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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

दान अपनी कमाई में से देना


संयम स्वर्ण महोत्सव

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दान अपनी कमाई में से देना

 

किसी एक गांव का राजा मर जाने से उसकी एवज में उसके बेटे का राजतिलक होने लगा। जिसकी खुशी में वही उसने दान देना शुरू किया जिसे सुनकर बहुत से आशावान लोग वहां पर जमा हो गये। उन्हीं में एक पढ़ालिखा समझदार पण्डित भी था जिसने होनहार राजा की प्रशंसा में कुछ श्लोक सुनाए। राजा बड़ा खुश हुआ और बोला कि तुमको जो चाहिये सो लो। पण्डित ने कहा मैं अभी आप से क्या लू? फिर कभी देखा जावेगा। राजा ने कहा कि कुछ तो अभी भी तुमको मुझ से लेना ही चाहिये। पण्डित बोला कि यदि आप देना ही चाहते हैं तो एक रुपया मुझे दे दीजिये मगर वह आपका अपनी कमाई का होना चाहिये। इसको सुनकर और सब लोग तो कहने लगे कि इसने राजा से क्या मांगा? कुछ नहीं मांगा। परन्तु राजा ने सोचा कि इसने तो मुझसे बहुत बड़ा दान मांग लिया क्योंकि मेरे पास इस समय मेरा कमाया हुआ तो कुछ भी नहीं है। यह तो राज्य सम्पत्ति है वह तो या तो पिताजी की देन है या यों कहो कि इस पर आम प्रजा का अधिकार है। मेरा इसमें क्या है? अतः मैं मेरी मेहनत से कमाकर लाकर एक रुपया इसे दूं मैं उसके बाद ही इस राज्य- सिंहासन पर बेटुंगा। ऐसा कह कर कोई काम करने की तलाश में गांव से चला गया।

 

इसे राजपुत्र या होनहार राजा समझ कर जिसके भी पास में गया तो उसका सम्मान खूब ही हुआ मगर उससे कोई भी काम कैसे लेवे और क्या काम लेवे? अत: बहुत देर तक चक्कर काटते-काटते वह एक लुहार की दुकान पर पहुंचा। लुहार लोहा गरम करके उसे घन से कूटने को था जो कि अकेला था, दूसरे किसी सहकारी की प्रतिक्षा में था। उसके पास जाकर बोला- कुछ काम हो तो बताओ? तब लुहार बोला- आओ मेरे साथ इस लोहे पर घन बजाओ और शाम तक ऐसा करो तो तुम्हें एक रूपया मिल जावेगा। राजपुत्र ने सोचा ठीक है परन्तु जहां उसने घन को उठाकर एक दो बार चलाया तो उसका शरीर पसीने में तर-बर हो गया। राजपुत्र बोला कि बाबा यह काम तो बड़ा कठिन है, जवाब मिला कि नहीं तो फिर रूपया कहीं ऐसे ही थोड़े ही मिल जाता है। खून का पानी हो जाता है तो कहीं पैसा देखने को मिलता है। राजपुत्र सुनकर दंग रह गया परन्तु और करता ही क्या? लाचार था।

 

जैसे-तैसे करके दिन भर घन बजाकर रूपया लिया तथापि समझ जरूर गया कि आम गरीब जनता किस प्रकार परिश्रम कर पेट पालती है। हम सरीखे राजघराने वालें को इसका बिल्कुल भी पता नहीं है। अगर वह पण्डित ऐसा दान देने को न कहता तो मुझे भी क्या पता था कि प्रजा के लोगों का अपना, अपने कुटुम्ब का भरण-पोषण करने के लिए किस प्रकार कष्ट सहन करना पड़ता है? अस्तु, राजपुत्र वह रूपया ले जाकर पण्डित को देते हुए कहने लगा कि महाशय जी धन्य हैं, आपने मेरी आंखे खोल दी। पण्डित बोला, प्रभो! मुझे यह एक रूपया देकर उसके फलस्वरूप अब आप सच्चे राजा हो रहेंगे।

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