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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

दान का सही तरीका


संयम स्वर्ण महोत्सव

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दान का सही तरीका

 

आपने ‘‘राजस्थान इतिहास' देखा होगा। वहां महान उदयन का वृत्तांत लिखा हुआ है। वह मननशील विद्वान था, परन्तु दरिद्रता के कारण उसके पैर जमीन पर नहीं जम सके थे। अत: वह नंगे पैर मारवाड़ के रेतीले मैदान को पार करते हुए बड़े कष्ट के साथ सिद्ध पुर पाटन तक पहुंच पाया। उसने दो दिन से कुछ भी नहीं खाया था और शरीर पर मैले तथा फटे कपड़ों को पहने हुए था। उसका नाते रिश्तेदार या परिचित तो था ही नहीं जो कि उसके सुख-दुःख की उसे पूछता। थोड़ी देर बाद वह एक जैन धर्मस्थान के द्वार पर जा बैठा। यद्यपि वहां पर धर्म साधन करने के लिए अनेक लोग आते थे और ईश्वरोपासना तथा धर्मोपदेश सुनकर के जा रहे थे जिनमें कितने ही श्रीमान लोग भी थे जिनके गले में सोने के आभूषण और शीश पर सुनहरे काम की पगड़ियाँ चमक रही थीं, जो कि अपनी नामवरी के लिये तिजोरी खोल कर पैसे को पानी की भांति बहाने वाले थे मगर गरीब मुसाफिर की तरफ कौन देखने वाला था? हाँ, थोड़ी देर बाद एक बहन जी आयीं, जिनका नाम लक्ष्मीबाई था। वह यथा नाम तथा गुण वाली थी। उसने उसी दिन उदयन को विकल दशा में बैठे देखा तो पूछा कि यहां पर किस लिये आये हो? जवाब मिला कि रोजी की तलाश में। बहनजी ने फिर पूछा कि क्या तुम्हारी जान पहचान का यहां पर कोई है? जवाब मिला कि नहीं। क्षण भर विचार कर बहनजी ने कहा कि भाई जी फिर कैसे काम चलेगा? बिना जान-पहचान के तो कोई पास में भी नहीं बैठने देता है, उदयन ने कहा बहनजी। कोई बात नहीं, मैं तो अपने पुरुषार्थ और भाग्य पर भरोसा करके यहां पर आ गया हूं। अगर कोई अच्छा काम मिल गया तब तो अपने दो हाथ बताऊंगा, नहीं तो भूखा रहकर मर मिटूगा। इतना सुनते ही लक्ष्मीबाई बोली कि अभी भोजन किया है या नहीं? इस पर उदयन बोला कि बहनजी मुझे भोजन किये हुए दो रोज हो लिए हैं और न जाने कितने दिन ऐस ही निकल जावेंगे। परन्तु भूख की चिन्ता नहीं है अगर भूख की परवाह करता तो फिर मैं मेरे गाँव से इतनी दूर चलकर भी कैसे आ पाता?

 

यह सुनते ही लक्ष्मीबाई का हृदय हिल गया, वह बोली कि तुम मेरे साथ चलो, भाई ! भोजन तो करो फिर जैसा कुछ होगा देखा जावेगा। उदयन ने कहा बहनजी आप तो ठीक ही कह रही हैं, मगर मैं आपके साथ कैसे चलूं? मैंनें आपके यहां का कोई भी कार्य तो किया नहीं, फिर आपके साथ मुफ्त रोटी खाने को कैसे चल सकता हूं? लक्ष्मी बाई बोली तुम ठीक कह रहे हो, मगर तुमने मुझे बहन कहा है और मैंने तुम को भाई, फिर भाई के लिए बहन की रोटी मुफ्त की नहीं होती किन्तु अभूतपूर्व भ्रातृ-स्नेह के उपहार स्वरूप होती है। अतः उसके खाने में कोई दोष नहीं है। तुम भले ही किसी भी कोम के, कोई भी क्यों न हो मगर धार्मिकता के नाते से जबकि तुम मेरे भाई हो और मैं तुम्हारी बहन फिर संकोच कैसा? तुम को तो सहर्ष मेरा कहना स्वीकार कर लेना चाहिये, अन्यथा तो फिर मेरे दिल को बड़ी ठेस लगेगी। भाई साहब! कृपा कर मेरा कहना स्वीकार कीजिये और मेरे साथ चलिये।

 

लक्ष्मीबाई के इस तरह के स्वाभाविक सरल विनिवेदन का उदयन के हृदय पर बड़ा प्रभाव पड़ा। अतः वह उसके साथ हो लिया। घर जाकर लक्ष्मीबाई ने उदयन को प्रेम और आदर के साथ भोजन कराया तथा अपने पतिदेव से कह कर उसके योग्य कुछ समुचित काम भी उसे दिलवा दिया, जिसे पाकर उन्नति करते हुए वह धीरे-धीरे चल कर एक दिन वही सिद्धपुर पाटन के महाराज का महामंत्री बन गया। जिसने प्रजा के नैतिक स्तर को ऊँचा उठा कर उसे सन्मार्गगामिनी बनाया। मतलब यह कि वही सच्चा दान होता है जो कि दाता के सात्विक भावों से ओतप्रोत हो एवं जिसको दिया जावे उसकी आत्मा को भी उन्नत बनाने वाला हो तथा विश्वभर के लिए आदर्श मार्ग का सूचक हो।

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