Jump to content
नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पाठ १० - दुर्लभतम व्यक्तित्व

       (0 reviews)

    पिछले नौ पाठों के माध्यम से आचार्यश्रीजी के बाह्य एवं आभ्यंतरीय व्यक्तित्व से पाठकों को परिचित कराने का प्रयास किया गया। प्रस्तुत पाठ में उपसंहार रूप से कुछ शब्द गुरुचरणों में समर्पित है...।

     

    anivarchniya-vyaktitv-part-3-036.jpg

     

    आचार्यश्रीजी के व्यक्तित्व को कुछ पन्नों में समेटना समुद्र के जल को चुल्लू में समेटने जैसी कोशिश होगी। जो भी उन्हें जिस भी दृष्टि से देखता है, उनमें गुण ही गुण नज़र आते हैं। आपके बहु आयामी व्यक्तित्व को देख बुद्धि ठहर-सी जाती है। कल्पना को क्षितिज प्राप्त नहीं हो पाता और अनायास ही पूजकों के समर्पित हो उठते हैं ये शब्द- परम पिता परमात्मा, पंचम युग के त्राता, ज्ञानी, ध्यानी, परमवीतरागी, अध्यात्मयोगी, ज्ञानानंदभोगी, वात्सल्य प्रेमी, प्रोत्साहनदाता, प्रातःस्मरणीय, विश्ववंदनीय, अनाशक्त महायोगी, प्रतिभा प्रणेता, अहर्निश उगते सूर्य, धर्म मस्तक, हृदय सम्राट...संत शिरोमणि आचार्यश्री १०८ विद्यासागरजी महाराज की जय...जय...जय..., जिनको सुनकर भारतीय वसुंधरा का कण-कण हर्षोल्लास से पूरित हो मानो नृत्य करने लगता है।

     

    आचार्य श्री विद्यासागरजी अध्यात्म रूपी गंगा में पल-पल स्नान करने वाले श्रमण हैं। आगमिक सिद्धांतों के गूढ़ रहस्यों को उद्घाटित करने से आपका मस्तिष्क ऊर्जित होता रहता है। वह प्राचीन आचार्यों के मूल भावों से परिचित ही नहीं वरन् अनुभूत भी हैं। तीर्थंकरों के जैसी आप की चर्या है। 

     

    आपके बहुमुखी व्यक्तित्व को देखकर, आध्यात्मिक संत होते हुए भी आपके व्यक्तित्व को मात्र आध्यात्मिकता की परिधि में नहीं पिरोया जा सकता। आपको देख कर लगता है कि आपको आध्यात्मिक संत कहें या राष्ट्रसंत, विश्वसंत कहें या सर्वोदयी चिंतक संताधिराज...क्या कहें ...? अकथ्य को कथ्य कैसे करें? अनिर्वचनीय का वाचन कैसे करें ?

     

    ऐसा लगता है कि किसी दिव्यात्मा ने इस युग के (प्राणियों के) पुण्य के फल स्वरूप ही स्वर्ग से च्युत होकर उन्हें सत्पथ दिखाने के लिए यहाँ जन्म लिया है। जो उनके एक बार दर्शन करता है, वह उन्हीं का हो जाता है। बार-बार दर्शनों की प्यास बनी रहती है। जीवन में कुछ क्षण ऐसे होते हैं, जो क्षणिक होकर भी अपनी स्मृतियाँ शाश्वत संजीवित छोड़ जाते हैं, आचार्यश्रीजी के दर्शनों से ऐसी ही शाश्वत स्मृतियाँ बनती हैं।

     

    परिवार के बड़े भैया महावीर, शांताजी, सुवर्णाजी एवं संघस्थ ज्येष्ठ-श्रेष्ठ मुनि श्री योगसागरजी के श्रीमुख से जब आचार्य भगवन् के आरंभिक जीवन प्रसंगों को सुना। आचार्य श्री ज्ञानसागरजी के समयवर्ती समर्पित श्रावकों द्वारा लिखित संस्मरण और सन् १९६७, ६८, ६९... आदि सन् के अजमेर के जैन गजट, जैन मित्र, जैन संदेश एवं सन् १९७८ का समाचार पत्रक' आदि को टटोला, उनके समय के लोगों से संपर्क किया। तो मन हतप्रभ रह गया। वर्धमान एवं अवस्थित चारित्र के धनी हैं आचार्य श्री विद्यासागरजी। संयमी जीवन के आरंभिक दशा में व्रतों के पालन के प्रति जैसे अप्रमादी थे, आज वृद्धावस्था में भी वैसे ही अप्रमादी हैं। व्रतों के प्रति उनका उत्साह देखकर युवा श्रमण शिक्षा ले रहे हैं।

