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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पाठ ६ - प्रायोगिक व्यक्तित्व

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    आचार्यश्रीजी कहते हैं- 'देखो ! जिनलिंग को कलंकित नहीं होने देना। अपनी क्रिया ऐसी करना कि किसी के भाव जिनलिंग के प्रति अनादर के न हो पाएँ। जिनलिंग की शोभा अट्ठाईस मूलगुणों के पालन में है। निर्दोष चारित्र का पालन करना, दिगम्बरत्व को सुरक्षित रखना, यही जिनलिंग की विनय है। यही आत्मधर्म है, परात्मधर्म नहीं। अपना जीवन प्रायोगिक होना चाहिए। ''ऐसे भावों से भरे जिन-लिंगधारी आचार्यश्रीजी ने अपने जीवन को २८ मूलगुणों की मानो प्रयोगशाला ही बना लिया है। प्रस्तुत पाठ में उनके जीवन से जुड़े पंच समितियों का पालन करने वाले अनुकरणीय कुछ प्रसंगों को विषय बनाया गया है।

     

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    0074 - Copy.jpg गुप्ति की सखियाँ : पंच समितियाँ 

    आगम की छाँव

     

    समितयः सम्यक्प्रवृत्तयः

    सम्यक् प्रवृत्ति (क्रिया) को समिति कहते हैं।

    समिति शब्द सम् और इति के मेल से बनता है।

    सम् अर्थात् सम्यक्, इति अर्थात् गति या प्रवृत्ति। 

     

    ईर्याभाषेषणादान.................पञ्च चेति वै॥२६६।।

    ये समिति ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेपण और प्रतिष्ठापन के नाम से पाँच प्रकार की हैं। मुनियों की प्रत्येक क्रिया समीचीन हो, ऐसी आगम की आज्ञा है। इसे ही ‘समिति' नाम से कहा गया है।

     

     

    0050.jpgआचार्यश्री का भाव

    • हमारी चर्या में ही दोषों का भंडार है। मुनि होने के उपरांत करने योग्य कार्य करते नहीं हैं। और ये करो’, ‘वो करो'कहते हैं। अरे! अपना कर्तव्य करो, यह ही हमारे लिए समीचीन है।
    •  जिसकी पाँचों क्रियाएँ (समितियाँ) सुधर गईं, तो समझो उसका आधा जीवन सुधर गया।
    • ये समितियाँ कल्याण करने वाली हैं। तीर्थंकर, चक्रवर्ती आदि उत्तम विभूतियों के लिये कारण हैं। सम्यग्दर्शनादि रत्नों की खान हैं। संसार रूपी शत्रु का नाश करने वाली हैं। स्वर्ग व मोक्ष की सिद्धि के लिए कारण हैं। इसीलिए इन समितियों का उत्तम मन के साथ पालन कर लेना चाहिए।
    •  जो इन पाँच समितियों में प्रमाद करते हैं, वे निंदनीय  हैं। आज जो ये कहा जाता है कि यह पंचमकाल है, महाराज! इसमें इन समितियों का पालन नहीं हो सकता है। ऐसा कहकर अपने प्रमाद को छुपाने की बात कही जा रही है। यह ठीक नहीं है। समितियों में प्रमाद ठीक नहीं।

     

     

    शाश्वत सुख की ओर गमन : ईर्या समिति

     

    आगम की छाँव 

    फासुयमग्गेण.................................हवे गमणं ।।११।।

    प्रयोजन के निमित्त चार हाथ आगे जमीन देखनेवाले साधु के द्वारा दिवस में प्रासुकमार्ग से जीवों का परिहार करते हुए जो गमन है वह ईर्या समिति है। 

    0051.jpgआचार्यश्री का भाव

    • चातुर्मास में किसी को भेजना या बुलाना नहीं चाहिए। उनके द्वारा आवागमन में हुई हिंसा का दोष हमें आएगा।
    • अपने काम दूसरों से नहीं करवाना चाहिए।
    • यात्रादि के लिए कोई जाता है तो महाराज आशीर्वाद दे सकता हूँ कि नहीं ? ऐसा पूछते हैं। (शिष्य)। नमोऽस्तु करो तो आशीर्वाद है। यदि यात्रा के लिए आशीर्वाद देंगे तो इसमें जो हिंसा होगी उसका भी समर्थन हो जाएगा। आशीर्वाद तो दो, पर नमोऽस्तु का, चलने-चलाने, प्रेरणा या अनुमोदना का नहीं। प्रेरणा एक प्रकार से प्रेषण (भेजना) जैसा ही हो जाता है।
    • मार्ग में खड़े होकर मुनिगणों को बात नहीं करना चाहिए और चलते समय रास्ता छोड़कर चलना चाहिए। क्योंकि पीछे कोई गाड़ी वाला आ रहा है, यदि रास्ता नहीं होगा, तो वो घास आदि से निकालकर ले जाएगा। उस समय जो हिंसा होगी उसमें हम कारण होंगे।
    • ईर्या समिति यत्न (प्रयत्न) पूर्वक पालन नहीं करोगे तो अहिंसा व्रत का पालन नहीं हो पाएगा और आगे की समितियों का पालन भी निर्दोष नहीं हो पाएगा। यदि आप मुक्ति को चाहते हो तो ईर्या समिति को यत्न के साथ पालन करो।
    • बातचीत करते हैं तो रास्ता तय हो जाता है। लेकिन यह भी तय हो गया कि ईर्यापथ शुद्धि भी छिद गई। विहार के समय यहाँ-वहाँ की बात क्यों करते हो? उसमें ध्यान बँट जाता है, अतः नहीं करना चाहिए।
    • आचार्यों ने पैर में काँच लगने पर भी एक उपवास का प्रायश्चित्त कहा है, क्योंकि यदि पंचेन्द्रिय जीव दब जाता तो क्या होता ?

     

    बिना प्रमाद

    श्वसन क्रिया-सम

     पथ पे चलूँ।

     

    0052.jpgआचार्यश्री का स्वभाव

    दृष्टि उठे, तब न यहाँ-वहाँ जाए  - प्रकृति में विकृति संभव है, पर आचार्यश्रीजी की चर्या में विकृति ‘न भूतो, न भविष्यति।' आगम ने आज्ञा दी है कि गमनागमन | के समय चार हाथ प्रमाण भूमि देखकर चलना है, तो यह आज्ञा उन्हें पत्थर की नहीं, वज्र की लकीर है, जो कभी मिट नहीं सकती। जिनकी दृष्टि में आगम बसा हो, उनकी दृष्टि गमनागमन के समय यहाँ-वहाँ जा भी कैसे सकती है।

     

    सन् १९८३, महानगर कलकत्ता, पश्चिम बंगाल का प्रसंग है। अपार जन-समूह के बीच आचार्यश्रीजी ससंघ का महानगर में प्रवेश हुआ। आचार्यश्रीजी की ससंघ अगवानी का समाचार ‘समाचार पत्र' में प्रकाशित हुआ, जिसका शीर्षक था- ‘जिसे पूरे कलकत्ता ने देखा, उसने कलकत्ता को आँख उठाकर नहीं देखा।' आचार्य भगवन् द्वारा ईर्या समिति पालन करने का इससे अधिक ज्वलंत उदाहरण और क्या हो सकता है। धन्य है ! गुरुवर की चर्या।

     

