज्यों जान रहे हैं, त्यों-त्यों आश्चर्य बढ़ता ही जा रहा है। लगता, अहो! ऐसा भी है। प्रत्याख्यान(त्याग) का ही प्रसंग लें । वह बिना बताए ही त्याग करते । पूछने पर मौन रहते। कब तक के लिए त्याग किया, कब से त्याग किया, सब अज्ञात रहता। एक बार जिस वस्तु का त्याग किया, प्रायः उसका ग्रहण करते हुए नहीं देखा गया। सवारी, नमक, मीठा, सूखे मेवा, तेल, दूध, चटाई आदि अन्य और भी बहुत कुछ। यहाँ तक कि पहली बार में जो घर छोड़ा, तो छोड़ा। फरवरी, २०१६ कोनीजी (पाटन, जबलपुर, मध्यप्रदेश) से दूध लेना बंद किया। संघ ने अनुमान लगाया, संभवतः शारीरिक दृष्टि से नहीं ले रहे होंगे। कुछ दिन बाद देने का बार-बार प्रयास किया गया, पर आज तक उनके द्वारा दूध का ग्रहण नहीं किया गया।

     

    प्रत्याख्यान का कार्यक्रम, ईर्यापथ भक्ति - आहार चर्या के बाद संघस्थ सभी साधुगण आचार्यश्रीजी के चरणों में आहार का प्रत्याख्यान करते हैं। जिसे ईर्यापथ भक्ति कहा जाता है। इस समय आचार्यश्रीजी कुछ विशेष प्रसन्न नजर आते हैं। वैसे भी गुरुवर की प्रसन्नता जगजाहिर है। एक दिन एक मुनि महाराज ने गुरुवर से पूछ ही लिया - आप इस समय विशेष प्रसन्न दिखाई देते हैं ?' आचार्यश्रीजी बोले-'२४ घंटे में यह कार्यक्रम, जो त्याग का है, एक बार ही आता है। प्रसन्नतापूर्वक करना चाहिए।' * प्रत्येक आवश्यकों के प्रति उनका उत्साह अकथ्य है।

     

    हरी नहीं, हरि का नाम लेता हूँ - सन् १९९३, रामटेक, नागपुर, महाराष्ट्र वर्षायोग के दौरान दशलक्षण पर्व में आचार्यश्रीजी ने हरी सब्जी एवं फलों का त्याग कर दिया। दशलक्षण पर्व पूर्ण होने पर भी जब उन्होंने हरी लेना आरंभ नहीं किया, तब एक दिन ईर्यापथ भक्ति के बाद मुनि श्री प्रमाणसागरजी ने आचार्यश्रीजी से निवेदन किया- ‘आचार्यश्रीजी ! दशलक्षण तो पूर्ण हो गये और आप अभी भी हरी नहीं ले रहे हैं?' आचार्यश्रीजी बोले- ‘जो छोड़ दिया, फिर उसको क्या लेना।'

     

    इतनी अल्पवय में हरी छोड़ने का विकल्प सभी संघ को हुआ। एक बार किन्हीं आर्यिकाओं ने गुरुदेव से कहा कि आपने इतनी जल्दी सभी प्रकार की हरी का त्याग क्यों कर दिया? आचार्यश्रीजी बोले-‘हरी का त्याग किया, पर हरि (भगवान्) का नाम तो लेता हूँ।

     

    anivarchniya-vyaktitv-part-3-007.jpgमिठास मीठा में नहीं, दीक्षा में है। - आचार्यश्रीजी सवारी, नमक एवं मीठा के त्याग पूर्वक अपने गुरु के चरणों में समर्पित हुए थे। वैराग्य उम्र की प्रतीक्षा नहीं करता और वैराग्य का फल त्याग है। विद्याधर के जीवन में वैराग्य के कुछ फल तो गुरुचरणों तक आते-आते विकसित हो गए थे।आचार्य श्री ज्ञानसागरजी ने विद्याधर रूपी उपजाऊ भूमि में समुचित खाद-पानी देकर मुनि दीक्षा पूर्व खड़े होकर आहार करते हुए दिक्षार्थी विद्याधर गुणरूपी असंख्य फल और विकसित करा दिए। उन गुणरूपी फलों की सुंदर-सुंदर कलियाँ बनाकर जिन-शासन के आँगन में ऐसे सुसज्जित कर दिया, जिनसे आकर्षित हुआ श्रावक भ्रमर के समान उनके इर्द-गिर्द मँडराता रहता है।

     

