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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पाठ ३ - ऊर्ध्वमुखी व्यक्तित्व

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    विद्याधर का वैराग्य परवान चढ़ रहा था। घर, घर नहीं, कारावास लग रहा था। आत्मा रूपी परिंदा शाश्वत सुख का स्थान मोक्ष महल में जाने के लिए उतावला हो उठा। जहाँ चाह, वहाँ राह मिल ही जाती है। घर परित्याग से श्रमण बनने तक की यात्रा के कुछ प्रसंग प्रस्तुत पाठ के विषय बनाए जा रहे हैं।

     

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    वैरागी की छटपटाहट - पूर्व भवों के पुरुषार्थों से आत्मा रूपी भूमि में वपन किया हुआ वैराग्य का बीज, इस भव के माता-पिता द्वारा प्रदत्त संस्कारों से अंकुरित हो गया। सदलगा में हमेशा मिलने वाले संत समागम रूपी खाद-पानी को पाकर वह विकसित होने लगा। लगभग १८/१९ वर्ष की उम्र में तो वैरागी विद्याधर का मन वैराग्यपथ पर आरूढ़ होने के लिए छटपटाने लगा। कहाँ जाऊँ ? कैसे हित होगा ? मनुष्य पर्याय है।

     

    आत्मोत्थान का सुंदर अवसर है। अब चूक नहीं होना चाहिए। बोरगाँव में मुनि श्री नेमिसागरजी की समाधि के बाद विद्याधर, मारुति एवं जिनगौड़ा इन तीनों मित्रों ने आपस में वैराग्यपथ पर ही बढ़ेंगे, ऐसा निर्णय कर लिया। अब मात्र यह निर्णय करना था कि किसकी शरण में जाएँ। तभी सदलगा में चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज के शिष्य मुनि श्री अनंतकीर्तिजी महाराज पधारे। एकान्त पाकर विद्याधर ने अपने भाव मुनि चरणों में निवेदित कर दिए। मुनिश्री ने कहा- ‘आत्महित हेतु ज्ञान और चारित्र के संगम आचार्य श्री देशभूषणजी महाराज की शरण स्वीकार करो।' इस संघ से विद्याधर बचपन से ही परिचित थे। आचार्य महाराज का उन पर विशेष अनुराग भी था। विद्याधर ने कर लिया निर्णय गुरु के चरण थामने का।

     

    १९ वर्ष की उम्र में गृहत्याग करने की योजना बनाना शुरू कर देते हैं। वह जानते हैं, श्री मल्लप्पाजी का कठोर अनुशासन उन्हें पता है, माँ का उनके प्रति अन्य संतानों की अपेक्षा अधिक स्नेह। भाई-बहनों का आपसी वात्सल्य। ऐसे में घर का परित्याग कर पाना कैसे संभव हो ? इस विचार को मूर्त रूप देने हेतु निर्णय किया कि घर पर बिना कहे ही जाना होगा।

     

    मुख मोड़ा घर से  - अपने निर्णय को मूर्तरूप देने का राजदार, ‘विद्या' ने अपने सखा मारुति को बनाया। परिवार को कहीं से भी, किसी प्रकार की आहट न होने दी। मारुति ने उनका पूर्ण सहयोग किया, यहाँ तक कि जाने का मुहूर्त भी निकलवाकर दिया- ‘अधिक श्रावण माह शुक्ल दशमी, वीर निर्वाण संवत् २४९३, विक्रम संवत् २०२३ रेवती नक्षत्र, बुधवार, २७ जुलाई, १९६६, प्रातःकाल १०.३० बजे।' घर पर ज्ञात न हो जाए, इस कारण मार्ग व्यय हेतु ११२ रुपए भी मारुति ने उस समय एक रुपये दिन की मजदूरी करके एवं मूंगफली बेचकर जो पूँजी जोड़ी थी, वह विद्याधर के कल्याण हेतु न्यौछावर कर दी। और वैराग्यपथ की इस यात्रा के प्रारंभिक चरण में विद्याधर के साथ रहे, उनके दूसरे मित्र ‘जिनगौड़ाजी'। वे उम्र में विद्याधर से चार-पाँच साल बड़े थे। यद्यपि तीनों ही मित्र वैराग्य पथ पर एक साथ बढ़ना चाहते थे, पर किन्हीं कारणों से मारुति उस समय साथ न जा सके। मुनि दीक्षा के बाद अष्टगे परिवार को जब यह ज्ञात हुआ, तब उन्होंने मारुति को यह अमूल्य निधि लौटाने का प्रयास किया, पर मारुति ने लेने से मना कर दिया। विद्याधर ने मारुति के साथ प्रात:काल सदलगा के तीनों जिनालयों की वंदना की। चातुर्मासरत आचार्य श्री अनंतकीर्तिजी महाराज के ससंघ दर्शन कर आशीष प्राप्त किया। पश्चात् मारुति द्वारा निकलवाए गए शुभ मुहूर्त में अपने दूसरे मित्र जिनगौड़ा को साथ लेकर घर से मुख मोड़कर मोक्ष पथ के अविराम पथिक बनने निकल पड़े। और पहुँच गए चूलगिरि, जयपुर, राजस्थान में विराजमान आचार्य श्री देशभूषणजी महाराज के चरणों में, और निवेदित कर दी अपनी दृढ़ भावना एवं वहाँ तक पहुँचने का अपना सारा वृत्तांत भी कह सुनाया। परिवार की अनुमति के बिना संघ में प्रवेश कैसे दें ? विद्याधर की दृढ़धर्मिता से पूर्व परिचित आचार्य महाराज ने तत्काल कुछ निर्णय न देते हुए विद्याधर एवं जिनगौड़ा के लिए बहुत आशीर्वाद दिया। 

     

    प्रतीक्षारत परिवार - सायं के समय भोजन के लिए माँ इंतज़ार करती रहीं पर विद्याधर नहीं आए। सोचा मंदिर में होंगे। कहीं बैठकर ध्यान न लगा रहे हों। सारे मंदिर खोज लिए। सभी मित्रों के यहाँ पता कर लिया। मारुति को तो खामोश रहने का बोलकर गए थे, विद्याधर । वह कैसे कुछ बताते । देखा कि जिनगौड़ा भी घर पर नहीं है एवं विद्याधर भी घर से एक जोड़ी कपड़े लेकर निकले हैं, तब अनुमान लगा लिया कि दोनों मित्र आस-पास कहीं किन्हीं मुनिराज के दर्शन करने गए होंगे, आ जाएँगे। आधी रात निकल गई, माँ विह्वल होने लगी। अन्नाजी (मल्लप्पाजी) ने समझाया कि आ जाएगा। सो जाओ, वह कहीं नहीं जाएगा। प्रतीक्षा करते-करते कुछ दिन निकल गए। पर विद्याधर की कोई खबर प्राप्त नहीं हुई।

     

    संदेशा आया गुरुवर का - एक दिन आचार्य श्री देशभूषणजी महाराज के संघ से हिन्दी भाषा में लिखा हुआ एक पत्र आया। जिसमें लिखा था- ‘मल्लप्पाजी! आपका बेटा हमारे पास है, चिन्ता नहीं करना। वह बहुत होशियार है, होनहार है। हम उसको अच्छा बना देंगे। उसने अभी हिन्दी पढ़ना शुरू किया है। उसको पढ़ाने के लिए एक पंडितजी को नियुक्त किया गया है। उसका विचार पूरे चौमासा पढ़ने का है, फिर देखो उसका विचार आगे क्या बनता है ? जिनगौड़ा उसके साथ में आया है।'

     

    अन्नाजी पत्र पढ़कर अक्काजी (श्रीमंतीजी) से बोले- ‘लो तुम्हारा बेटा बड़ा हो गया है और पत्र माँ के हाथ में देते हुए बोले- ‘अब चार माह तक राह देखना बैठकर, वह अध्ययन करके चार माह बाद वापस लौटेगा, वह अच्छे कार्य हेतु ही तो गया है पर माँ को धैर्य कहाँ था। अन्नाजी भी अशांत हुए होंगे अंदर ही अंदर उन्होंने महावीर से पूछा- ‘तुमसे पैसे लिए थे क्या ?’ ‘नहीं लिए, तो फिर जिनगौड़ा के साथ ही चला गया होगा।' किसे पता था कि मारुति ने अपनी जुड़ी हुई पूँजी अपने मित्र के कल्याण हेतु न्यौछावर कर दी थी।

