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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

महाराजा रामसिंह


संयम स्वर्ण महोत्सव

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महाराजा रामसिंह

 

महाराजा रामसिंह जयपुर स्टेट के एक प्रसिद्ध भूपाल हो गये हैं। जो कि एक बार घोड़े पर बैठकर अकेले ही घूमने को निकल पड़े। घूमते-घूमते बहुत दूर जंगल में पहुँच गये तो दोपहर की गर्मी से उन्हें प्यास लग आई। एक कुटिया के समीप पहुँचे जिसमें बुढ़िया अपनी टूटी सी चारपाई पर लेटी हुयी थी। बुढ़िया ने जब उन्हें अपने द्वार पर आया हुआ देखा तो वह उनके स्वागत के लिए उठ बैठी और उन्हें आदर के साथ चारपाई पर बैठाया। राजा बोले कि माताजी मुझे बड़ी जोर से प्यास लग रही है अत: थोड़ा पानी हो तो पिलाइये। बुढिया ने अतिथि सत्कार को दृष्टि में रखते हुए उन्हें निरा पानी पिलाना उचित न समझा।

 

इसलिये अपनी कुटिया के पीछे होने वाले अनार के पेड़ पर से दो अनार तोड़कर लायी और उन्हें निचोड़ कर रस निकाला तो एक डबल गिलास भर गया जिसे पीकर राजा साहब तृप्त हो गये। कुछ देर बाद उन्होंने बुढ़िया से पूछा- तुम इस जंगल में क्यों रहती हो तथा तुम्हारे कुटुम्ब में और कौन हैं? जवाब मिला कि यहां जंगल में भगवान भजन अच्छी तरह से हो जाता है। मैं हूं और मेरे एक लड़का है जो कि जलाने के लिये जंगल में लकड़ियां काट लाने को गया हुआ है। यह जमीन जो मेरे पास बहुत दिनों से है पहले ऊसर थी अतः सरकार से दो आने बीघे पर मुझे मिल गई थी। जिसको भगवान के भरोसे पर परिश्रम करके हमने उपजाऊ बना ली है। अब इसमें खेती कर लेते हैं जिससे हम दोनों मां बेटों का गुजर बसर हो जाता है एवं आए हुए आप सरीखे पाहुणे का अतिथि सत्कार बन जाता है। यह सुन राजा का मन बदल गया। सोचने लगे ऐसी उपजाऊ जमीन क्यों दो आने बीघे पर छोड़ दी जाये। बस फिर क्या था उठकर चल दिये और जाकर दो रुपये बीघे का परवाना लिखकर भेज दिया। अब थोड़े ही दिनों में अनार के जो पेड़ उस खेत में लगाये हुए थे वे सब सूखे से हो गये और वहां पर अब खेती की उपज भी बहुत थोड़ी होने लगी। बुढ़िया बेचारी क्या करें लाचार थी।

 

कुछ दिन बाद महाराज रामसिंह फिर उसी घोड़े पर सवार होकर उधर से आ निकले। बुढ़िया बेचारी क्या करें लाचार थी। कुछ दिन बाद महाराज रामसिंह फिर उसी घोड़े पर सवार होकर उधर से आ निकले। बुढ़िया की कुटिया के पास आ ठहरे तो बुढ़िया उनका सत्कार करने के लिये पेड़ पर से अनार तोड़कर लाई परन्तु उन्हें बिंदाकर देखा तो बिल्कुल शुष्क, काने कीड़ोंदार थी। अतः उन्हें फेंक कर और अच्छे से फल तोड़कर लाई तो उनमें से भी कितने ही तो सड़े गले निकल गये। तीन चार फल जरा ठीक थे। उन्हें निचोड़ा तो मुश्किल से आधा गिलास रस निकल पाया। यह देखकर महराज रामसिंह झट से बोल उठे कि माताजी ! दो तीन वर्ष पहले जब मैं यहां आया था तो तुम्हारे अनार बहुत अच्छे थे, दो अनारों में से ही भरा गिलास रस का निकल आया था। अब की बार यह क्या हो गया? बुढ़िया ने जवाब दिया कि असवारजी! क्या कहूं? निगोड़े राजा की नीयत में फर्क आ गया, उसी का यह परिणाम है। उसे क्या पता था कि जिससे मैं बात कर रही हूं वह राजा ही तो है। वह तो उन्हें एक साधारण घुड़सवार समझकर सरल भाव से ऐसा कह गई ।

 

राजा समझ गये कि बुढ़िया ने अपने परिश्रम से जिस जमीन को उपजाऊ बनाया था उस पर तुमने अपने स्वार्थवश हो अनुचित कर थोप दिया, यह बहुत बुरा किया। बन्धुओ! जहां सिर्फ जमीनदार की बुरी नियत का यह परिणाम हुआ वहां आज जमीनदार और काश्तकार दोनों ही प्राय: स्वार्थवश हो रहे हैं। ऐसी हालत में जमीन यदि अन्न उत्पन्न करने से मुंह मोड़ रही है तो इसमें आश्चर्य ही क्या है? हम देख रहे हैं कि हमारे बाल्यजीवन में जिस जमीन में पच्चीस-तीस मन बीघे का अन्न पैदा हुआ करता था वही आज प्रयत्न करने पर भी पांच छ: मन बीघे से अधिक नहीं हो पाता है। जिस पर भी आये दिन कोई न कोई उपद्रव आता हुआ सुना जाता है। कहीं पर टिड्डियां आकर खेत को खा गई तो कहीं पानी की बाढ़ आ गई या पाला पड़कर फसल नष्ट हो गई इत्यादि यह सब हम लोगों की ही दुर्भावनाओं का ही फल है। यदि हम अपने स्वार्थ को गौण करके सिर्फ कर्तव्य समझकर परिश्रम करते रहे तो ऐसा कभी नहीं सकता।

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