    २९ जून, १९६८ अजमेर, राजस्थान में विद्याधरजी की मुनि दीक्षा के एक दिन पूर्व की बेला थी। ब्रह्मचारी अवस्था का अंतिम आहार उनके धर्म के माता-पिता श्रीमती जतनकुंवरजी एवं हुकुमचंदजी लुहाड़िया को प्राप्त हुआ। वे नया बाजार स्थित अपने निवास स्थान पर दीक्षार्थी ब्रह्मचारीजी को आहार कराने ले गए। परिवार के सभी सदस्य उनका मुख मीठा कराना चाह रहे थे। पर दीक्षार्थी ब्रह्मचारीजी मंद-मंद मुस्कराते हुए उन्हें मना करते जा रहे थे। तब हुकुमचंदजी लुहाड़िया ने दीक्षार्थी विद्याधरजी से कहा- ‘भैयाजी! कल आपकी दीक्षा हो जाएगी, आज तो मेरी बात मान लो। इतना बड़ा दीक्षा का महोत्सव हो रहा है और जीवन में आमूलचूल परिवर्तन होने जा रहा है। इस खुशी में मीठा मुँह तो करना ही पड़ेगा। आप रस तो लेते नहीं, किंतु आप थोड़ा-सा मीठा ले लेंगे तो हम लोगों को आनंद रस आ जाएगा।' यह सुनकर दीक्षार्थी विद्याधरजी को जोर से हँसी आ गई, पर उन्होंने मीठा नहीं लिया।

     

    आहार के बाद ब्रह्मचारी विद्याधरजी बोले- ‘जिस चीज़ को छोड़ दिया, उसे पुनः ग्रहण क्या करना।' उनकी दृढ़ता को देखकर देखने वालों की भीड़ ने जयकारा लगाया। धन्य है आचार्यश्रीजी को, जिन्हें क्षणिक मिठास देने वाले पकवानों से रस-पान की चाह नहीं रही, उन्हें तो शाश्वत मिठास मोक्षफल को प्रदान करने में समर्थ दैगम्बरी दीक्षा का रसास्वाद लेने की चाह रही। वे समझ गए थे, मिठास मीठा में नहीं, दीक्षा में है।

     

    • लगभग ५-६ अक्टूबर, सन् १९६७, किशनगढ़, अजमेर, राजस्थान से ब्रह्मचारी अवस्था में नमक एवं मीठा का त्याग। सन् १९६७, किशनगढ़, राजस्थान से ब्रह्मचारी अवस्था में सवारी का त्याग।
    • सन् १९७६ से फलों का त्याग। सन् १९८३, ईसरी, बिहार से थूकने एवं खारक (छुहारा) के अलावा शेष सूखे मेवा का त्याग।
    • सन् १९८५, सिद्धक्षेत्र अहारजी, टीकमगढ़, मध्यप्रदेश से चटाई का त्याग।
    • सन् १९९१ , मुक्तागिरिजी, बैतूल, मध्यप्रदेश, से विधि मिलने पर एक ही चौके में पड़गहने का नियम।
    • सन् १९९३, रामटेक, नागपुर, महाराष्ट्र से हरी सब्जियों का त्याग।
    • आचार्यश्रीजी ने आचार्यपद ग्रहण के बाद मार्गशीर्ष कृष्ण द्वितीया से फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा तक आहार में मात्र गेहूँ, दूध, पानी ही ग्रहण किया।
    • सन् २०१६, कोनीजी, पाटन, जबलपुर, मध्यप्रदेश से दूध का त्याग।

     

    आत्म-मिलन का अवसर : कायोत्सर्ग

     

    आगम की छाँव

    त्यक्त्वाङ्गादि.............................कारकः ।।११५२-११५३।।

    रात्रि में वा अन्य किसी समय में अपने शरीर से ममत्व का त्यागकर तथा दोनों प्रकार के परिग्रहों का त्यागकर, खड़े होकर, दोनों भुजाएँ लम्बी लटकाकर पाँचों परमेष्ठियों के गुणों का चिंतन करना ‘कायोत्सर्ग' कहलाता है। यह कायोत्सर्ग अनंतवीर्य (अनंत शक्ति) को उत्पन्न करने वाला है।

     

    आचार्यश्री का भाव

    काय (शरीर) का उत्सर्ग अर्थात् काय के प्रति ममत्व का त्याग । जैसे गृहस्थ कोट पहनते हैं, और घर जाकर उसे उतारकर बूंटी पर टाँग देते हैं। यह कोट का उत्सर्ग(त्याग) हो गया। इसी प्रकार साधक काय के प्रति ममत्व(अपनेपन का भाव) का त्याग कर देता है।

    कायोत्सर्ग में प्रवृत्ति का पूर्ण त्याग कर दिया जाता है। वह एक मूलगुण है।

    ध्यान तो अंतर्मुहूर्त का होता है, पर कायोत्सर्ग तो बारह भावना आदि का चिंतन करते-करते घंटों तक चल सकता है। शरीर के प्रति निरीहता होना साधु की सबसे बड़ी निरीहता मानी जाती है। तभी उपसर्गों को जीता जा सकता है। दंशमशक आदि का प्रतिकार किए बिना कायोत्सर्ग करना चाहिए।