    इसी तरह २८ जून, २०१७, ‘संयम स्वर्ण महोत्सव दिवस,' के दिन चन्द्रगिरि, डोंगरगढ़ (राजनांदगाँव, छत्तीसगढ़) में गुरुवर की एकाग्रता एवं दृष्टि नीचे रखने का एक महत् एवं आश्चर्यकारी उदाहरण देखने को मिला। प्रात:काल आचार्यश्रीजी मंचासीन थे। उनका पाद-प्रक्षालन चल रहा था तभी बिना पूर्व सूचना के कुछ श्रावकजन अर्हत प्रतिमाजी को मंच पर ले आए। प्रतिमाजी को मंच पर लाना पूर्व नियोजित कार्यक्रम में न होने से, वह कहाँ विराजमान करें? अतः तुरन्त ही वापस ले गए। इस क्रिया में विनयभाव से संघस्थ साधु मंच पर खड़े भी हुए, पर गुरुजी का योग और उपयोग उस समय पादप्रक्षालन कर रहे श्रावकों की ओर था कि वे मर्यादा में ही कार्य करें। अतः उनकी दृष्टि ऊपर उठी ही नहीं। उन्हें अहँत प्रभुजी के आने और जाने का या आजू-बाजू साधुओं के खड़े होने का एहसास भी नहीं हुआ। धन्य है! नासाग्र दृष्टि शिरोमणि आचार्य भगवन् गुरुदेव को।

     

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    योग- उपयोगमय हो प्रत्येक क्रिया - जनवरी, २००५ में जब आचार्यश्रीजी, पिसनहारी की मढ़ियाजी, जबलपुर (म.प्र.) में विराजमान थे, उस समय दक्षिण भारत की यात्रा करके ज्येष्ठ आर्यिका श्री गुरुमति माताजी सहित ४७ आर्यिकाएँ गुरुचरणों में दर्शनार्थ पहुँचीं। गुरुजी से चर्चा के दौरान आर्यिका श्री उपशांतमति माताजी ने सहजता से कहा- ‘आचार्य भगवन् ! आप हमेशा कहते हैं कि विद्या को कंठस्थ करना चाहिए। कंठस्थ विद्या समय पर काम में आती है। आपने सिद्धक्षेत्र मुक्तागिरिजी में पंचास्तिकाय और राजवार्तिक ग्रंथ का अध्ययन कराया और जब-जब, जो-जो (समयसार, प्रवचनसार,द्रव्यसंग्रह आदि) आपने अध्ययन कराया, उनको मैंने कंठस्थ किया। विहार के समय वह बहुत काम आया। चाहे वह कितना ही लम्बा विहार क्यों न हो। मन-ही-मन उन ग्रंथों का पाठ करते-करते अगले स्थान पर पहुँच जाते थे। तब आचार्यश्रीजी बोले- “देखो, विहार में पाठ करने से ईर्यापथ (गमनागमन) शुद्धि नहीं पल सकती। योग (मन-वचन-काय) से तो पल जाएगी, पर उपयोग की शुद्धि नहीं पल सकती। चलते समय ज्यादा से ज्यादा णमोकार मंत्र पढ़ने में बाधा नहीं, यह तो ‘धवला' में भी दिया है। लेकिन अन्य चीज पढ़ने का निषेध है। ‘पाठ' तो, जब शांति से बैठो, मन की एकाग्रता हो, तब स्वाध्याय के कायोत्सर्ग पूर्वक करना चाहिए। धन्य हैं गुरुदेव! जिनका प्रत्येक कार्य योग एवं उपयोगमय हुआ करता है। और वैसी ही शिक्षा वे अपने शिष्यों को दिया करते हैं।

     

    प्रकृति ने थामें कदम  - आचार्यश्रीजी की प्रत्येक चर्या यत्नाचारपूर्वक होती है। सन् १९९३ का प्रसंग है। आचार्य संघ का विहार चातुर्मास के लिए रामटेक क्षेत्र की ओर हो रहा था। गर्मी का समय था। शाम करीब ४ बजे बरमान, नरसिंहपुर, मध्यप्रदेश से लिंगा गाँव की ओर विहार हुआ। विहार किए हुए १ घंटा ही नहीं हुआ था कि एकदम घटाएँ आईं और आँधी-पानी के साथ अंधेरा-सा छा गया। जब मार्ग स्पष्ट न सूझे तो कैसे करें श्रमण विहार? आचार्यश्रीजी एक वृक्ष के नीचे जाकर बैठ गए। साथ वाले एक दो साधु एवं कुछ श्रावक भी ठहर गए। शेष साधु विहार कर लिंगा जाकर ही ठहरे। सारी रात्रि गुरुदेव ने उसी वृक्ष के नीचे बिताई। प्रातः सूर्योदय होने पर वह विहार करके लिंगा पहुँचे। जो साधुगण शाम को ही विहार कर लिंगा पहुँच गए थे, उन्होंने गुरुदेव से प्रायश्चित्त स्वीकार किया।

     

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    अनुकरणीय है मोक्षाभिलाषी आचार्य भगवन् की चर्या, जो तीर्थंकर और गणधर देवों के द्वारा सेवनीय, अत्यंत पवित्र, हिंसादि पापों से दूर ‘ईर्या समिति' का पालन करने में आगम कथित उद्योत शुद्धि का भी पूर्णतः पालन करते हैं।

     

    वैराग्यवर्धिनी वाणी की देवी : भाषा समिति

     आगम की छाँव 

     

    हास्यकर्कश.....................भाषासमितिर्मता।।२८५-२८६।। 

    चतुर पुरुष हँसी के वचन, कठोर वचन, चुगली के वचन, दूसरे की निंदा के वचन और अपनी प्रशंसा के वचनों को तथा विकथाओं को छोड़कर, केवल धर्ममार्ग की प्रवृत्ति करने के लिए तथा अपना और दूसरों का हित करने के लिए सारभूत, परिमित और धर्म से अविरोधी जो वचन कहते हैं, उसको * भाषा समिति' कहते हैं।

     

     आचार्यश्री का भाव  

    • भाषा समिति की परिभाषा अद्वितीय है। व्यभिचारी को व्यभिचारी कहना भी गलत है। निंद्य भाषा से अहिंसा को धक्का लगता है।
    • भाषा समिति पूर्वक ही कर्मों के आस्रव को रोका जा सकता है, जो कि जिनधर्म का सार है। भाषा समिति का प्रयोग हो जाए, तो संघ का वर्धन होगा। आदर के साथ भाषा समिति का पालन करें। यह समिति धर्म की मूल एवं मोक्ष का द्वार है, वैराग्यवर्धिनी हैं।
    • वचनों के कारण ही साधर्मी विसंवाद, संघ-विग्रहण (विभाजन) आदि अनेक विषमताएँ उत्पन्न होती हैं। वचनों का प्रयोग बहुत तौल कर करना चाहिए।
    • कटु भाषा के प्रयोग से भवों का वैर हो सकता है। रत्नत्रय को अपनाकर इधर-उधर की बातें नहीं करनी चाहिए। विकथा करने वालों की बुद्धि और श्रुतज्ञान नष्ट हो जाते हैं।
    • लौकिक क्षेत्र में हम अच्छी से अच्छी वस्तु का चयन करते हैं, तो वचन बोलने में भी चयन पद्धति अपनाना चाहिए।
    • साधु को वचन से बँधना नहीं चाहिए।‘देखो' ऐसा कहना चाहिए। यदि कोई कर्कश, कटु शब्द बोलता भी है, तो भी हमें एक मुस्कान दे देना चाहिए। दीक्षा दूसरों के लिए नहीं अपने लिए ली है।
    • प्रासुक शब्द बोलें। प्रासुक वचनों का प्रयोग करें। जैसे प्रासुक भोजन आदि सभी लेते हो, ऐसे ही अपनी जिह्वा को प्रासुक रखो ताकि वह अच्छे-अच्छे शब्दों का प्रयोग करे।
    • प्रासुक वचन दिव्यध्वनि के माध्यम से समवसरण के चहुँ ओर फैलते हैं, तो प्राणी जातिगत वैर भी भूल जाते हैं।
    • अपने मुख को शब्दों के द्वारा अशुद्ध नहीं बनाना। अच्छे-अच्छे शब्दों का प्रयोग करो, सुगंधित मंजन से मुख शुद्धि के समान ।
    • अनर्थ को देने वाले शब्दों से हमारा जीवन नाली के पानी के गटर की तरह बनता है। दूसरे को दुःखी कर दें, सदमा लग जाए ऐसे शब्दों का प्रयोग नहीं होना चाहिए।
    • इतना मीठा बोलें कि भरी गर्मी में भी पित्त शांत हो जाए। पित्त कुपित हो जाए तो बहुत मुश्किल होता है।
    • सज्जनों के शब्द गंगा की कलकल ध्वनि की तरह होते हैं। और दुर्जनों के शब्द नाली के पानी की तरह।

