ज्ञानाष्टक
ज्ञानाष्टक
इस भद्र भारतवर्ष में, थे ज्ञान में नेता गुरू।
इस लोक में सबसे अधिक, स्वाधीनता रखते गुरू॥
स्वाधीनता ही सन्त का, भूषण बना इस लोक में।
इस लोक में परलोक में, सब लोक में दिखते गुरू ॥१॥
थे ज्ञानासागर पूज्य गुरुवर, आन जिनकी ज्ञान थी।
उन ज्ञान ने उस ज्ञान से, ज्योति जगायी ज्ञान थी।
जिस ज्योति ने लाखों जगायी, ज्योतियाँ अब ज्ञान की।
जलती रहेगी ज्योति नित, अब ज्ञान की उर ध्यान की ॥ २ ॥
जिनके न मन में राग था, न द्वेष रखते थे कभी।
उनके चरण में ढोक देते, आर्य जन तो आज भी॥
आजाद थे आजाद वे कल आज भी आजाद हैं।
मैं भी करूं बन्दन उन्हीं का, ज्ञानधारी ज्ञान हैं॥ ३ ॥
फैली जगत की भ्रान्तियों का, आप हो निरसन किये।
भारत में सोये ज्ञान की, ज्योति जगाकर चल दिये। |
होते कहीं जो आज गुरुवर, देश के भू-भाग में ।
तो देश का कुछ और का कुछ और होता वेश था॥ ४॥
वे सौम्य मुद्रा ज्ञान गुरुवर, ज्ञानधारी ये रहे।
कोई विषय उनसे छिपा हो, बात ऐसी न कहे ।|
हस्तामलक वत ही उन्हें, सारा विषय प्रत्यक्ष था।
कोई कहीं से पूछ जाये, पर न पारावार था॥५॥
ऐसे गुरु की ज्ञान महिमा, वाणी कहे थकती नहीं।
महिमा कहूं कहता चलू, कहता रहूं, गुरु आपकी॥
मेरे हृदय में बसे रहे, वो ज्ञान के सागर गुरु।
जग में तुम्हारा नाम होवे, काम होवे मम गुरु ॥ ६ ॥
साधु तुम्हारी लोक में करते प्रशंसा नित्य है।
जो ज्ञान में उर ध्यान में, तल्लीन तत्पर नित्य हैं।
इस लोक में परलोक में, जयवन्त गुरुवर ज्ञान हो।
ऐसी हमारी भावना, शिव लोक में जयवन्त हो ॥ ७ ॥
वे ही चरण हैं वास करते, नित्य ही इस दास में।
उस वास से इस 'दास' में आती नयी है चेतना ॥
हे ज्ञानासागर मम गुरुवर, आये थे तारण तरण।
जय हो तुम्हारी प्राण प्यारे, ज्ञानासागर, ज्ञानासागर ॥ ८ ॥
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