    कायोत्सर्ग करने से पूर्व स्थान आदि देख लें। बाद में प्रतिकार के भाव नहीं करें। प्रतिकार करना भी अपने आप में हिंसा है। सूक्ष्म हिंसा है। यदि परीषह विजय नहीं कर पा रहे तो कम से कम उसके भाव तो करना चाहिए। आज यदि हम कमज़ोर हो गए तो आगे-आगे कमज़ोर होते जाएँगे। इसीलिए हमें परीषह जय करना चाहिए और अभ्यास बनाए रखना चाहिए। हमें टिक करके नहीं बैठना चाहिए। दीवार से टिकने से गुरुत्वाकर्षण और अधिक बढ़ता है। इस प्रकार करते हैं तो कायोत्सर्ग आदि अच्छा लगता है।

    करोड़ों विघ्नों के जाल एक क्षण के कायोत्सर्ग से नष्ट हो जाते हैं।

    कायोत्सर्ग करने से संघातन क्रिया (विशेष वर्गणाएँ आना) होती है, जिससे शरीर स्वस्थ बना रहता है। जिस प्रकार आहार करते समय पैरों में दर्द का अहसास नहीं होता है, वैसे ही कायोत्सर्ग करते समय भी पैरों में दर्द का अहसास नहीं होना चाहिए।

    कायोत्सर्ग करते समय इधर-उधर नहीं देखना चाहिए, सौम्य मुद्रा होनी चाहिए। कायोत्सर्ग करते समय जीभ नहीं हिलना चाहिए। एक दूसरे से चिपक करके कायोत्सर्ग करना ठीक नहीं है।

    निश्चितता में

    भोगी सो जाता वहीं

    योगी खो जाता।

     

    anivarchniya-vyaktitv-part-3-010.jpgआचार्यश्री का स्वभाव

    मुद्रा सौम्य हो - सन् २००२, बंडा बेलई, (सागर, मध्यप्रदेश) पंचकल्याणक के समय आहार के बाद ईर्यापथ-भक्ति चल रही थी। एक मुनि महाराज आचार्यश्रीजी को देखकर कायोत्सर्ग कर रहे थे। भक्ति पूर्ण होने पर आचार्यश्रीजी बोले-“देखो! कायोत्सर्ग सौम्य मुद्रा में, आँख बंद करके करना चाहिए।' महाराजजी ने निवदेन किया-‘आचार्यश्रीजी! आपको देखकर तो कर सकते हैं?' आचार्यश्रीजी की हँसी फूट पड़ी, बोले-‘मुझे बाद में देखना, पहले जैसा मैं कह रहा हूँ वैसा करो।' तब उन महाराजजी ने प्रसन्न होकर, सौम्य मुद्रा में आँख बंद करके फिर से कायोत्सर्ग किया।

     

    अहो! कायोत्सर्ग मुद्रा, जिनमुद्रा - सन् २००१, अतिशय क्षेत्र बहोरीबंद, जबलपुर, मध्यप्रदेश में आचार्यश्री का ग्रीष्मकालीन प्रवास था । उस समय वहाँ पर एक मंज़िला इमारत में बहुत पुराने, छोटे-छोटे कुल आठ-दस कमरे ही बने थे। उन कमरों के आगे-पीछे एवं ऊपर पूरा खुला मैदान था। इस कारण मई-जून माह का सूर्य चारों तरफ से अपनी तपन उन कमरों पर लुटा रहा था। और इस पर भी एक-एक कमरे में चार-चार साधु ठहरे थे, सो आपस की गर्मी भी हो रही थी। गर्मी की इस भीषणता में बड़े-बड़े ग्रंथों के स्वाध्याय की अनुकूलता नहीं बन पा रही थी। अतः ज्येष्ठ मुनि श्री योगसागरजी के कहने पर सभी साधुओं ने आपस में ही आचार्यश्रीजी कृत 'मूकमाटी' महाकाव्य का स्वाध्याय इस वाचना काल में किया था।

     

    प्रतिकूलता में भी अनुकूलता की अनुभूति करने में समर्थ आचार्य भगवन् ने इस ग्रीष्मकाल में दोपहर की सामायिक के समय कायोत्सर्ग की मुद्रा में निष्कंप खड़े होकर ढाई-ढाई घंटों की सामायिक करना शुरू कर दी थी। जहाँ मुख पर पसीने की एक बूंद बह जाए तो घबराहट हो जाती है, वहीं गुरुदेव के शरीर से पसीना ऐसा बहता था कि आस-पास की भूमि गीली हो जाती थी। फिर भी वह अडिग, अटल, एकदम निश्चेष्ट खड़े रहते थे।