     

    सार्थक बोलो

    व्यर्थ नहीं साधना

    सो छोटी नहीं।

     

    आचार्यश्री का स्वभाव0056.jpg

    अपशब्दों से सदा ही बचते - एक बार आचार्यश्रीजी के पास राष्ट्र विषयक चर्चा चल रही थी। किसी प्रसंग पर आचार्यश्रीजी ने कहा- ‘सोने की चिड़िया........' नामक पुस्तक को पढ़ लेना चाहिए। गुरु मुख से पुस्तक का अधूरा नाम सुनकर, सामने से किसी ने उसे पूरा करते हुए कहा- ‘आचार्यश्रीजी! और लुटेरे अंग्रेज।' उन्हें लगा कि शायद गुरुजी के लिए पूरा नाम विस्मृत हो गया होगा। चर्चा चलती रही। दूसरी बार भी। यही हुआ, गुरुदेव ने अधूरा नाम लिया और सामने वाले ने विनम्र भाव से उसे पूरा करते हुए कहा- ‘आचार्यश्रीजी!... और लुटेरे अंग्रेज।' सामान्य से चर्चा आगे भी चलती रही। पर जब चर्चा के दौरान पुनः तीसरी बार गुरुजी द्वारा उस पुस्तक नाम उसी रूप में, उतना ही लिया गया और ज्यों ही सामने से उसे पूरा करने की कोशिश हुई, तब आचार्यश्रीजी ने समझाने के स्वर में बहुत ही आत्मीय भाव से कहा-'अरे! जब ‘सोने की चिड़िया' कहने से काम चल रहा है। फिर आगे के अपशब्दों का उच्चारण क्यों करना? लिखे हुए अपशब्दों का उच्चारण जिनकी जिह्वा नहीं करती, उनके द्वारा स्वयं से अपशब्दों का निःसृत होना असंभव ही है। अपनी प्रशंसा और दूसरों की निन्दा करने वाली अतिमानिनी भाषा से दूर रहकर ' भाषा समिति' का पालन करने वाले आचार्य भगवन् आचरण के आदर्श हैं।

     

    खुलते सीप निकलते मोती - मई , २०१७, डोंगरगढ़, छत्तीसगढ़ में प्रतिभास्थली की बहनों को मातृभाषा के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए आचार्यश्रीजी बोले- ‘आज अंग्रेजी में शिक्षा होने से घर में बच्चे अंग्रेजी में बोलते हैं। हिन्दी भाषा का बोल-चाल बंद होता जा रहा है। ऐसे में आगे की पीढ़ी संस्कृति व मूलभाषा तो भूल ही जाएगी। पुराने दस्तावेज जो हैं, वह उन्हीं के हस्ताक्षर रूप में रखो। हस्ताक्षर सुरक्षित नहीं रहेंगे तो संस्कृति सुरक्षित नहीं रहेगी। तभी एक शिक्षिका ब्रह्मचारिणी बहन बोली- ‘आचार्यश्रीजी! बच्चों को मातृभाषा का महत्त्व समझ में आ रहा है। बच्चे कहते हैं- ‘हिन्दी हमारी माँ है, और अंग्रेजी नौकरानी है।' तब भाषा समिति साधक आचार्यश्रीजी ने कहा- “नहीं, ऐसा नहीं कहते। संस्कृत हमारी माँ है, हिन्दी मौसी है और अंग्रेजी धाय माँ है।' धन्य है! गुरुवर की भाषा की समुज्ज्वलता को। चारित्र सुगंधी को बिखेरने वाले गुरुवर त्रिकाल वंदनीय हैं, जिनमें कर्कश आदि भाषाओं की गंध दूर-दूर तक नज़र नहीं आती।

     

    0057.jpgकरते आर्ष वाणी का प्रयोग - एक बार आचार्यश्रीजी से किसी महाराज ने कहा‘आचार्यश्रीजी ! मैं प्रवचन करने का त्याग करना चाहता हूँ।आचार्यश्रीजी बोले- ‘नहीं, प्रवचन करने से भाषा समिति पलती | है। मात्र पढ़ने-लिखने से नहीं। इसी प्रसंग को और स्पष्ट करते हुए आपने कहा- “जब हमारी दीक्षा हुई थी तब दो घंटे केशलोंच में लगे थे, उपवास था और गुरु महाराज ने प्रवचन करने का निर्देश कर दिया था। फिर मुझे बोलना पड़ा। प्रवचन को में किसी का कान नहीं पकड़ना, व्यंग नहीं करना, कठोर, कटु, कर्कश शब्दों का प्रयोग नहीं करना। प्रवचन में तो भाषा समिति से, शांति से बोला जाता है।६ मौन से गुप्ति आएगी, समिति नहीं । मौन की अपेक्षा वह बोलना भी अच्छा है, जिससे कि सारा माहौल शांत हो जाए। हित-मित-प्रिय वचन बोलना चाहिए।

     

     

     

     

    साधना-उन्नति की खुराक : एषणा समिति

     आगम की छाँव 

     

    शीतोष्णादि..................................सैषणासमितिर्मता।।३४९।।”

    मोक्ष की इच्छा करने वाले मुनिराज दूसरे के घर में जाकर शीत या उष्ण जैसा मिल जाता है, वैसा शुद्ध भोजन करते हैं, इसी को ‘एषणा समिति' कहते हैं।