     

    0078.jpgपा गए, आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत - ब्रह्मचर्य व्रत को मोक्ष महल की। प्रथम सीढ़ी कहा जा सकता | विवाह होने तक का व्रत तो विद्याधर  पहले ही ग्रहण कर चुके थे। संघ में आकर उन्होंने आचार्य श्री देशभूषणजी के चरणों में आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण करने की भावना रखी थी। विद्याधर की  धर्मनिष्ठा से आचार्यश्री पूर्व परिचित थे। उसकी दृढ़ता को देखकर उन्होंने चूलगिरि, जयपुर, राजस्थान में उन्हें आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत का आशीर्वाद प्रदान कर दिया।

     

    संघचर्या, जीवनचर्या बनी - विद्याधर ने अपने कदमों को अग्रगामी बनाने के संकल्प लिए और संघ की चर्या के अनुसार अपनी चर्या बना ली। उन्होंने अपना आचार-विचार, आहार-विहार सब कुछ मुनियों जैसा बना लिया।

     

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    संघ की सेवा - वैय्यावृत्ति में भी वह तत्पर हो गए, जैसे दूर गाँव से साइकिल पर दूध लाना, संघ के निवास स्थान की साफ़-सफ़ाई करना एवं कमण्डलु में जल भरना आदि। आचार्य श्री देशभूषणजी का विहार वर्षायोग के बाद चूलगिरि से गोम्मटेश्वर श्री बाहुबलीजी के महामस्तिकाभिषेक में उपस्थित होने हेतु श्रवणबेलगोला, हासन, कर्नाटक की ओर हुआ।

     

    विहार में उन्होंने कठिन परिश्रम किया। संघ की व्यवस्था का ध्यान रखा। मार्ग में समय-समय पर जिनगौड़ा के साथ आचार्य महाराज की डोली भी अपने कंधे पर उठाकर विहार करवाया। एक बार तो बीजापुर के पास डोली रखकर जैसे ही विद्याधर विश्राम करने बैठे कि बैठक पर एक बिच्छू ने डंक मार दिया। इस पीड़ा को उन्होंने चुपचाप सहन कर लिया। क्योंकि यदि किसी को ज्ञात हो जाएगा, तो फिर डोली उठाकर विहार करवाने को नहीं मिलेगा। 

     

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    ग्रहण की सातवीं प्रतिमा - ३० मार्च, १९६७, श्रवणबेलगोला, हासन, कर्नाटक में उन्हें भगवान् बाहुबली का प्रथम दिन महामस्तकाभिषेक करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। भगवान् का अभिषेक मोहनीय कर्म के पाश को ढीला करने में सहयोगी हुआ। इस दिन विद्याधर की अत्यधिक विशुद्धि बढ़ी और उन्होंने आचार्य महाराज से सीधे सप्तम प्रतिमा के व्रत अंगीकार कर लिए। इस समय तक उन्हें घर छोड़े आठ माह दो दिन हो चुके थे।

     

    मुख मोड़ा, फिर मुड़कर न देखा -  महामस्तकाभिषेक के बाद संघ विहार करके मई माह में अतिशयक्षेत्र स्तवनिधि पहुँचा। स्तवनिधि सदलगा से २८ किलो मीटर की दूरी पर ही है। सूचना मिलते ही सदलगा से महावीर भैया विद्याधर को लेने पहुँच गए। वहाँ पर आचार्य महाराज के दर्शन किए। आचार्य महाराज ने पूछा- ‘क्यों महावीर! विद्याधर को लेने आए हो?' महावीर भैया ने स्वीकृति में हाथ जोड़कर कह दिया- ‘हाँ। आचार्य महाराज बोले- ‘ले जाओ, पर उसका मन नहीं लगेगा। वह वैरागी है, साधु सेवा में उसका मन लगता है। उसका समर्पण अलौकिक है।...वो जाना चाहे, तो ले जाओ।'

     

    तब महावीर भैया अपने छोटे भाई के पास गए। उन्हें लट्ठा के सफेद धोती-दुपट्टा एवं बड़े-बड़े बाल और दाढ़ी-मूंछ देखकर वह अचंभित रह गए। और मन में सोचने लगे कि इन्हें अब घर चलने के लिए मैं कैसे कहूँ, ये क्या अब हमारी सुनेंगे। अन्नाजी ही ले जा सकते हैं अब इन्हें घर। दोनों भाइयों में चर्चा होती है। विद्याधर उन्हें बताते हैं कि उन्होंने ब्रह्मचर्य व्रत एवं सातवीं प्रतिमा के व्रत ग्रहण कर लिए हैं। महावीर भैया बोले- ‘आठ माह हो गए। बहुत पढ़ लिया, अब घर चलो। घर पर दादी, माँ, बहनें सभी बहुत याद करते हैं।' विद्याधर बोले- ‘अभी अध्ययन करने में चार-छह वर्ष लग जाएँगे।' और मौन होकर अपने कार्य में संलग्न हो गए। मौनी से तो जग हारे। क्या करते महावीर भैया, सो घर वापस आ गए। अगले दिन जब अन्नाजी मारुति के साथ स्तवनिधि पहुँचे, तब उन्हें वहाँ विद्याधर नहीं मिले। आचार्य महाराज से पूछा, वह बोले- ‘उसे डर था कि कहीं अन्नाजी आकर ज़बरदस्ती घर न लें जाएँ। ‘मुझे संसार में नहीं फँसना' ऐसा कहकर वह आशीर्वाद लेकर उत्तर भारत चला गया। लेकिन आप चिंता न करें, उसे हिन्दी भी सही नहीं आती, अतः लौटकर आ जाएगा।' आचार्य महाराज का आश्वासन पाकर अन्नाजी घर आ गए। उनका मन अधीर हो उठा था। चार-पाँच माह तक वह गुस्से में रहे। घर का वातावरण अशांत बना रहा। यदि शांत था कोई, तो वह थी माँ।

     

    उत्तर भारत की ओर गमन - इस तरह स्तवनिधि में संघ के प्रवास ने विद्याधर को अशांत कर दिया था। सदलगा पास है, आज महावीर भैया आए, कल अन्नाजी आएँगे। क्या होगा? कैसे होगा? विद्याधर का मन ज्ञानार्जन की प्यास से व्याकुल था। मुनि बनकर विचरण करने हेतु आतुर था। अतः अन्नाजी के आने से पूर्व ही विद्याधर निकल चुके थे, एक अपरिचित किन्तु सुनिश्चित पथ की ओर। उस समय उत्तर भारत में आचार्य श्री शांतिसागरजी के शिष्य आचार्य श्री वीरसागरजी, इनके शिष्य तथा परंपरा के तृतीय पट्टाचार्य आचार्य श्री शिवसागरजी महाराज का विशाल संघ विराजमान था। जिसे ‘बड़ा संघ' कहा जाता था। उस बड़े संघ को लक्ष्य में रख कर विद्याधर ने अजमेर जाने का निश्चय किया।

     

    विद्याधर को स्तवनिधि से कोल्हापुर, बम्बई, अहमदाबाद होते हुए, अजमेर पहुँचना था। अतः वह लगभग २२ मई १९ को स्तवनिधि से कोल्हापुर जाने के लिए निकले। क्षेत्र से बस स्टैण्ड पाँच किलोमीटर की दूरी पर स्थित था। ग्रामीण एवं जंगली इलाका होने से बस रास्ते में कहीं कभी भी खड़ी नहीं होती थी। ब्रह्मचारी विद्याधर पैदल ही बस स्टैण्ड की ओर चले जा रहे थे, रास्ते में कोल्हापुर की ओर जानेवाली बस निकली, ब्रह्मचारी विद्याधरजी ने उसे रोकने के लिए हाथ दिया, आश्चर्य! वह बस ऐसे खड़ी हो गई जैसे उन्हें लेने ही आई हो। दृढ़ इच्छा शक्ति से आसमाँ भी थम जाए, वह तो बस थी। इस तरह वे बस द्वारा कोल्हापुर पहुँचे। वहाँ से आगे रेलगाड़ी द्वारा अजमेर पहुँच गए। इस यात्रा में उन्हें तीन दिन लगे। मार्ग में दो उपवास हो गए। दूसरे उपवास की रात्रि में लगभग ११/१२ बजे वह अजमेर पहुँच गए। यदि वह चाहते तो मार्ग में रुक कर भोजनादि करके भी यात्रा कर सकते थे। पर अपने लक्ष्य तक पहुँचने की तीव्र अभिलाषा एवं उत्तर भारत के स्थानों का विशेष ज्ञान न होने से वह सीधे अजमेर पहुँचे। यात्रा के दौरान उनके पास जो पैसे थे वे सब खर्च हो गए थे। मात्र पाँच रुपये शेष बचे थे। सो वह भी रिक्शे आदि के लिए कम पड़ गए थे।