     

    आचार्य श्री विद्यासागरजी वर्तमान के वह जीवंत इतिहास हैं जिनमें तीर्थंकर भगवंत की छवि है, जिनकी चर्या में आगम का रूप है, जिनके व्यक्तित्व में महापुरुषत्व का वास है, राष्ट्र, समाज एवं मानव मात्र को दिशा बोध देने की अलौकिक क्षमता है। उनके व्यक्तित्व की स्वर्णिम आभा से यह युग आलोकित हो रहा है। उनके द्वारा न केवल श्रमण संस्कृति अपितु समग्र भारतीय संस्कृति पल्लवित पुष्पित हो रही है। निश्चित ही यह युग आपके विराट व्यक्तित्व के कारण कालांतर में ‘संतशिरोमणि युग' के नाम से विख्यात होगा।

     

    युग बीतते हैं, सृष्टियाँ बदलती हैं, कई युगदृष्टा जन्म लेते हैं। उनमें से कुछ की सिर्फ़ स्मृतियाँ शेष रह जाती हैं और कुछ अपने व्यक्तित्व की अमर गाथाओं से चिर स्थाई बन जाते हैं। आचार्यश्रीजी ऐसे ही युगस्तंभ हैं, जिनके चरित्र की गाथाएँ युगों-युगों तक जनमानस को आलोकित करती रहेंगी। आपका व्यक्तित्व श्रमण एवं सामान्य सभी के लिए प्रेरणा का स्रोत बनेगा। दिव्यपुरुष आचार्यश्रीजी का ‘जीवन चरित्र' सोने की स्याही से वज्र की लकीर सम चिरस्थाई लिखा जाएगा। अंत में हम इतना ही कहना चाहते हैं कि जिन-जिन साधर्मी बंधुओं ने अभी तक आचार्यश्रीजी के दर्शनों का लाभ प्राप्त नहीं किया हो, वे विलंब न करें। और इस युग में जन्म लेने के सौभाग्य से स्वयं को वंचित न रखें।

     

    जिनबिंब निर्माण हेतु मिला शारीरिक मापदंड - अमरकंटक (शहडोल) मध्यप्रदेश में बनने वाले जिनालय हेतु भगवान् श्री ऋषभदेव की प्रतिमा का मॉडल बनाने वाले शिल्पी जगदीश परिहार, जबलपुर, मध्यप्रदेश के कथनानुसार, आचार्यश्रीजी को सामायिक मुद्रा में बैठा देखकर इस प्रतिमा हेतु मिट्टी से मॉडल बनाया था। कभी-कभी वह उस प्रतिमा के अंग-उपांगों का निर्माण करने हेतु आचार्यश्रीजी की मुद्रा का नाप करके उसके अनुपात से बड़ा करके बनाते थे। तब सन् १९९४ में इस निर्माण कार्य के समय संभवतः आचार्य श्री विद्यासागरजी के सिर की गोलाई- २२३ इंच, कंधों की दूरी- १३३ इंच, गले की गोलाई- १५३ इंच एवं बैठने पर घुटनों की दूरी३८३ इंच थी।

     

    आचार्य भगवन् के शारीरिक संरचना का माप सहजता से तो प्राप्त हो नहीं सकता था। धन्य है। उस शिल्पी को जिसके मन में आचार्यश्रीजी का माप लेकर मूर्ति निर्माण करने का विचार आया और आचार्यश्रीजी भगवान् की मूर्ति बनने में कारणभूत अपने शरीर के माप को देने से मनाही न कर सके, और प्राप्त हो गई दुर्लभतम जानकारी। आचार्यश्रीजी का ब्लड ग्रुप 'ए' है।२८ जनवरी, १९९९ के दिन आपकी ऊँचाई खड़ी अवस्था में- १६२.५ सेंटी मीटर तथा बैठी हुई अवस्था में- ८२.५ सेंटी मीटर थी। उस दिन का वजन-६४.५ किलो ग्राम था। मुनि श्री अभयसागरजी के मुख से