    आचार्यश्री का भाव 

    • मुनिराज दूसरे के घर जाकर ४६ दोषों से रहित, जैसा मिल जाता है, वैसा शुद्ध भोजन करते हैं। जैसे भोजन की खोज में गाय जंगल में चली जाती  है वैसे ही मुनिगण भोजन की गवेषणा (खोज) के लिए निकल जाते हैं।
    • हमने तो प्रतिदिन आहार करने का नियम लिया है। यदि ऐसा कहते हैं तो यह कोई नियम नहीं है। यदि हमारे पास क्षमता है तो उपवास आदि भी कर लेना चाहिए। उपवास करके तेल, घी का प्रयोग (वैयावृत्ति) नहीं करवाना चाहिए।आवश्यक हो तभी वैयावृत्ति करवानी चाहिए।
    • यदि आवश्यक नहीं पल रहे, तो उपवास नहीं करना चाहिए। अन्यथा मूल में भूल हो जाएगी।
    • भोजन बनने की क्रिया में कृत, कारित एवं अनुमोदना किसी भी रूप में अपनी उपस्थिति का होना, अधः (नीच) कर्म है। एषणा समिति सूक्ष्म है। यदि साधु अनुमोदना भी करते हैं तो भी पूरे आरंभ-परिग्रह का दोष लग रहा है। वैय्यावृत्ति की दृष्टि से करता है तो ठीक है, नहीं तो गलत है। अधः कर्म का दोष लगा, तो साधुत्व खण्डित हो गया। असंयमी हो जाता है।
    •  नवधाभक्ति महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। इसे हास्य रूप में नहीं लेना चाहिए, नहीं तो चर्या बिगड़ जाएगी।
    • प्रसन्नतापूर्वक आहार करना चाहिए। भोजन के पहले एवं बाद में कुछ देर तक प्रसन्न रहना चाहिए।
    • प्रासुक आहार से तात्पर्य, केवल प्रासुक आहार से ही नहीं, उनका वित्त भी प्रासुक होना चाहिए। वह हिंसात्मक साधनों से कमाया हुआ नहीं हो।
    • श्रावक के लिए कहा बनाओ, फिर आग्रह के साथ खिलाओ। और साधु के लिए कहा इधर-उधर मत देखो, जैसा मिले अच्छी तरह खा लो।
    • आहार ‘मूलाचार' के अनुसार करके आइये। फिर इसकी चर्चा न हो। जब आगम ने अनुमति नहीं दी, फिर इसकी चर्चा क्यों ?
    • रत्नत्रय, त्रिगुप्ति, मुनि मुद्रा, शुक्ल ध्यान एवं तप की रक्षा गृहस्थ आहार दान देकर करता है।
    • एक समय भी विकथा में नहीं जाना चाहिए। यदि आहार करके एक समय भी विकथा में निकलता है तो समाज का खाकर भार (बोझ) लादना जैसा है। दीक्षा ही व्यर्थ है। एक समय भी धर्मध्यान के बगैर नहीं निकलना चाहिए।
    • आहार के बाद निर्विकल्प हो जाना चाहिए। गुस्सा नहीं करना चाहिए। दाल-भात-रोटी, ये ही बात चोखी' वाली बात है। गुस्सा आए तो रसों का त्याग कर दो। अपने अनुकूल जो है वह ले लेना, अनुकूलता का भाव छठवें गुणस्थान में आता ही है।
    • जिस प्रकार पुलिस तभी कार्य करती है, जब ऊपर से अफसर का आर्डर हो। बिना आर्डर के पुलिस कुछ नहीं कर सकती है। उसी प्रकार साता आदि कर्म रूपी अफसर का आर्डर (आदेश) होगा तभी तो आहार मिलेगा, उसके बिना चौके रूपी पुलिस क्या कर सकती है? अर्थात् उसके बिना आहार नहीं मिलेगा।

     

    भूख लगी है

    स्वाद लेना छोड़ दो

    भर लो पेट

     

    आचार्यश्री का स्वभाव

    हर्ष-विषाद से परे संत - आहार के समय अनुकूलता-प्रतिकूलता होना जितना स्वाभाविक है, उतना ही स्वाभाविक है। गुरुवर का उन सबसे अप्रभावित रहना। आहार संबंधी विचार भी उन्हें केवल चर्या के समय ही आता है। इसके बाद कभी भी तत्संबंधी चर्चा करते नहीं सुना। हाँ, प्रसंगवशात् शिष्यों को शिक्षित करने कोई संस्मरण प्रस्तुत हो जाए, वह पृथक् बात है।

     

    0059.jpgसन् १९७०, राजस्थान के छोटे से ग्राम ‘कुली' में मुनि श्री विद्यासागरजी अपने गुरुजी के साथ विहार करके पहुँचे। पड़गाहन का सौभाग्य हनुमानवगस नामक श्रावक को प्राप्त हुआ। आहार प्रारंभ होते ही दाता ने अत्यंत भयंकर गरम जल अंजुली में दे दिया। शरीर तो हिल गया, पर मन का स्पंदन अचल था। जिसके भाव चेहरे पर स्पष्ट झलक रहे थे। कोई विषाद नहीं। दाता के प्रति कोई नाराजगी नहीं। वह चौके से आकर बाहर विराजमान हो गए। यह सब हनुमानवगस के साले श्री सत्यंधर कुमार सेठी, जो उज्जैन से आए थे, देख रहे थे।

     

    मुनियों के प्रति उनकी आस्था नहीं थी, वह बिना हाथ जोड़े द्रष्टा बनकर मुनिश्री की भावभंगिमा का अध्ययन कर रहे थे। मुनिश्री के साम्यभाव से वह बहुत प्रभावित हुए और उनके चरणों में लेट गए। भावुक हो ज़बरदस्ती करके मुनिश्री का हाथ अपने हाथ में लेकर देखा, उसमें फोले आ गए थे। उन्होंने मुनिश्री से कहा- ‘महाराज ! बड़ी भूल हुई। मुनिश्रीजी बोले- “यह तो अशुभ का उदय है। जीवन में आता है। संत हर्ष-विषाद नहीं करते।' यह सुनते ही वे आस्था से भर गए। उन्होंने सन् १९७६ में प्रकाशित समाचार पत्रक' में ‘आर्य परंपरा के रुप में आदर्श जीवन' नामक लेख में इस प्रसंग को उधृत करते हुए लिखा है। कि मुनिश्रीजी द्वारा फिर कभी इस प्रसंग की चर्चा भी नहीं की गई।

     

     

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    गरिमामयी हो मुनि चर्या -  सन् १९८३ में ईसरी, तत्कालीन बिहार में, चातुर्मास प्रवास के दौरान आचार्यश्रीजी ससंघ आचार्यश्री के गृहस्थावस्था के पिताश्री) का भी चातुर्मास हुआ था। एक दिन आचार्यश्रीजी को आहार चर्या से लौटते समय किसी चौके से मुनि महाराज के संकेत करने का स्वर सुनाई दिया। वे समझ गए कि यह आवाज तो मुनि श्री मल्लिसागरजी की है। आहार के बाद आचार्यश्रीजी ने उन्हें भली-भाँति समझाया और मुनि पद की गरिमा का अहसास कराया। धन्य है। आचार्यश्रीजी! जो पूर्व संबंधों को पूरी तरह विस्मृत(भूल) कर साधु चर्या की शुद्धीकरण करने का प्रयास किया। जो स्वयं स्वात्मानुशासित होता है। वही दूसरों के प्रति ऐसा विचार रख सकता है।

     

    नीरस भी लगे सरस - एषणा समिति की चर्चा चल रही थी कि बीच में किसी ने पूछ लिया, 'आचार्यश्रीजी ! वैद्यों का कहना है कि हँसकर आहार लेना चाहिए।' मुस्कराते हुए आचार्यश्रीजी बोले- ‘हाँ, प्रशस्तता के साथ आहार करना चाहिए, जैसे कि दलिया खा रहे हो तो ऐसा लगना चाहिए, जैसे हलवा खा रहे हो।' तभी किसी ने कहा- ‘आपकी बात अलग है। आप तो नीरस में भी सरस का आनंद लेते हैं। 'आचार्यश्रीजी बोले -‘नीरस को सरस बनाने में अलग ही आनंद आता है। लेकिन जिसे दुनिया के पदार्थों में रस आता है, उसे नीरस में नहीं आ सकता । संसार में रस है ही कहाँ? क्योंकि संसार तो नीरस है। यदि वास्तव में रस लेना है, तो संसार का रस छोड़ दो।

     

     मानो छप्पन भोग ले रहे - आचार्यश्रीजी की आहार की मुख मुद्रा ऐसी प्रशस्त एवं प्रसन्नकारी रहती है, जिसे देखकर लगता है, मानो वे छप्पन भोग ले रहे हों। जहाँ वह नमक, मीठा, फल, सब्जी, मेवा-मिष्ठान्न, यहाँ तक कि दूध, दही का भी सेवन नहीं करते। रसों में एक मात्र घी लेते हैं। फिर भी ऐसा लगता मानो छ: रसों से  युक्त पकवान का स्वाद ले रहे हों। पता नहीं उनके अंत में ऐसा कौन-सा रस भरा है जो उनके आहार में घुलता-मिलता जाता है।