     

    गुरु की खोज पूर्णता -  की ओर दो दिन के निर्जल-निराहार ब्रह्मचारी श्री सौगनचंदजी विद्याधर अपनी यात्रा पूर्ण करके लगभग २४ मई, १९६७ को अजमेर के ही एक ब्रह्मचारी जी के घर रात्रि में लगभग १२ बजे पहुँचे। भूख एवं गर्मी से विह्वल ब्रह्मचारी विद्याधरजी की स्थिति को देखकर ब्रह्मचारीजी ने उन्हें छत पर लगे नल से स्नान कर सो जाने को कहा। वह छत पर गए तो नल में पानी नहीं आ रहा था। अतः ब्रह्मचारीजी के कमण्डल से अपना दुपट्टा गीला करके ओढ़ लिया और छत पर ही सो गए। दुपट्टा सूख जाने पर गर्मी की वेदना पुनः शुरू हो गई। आँखों ही आँखों में रात निकाली। सुबह अभिषेक-पूजन के बाद भोजन, सामायिक आदि करके वह कब सो गए, उन्हें पता ही नहीं चला। फिर शाम का जल-पान ग्रहण करने के लिए ब्रह्मचारीजी ने उन्हें जगाया।

     

    जल-पान के बाद वह ब्रह्मचारीजी के साथ ज्ञानार्जन की आश लिए विद्वान् पंडित श्री विद्याकुमारजी सेठी (अजमेर) के पास गए। उन्होंने पूछा- ‘क्या करना है ?' ब्रह्मचारी विद्याधर ने कहा‘हमें आत्मसाधना के साथ-साथ ज्ञानाध्ययन भी करना है। इसीलिए संस्कृत पढ़ना चाहता हूँ।' पंडित विद्याकुमारजी सेठी ने उन्हें झिड़कते हुए कहा- ‘पहले हिन्दी तो सीख लो, तब फिर संस्कृत पढ़ना।२६ खाली लौट आए ब्रह्मचारी विद्याधर । यह देख ब्रह्मचारीजी ने उन्हें मुनि श्री ज्ञानसागरजी के पास जाने की सलाह देते हुए कहा- ‘तुम्हारी शिक्षा एवं दीक्षा की प्यास मुनि श्री ज्ञानसागरजी की शरण में जाने से पूर्ण हो सकती है। वे ज्ञान की मूर्ति हैं, जिन्होंने प्राय: आज के सभी आचार्यों एवं उनके संघों में पढ़ाया है। मैं तो समझता हूँ कि तुम्हें वहाँ जाना चाहिए। इसके पूर्व भी जब यही ब्रह्मचारीजी चूलगिरिखानियाजी, जयपुर, राजस्थान में विराजमान आचार्य श्री देशभूषणजी महाराज के संघ में आते थे, तब भी वह ब्रह्मचारी विद्याधरजी को मुनि श्री ज्ञानसागरजी की विद्वतता एवं चारित्र के विषय में बताया करते थे। अतः ब्रह्मचारी विद्याधर मुनि श्री ज्ञानसागरजी की शरण में जाने को सहर्ष तैयार हो गए।

     

    ब्रह्मचारी विद्याधरजी को मुनि श्री ज्ञानसागरजी के पास तक पहुँचाने के लिए ब्रह्मचारीजी ने उनका संपर्क मुनि श्री ज्ञानसागरजी के परम भक्त श्रावक श्रेष्ठी श्री कजोड़ीमलजी अजमेरा, अजमेर से करवाया। दूसरे दिन की रात्रि का विश्राम कजौड़ीमलजी के यहाँ करके प्रातः भोजन आदि से निवृत्त होकर ब्रह्मचारी विद्याधर ने श्री कजौड़ीमलजी, श्री चेतनमलजी एवं श्री मिलापचंदजी अजमेर के साथ मदनगंज-किशनगढ़ की ओर प्रस्थान किया। इस तरह एक अनगढ़ पत्थर को मूर्ति बनाने के लिए एक अलौकिक शिल्पी के हाथों में सौंपने का सौभाग्य गुरुभक्त श्री कजौड़ीमलजी अजमेरा, अजमेर को प्राप्त होता है। इन्होंने अपने जीवनकाल के अंत-अंत तक पहले आचार्य श्री ज्ञानसागरजी की एवं बाद में आचार्य श्री विद्यासागरजी की पूर्ण समर्पित भाव से सेवा की। यहाँ से शुरू होती है विद्याधर की यात्रा, ज्ञान के सागर में डुबकी लगाकर स्वयं विद्या के सागर बनने तक की।

     

    सवारी त्यागपूर्वक किया समर्पण -  श्रावक श्रेष्ठी कजौड़ीमलजी विद्याधर को लेकर मुनि श्री ज्ञानसागरजी के चरणों में मदनगंजकिशनगढ़ पहुँच जाते हैं। मुनि श्री ज्ञानसागरजी को ब्रह्मचारी विद्याधरजी का परिचय देते हुए कहते हैं। कि ये ब्रह्मचारीजी सुदूर दक्षिण भारत से आपके पास ज्ञानार्जन हेतु आए हैं। मुनिश्रीजी बोले- ऐसे तो कई आते-जाते रहते हैं। यह सुनकर ब्रह्मचारी विद्याधर के मन में हलचल हो गई। चरणों में नमोऽस्तु करते हुए बोले- 'मैं जाने के लिए नहीं आया हूँ।' मुनिश्री ने नज़र उठाकर देखा, और पूछा- ‘क्या नाम है। ?' वह बोले- ‘जी, विद्याधर।' नाम सुनकर मुनिश्री को हँसी आ गई, बोले- ‘अच्छा... विद्याधर हो, विद्या लेकर उड़ जाओगे।' विद्याधर बोले- ‘विश्वास कीजिए, मैं ज्ञानार्जन कर भागूंगा नहीं। मुझे अपनी शरण में रख लीजिए।' मुनिश्री बोले- ‘क्यों कजौड़ीमलजी! विश्वास कर लँ ब्रह्मचारी पर। कजौड़ीमलजी कुछ बोल पाते इसके ही पूर्व ब्रह्मचारी विद्याधर हाथ जोड़कर समर्पित भाव से बोले‘गुरुवर! यदि विश्वास नहीं, तो मैं इसी समय से आजीवन सवारी का त्याग करता हूँ।' छोटी-सी बात पर इतना बड़ा त्याग देख अचम्भित हो गए, मुनि श्री ज्ञानसागरजी। और विद्याधर से बोल उठे- “यदि तुम ज्ञानाध्ययन के लिए दृढ़ संकल्पित हो, तो मैं तुम्हें एक दिन विद्यानंदी बना दूंगा।' ‘विद्यानंदी' न्याय एवं दर्शन के बहुत बड़े आचार्य हुए हैं। इस तरह वर्तमान युग की गुरु-शिष्य की निर्मल एवं अनूठी परंपरा का सूत्रपात हो जाता है, एक अनदेखे अपूर्व त्याग एवं समर्पण के साथ। कुछ समय बाद ही विद्याधर नमक एवं मीठा का भी त्याग कर देते हैं।

     

    सवारी त्याग से तात्पर्य -  दक्षिण भारत के लोग प्राय: भोले होते हैं। ब्रह्मचारी विद्याधरजी एक दिन किसी श्रावक के साथ भोजन करने ४/५ किलो मीटर की दूरी पर ताँगे में बैठकर चले गए, जबकि उनका सवारी का त्याग था। जब वह वापस आए, तब किसी श्रावक ने उन्हीं के सामने मुनिश्रीजी से पूछा- ‘सवारी का ऐसा-कैसा त्याग कि ब्रह्मचारीजी भोजन करने ताँगे में बैठकर गए और आए ?' इतने में ब्रह्मचारी विद्याधर बीच में बोल पड़े-‘क्या ताँगा भी सवारी में आता है ? यह तो मैं नहीं जानता था। सवारी त्याग करने में मेरा भाव तो यह था कि आपको छोड़कर नहीं जाऊँगा।' सवारी से उनका तात्पर्य मोटर गाड़ी एवं रेलगाड़ी आदि से था। भोले ब्रह्मचारीजी की भोली-सी बात सुनकर सबको हँसी आ गई।