     

    संघस्थ मुनि श्री पूज्यसागरजी ने विचार किया कि आचार्यश्रीजी अपने कक्ष में अकेले हैं, अतः आपस की गर्मी भी नहीं लगेगी और गुरुचरणों में प्रमाद भी नहीं आएगा। ऐसा विचार कर वह आचार्यश्रीजी के कक्ष में पहुँचे तो देखा की गुरुदेव तो कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े सामायिक में लीन हैं। उन्होंने भी खड़े होकर सामायिक करने का मन बनाया और स्वयं भी खड़े हो गए। पर वह दस-पंद्रह दिन ही यह साधना कर पाए, किन्तु गुरुदेव की यह साधना पूरे ग्रीष्मकाल अनवरत चलती रही। अथक, अरु क।

     

    धन्य है गुरुदेव को, जहाँ वे दोपहर की सामायिक प्रायः बैठकर एक घंटे की ही करते थे, क्योंकि दिन में सूर्य प्रकाश होने से स्वाध्याय अधिक करते हैं। वहीं स्वाध्याय की अनुकूलता न होने पर वे काय के प्रति ममत्व छोड़कर निर्जरा का साधन जुटाने लगे।

     

    उपसंहार

    छह आवश्यकों में प्रत्येक आवश्यक के प्रति हमारी आस्था, हमारा उत्साह बना रहे। इस समय सामायिक करना है, सो सामायिक करना है। इस समय प्रतिक्रमण करना है, सो प्रतिक्रमण ही करना। प्रतिक्रमण का समय पूर्ण हुआ और उसे अच्छे ढंग से कर लिया, तो दूसरा आवश्यक हमारे सामने है। प्रशस्त समय में प्रतिक्रमण करोगे, तो सामायिक में बिलकुल हल्के हो जाओगे। और बहुत अच्छी सामायिक होगी। फिर स्तुति करो, उसके बाद स्वाध्याय।“ आवश्यकों के लिए जितना समय रखा है, उसको ध्यान में रखना चाहिए, जल्दी-जल्दी नहीं करना चाहिए।

     

    व्रतों में कोई एक व्रत का ही अच्छे से पालन करना ठीक नहीं। एक व्रत तो बहुत अच्छा पाल रहे हैं, पुरस्कृत हो रहे हैं और दूसरे में फैल- कैसे होगा? पूरे के पूरे जितने व्रत हैं आपके, वो सब कम्पलसरी(अनिवार्य) हैं। वे गौण नहीं हो सकते। इसीलिए कहा है अनिवार्य प्रश्न को जो हल नहीं करता और बाकी सब प्रश्नों को हल करके आया है, और कहता है ९५ नम्बर नेट हैं, गलत बात है। परीक्षक चैक (जाँच) ही नहीं करेंगे। अनिवार्य प्रश्न पहले किया है या नहीं, पहले देखेंगे। फिर बाद में जो चैक करने वाले होते हैं, वो नम्बर देना प्रारंभ कर देते हैं। नोट (निर्देश)...सावधान ! इस प्रश्न को तो आपको अनिवार्य रूप से हल करना है। यदि यह नोट भूल गए, तो चिल्लर (फुटकर प्रश्न) में रह जाओगे। नईं समझे? अपने यहाँ छह आवश्यक अनिवार्य कहे गए हैं, जिस समय जो कार्य करने को कहा है, उस समय वही कार्य करना चाहिए।

     

    आवश्यकों का पालन करना तो स्वाध्याय का फल है। अपने आवश्यक ऐसे करें, जिससे सावद्य का दोष न लगे। इसीलिए दिन के प्रकाश का पूर्ण प्रयोग कर लीजिए। आवश्यक का परिहार न करें व यद्वा-तद्वा न करें। आवश्यकों में ज्यादा से ज्यादा समय लगाना चाहिए।'दीनता के भावों से कभी नहीं करना चाहिए। यह भाव धार्मिक क्षेत्र में अच्छा नहीं। यदि आप लोग आवश्यकों का पालन अच्छे नहीं करते तो समझो आगे वालों को/उम्मीदवारों के लिए मार्ग अवरुद्ध कर रहे हो।

     

    अंतरंग आवश्यकों में श्री कुंदकुंद आचार्य और बाह्य आवश्यकों में

    श्रीसमंतभद्राचार्य का स्मरण करना चाहिए। सामयिक आदि

    आवश्यकों को जो सही समय पर, सही ढंग से करता है, वह होनहार है।

    anivarchniya-vyaktitv-part-3-014.jpg


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