     

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    एक बार प्रसंगवशात् किसी ने आचार्यश्रीजी से कहा- ‘आप तो नीरस आहार करते हैं।' आचार्यश्रीजी बोले- ‘कोई भी पुद्गल नीरस नहीं होता। प्रत्येक पुद्गल में स्पर्श, रस, गंध और वर्ण तो हैं ही, फिर नीरस कैसे ? नीरस कहना ये व्यवहार है।' फिर हँसकर बोले- ‘हम तो अध्यात्म रस लेते रहते हैं। रस तो उस समय आता है, जिस समय हम इस प्रकार का भोजन करते हैं |

     

    पात्र हूँ, उपकारी नहीं - आहार के समय श्रावक एवं श्रमण का संबंध दाता एवं पात्र का रहता है। उत्तम पात्र को प्राप्त कर दाता हर्ष के कारण करने योग्य कर्म भी भूल जाते है। एक बार सन् १९८९, तारादेही (दमोह), मध्यप्रदेश में ऐसा ही हुआ था। वहाँ के सिंघई परिवार के साथ ब्रह्मचारिणी पुष्पा दीदी, सागर (वर्तमान में आर्यिका श्री उपशांतमतिजी) ने आचार्यश्रीजी के पड़गाहन का सौभाग्य प्राप्त किया। पहले प्रायः देखा जाता था कि श्रावक, साधु के पाद-प्रक्षालन हेतु चौके के बाहर एक कुर्सी, परात एवं जल से भरा कलश रख दिया करते थे। वहीं पर पाद-प्रक्षालन करके, चौके में ले जाकर पूजन की जाती थी। सिंघई परिवार ने भी इसी तरह चौके के बाहर पाद-प्रक्षालन की पूरी तैयारी कर रखी थी, पर उत्तम पात्र के आने की खुशी में वे पाद-प्रक्षालन किये बिना ही गुरुवर को चौके के अंदर ले गए। चौके के अंदर तो पूजन की तैयारी की गई थी, तो संस्कारवश उन्होंने पाद-प्रक्षालन किए बिना ही सीधे पूजन प्रारंभ कर दी। भोजन की थाली दिखाकर शुद्धि बोलकर मुद्रा (आहार की मुद्रा) छोड़ने का निवेदन करने लगे। पर गुरुवर शांत भाव से मुस्कुराते हुए बैठे रहे। उन्होंने मुद्रा नहीं छोड़ी। श्रावक हड़ियाँ की हड़ियाँ (भोजन से भरे हुए पात्र) उठा-उठा कर दिखाने लगे। पुनः-पुनः शुद्धि बोलकर निवेदन करने लगे, पर गुरुवर ने मुद्रा नहीं छोड़ी। सिंघई परिवार और बह्मचारिणी दीदीजी सब घबरा गए, कहाँ गलती हो गई। पर किसी को भी पाद-प्रक्षालन का स्मरण नहीं आया।

     

    इस समय तक गुरुवर का एक चौके का नियम नहीं था। वह दूसरी जगह भी पड़गाहन दे सकते थे। पर श्रावकों को दुःखी एवं घबराया हुआ देखकर करुणानिधान गुरुदेव चौकी से उठे, और बाहर आकर जहाँ पाद-प्रक्षालन हेतु परात एवं कुर्सी डली थी, उस परात में पैर रखकर कुर्सी पर बैठ गए। श्रावकों को पाद-प्रक्षालन करने का स्मरण हो आया। वे हर्ष से झूम उठे। सिंघईजी ने जल से भरे हुए लोटे को उठाकर जल की धार देकर गुरुदेव का पाद-प्रक्षालन किया। नवधाभक्ति पूर्ण होने पर आहार प्रारंभ हुआ। आहार के बाद ब्रह्मचारिणी पुष्पा दीदी ने कहा- ‘आचार्यश्रीजी, हम लोग तो पाद-प्रक्षालन करना ही भूल गए थे।' आचार्यश्रीजी बोले- ‘श्रावकों ने पाद-प्रक्षालन की व्यवस्था बाहर बनाई थी, इसलिए ध्यान नहीं गया। आचार्यश्रीजी ने कहा- “ज़रा-जरा-सी बात पर लौटना अच्छा नहीं। दाता भक्ति-भाव पूर्वक पात्र की प्रतीक्षा करता है। इस पर घर आया हुआ पात्र यदि लौट जाए, तो उनके दुःख की सीमा नहीं रहती। भावों का भी ध्यान रखना चाहिए। बस इतना ध्यान रहे कि वह आगम के विरुद्ध न हो।'

     

    धन्य है! गुरुवर की सहजता को। वह चौके में उपकारी बनकर नहीं जाते कि मैं उनके यहाँ जाकर उन पर कोई उपकार कर रहा हूँ। वह तो पात्र बनकर दाता की गवेषणा (खोज) करते हैं। जैसे भ्रमर फूल को बाधा दिए बिना पराग का पान कर लेता है, उसी प्रकार गुरुदेव भी श्रावकों को विकल्प कराए बिना आहार करके आ जाते हैं। आगम में श्रमण की इस वृत्ति को ‘भ्रामरी वृत्ति' कहा गया है।

     

    0063.jpgस्वनिमित्तक आहार नहीं लेते - श्रमण कभी भी अपने निमित्त से बना हुआ आहार ग्रहण नहीं करते। यह ‘उद्दिष्ट भोजन' नाम का दोष माना जाता है। आचार्यश्रीजी कहते हैं- ‘एषणा समिति की चर्या तो तीर्थंकरों ने नहीं छोड़ी। जो प्रकृति है उसे सहन करो। आचार्यश्रीजी की विशाल शिष्य मंडली एवं लाखों समर्पित श्रावक। सब चाहते हैं कि गुरुवर को वह ठाट-बाट से आहार करवा सकें। भले ही वे षट्रस भोजन नहीं लेते हों, पर जो लेते हैं उसे ही अनुकूल कर सके । पर गुरुदेव को न तो कोई लगातार आहार देने जा सकता है और न ही किसी दूसरे  चौके की सामग्री उनके चौके में पहुँचा सकता है। वे कहते हैं व्यवस्था नहीं, व्यवस्थित हो जाओ। विहार में भी वह कभी चौका या चौका वालों को साथ नहीं रखते। उसे वह उद्दिष्ट आहार मानते हैं। जैसे लोक में कहा जाता है कि जो लक्ष्मी को पीठ दिखाता है, लक्ष्मी उसके पीछे भागती है। इसी प्रकार गुरुदेव के साथ भी है। वे व्यवस्थाओं को पीठ दिखाते हैं और व्यवस्थाएँ उनके आगे-पीछे भागती हैं। वे आदिवासी क्षेत्रों में विहार करें अथवा अन्य क्षेत्रों में। जितने साधु होंगे उसके अतिरिक्त ही चौके वाले अपनी ही व्यवस्थाओं के साथ व्यवस्थित होकर उनके साथ चलते हैं। गुरुदेव कहीं भी रहें अथाह जनसमूह फूल पर भ्रमर की भाँति उमड़ता ही रहता है। कितनी बार भीड़ के कारण अव्यवस्थित होने से गुरुदेव को बाधा भी पहुँची और वह गिर भी चुके हैं। पर भीड़ तो भीड़ है। अतः वृद्धावस्था की दहलीज़ पर कदम रखने वाले गुरुदेव के साथ अब आहार में प्रायः कोई न कोई मुनिराज चले ही जाते हैं।

     