     

    गुरु-शिष्य की अद्भुत लय - गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी के चरणों में पहुँचने के बाद पच्चीसवें दिन जून, १९६७ में ब्रह्मचारी विद्याधरजी को गुरुवर के प्रथम बार केशलोंच करने का परम सौभाग्य प्राप्त हुआ। इसके बाद तो वह अपने गुरु के चरण सेवक ही बने रहे। ज्ञानसूर्य मुनि श्री ज्ञानसागरजी ने, वृद्धावस्था के पड़ाव पर एक ऐसे शिष्य को प्राप्त किया, जिसमें विस्मित कर देने वाली क्षमता थी, जिसमें इशारों को समझने की सामर्थ्य थी, जो समर्पण की पर्याय, कुशाग्र बुद्धि, सेवा के प्रति लगन एवं विनय की आधारशिला थे। ऐसे शिष्य को प्राप्त कर गुरु ने बिना एक पल आँवाए उनके जीवन को गढ़ना प्रारम्भ कर दिया। गुरु के द्वारा ज्यों-ज्यों तरासा गया, त्यों-त्यों शिष्य में निखार आता चला गया। निखार भी ऐसा था कि देखने वालों को चमत्कृत एवं आकर्षित कर ले। गुरु ने जिस प्रकार भी परीक्षा ली। गुप्त रूप में अथवा प्रकट रूप में, उसमें उन्हें अपने शिष्य को शत-प्रतिशत अंक देने पड़ते। उनका मन हर्ष से झूम उठता था। वह अपने अन्तस् का संपूर्ण अध्यात्म, संपूर्ण साहित्य व संपूर्ण ज्ञान अपने शिष्य के हृदयरूपी गमले में उड़ेल देना चाहते थे। इस तरह गुरु-शिष्य की दिनचर्या अद्भुत लय-ताल के साथ सुन्दर संगीत देने लगी। उसका चित्रण पाठ्य पुस्तक-१-‘प्रणामांजलि' में पाठकों को प्राप्त हुआ ही है।

     

    मुनि बनने की तैयारी -  सन् १९६७, मदनगंज-किशनगढ़, अजमेर, राजस्थान चातुर्मास के दौरान एक दिन रात्रि में ब्रह्मचारी विद्याधरजी को बिच्छू ने काट लिया। मुनि श्री ज्ञानसागरजी महाराज ने समाज के लोगों से शीघ्र उपचार करने के लिए संकेत किया। तुरंत वैद्यजी को बुलवाया। पर ब्रह्मचारीजी ने उपचार लेने से मना कर दिया । बिच्छू के डंक की पीड़ा और उपचार की मनाही देख समाज के लोगों ने आग्रह किया। कुछ प्रमुख लोगों ने उपचार न लेने का कारण पूछा, तब वह बोले- ‘मुझे मुनि बनना है, तब कैसे सहन करूंगा।' ऐसा कह कर वह चटाई पर लेट गए। और बिना किसी उपचार के उस असहनीय पीड़ा को समता से सहन करते रहे। समाज के लोगों ने जब मुनि श्री ज्ञानसागरजी को बताया, तब उनके चेहरे पर गर्वमिश्रित मुस्कान फैल गई। और उन्हें अपने शिष्य की मुनि बनने की तीव्र अभिलाषा का भान भी हो गया। 

     

    गुरु कसौटी, तो शिष्य खरा सोना - ब्रह्मचारी विद्याधरजी की चर्या, साधना, लगन, निष्ठा, समर्पण, सेवाभावना, हृदय की सत्यता, आज्ञापालन भाव, अध्ययन की ललक, जनसंपर्क से विमुखपना, कर्तव्यनिष्ठा एवं समय की बद्धता आदि सभी कुछ देखकर मुनि श्री ज्ञानसागरजी उनसे प्रभावित एवं संतुष्ट थे। अभी शिष्य को आए आठ माह ही तो हुए थे। वह कभी विद्याधर की निर्दोष चर्या देख गर्व से फूल जाते, तो कभी उनकी परीक्षा कर सौ में सौ अंक प्रदान कर खुश हो जाते थे। कभी वह श्रावकों से परीक्षा करवाते और उसमें भी विद्याधर को खरा पाकर मन ही मन मयूर की भाँति झूम उठते थे।

     

    एक दिन तो वह कजौड़ीमल अजमेरा से पूछते हैं कि विद्याधर कब सोता, कब उठता इस पर कभी ध्यान दिया आपने ? कजौड़ीमलजी ने जब आकर बताया कि वह दिन में जितना विषय पढ़ते हैं, वह जब तक पूरा तैयार नहीं हो जाता, तब तक सोते नहीं हैं। और कितने बजे -भी सोएँ, पर चार बजे उठ ही जाते हैं। दोपहर में तो विश्राम का सवाल ही नहीं उठता। पूरे समय आपकी ही नज़रों के सामने रहते हैं। यह सुनकर गुरुवर भाव विभोर हो जाते हैं। एक ओर वह विद्याधर को कक्षा में निर्देश देते हैं कि आचार्य प्रणीत ग्रंथ ही पढ़ना चाहिए, वहीं दूसरी ओर श्रावक द्वारा गुप्त रीति से पंडित प्रणीत ‘मोक्षमार्ग प्रकाशक' ग्रंथ पहुँचवा देते हैं। जब विद्याधर द्वारा उसे स्वीकारा नहीं जाता, तो हर्षित हो उठते हैं। एक दिन मयूर पिच्छी को बिखेर कर उसे बनाने का निर्देश देते हैं। और विद्याधर द्वारा बना दिए जाने पर उन्हें स्नेहपूरित नेत्रों से निहार उठते हैं। कभी वह सुनते हैं कि विद्याधर एक पैर से खड़े होकर साधना कर रहे हैं, कभी सुनते वह शीर्षासन लगा कर साधना कर रहे हैं, कभी उन्हें पता चलता कि विद्याधर तो रात में अपनी चोटी को छत के कड़े से बाँधकर अध्ययन कर रहे हैं। एक दिन श्रावकों से पता चलता है कि आज तो विद्याधर अपने काले-घने, मजबूत बालों को अपने ही हाथों से निर्दयता पूर्वक उखाड़ते चले जा रहे हैं। सर से खून के छींटे उचट रहे हैं, यह सब सुनकर मुनि श्री ज्ञानसागरजी अंदर ही अंदर जिनशासन की महिमा से भर जाते हैं।

     

    कितना कहें और क्या-क्या कहें ? अनंत गुणों का बखान तो सर्वज्ञ नहीं कर पाए, फिर सामान्य की सामर्थ्य कहाँ ? गुरु वृद्ध थे, अनुभवी थे, विद्वान् थे, महाव्रती थे। उनके हाथ में एक अनमोल पाषाण था, जिसे तराशकर वह जीवंत भगवंत की रचना करने जा रहे थे। इसके लिए गुरु स्वयं कसौटी बन गए थे, जिस पर वह पल-प्रति-पल अपने शिष्य रूपी सोने को कसते जा रहे थे। और हर बार सोलह आना खरा पाकर विश्वास से भर जाते थे।

    एक दिन उन्होंने बाल ब्रह्मचारी विद्याधर से कहा कि यदि मुनि बनना है तो दिगंबर मुद्रा में खड़े होकर सामायिक साधना करनी चाहिए। उधर गुरुवर ने पंडित विद्याकुमारजी सेठी से कहा- ‘आपने विद्याधर का दिगंबर रूप देखा है ? देख लेना, निर्दोष हो तो सीधे मुनिदीक्षा देने का भाव बना रहा हूँ। पंडित विद्याकुमार सेठी ने आकर बताया कि उनकी मुद्रा तो तीर्थंकर के समान वीतरागता का स्वरूप प्रकट कर रही। यह सुनते ही गुरुवर का हृदय-कमल खिल उठा और विचार किया कि अब शिष्य रूपी सोने को कसौटी पर कसने की जरूरत नहीं है।

     