     

    व्यक्तित्व की कहती कहानी हस्तरेखाएँ

    anivarchniya-vyaktitv-part-3-038.jpg

     

    सत्पथ पर बढ़ाती चरण की दिव्य रेखाएँ

    anivarchniya-vyaktitv-part-3-039 - Copy.jpg

     

    सुगम व दुर्गम राहों में मंज़िल तो पाकर रहेंगे

    anivarchniya-vyaktitv-part-3-039.jpg

     

    कुछ जिज्ञासाओं के समाधान की प्यास - इतिहास साक्षी है कि दिगंबर श्रमण निष्पृही होते हैं। आचार्यश्रीजी तो निष्पृहशिरोमणि श्रमणाधिराज हैं। आपके अतीत से संबंधित कुछ प्रसंगों में द्वंद है। पर किसी का साहस ही नहीं हो पाता कि कोई उनसे उनकी जीवन यात्रा के विषय में स्पष्टत: कुछ पूछ सके। हाँ प्रसंगवशात् जब कभी उनके मुख से जो निःसृत हो जाए बस उतना ही पर्याप्त होता है। शेष विषय इतिहास के गर्भ में समाया रहता है।

     

    एक बार ‘वरिष्ठतम दिगंबर जैनाचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज से वीर के प्रधान संपादक रवीन्द्र मावल का साक्षात्कार' नामक एक छोटी-सी पुस्तक को पढ़ा, जिसमें (उसके पृष्ठ एक पर) उन्होंने प्रश्न किया- आचार्यश्री! किस घटना ने आपको वैराग्य की प्रेरणा दी ? आचार्यश्रीजी बाले- अपने विषय में बताने की आगम (शास्त्र) की आज्ञा नहीं है। संवेद्य को कथ्य नहीं बनाया जा सकता। फलतः कुछ जिज्ञासाएँ अभी भी हमारे सामने हैं- 

     

    ब्रह्मचारी विद्याधर स्तवनिधि से आकर गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी से कहाँ मिले थे ? - ‘ज्योतिर्मय निग्रंथ,' पृष्ठ २३ एवं विद्याधर से विद्यासागर' पृष्ठ ७३ में वह अजमेर के श्रावक कजौड़ीमलजी अजमेरा, अजमेर के साथ किशनगढ़ में मिले थे। जबकि शांतिलालजी बड़जात्या अजमेर, के संस्मरण के अनुसार वह अजमेर में रात के समय आए थे। तब गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी नसिया में विराजमान थे। रात में ही उन्हें दर्शन प्राप्त हो गए थे। जैन गजट, अजमेर, ५ जून, १९६७ के समाचार अनुसार २९ मई, १९६७ को ज्ञानसागरजी का अजमेर में प्रवेश हुआ। एवं जैन गजट, अजमेर, २६ जून, १९६७ के अनुसार गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी का केशलोंच २५ जून, १९६७ को नसियाजी अजमेर में हुआ था। ब्रह्मचारी विद्याधर के मित्र मारुति भैया के अनुसार वह लगभग ५-६ जून को स्तवनिधि से निकले थे एवं विद्याधर द्वारा मदनगंज-किशनगढ़ से भेजा गया पत्र जिनगौड़ा को ६ सितंबर, १९६७ को प्राप्त हुआ, जिसमें विद्याधर ने लिखा है कि उन्हें यहाँ (गुरुवर के पास) आए हुए ३ माह हो गए, २५ वें दिन मैंने महाराज का केशलोंच किया।' यह पत्र अंतर्यात्री पृ. १३५ पर देखा जा सकता है। इससे भी मारुति भैया द्वारा बताया गया समय लगभग ५/६ जून प्रमाणित होता है। किन्तु २६ जून, १९६७ के जैन गजट के अनुसार अजमेर में गुरुवर के केशलोंच के समाचार में विद्याधर का उल्लेख नहीं है। इन सब साक्ष्यों के आधार पर ब्रह्मचारी विद्याधर यदि ८-९ जून को अजमेर पहुँचे तो गुरुवर वहीं पर विराजमान थे। मई के अंतिम सप्ताह में आने पर संभव है गुरुवर किशनगढ़ में मिले हों।