    एक बार फरवरी,२०१०, देवेन्द्र नगर से कुंडलपुर जाते समय ग्राम हरदुआ' (पन्ना) मध्यप्रदेश में आचार्यश्रीजी को आई फ्लू हो गया। आँखों में बेशुमार पीड़ा थी। आहार के समय मुनिराज एवं कुछ श्रावक जन उनके साथ गए। पर गुरुदेव ने पूजन के बाद एक-एक करके सबको बाहर निकाल दिया। ईर्यापथ भक्ति के बाद मुनि महाराजों ने धीरे से कहा- “आज आपको इतनी पीड़ा थी फिर भी आपने सबको बाहर निकाल दिया था। आचार्यश्रीजी हँसकर बोले- ‘अरे! गाँव में विहार करते हुए चार-पाँच रोज हो गए, एक भी दिन राख की रोटी और धुएँ का पानी नहीं मिला। सभी महाराज आचार्यश्रीजी का तात्पर्य समझ गए कि उनके लिए छिपकर आहार की कोई व्यवस्था तो नहीं की जा रही है, यह जानने के लिए उन्होंने सबको हटा दिया था। तभी एक महाराज ने कहा- ‘आचार्यश्रीजी! अब तो गाँव-गाँव में गैस चूल्हे आ गए हैं।' सब हँसने लगे। गुरुवर उठकर सामायिक में लीन हो गए।

     

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    ऐसे अनेक प्रसंग हैं जब भी उन्हें संयोग से चौके में दो-चार दिन एक जैसी रूप, रंग एवं स्वाद वाली वस्तु मिलती तो वह उस वस्तु को कुछ दिनों के लिए लेना ही बंद कर देते हैं। धन्य हैं ऐसे उद्दिष्ट त्यागी योगीराज को, जो किन्हीं भी परिस्थितियों में व्रतों में दोषों के साथ सामंजस्य स्थापित नहीं करते हैं।

     

    जो प्रकृति है, उसे सहन करो - आचार्यश्रीजी कहते हैं मुनियों को जैसा मिले, वैसा ले लेना ‘एषणा समिति' है। चर्या के समय श्रावकों को कोई कर्ज देकर रखा है क्या ? जो श्रावक को आप कुछ कहते हैं, ऐसा क्यों नहीं करते? वैसा क्यों नहीं किया? ऐसा कहने की जरूरत ही नहीं है। जो प्रकृति है उसे सहन करो।' आचार्यश्रीजी ने आहार के बाद ईर्यापथ भक्ति के समय इसी प्रकार के किसी प्रसंग पर स्वयं के साथ घटित टड़ा, केसली (सागर, मध्यप्रदेश) गाँव का एक प्रसंग सुनाया- 'हमारा जामफल से पड़गाहन हुआ। और थाली में भी जामफल दिखाया। हमने भी उसे हटवाया नहीं। क्योंकि भुना हुआ जामफल उस समय हमारी औषधि थी। (भुना हुआ जामफल सर्दी-खाँसी की औषधि होता है।) आहार शुरू हुआ, तो कोई श्रावक शुरू से ही देने को हुए, तभी किसी ने कहा- “अरे! अभी से जामफल...' पीछे कर दिया। बीच में देना भूल गए। और उसे बाद में लाए, देने को भी हुए तो फिर कहते हैं- “अरे! बाद में जामफल चलाते....' पीछे कर दिया। शुरू से अंत तक दिखाया तो, पर वह चला नहीं पाए।

     

    महासंयम की सिद्धि : आदान-निक्षेपण समिति

    आगम की छाँव 

     

    ज्ञानसंयम..........समितिश्च सा।।५७४-५७५।।

     बुद्धिमान् मुनि ज्ञान के उपकरणों को, संयम के उपकरणों को, शौच के उपकरणों को और सोने-बैठने के साधनों को, नेत्रों से अच्छी तरह देखकर तथा कोमल पिच्छिका से शोधकर प्रयत्नपूर्वक ग्रहण करते हैं और प्रयत्नपूर्वक ही रखते हैं, उनकी इस क्रिया को आदान-निक्षेपण समिति कहते हैं। अर्थात् साधु अपने उपयोग की वस्तुओं का उठाना-रखना पिच्छी से परिमार्जन पूर्वक करते हैं। उनकी यह क्रिया आदान-निक्षेपण समिति कहलाती है।

     

    आचार्यश्री का भाव

    • आदान-निक्षेपण समिति में कमी नहीं होना चाहिए। अगर हम दूसरों के द्वारा कोई काम कराते हैं। तो फिर आदान-निक्षेपण समिति सदोष हो जाती है। हमे स्वयं देखकर के रखना-उठाना चाहिए।
    • जिन-जिन पदार्थों का उपयोग करते हैं तो उसे पिच्छी का प्रयोग करके ही उपयोग करना चाहिए।
    • हमें अपनी चटाई आदि स्वयं बिछाना चाहिए। मेहमान जैसी आदत नहीं डालें कि तुम्हारे आने से पहले व्यवस्था होना चाहिए। यह ठीक नहीं है।
    • अपनी समिति को समीचीन बनाने के लिए अपना कार्य स्वयं करने में शर्म नहीं करना चाहिए। आहार के समय तो एक चींटी भी मर जाती है, तो  माला का प्रायश्चित्त मिलता है। तब फिर दूसरे से काम कराने में आदान-निक्षेपण समिति कैसे पल सकती है ?
    • प्रमाद तो महाशत्रु है। ये असंयम की ओर ले जाता है। रात्रि के समय पाटा आदि उठाना-रखना हीं चाहिए। जहाँ पर शयन करना है, उस स्थान को सूर्यास्त से पहले अच्छे से देखकर पाटा, चटाई आदि लगा लेना चाहिए।  सूर्यास्त पूर्व ही सब कर लेना चाहिए।
    • हिलने-डुलने वाले आसन पर नहीं बैठना चाहिए।
    • धर्मोपकरण ग्रंथ आदि का प्रतिलेखन (परिमार्जन) नहीं करना, ये निंद्य है। उनका रखना-उठाना आदि पिच्छी लगा करके करना चाहिए।
    • मनोयोग के साथ प्रतिलेखन करना चाहिए। बिना मन के यह समिति नहीं होती।
    • आदान-निक्षेपण समिति के पालन के बिना यदि शिथिलाचार करता है तो स्थूल जीवों के समूह का नाश होता है। सूक्ष्म जीवों की बात ही क्या? इसलिए इस समिति का अच्छे से पालन करना चाहिए।

     

    आस्था व बोध

    संयम की कृपा से

    मंज़िल पावें

     

    आचार्यश्री का स्वभाव 

    भूल से भी भूल नहीं होती - आचार्यश्रीजी अपने लिए लाना-ले जाना अथवा उठाना-रखना आदि क्रियाओं को करने का कभी किसी से नहीं कहते। कोशिश भर संकेत/इशारा आदि से बचते हैं।

     