    मुनि दीक्षा ही दूंगा, किया निर्णय - प्रत्येक परीक्षा में खरे उतरे बाल ब्रह्मचारी विद्याधर में गुरुवर ज्ञानसागरजी को भावी मुनि की योग्यता नज़र आने लगी थी। साथ ही बिन कहे ही बाल ब्रह्मचारी विद्याधर के अंतस् की ‘निग्रंथ पद प्राप्ति की भावना भी जब कभी उन्हें स्पर्श कर जाती थी। अतः उन्होंने मन ही मन में बाल ब्रह्मचारी विद्याधर को सीधे मुनि दीक्षा देने का निर्णय कर लिया। उस समय गुरुवर दादिया (अजमेर, राजस्थान) गाँव में विराजमान थे। एक दिन उन्होंने मदनगंज-किशनगढ़, अजमेर, नसीराबाद आदि अनेक स्थानों से आए हुए दर्शनार्थियों के सामने बाल ब्रह्मचारी विद्याधर को सीधे मुनि दीक्षा देने की बात रख दी। तभी दादिया गाँव के श्रावक श्रेष्ठी हरकचंदजी झाँझरी ने गुरुवर से विनम्रता पूर्वक पूछा- ‘आप विचार कर रहें हैं या निर्णय कर रहे हैं ?' तब ज्ञानसागरजी महाराज बोले- ‘विचार अब निर्णय में परिवर्तित हो गया है। मैंने विद्याधर की साधना, दृढ़ता, साहस, त्याग, श्रद्धा, ज्ञान की ललक, समर्पण, लगन, विनय, भक्ति, आत्मकल्याण की भावना और आगम निष्ठ आचरण का दृष्टिकोण देख लिया है एवं खूब परीक्षा भी कर ली है। जो सोलह बानी का सोना है, तो वह सोलह बानी का ही रहेगा। खरा तो खरा ही रहेगा, वह कभी अखरेगा नहीं।' 

     

    इसी तरह एक दिन अजमेर से श्री छगनलालजी पाटनी गुरुवर के दर्शनार्थ दादिया आए। उन्होंने भी सीधे मुनि दीक्षा देने के प्रसंग पर गुरुवर से निवेदन किया कि इससे कहीं समाज में विरोध न हो जाए। तब गुरुवर बोले- ‘मैं तो आगम की सर्व दृष्टियों से देखकर के और त्यागीजी की सर्व प्रकार से परीक्षा करने के बाद ही इस निर्णय पर पहुँचा हूँ। मेरी उम्र भी ज्यादा होती जा रही है। फिर मैं उसे मुनि के संस्कार कैसे दे पाऊँगा? कुन्दकुन्द स्वामी की अनुभूति का अनुभव कैसे चखा पाऊँगा? मुझे विरोध की कोई परवाह नहीं है। आगम विरुद्ध कार्य हो तो चिन्ता करूं।' गुरुवर ज्ञानसागरजी का दृढ़ निर्णय जानकर पाटनीजी ब्रह्मचारी विद्याधर को परखने उनके पास पहुँचे। और बोले- ‘आप मुनि व्रत को सोच समझकर अंगीकार करना। यह तलवार की धार पर चलने के समान है। और गुरुजी वृद्ध हैं, अतः बाद में आपको अकेले रहना पड़ेगा।' यह सुनकर ब्रह्मचारी विद्याधर बोले- ‘पाटनीजी! इतना तो विश्वास है। कि गुरुदेव मुझे यदि मुनि दीक्षा देते हैं तो चारित्र तो ऐसा (श्री ज्ञानसागरजी की ओर इशारा करते हुए) ही  रहेगा। ज्ञान की बात मैं नहीं कह सकता, किन्तु गुरु ने जो मुझसे अपेक्षाएँ रखी हैं, वैसा ही चारित्र पालन करके दिखा दूंगा।' इस तरह गुरुवर ज्ञानसागरजी ने अपने शिष्य की योग्यता का निर्धारण कर उन्हें सीधे मुनि दीक्षा प्रदान करने का निर्णय कर लिया।

     

    मुनि दीक्षा की घोषणा -  दादिया में ही एक दिन गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी ने अपने प्रवचन के पश्चात् ब्रह्मचारी विद्याधरजी को ३० जून, १९६८ के दिन मुनि दीक्षा प्रदान की जाने की घोषणा कर दी। सीधे मुनि दीक्षा की जानकारी मिलने पर अजमेर से पंडित विद्याकुमारजी सेठी, श्री छगनलालजी पाटनी, सर सेठ साहब श्री भागचन्दजी सोनी, श्री कजौड़ीमलजी अजमेरा एवं श्री कैलाशचंदजी पाटनी आदि श्रीमानों/धीमानों ने आकर गुरुवर से निवेदन किया- ‘आप पहले क्षुल्लक या एलक दीक्षा देवें, इतनी छोटी उम्र में सीधे मुनि दीक्षा देना उचित नहीं।' गुरुवर बोले- ‘मेरी उम्र काफ़ी हो गई है और ब्रह्मचारीजी को मैंने अच्छे से परख लिया है। मेरी उम्र संघ में ही गुजरी है, अतः अपने अनुभव से यह कार्य कर रहा हूँ। यह ब्रह्मचारीजी मुनि बनकर धर्म का बहुत नाम उजागर करेंगे। यह जैन धर्म की बहुत भारी निधि हैं। यह कोई साधारण त्यागी नहीं हैं, इसलिए सीधे मुनि दीक्षा ही दी जाएगी।' गुरुजी का निर्णय सुन सब वापस अजमेर चले गए। गुरुवर भी १४-१५ जून, १९६८ को दादिया से विहार कर २० जून, १९६८ को अजमेर पहुँच गए।

     

    सामाजिक प्रतिक्रिया -  गुरुवर के अजमेर पहुँचते ही ब्रह्मचारी विद्याधर को मुनि दीक्षा दिए जाने की चर्चा जंगल में आग की तरह अजमेर के कोने-कोने में फैल गई। समाज की प्रतिक्रिया विभिन्न रूपों में आने लगी। समाज दो-तीन वर्गों में बँट गया। एक वर्ग का कहना था- ‘श्रमण धर्म युवावस्था में नहीं, तो क्या वृद्धावस्था में पलेगा, अतः दीक्षा होनी चाहिए।' दूसरे वर्ग का कहना था- ‘दीक्षा नहीं होनी चाहिए।' और समाज का एक अन्य वर्ग ऐसा भी था, जिसे संभ्रात श्रेष्ठियों का वर्ग कहा जा सकता है, जो अल्प वय एवं अल्प समय के साधक श्री विद्याधरजी को सीधे मुनि दीक्षा देने का स्पष्ट विरोध कर रहा था। उनका कहना था, ‘यदि सीधे मुनि दीक्षा देनी है तो एक-दो वर्ष ठहरकर अभी और परख लें। अथवा अभी क्षुल्लक या एलक दीक्षा प्रदान कर दें। अन्यथा कल को कुछ होता है तो समाज कलंकित होगी।

     

    इन परिस्थितियों में सर सेठ भागचन्द्र सोनीजी, जो स्वयं भी उस समय मुनि दीक्षा के विरोधी थे, ने समाज को बुलाकर निर्णय किया कि आपस में चर्चा करने से कोई लाभ नहीं। हमें मुनि श्री ज्ञानसागरजी के चरणों में अपना निवेदन रखना चाहिए। यदि वह दीक्षा स्थगित कर देते हैं, तो ठीक है,

    अन्यथा दीक्षा महोत्सव की तैयारी करनी चाहिए। सर सेठजी के नेतृत्व में एक प्रतिनिधि मंडल ने गुरु चरणों में अपना निवेदन रखा। गुरुवर मौन रहे। सेठजी ने पुनः विनम्रतापूर्वक सारी बात रखी। गुरुवर बोले- ‘यदि दीक्षा में आयु का मापदण्ड है तो आप में से कौन-कौन दीक्षा लेने को तैयार है?' प्रतिनिधि मंडल में मौन छा गया।

     