     

    दिगम्बर जैन पथ, शरद पूर्णिमा विशेषांक, वर्ष-२, अंक-१/माह अक्टूबर-दिसम्बर, २०१३, पृष्ठ- २१ ‘यात्रा शीर्षक' में प्रकाशित साक्षात्कार के अनुसार ब्रह्मचारी विद्याधर रात्रि ११/१२ बजे एक ब्रह्मचारी के घर अजमेर पहुँचे, और अगले दिन तक वहाँ रहे। यदि गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी महाराज अजमेर में थे तो ब्रह्मचारीजी के यहाँ क्यों ठहरे थे ?

     

    इस प्रकार की कुछ जिज्ञासाएँ हमारे सामने हैं। हमारी प्रार्थना है, उन सभी से जिन्हें आचार्य भगवंत का सान्निध्य एवं सामीप्य प्राप्त होता है। वह इन कड़ियों को स्पष्ट कर सकने का प्रयास अवश्य करें। ताकि वर्तमान के महापुरुष का स्वर्णिम इतिहास संभावना के ऊहापोह में न रह कर वास्तविकता के आधार पर रचा जाए।

     

    anivarchniya-vyaktitv-part-3-041 - Copy.jpg

    आचार्यश्रीजी के वैशिष्ट्य पूर्ण व्यक्तित्व के कारण लोग उनका नाना नामों से गुणगान करते हैं। महान् रचनाकार आचार्य श्री विद्यासागरजी की जन्म भूमि सदलगा (चिक्कोड़ी) होने से सारा जगत् इन्हें ‘सदलगा के संत' कहता है। आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज के शिष्य एवं अतुल ज्ञान के भण्डारी होने से उन्हें ज्ञान का सागर कहते हैं। कुण्डलपुर वाले ‘बड़े बाबा' के बड़े भक्त होने की अपेक्षा सभी भक्त गण इन्हें ‘छोटे बाबा' कहते हैं। संतों के सरताज होने से इन्हें ‘संत शिरोमणि' कहा जाता है। वैसे तो वह ‘आचार्यश्री' कहने मात्र से जाने जाते हैं।

     

    गुरु से हम चरणानुरागियों को क्या नहीं मिला, पर उन्हें कुछ भी देने में सर्वदा असमर्थ रहे। आज इस ‘संयम स्वर्ण महोत्सव' वर्ष पर प्रभु से एवं गुरु से प्रार्थना है हम गुरुचरणानुरागियों की कि गुरुवर का यह ‘परमोज्ज्वल जीवन चरित्र' आगामी काल में शीघ्र ही तीर्थंकर के पूर्व भवों का यशोगान बनकर गाया जाऐ। और हम सभी आपके समवशरण में ही केवलज्ञान को प्राप्त कर मुक्तिरमा का वरण कर सकें। बस....।

     

    अकथनीय का कथन करना कथाकार की असमर्थता की कहानी को प्रगट करता है। फिर भी सागर को जलांजली देने की लोकोक्ति लोक में देखी जाती है। जो आचार्यश्रीजी को नहीं जानते उनके लिए आचार्यश्रीजी का व्यक्तित्व शब्दों से वर्णनातीत है। पर जो उन्हें जानते हैं वे यह भी जानते हैं कि सभी शब्द उनके चरित्र चित्रण के लिए फ़ीके हैं।

     

    anivarchniya-vyaktitv-part-3-041.jpganivarchniya-vyaktitv-part-3-044.jpg


    User Feedback

    Create an account or sign in to leave a review

    You need to be a member in order to leave a review

    Create an account

    Sign up for a new account in our community. It's easy!

    Register a new account

    Sign in

    Already have an account? Sign in here.

    Sign In Now

    There are no reviews to display.


×
×
  • Create New...