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    अगस्त, २००८, आचार्यश्रीजी रामटेक (नागपुर, महाराष्ट्र) में विराजमान थे। उनकी प्रशांत मुद्रा एक लम्बी दहलान के दाहिनी छोर पर रखे एक तखत पर शोभित हो रही थी। टीकमगढ़ (मध्यप्रदेश) से आईं कुछ ब्रह्मचारिणी बहनों ने उस दहलान में जब प्रवेश किया, तब गुरुजी उठने को ही थे। बहनों ने गुरुवर से दो मिनट का समय देने की प्रार्थना की। गुरुवर रुक तो गए, पर उनकी मुख मुद्रा ऐसा संकेत दे रही थी, जैसे उठना चाह रहे हों, अति-संक्षेप में चर्चा पूर्ण कर वे खड़े हो गए। और दहलान के दूसरे छोर पर बने कमरे में प्रवेश करते ही पुनः पलटे । पलटकर सामने, अपने बैठने वाले स्थान को निहारने लगे और उस ओर आने को हुए। बहनें समझ गईं कि गुरुजी चर्चा के कारण शायद कुछ ले जाना भूल गए। उन्होंने निवेदन किया- “आप न आएँ भगवन् । संकेत दीजिए, हम देना चाहते हैं।' वह पलभर के लिए ठहर गए। बहनों ने शास्त्र उठाकर दिखाया। गुरुजी पुनः आगे बढ़े। बहनों ने पुनः प्रार्थना की, कि आप न आएँ। शायद आपको समय देखना है। पौने तीन हुए हैं गुरुवर। इस पर आचार्य भगवन् कमरे की दहलीज से बाहर कदम बढ़ाकर आने को हुए। बहनों की प्रार्थना पुनः करुणाभाव पूरित हो गई। कृपया आप न आएँ। और सोचने लगीं, क्या हूँ ? शास्त्र, बाजोटा अथवा घड़ी ? इसके अलावा कुछ भी तो नहीं है यहाँ। वे पूरा बाजोटा उठाकर गुरुजी के पास ले जाने को हुईं। यह देख गुरुवर ने अपने कदम आगे बढ़ाए, अपने स्थान तक आकर एक आले में रखे हुए अपने कमण्डल को उठा लिया। यह देख बहनें दुःखी होकर बोलीं हम लोग इतना भी नहीं समझ पाए भगवन् ।

     

    आपने हल्का-सा इशारा क्यों नहीं किया? नहीं तो उस ओर देख ही लेते। वे तो भगवन् हैं, मुस्कराए, ओऽम् बोलकर आशीर्वाद दिया और चले गए। कमरे में कमण्डल की जरूरत होगी, ऐसा वे बहनें सोच ही नहीं पाईं कि वहाँ से बाहर जाने का कोई मार्ग खुलता है। अगले वर्ष वही बहनें पक्षाघात से पीड़ित अपनी (ब्रह्मचारिणी अनीता दीदी की) माँ को गुरुजी के दर्शन करवाने बीना बारहा पहुँचीं। गुरुजी के पास माँ को कुर्सी पर बैठा दिया। और गुरुजी से उन्हें संबोधित करने की प्रार्थना की। संबोधित करने के बाद गुरुजी ने कुर्सी पीछे करने का हाथ से इशारा किया। बहनों ने कुर्सी उठाने के बजाय सरकाकर पीछे कर ली। यह देख गुरुजी तत्काल बोले- ‘कहते हैं, आप बोलते नहीं, इशारा नहीं करते। बोलता हूँ, तो अयत्नाचारपूर्वक क्रिया करते हैं। दोष हमको जाता है। आत्मा ठहर-सी गई उन बहनों की।

     

    स्पष्ट रूप से रामटेक (उपर्युक्त) का उत्तर उन्हें आज मिल रहा था। बहनों ने क्षमा माँगी। धन्य है गुरुवर का जीवन, जिनकी प्रत्येक क्रिया माला में पिरोए गए मोती-सी व्यवस्थित है। जब जिनेन्द्र देव की आज्ञा है कि वस्तु को उठाने-रखने में पिच्छी का प्रयोग करें, तब फिर वह कैसे कमण्डलु को उठा लाने का इशारा करते।

     

    मूलगुण, श्रावकों के नहीं - ५ जनवरी २०१०, शीतकालीन प्रवास, सतना का प्रसंग है। धूप में लगे सिंहासन पर आचार्य श्री अपने शिष्यों के साथ सुशोभित हो रहे थे। ईर्यापथ भक्ति आरंभ होने को थी। मुनि श्री धीरसागरजी आहार करके आए। पर, पाटा एक भी खाली नहीं था। मुनि श्री महासागरजी ने एक श्रावक को पाटे लाने का इशारा किया। यह देख गुरुवर बोले- ‘क्यों, महासागरजी ! आपने महाराज पर करुणा तो की है, पर सक्रिय करुणा नहीं की। उस श्रावक के पास न तो पिच्छी है, और न ही उसकी समितियाँ हैं। अतः उससे हिंसा हो सकती है। आप स्वयं जाकर यदि पाटा नहीं ला सकते थे, तो अपना पाटा तो दे ही सकते थे। करुणा में आपको उत्तीर्णांक तो मिल गए, पर सक्रिय करुणा के अभाव में विशेष अंक नहीं मिल पाए। ध्यान रखा करो।

     

    ऐसे ही एक बार सिद्धक्षेत्र मुक्तागिरि (बैतूल, मध्यप्रदेश) में आचार्यश्रीजी ससंघ का स्वाध्याय चल रहा था। उसी बीच किसी प्रसंग को देखने के लिए किसी अन्य ग्रंथ की जरूरत महसूस हुई । एक मुनिराज ने ब्रह्मचारीजी को बुलाया और कहा कि हमारे कमरे से अमुक पुस्तक ले आओ। यह सुनकर आचार्यश्रीजी बोले- ‘महाराज! ब्रह्मचारीजी को पिच्छी और दे दो, जिससे वह परिमार्जन करके ग्रंथ उठा लाएगा।' मुनिराज गुरुवर का संकेत समझ गए। और स्वयं उठकर ग्रंथ लाने चले गए। एक-एक समिति आचार्यश्रीजी के जीवन की प्राण है। वह न केवल पालन ही करते, अपितु समय-समय पर किसी एक शिष्य के माध्यम से सभी शिष्यों को सजग और सतर्क भी करते रहते हैं।

     

    करूं तो मैं क्या करूं? - १७ अक्टूबर, २00१ ,दयोदय, तिलवाराघाट, जबलपुर मध्यप्रदेश के चातुर्मास में प्रात:कालीन भक्ति के बाद तुरंत उसी स्थान पर ही आचार्य संघ की, ग्रंथराज ' धवला', पुस्तक-१४ की कक्षा प्रारंभ हुई । कक्षा पूर्ण होने के बाद आचार्यश्रीजी शौच क्रिया के लिए जाते थे, अतः तभी एक ब्रह्मचारीजी ने आचार्यश्रीजी का भरा हुआ कमण्डलु लाकर उनके बगल में रख दिया। यह देख गुरुजी बोले- ‘यही तो आप लोग ठीक नहीं करते। बिना पूछे ले जाते हो और बिना परिमार्जन के रख देते हो। कम-से-कम कपड़े से तो परिमार्जन कर सकते थे। इसी कारण मैं अपना कमण्डलु किसी को नहीं देता। तभी धीमे स्वर में अति विनम्र भावपूर्वक एक मुनिराज ने कहा- ‘भैयाजी तो डर गए।' आचार्यश्रीजी बोले- ‘डरने की बात नहीं, इतना कहना आवश्यक होता है। कई बार मैं देखता हूँ। अच्छा नहीं लगता, पर करूं तो मैं क्या करूं?