    गुरुवर ने समाज को संबोधते हुए आगे कहा- ‘यदि कल को कुछ होता है तो समाज को कलंकित होने से पूर्व गुरु कलंकित होंगे। हमने उसे परख लिया है। वह पुष्प-सा सुकुमार दिखने वाला युवक भीतर से वज्र-सा कठोर और निजाश्रित (स्वाश्रित) है। उसे कोमल न समझो। तुम्हारी चिंता यह है। कि युवा अवस्था में दीक्षा क्यों दी जा रही है और मुझे इस बात का खेद हो रहा है कि यह मेरे पास बाल्यकाल में क्यों नहीं आया? अजमेर की समाज जाग्रत है, इसलिए अभिनंदन के योग्य है। विश्वास रखो यह युवा श्रमण संस्कृति का एक नया इतिहास रचेगा। इस पर भी यदि आप मना करेंगे तो मैं जंगल में जाकर दूंगा, लेकिन उसे सीधे मुनि दीक्षा ही दूंगा। मौन स्वीकृति देकर प्रतिनिधि मंडल वापस लौट आया। अब उनके समक्ष दीक्षा की तैयारी के अलावा कुछ अन्य विकल्प न था। पर जब विद्याधर की बिनौली (दीक्षा से पहले दीक्षार्थी की शोभायात्रा रूप जुलूस) निकली, उसमें जो उनका ओजस्वी भाषण हुआ, उसको सुनकर सभी चकित रह गए। और सबके मुख से एक स्वर में निकला- ‘हाँ! ब्रह्मचारी विद्याधर की दीक्षा होनी चाहिए। वह सर्वथा योग्य है।

     

    सर सेठ साहब भागचंदजी सोनी का मंच - उद्घोष - प्रतिनिधि मण्डल तैयारी में जुट तो गया, पर मन से संतोष नहीं था। विद्याधर के वचनों से आम समाज तो प्रभावित हुई, पर कुछ लोगों के मन में अब भी संदेह था। ऐसे कुछ व्यक्तियों ने सर सेठ साहब से पूछा- ‘क्या आप इस दीक्षा से संतुष्ट हैं ?' उन्होंने कहा- ‘इसका जवाब मैं ५/६ दिन बाद दे पाऊँगा। पश्चात् उन्होंने भी विद्याधर को परखना प्रारंभ कर दिया। और जब उन्होंने ब्रह्मचारी विद्याधर की प्रातः तीन बजे से लेकर रात्रि ग्यारह बजे तक की दिनचर्या देखी- जो अभी मुनि नहीं है, पर मुनि-सी साधना देख वह भी प्रभावित हुए बिना न रह सके और एक दिन प्रवचन मंच से उन्होंने उद्घोष किया- ‘मेरी परीक्षा में ब्रह्मचारी विद्याधर पूर्णतया पास हो गए हैं। आज मैं मुक्त कंठ से घोषणा करता हूँ कि वह दिगंबर मुनि दीक्षा के सर्वतः योग्य पात्र हैं। इसके लिए सकल जैन समाज अजमेर को भव्य तैयारियाँ करनी चाहिए।' सोनीजी की परीक्षा में पास और उन्हीं के मुख से विश्वास के साथ दीक्षा की घोषणा को सुनकर वहाँ उपस्थित प्रत्येक व्यक्ति की आँखों से आँसू बह निकले। तालियों की गड़गड़ाहट एवं गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी महाराज की जयकारों से सभा पूँज उठी।

     

    दीक्षा का पहुँचा तार, परिवार हुआ बेहाल - दीक्षा का निर्णय हो जाने पर प्राय:कर दीक्षार्थी अपने परिवार से अनुमति लेने घर जाते हैं। पर ‘विद्याधर' ने तो गुरुचरणों में पहुँचते ही सवारी का त्याग कर दिया था। अब उनके घर जाने का प्रसंग ही उपस्थित नहीं था। अतः समाज ने तार (टेलीग्राम) द्वारा सदलगा समाचार भेजा, जो २६ जून १९६८ के दिन सदलगा पहुँचा। महावीर भैया तार पढ़कर अवाक् रह गए। जिसकी किसी ने कल्पना नहीं की थी, ऐसी सूचना सुनते ही अन्नाजी अशांत हो उठे। उन्हें विश्वास था- ‘विद्या घर आएगा, पहले भी तो एकदो बार साधु सेवा करने घर से बाहर गया था, फिर वापस भी आ गया था। इसीलिए अध्ययन पूर्ण कर वह जरूर लौटेगा।' वह मन ही मन बुदबुदाए कि धार्मिक विषयों में रुचि होने से वह अध्ययन करना ही तो चाह रहा है और अभी छोटा होने से घर की जिम्मेदारी भी उस पर नहीं है, यही सोचकर तो मैंने उसे संघों में खुशी-खुशी रहने दिया। वे एकदम गुस्से में भरकर बोले- ‘ऐसे कैसे कोई २१-२२ वर्ष के युवा को दीक्षा दे सकता है। परिवार की अनुमति के बिना दीक्षा कैसे दी जा सकती है ? जब अनुमति प्रदान करने ही घर से कोई नहीं जाएगा, तब कैसे दीक्षा होगी उसकी ?'

     

    घर के मुखिया श्री मल्लप्पाजी अष्टगे ने आदेश जारी कर दिया- ‘कोई कहीं नहीं जाएगा।' अक्का (माँ) स्वयं को न रोक सकी, और पुत्र वियोग का स्वर माँ के हृदय की करुण पीर बन आँखों के नीर द्वारा निकल पड़ा। बोली माँ- ‘पीलू ऐसा नहीं कर सकता। कम से कम माँ से एक बार तो कहा होता। माँ के बिना जहाँ एक पल भी नहीं रहता था, बिना पूछे एक कदम नहीं चलता था, वहीं अब बिन पूछे, बिन कहे हमेशा-हमेशा के लिए माँ को कैसे छोड़ सकता है। सब कुछ मन ही मन में पीने वाली माँ का धैर्य आज हार गया। माँ आगे बोली- ‘हम कहते-कहते थक गए कि एक बार जाकर पीलू को ले आओ। बहुत दिन होते जा रहे हैं, एक बार उसको बुला लाओ। पर हमारी सुनता कौन है ? सब कहते रहे कि वह आ जाएगा-आ जाएगा, पढ़ने ही तो गया है। और... अब...। कोई तो जाकर पीलू को ले आए...।' माँ का करुण स्वर सुनकर छोटे-छोटे भाई-बहन भी अपने भाई के वियोग में रोने लगे। किसी को कुछ भी सूझ नहीं रहा था। रोने का स्वर सुनकर आस-पड़ोस के लोग घर पर आने लगे। पूरे गाँव में खबर फैल गई। सभी का मन सूना हो गया। सब यह सोचकर परेशान थे कि दीक्षा हो जाने पर विद्या फिर कभी सदलगा नहीं आएगा।

     

    पर एक अन्नाजी थे, जिन्हें यह समाचार अभी भी मिथ्या (असत्य) लग रहा था। उन्हें अभी भी विश्वास था कि परिवार की अनुमति के बिना दीक्षा हो ही नहीं सकती। उनके अंदर ही अंदर द्वंद्व चल रहा था- ‘मैंने क्यों विश्वास किया कि वह आ जाएगा, श्रीमंती के बार-बार कहने पर भी उसे लेने क्यों नहीं गया। पकड़कर-बाँधकर ला सकता था उसे, फिर क्यों नहीं लाया। पर अब गलती नहीं करूंगा दीक्षा की स्वीकृति देने कदापि नहीं जाऊँगा और न ही किसी को भेजूंगा....... उसे घर आना ही होगा।' ऐसे अनेक विचार अन्नाजी के मन को आंदोलित करने लगे। उनका पुत्र सुमेरु के समान अचल है, इस बात से अनजान, अपने निर्णय पर अडिग अन्नाजी ने किसी को भी अजमेर जाने की अनुमति प्रदान नहीं की महावीर भैया को विद्याधर के द्वारा मारुति के लिए भेजे गए पत्रों की थोड़ी-थोड़ी जानकारी मिलती रहती थी, जिससे उन्हें लग रहा था कि यह सूचना मिथ्या नहीं हो सकती। पर अन्नाजी से यह कह पाना संभव नहीं था, क्योंकि इस समय वह कुछ भी सुनने या समझने की स्थिति में नहीं थे। अतः महावीर भैया ने घर पर बिना बताए ही अजमेर जाने का निर्णय किया और २७ जून, १९६८ को वे अपने चचेरे भाई के बेटे- मल्लू को साथ लेकर अजमेर के लिए निकल पड़े। अन्नाजी-अक्काजी एवं सभी भाई-बहनों का यहाँ हाल, बेहाल हो रहा था। न तो भोजन बनाने की सुध थी और न ही खाने की। एकडेढ़ माह तक तो समय पर भोजन ही नहीं बना। बन गया तो बन गया, नहीं तो थोड़ा बहुत कुछ खापीकर दिन निकलने लगे। ऐसा लगने लगा जैसे घर पर कोई रहता ही नहीं हो। सब आपस में मानो अपरिचित हों। पहले भी तो विद्या घर पर एक वर्ष से नहीं था, पर तब उसके आने की उम्मीद थी, लेकिन अब तो जैसे सब कुछ खत्म-सा हो गया था।

