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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

बड़ा दान


संयम स्वर्ण महोत्सव

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बड़ा दान

 

यद्यपि आमतौर पर लोग एक रूपया देने वाले की अपेक्षा पांच रूपये देने वाले को और पांच देने वाले की अपेक्षा पचास तथा पांच सौ देने वाले को महान दानी कहकर उसके दान की बड़ाई किया करते हैं। मगर समझदार लोगों की निगाह में ऐसी बात नहीं है क्योंकि एक आदमी करोड़पति, अरबपति जिसकी अपने खर्च के बाद भी हजारों रूपये रोजाना की आमदनी है वह आड़े हाथ भी किसी को यदि सौ रूपये दे देता है तो उसके लिए ऐसा करना कौनसी बड़ी बात है। हां, कोई गरीब भाई दिन भर मेहनत मजदूरी करके बड़ी मुश्किल से कही अपना पेट पाल पाता है वह आदमी अपनी उन दो रोटियों में से आधी रोटी भी किसी भूखे को देता है तो वह उसका दान बड़ा दान है उसकी बड़ी महिमा है। वह महाफल का दाता होता है।

 

एक समय की बात है, मैं कलकत्ते में काम किया करता था, वहां कांग्रेस का सालाना जलसा हुआ, जिसके अन्त में महात्मा गांधीजी ने कांग्रेस की सहायता करने के लिये आम जन के सम्मुख अपील रखी। जिसको लेकर किसी मकानदार ने अपना एक मकान कांग्रेस को दिया तो किसी धनवान ने लाख रूपये , किसी ने पचास हजार रूपये इत्यादि। इतने में एक खोचा मटिया आया और बोला कि महात्मा जी! मैं भी ये आठ आने पैसे जो कि दिन भर मुटिया मजूदरी करने से मुझे प्राप्त हुये हैं, देश सेवार्थ कांग्रेस के लिये अर्पण करता हूं। क्या करूं अधिक देने में असमर्थ हूं रोज मजदूरी करता हूं। और पेट पालता हूं मगर मैंने यह सोचकर कि देश सेवा के कार्य में मुझे भी शामिल होना चाहिये, यह आज की कमाई कांग्रेस की भेंट कर रहा हूं। मैं आज उपवास से रह लूंगा और क्या कर सकता हूँ?

 

इस पर गांधीजी ने उस भाई की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी और कहा था कि हमारे देश में जब ऐसे त्यागी पुरुष विद्यमान हैं तो फिर हमारे देश के स्वतंत्र होने में अब देर नहीं समझना चाहिये हमारे पुराने साहित्य में भी एक कथा आती है कि एक मेहनतिया था जो कि मेहनत करके उसके फलस्वरूप कुछ अनाज लाया और लाकर उसने उसे अपनी घरवाली को दिया ताकि वह उसे साफ सुथरा करके पीस कर उसकी रोटियां बना ले। औरत ने भी ऐसा ही किया। उसने उसकी मोटी-मोटी तीन रोटियां बनाई क्योंकि उसके एक छोटा बच्चा भी था। अत: उसने सोचा कि हम तीनों एक-एक रोटी खाकर पानी पी लेंवेगे। रोटियां बन कर जब तैयार हुई तो मरद के दिल में विचार आया कि यह कमाना और खाना तो सदा से लगा ही हुआ है और जब तक जिन्दगी है लगा ही रहेगा। हमारे बुजुर्गों ने बताया है कि कमा खाने वाले को कुछ परार्थ भी देना चाहिये तो आज तो फिर यह मेरे हिस्से की रोटी किसी अन्य भूखे को ही दे लू, मैं आज भूखा ही रह लूंगा। इतने ही में उसे एक मासोपवासी क्षीणकाय दिगम्बर परमहंस साधु दिखाई दिये। तो उन्हें देखकर वह बोला कि साधु जी ! प्रणाम, मेरे पास रूखी सूखी और बिना नोन की जौ की रोटी है मैं मनसा वाचा कर्मणा आपके लिए देना चाहता हूं। आइये और आप इसे खा लीजिये। साधु तो मन और इन्द्रियों के जीतने वाले होते हैं। सिर्फ इस शरीर से भगवद्भभजन बन जावे इस विचार को लेकर इसे चलाने के लिये कुछ खुराक दिया करते हैं। जिस पर भी उन के तो आज ऐसा ही अभिग्रह भी था। अत: उन्होंने उसकी दी हुई रोटी को अपने हाथों में ली और खड़े-खड़े ही मौनपूर्वक खा गये। इतने में औरत ने भी विचार किया कि ऐसे साधुओं के दर्शन कहां रखे हैं। हम लोगों का बड़ा भाग्य है ताकि हमारा रूखा-सूखा अन्न आज इनके उपयोग में आ रहा है। लड़के ने भी सोचा कि आहे! ये तो हम लोगों से भी गरीब दीख रहे हैं।

 

जिनके शरीर पर बिल्कुल कपड़ा नहीं, खाने के लिये कोई पात्र नहीं, रहने को जिनका कोई घर नहीं, इनके काम में मेरी रोटी आ गई इससे भली बात और क्या होगी? इस पर देवताओं ने भी अहो! यह दान महादान है ऐसा कहते हुए आकाश में से फूल बरसाये तथा जय-जय कार किया, सो ठीक ही है। परमार्थ के लिये अपना सर्वस्व अर्पण कर देना ही मनुष्य जन्म पाने का फल है अन्यथा तो फिर स्वार्थ के कीच में तो सारा संसार ही फंसा हुआ दीख रहा है।

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