     

    आचार्यश्रीजी किसी से कुछ भी करवाना नहीं चाहते। उनके अंदर अपने व्रतों की निर्दोषता का भाव अत्यंत सूक्ष्मता से (गहराई तक) समाया हुआ है। जीवों की रक्षा के प्रति, अपने व्रतों के प्रति सतर्कता रखना गुरुवर का एक विशेष गुण है।

     

     

    मुक्ति सुख की बेल : प्रतिष्ठापन समिति

    आगम की छाँव

     

    एकान्ते....................सा समितिर्मता ।।५८८-५८९॥

    मुनि लोग जो मल-मूत्र करते हैं, वह ऐसे स्थान में करते हैं जो एकांत में हो, निर्जन हो, दूर हो, ढका हो अर्थात् आड़ में हो, दृष्टि के अगोचर हो, जिसमें बिल आदि नहीं हो, जो अचित्त हो, विरोध रहित हो अर्थात् जहाँ किसी की रोक-टोक न हो और जिसमें जीव-जंतु नहीं हो। ऐसे स्थान पर देख-शोधकर वे मुनिराज मल-मूत्र आदि करते हैं, इसको ‘प्रतिष्ठापन समिति' कहते हैं।

     

    आचार्यश्री का भाव 

    • जिसमें जन्तु आदि न हों, ऐसे स्थान पर देख-शोध करके मुनिराजों को मल-मूत्र आदि का क्षेपण करना चाहिए।
    •  शौच आदि का स्थान बड़े शहरों में नहीं मिल पाता है। साधु के लिए शहर में रहने का अधिक लोभ नहीं रखना चाहिए। छोटे-छोटे ग्रामों में रह करके व्रतों का निर्दोष पालन हो सकता है।
    • मुनियों को कफ व नाक का मैल डालकर उसके ऊपर बालू या राख डाल देना चाहिए, जिससे उसमें जीव गिरकर मर न जाएँ।
    • नाक, थूक, कफ आदि सामान्य रूप से आता है तो कायोत्सर्ग करना चाहिए। रोगादि की बात अलग है। 
    • आज मुनियों की प्रतिष्ठापन समिति भी गड़बड़ा गई है। शौचकूप बने हैं, उनमें जाते हैं। और कहते हैं ‘इसमें कोई दोष नहीं है। शौचकूप में जो कीड़े होते हैं वे मरते नहीं हैं, वे तो इस मल को खा जाते हैं। यह सब ठीक नहीं है।

     

    कैसे देखते

    संत्रस्त संसार को

    दया मूर्ति हो।

     

    आचार्यश्री का स्वभाव

    वर्तमान की परिस्थिति में प्रतिष्ठापन समिति का पालन कर पाना अत्यंत कठिन है। मलमूत्र विसर्जन हेतु प्रासुक भूमि, एकांत स्थान या तो नगरों में हैं नहीं और यदि कहीं हैं भी, तो वह नगर से पर्याप्त दूर हैं। पर आचार्य भगवन् इस समिति का पालन आगमिक निर्देशानुसार ही करते हैं। इसके लिए उन्हें कितनी ही दूर क्यों न जाना पड़े। प्रमाद उन्हें छूता भी नहीं। यह समिति पल सके, इसलिए वे अपना प्रवास मुख्यत: क्षेत्र पर या शहर से दूर स्थित जिनालयों में करते हैं। कृत्रिम शौचालयों का उपयोग नहीं करते । प्रवास स्थान से एक-दो किलो मीटर की दूरी पर ही वह शौच क्रिया हेतु जाते हैं।

     

    0069.jpgप्रमाद ही बना, प्रमादी - आचार्यश्रीजी का सन् २०१६ का चातुर्मास हबीबगंज, भोपाल, मध्यप्रदेश में चल रहा था। वह नित प्रति शौच क्रिया हेतु लगभग दो किलो मीटर की दूरी पर जाया करते थे। एक दिन पेट गड़बड़ हो गया। उस दिन उन्हें तीन बार शौच के लिए जाना पड़ा। संघस्थ साधुओं ने निवेदन किया कि आप बार-बार दूर न जाएँ, पास वाले स्थान का उपयोग कर लीजिए। पर नहीं, समिति और आवश्यकों के पालन में उन्हें कोई प्रमाद नहीं, बल्कि उनके उत्साह को देखकर प्रमाद को ही प्रमाद आ जाए। उस दिन आचार्यश्रीजी प्रतिष्ठापन समिति का पालन करने

    बारह कि.मी. चले । शारीरिक बाधा के होते भी चर्या को सदोष नहीं होने दिया। धन्य है। गुरुदेव की चर्या ।

     

    शैथिल्य बर्दाश्त नहीं - निहार (बाहर शौच) के विषय में आज हमारे पास प्रस्ताव आ रहे हैं कि महाराज अब आप लोगों को देश-काल के अनुसार शौचकूप में शौच जाना चाहिए। उसके लिए साधुओं के साथ चार-पाँच किलो मीटर तक हम लोगों को जाना पड़ता है। कहाँ तक जाएँ। और आप लोग कब तक इतनी दूर-दूर जाते रहेंगे। उस (शौचकूप) में जाने से कोई उठा-पटक अर्थात् हिंसा नहीं होती है। उस (शौच) का भक्षण तो जीव कर जाते हैं। ये सारी की सारी परिस्थितियाँ परिवर्तित होती जा रही हैं। अरे, पंडितजी! पिच्छी लेकर कोई साधु शौचकूप में जाए तो क्या होगा? हम उनके साथ कैसे व्यवहार करें ? नहीं-नहीं, जो निर्दोष रूप से अट्ठाईस मूलगुणों का पालन करेगा तो चलेगा, अन्यथा हमारे यहाँ नहीं चलेगा।' | ‘आहारचर्या बिगड़ जाती है तो अनगारचर्या भी बिगड़ जाती है। अब वह अनगार (साधु) नहीं रहा, सागार बन गया। भले ही पिच्छी व कमण्डलु हैं तो उससे क्या होता है? फिर निहार भी समाप्त हो जाएगा, विहार भी समाप्त हो जाएगा, चर्या ही समाप्त हो जाएगी। अब न तो ईर्या समिति पल रही है और न कोई भिक्षा से मतलब रहा और न निहार से कोई मतलब। मठाधीश बन जाओ। दिगम्बर परम्परा में ऐसा शैथिल्य बर्दाश्त नहीं हो सकता है, यह निश्चित बात है।

    उपसंहार

    समितियों द्वारा संवर होता है। संवर द्वारा मोक्ष होता है। जो निर्दोष समितियों का पालन करता है, उसका मन हमेशा-हमेशा प्रसन्न रहता है। गुप्तियों में भी उसका मन अच्छे से लग जाता है। और जिसका मन गुप्तियों में लग जाता है, वही अच्छे से ध्यान कर पाता है। एक भी समिति कम होगी तो अहिंसादि व्रतों का मुख्य रूप से घात होगा। समितियों में शिथिलाचारिता रखने वाले के दया आदि व्रत नष्ट होंगे और शील व्रत नष्ट होने से आत्मा का घात करने वाला महापाप उत्पन्न होता है। उस महापाप से दुर्गति प्राप्त होती है और अनंत संसार के लिए कारण होता है।

     

    मुनि की परीक्षा समिति के माध्यम से ही होती है। वो जिस समय सोएँगे उस समय समिति चल रही है। बोलेंगे उस समय भाषा समिति चल रही है जिस समय उठाएँगे-रखेंगे उस समय आदाननिक्षेपण समिति चल रही है। जब चलेंगे, ईर्या समिति से चलेंगे पूरी की पूरी समितियाँ चल रही हैं। किसी भी क्रिया में कमी नहीं है। इसका मतलब है कि प्रत्येक क्रिया के साथ सावधानी चल रही है यानी चौबीसों घंटे (हमेशा) स्वाध्याय चल रहा है। जिस प्रकार हवाई जहाज उड़ने के पूर्व (ऊपर उठने के पूर्व) हवाई पट्टी पर दौड़ने की प्रवृत्ति  करता है, बाद में सीधा ऊपर उठ जाता है, उसी प्रकार साधु प्रवृत्ति के समय सीधे चलते हैं और समाधि व ध्यान के समय ऊपर उठते हैं।

     

    मोक्षमार्ग में

    समिति समतल

    गुप्ति सीढ़ियाँ।


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