     

    शांता-सुवर्णा के आँसू थमना नहीं चाह रहे थे। सबको सब जगह ‘विद्या' ही ‘विद्या' नज़र आने लगे। अब उन्हें इलायची वाला दूध बनाना अखरने लगा, यह तो विद्या भैया को पसंद था। अनंतनाथशांतिनाथ सभी को भैया की कही एक-एक बात यादों में आकर कानों में ध्वनि पैदा करने लगी। एक बार अन्नाजी जब सोलापुर जा रहे थे, तब विद्या भैया ने उनसे कढाई से ‘सुखी जीवन' लिखा वाला चादर लाने को बोला था। और अन्नाजी भी एक की जगह छह चादर लाए थे। विद्या भैया ने अपनी चादर पर निशान बनाकर उसे अलग रख लिया था। वह किसी भी भाई-बहन के बिस्तर का उपयोग नहीं करते थे।

     

    इस तरह पल-पल की यादें पल-पल की वेदना बन गई थीं। एक माह तक तो अन्नाजी से कुछ भी बात कह पाना कठिन हो गया था। यहाँ परिवार का वातावरण एकदम अशांत एवं हलचल पूर्ण हो गया था। वहाँ महावीर भैया दो दिन की यात्रा पूर्ण कर अजमेर पहुँचने वाले थे।

     

    दीक्षा पूर्व की तैयारी - यहाँ अजमेर में सर सेठ साहब के नेतृत्व में दीक्षा की तैयारियाँ ज़ोर-शोर से होने लगीं। सम्पूर्ण अजमेर में स्थान-स्थान पर स्वागत-द्वार बनाए गए। दीक्षा समारोह के लिए आकर्षक एवं विशाल सभा मंडप का निर्माण किया गया। श्रमण संस्कृति को प्रकाशित करने वाले सुंदर-सुंदर वाक्य लिखे गए। दीक्षा की तैयारी में आबाल-वृद्ध रम गए। उस समय अजमेर नगर की सुंदरता ऐसी लग रही थी मानो भगवान् ऋषभदेव के जन्म के समय देवों द्वारा सजाई गई अयोध्या नगरी ही हो। जैन समाज में मुनि दीक्षा के प्रति विशेष जिज्ञासा व्याप्त हो गई।

     

    हाथी पर निकलेगी सवारी  सरस्वती के भंडार मुनि श्री ज्ञानसागरजी के कानों में दीक्षा की तैयारियों की चर्चा पहुँच गई। उन्होंने मुस्कराकर सहज ही पूछ लिया- ‘राजकुमार तो हाथी पर चलते हैं, तुम्हारे राजकुमार किस पर चल रहे हैं ?' समाज को संकेत समझते देर न लगी। फिर क्या था, समाज उत्साह से भर गई। और निश्चय किया कि बाल ब्रह्मचारी विद्याधर को राजकुमार की तरह सजाकर हाथी पर बैठाकर ही बिनौली निकालनी है।

     

    विद्याधर तो विद्याधर थे। पूर्व का कमाया हुआ पुण्यरूपी मित्र उनके साथ था। अजमेर में उसी समय एक सर्कस आया हुआ था। यद्यपि सर्कस वालों से बिनौली हेतु छः दिन के लिए हाथी लेना सहज न था। फिर भी इसके लिए छगनलालजी पाटनी ने कांग्रेस के प्रमुख व्यक्ति श्री केसरीचन्दजी चौधरी ओसवाल से चर्चा की। वह बोले- हमारे पास हाथी कहाँ ?' उन्हें बताया कि सर्कस आया है। वह तब छगनलालजी को पुलिस सुपरिटेंडेंट के पास ले गए। पुलिस सुपरिटेंडेंट ने हँसकर कहा- ‘हाथी हमारी जेब में थोड़े ही है।' चौधरीजी बोले- ‘आपकी जेब में ही है। आपकी अनुमति के बिना सर्कस वाले शहर में बँटा भी नहीं गाड़ सकते।' उन्होंने आश्वासन दिया कि मैं कोशिश करता हूँ।' इस तरह माणिकचन्दजी 0091.jpgसोगानी, अध्यक्ष राजस्थान कांग्रेस कमेटी एवं सेल्सटेक्स ऑफीसर मदनलालजी काला आदि के सहयोग से हाथी मिलने की स्वीकृति हो गई। अब हाथी पर निकलेगी राजकुमार विद्याधर की  सवारी। आज से ५० वर्ष पूर्व कुछ ही समय में हाथी की व्यवस्था लगाना कोई सहज न था, पर विद्याधर के पुण्य एवं जैन समाज, अजमेर के पुरुषार्थ से मुनि श्री ज्ञानसागरजी का आशीर्वाद सफलीभूत हुआ।

     

    श्रृंगार से किया इंकार -  जब बिनौली निकलने को हुई तब सेठ भागचंदजी सोनी ने  ब्रह्मचारीजी से निवेदन किया कि वह आज सेरवानी मोडतुर्ग  लगाकर राजशाही वेशभूषा में हाथी पर विराजमान होवें, जिससे बिनौली की शोबा और बड जाएगी |  

     

    ब्रह्मचारीजी बोले -  ‘जब हम पूरे कपड़े ही छोड़ रहे हैं, तो और कपड़े पहनें ही क्यों ? सेठ साहब ने गुरु महाराज से भी कहा। पर ब्रह्मचारीजी मौन रहे। उन्होंने राजशाही वेश-भूषा को स्वीकार नहीं किया, तब सोनीजी ने अपनी हवेली से सोने-चाँदी के हार, मुकुट लाकर बड़ी नम्रता पूर्वक दीक्षार्थी को पहना दिए। इसके लिए ब्रह्मचारीजी मना न कर सके। सफेद धोती-दुपट्टे में सोने-चाँदी के हार मुकुट एवं तिलक से सजे-धजे दीक्षार्थी राग से विराग की कहानी कह रहे थे।

     

    बिनौली के छह दिन - बिनौली अजमेर नगर के स्थान-स्थान से निकाली गई। विद्याधर को राजकुमार की भाँति सजाया गया। विद्याधर तो विद्याधर, जिस हाथी पर उन्हें बैठाना था उस हाथी को भी समाज ने जीभरकर सजाया था। इसी बीच जब विद्याधर को सजाया जा रहा था, तब किसी श्रावक ने मुनि श्री ज्ञानसागरजी महाराज से पूछ लिया- ‘महाराज! आपकी भी बिनौली निकली थी ?' महाराज हँसकर बोले- ‘क्या बूढ़ों की भी बारात निकलती है ?' मुनि दीक्षा के समय गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी लगभग ६८ वर्ष के थे, एवं उनकी क्षुल्लक, एलक आदि दीक्षाएँ क्रमशः हुई थीं।

    अजमेर का वातावरण एकदम प्रशस्त बन गया था। ब्रह्मचारी विद्याधर की बिनौली २५ जून से ३० जून तक छह दिन लगातार अजमेर नगर के विभिन्न स्थानों से सायं ७ बजे से निकाली जाती थी।

     

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    जून, दीक्षा के दिन प्रातः ७.३० पर निकाली गई थी। बिनौली निकालने का सौभाग्य २५ जून को सेठ मिश्रीलाल, मीठालालजी पाटनी को, २६ जून को सेठ राजमल मानकचन्द चाँदीवालजी को, २७ जून को सेठ पूरणलालजी गदिया वालों को, २८ जून को सेठ माँगीलाल रिखभदासजी बड़जात्या (फर्मनेमीचंद, शांतिलाल बड़जात्या) को, २९ जून को समस्त दिगम्बर जैन जैसवाल पंचायत केसरगंज वालों को एवं ३० जून जिस दिन दीक्षा थी, उस दिन प्रात:काल की बिनौली का महान् सौभाग्य सेठ श्री हुकुमचंदजी दोसी को प्राप्त हुआ था।

     

    दिगम्बर एवं श्वेताम्बर जैन समाज सभी में बिनौली निकालने के समय का उत्साह गज़ब का था। अजमेर की गलियों में पैर रखने की जगह शेष न थी। अजमेर की जनता ने दीक्षोन्मुख ब्रह्मचारी विद्याधरजी को जब ट्यूबलाइटों से घिरे हुए हाथी पर अपनी सादी पोशाक, धोती और दुपट्टे में हार, मुकुट से सजे वीतरागता की ओर अग्रसर होने वाली मुद्रा में देखा, तो वह वाह-वाह कर उठी।

     

    इस तरह विद्याधर के उद्बोधन एवं सर सेठ साहब की घोषणा से विरोध के बादल हट जाने से हर्ष एवं उत्साह की घटाएँ भर आई थीं। पाँचवें दिन तो बिनौली के लिए एक नहीं, सात-सात हाथी लाए गए। तीन सर्कस के और चार हाथी जयपुर से बुलवाए गए थे, जो विशेष आकर्षण के केन्द्र बन गए थे। दीक्षा के दिन प्रात:काल तो ९ हाथी, ११ घोड़े, ११ बग्घियाँ,५ ऊँट,७ बैण्ड टोलियाँ एवं५ ढोल-नगाड़े की टोलियाँ शोभायात्रा में शोभा बढ़ा रही थीं। इस अवसर पर बिनौली में भेंट स्वरूप ढाई हजार रूपए प्राप्त हुए थे, जिनका उपयोग शास्त्र प्रकाशन में करने का निर्णय लिया गया।

     

    0093.jpgमहावीर भैया बने दीक्षा के साक्षी -  २९ जून की शाम को आठ बजे महावीर भैया, मल्लू भैया के साथ अजमेर पहुँच जाते हैं, और विद्याधर भैया की शाम को निकलने वाली अंतिम बिनौली देखने का सौभाग्य प्राप्त कर | लेते हैं। जिस समय वह अजमेर में सोनीजी की नसिया का पता लगा रहे थे, तभी नसियाजी के पास वाले तिराहे से एक विशाल जुलूस निकल रहा था। उसमें हजारों-हजार  लोगों की भीड़, सजी-धजी बग्घियाँ, हाथी, घोड़ा, ऊँट आदि की सवारी, नगाड़े, बैण्ड पार्टियाँ एवं रंगबिरंगे जलते हुए ट्यूबलाइट और गैस बत्ती के लैम्प सड़क के दोनों ओर से जुलूस के आगे-आगे चल रहे थे। महावीर भैया एवं मल्लू भैया दोनों एक चबूतरे पर चढ़कर उस जुलूस को देखने लगे। जुलूस की भव्यता देख उन्होंने एक व्यक्ति से पूछा- “यह क्या हो रहा है ?' उत्तर मिला-‘बिनौली निकल रही है। वह बिनौली नहीं समझते थे। उन्हें तो ऐसा लग रहा था जैसे किसी राजा-महाराजा के यहाँ की बारात निकाली जा रही हो। पर तभी हाथी पर अपने प्यारे-लाड़ले छोटे भाई को सजे-धजे रूप में बैठे देखा, तो अचंभित रह गए। और स्वयं को भी नाचती-गाती टोली में शामिल होने से नहीं रोक पाए। तभी विद्याधर की दृष्टि महावीर भैया द्वारा पहनी हुई ‘गाँधी टोपी' पर पड़ी।‘गाँधी टोपी' देखकर वह उस भीड़ में भी अपने बड़े भैया को पहचान गए। और अपने पीछे बैठे पंडित श्री विद्याकुमारजी सेठी को इशारे से बताया कि महावीर भैया आ गए। पंडितजी ने उन्हें अपने साथ उसी हाथी पर बैठा लिया।

     

    गुरु एवं शिष्य' से महावीर भैया की वार्ता  -  बिनौली के बाद महावीर भैया एवं मल्लू भैया दीक्षार्थी विद्याधर भैयाजी के साथ गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी के कक्ष में गए। वहाँ उपस्थित श्रावकों ने गुरुवर को उनका परिचय दिया। गुरुवर ने खुश होकर उनके सर पर पिच्छी से आशीर्वाद दिया। और विद्याधर की ओर देखकर इशारे से कहा- ‘इन्हें लेने आए हो ?' महावीर भैया ने हाथ जोड़कर कहा- ‘हाँ माता-पिता ने हमें इनको एक बार घर ले जाने के लिए ही भेजा है।' मुस्करा उठे गुरुवर और इशारे से कहा- ‘वह जाए, तो ले जाओ उसे।' महावीर भैया ने बिना अवसर गंवाए पास में बैठे विद्याधर को कन्नड़ भाषा में समझाना शुरू कर दिया। घर की सारी स्थिति बताई, सब तरह से समझाया और अंत में कहा- ‘बस एक बार माता-पिता के पास चलो, फिर जो निर्णय करना हो सो कर लेना।' ब्रह्मचारी विद्याधर बोले- “देखो भैया! मैं पिताजी का स्वभाव जानता हूँ। मैं तो आपके भरोसे ही घर से निकला हूँ, आप घर के मुखिया हैं, इसलिए माता-पिता एवं भाई-बहनों का ध्यान रखना। अंत में बोले- ‘इसी मुनि वेश से ही इस जीवन को अंतिम विदाई देना है। मुनि बनकर ही इस भव से पार होना है। यह सब सुनकर महावीर भैया मौन हो गए। और करुण दृष्टि से गुरुवर की ओर देखने लगे। गुरुवर ने सांत्वना रूप में कुछ भाव इशारे में व्यक्त किए, जिन्हें महावीर भैया न समझ सके। तब विद्याधर भैया ने उसे स्पष्ट करते हुए कहा- ‘भैया! गुरुवर कह रहे हैं कि प्रत्येक जीव अपना आत्म कल्याण करने के लिए स्वतंत्र है।' महावीर भैया मौन बने रहे, और करते भी क्या। क्योंकि भाई का वैराग्य तो सुमेरु की तरह अचल था।  

     

     

    उपसंहार

    एक सच्चे मोक्षपिपासु ने अपनी वर्तमान पर्याय का लक्ष्य जैनेश्वरी श्रमण दीक्षा को प्राप्त करना बना लिया था। अब वह अपने लक्ष्य के अधिक निकट पहुँच चुका था। एक भव्य जीव जब जैनेश्वरी श्रमण दीक्षा अंगीकार करता है, तब गुरुदेव उसके उत्तमांग (मस्तक) पर दीक्षा संस्कार करते हैं। उन संस्कारों में साधु के मूलगुणों को भी दीक्षार्थी में प्रत्यारोपित कर दिया जाता है। इससे उनके चारों ओर एक चक्र बना जाता है, जिसके बाहर गमन करना नहीं होता। आपके आहार, विहार, निहार यहाँ तक कि विचार के प्रति एक संयम की रेखा खीचीं गई होती है, जो बंधन रूप नहीं, अवलंबन रूप हुआ करती है। जिस तरह बेल को बाँधकर लकड़ी का सहारा देकर ऊर्ध्वगामी बना दिया जाता है, उसी प्रकार संयम (चारित्र) का बंधन देकर शुद्ध भावों के सहारे श्रमण ऊर्ध्वगामी होकर अपने मोक्षरूपी लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है।

     

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    जिस प्रकार लगाम लगाने के बाद भी घोड़े की दोनों आँखों की तरफ़ सायवान (पट्टा) लगा दिया जाता है, ताकि उसे सिर्फ़ सामने का रास्ता ही दिखे, इधर-उधर न दिखे। उसी प्रकार सम्यग्दर्शन होने के बाद उसकी सुरक्षा के लिए सम्यक्चारित्र की आवश्यकता होती है, जिससे स्वच्छन्द न हों एवं दृष्टि बिल्कुल सुदृढ़ बनी रहे। ब्रह्मचारी विद्याधर अपने सम्यक्त्व को सुरक्षित रखने हेतु अपनी आत्मा का ऊर्ध्वगमन कराने की तीव्र भावना को हृदय में सँजोए जैनेश्वरी दीक्षा की प्राप्ति हेतु विशाल जुलूस के साथ कार्यक्रम स्थली की ओर प्रस्थान करते हैं।

     

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    वैराग्य ऐसा घर है,

    जिसमें किसी भी व्यवस्था की आवश्यकता नहीं पड़ती।

    एक बार वैराग्य हो गया, तो बंधन छूट जावेगा।

    और बंधन नहीं रहा, तो फिर मुक्ति हो जावेगी।


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