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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

मौत क्या चीज है?


संयम स्वर्ण महोत्सव

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मौत क्या चीज है?

 

एक सेठ था जिसके पूर्वोपार्जित पुण्य के उदय से ऐहिक सुख की सब तरह की साधन-सामग्री मौजूद थी। अतः उसे यह भी पता नहीं था कि कष्ट क्या चीज होती है? उसका प्रत्येक क्षण अमन चैन से बीत रहा था। अब एक रोज उसके पड़ोसी के यहां पुत्र जन्म की खुशी में गीत गाये जाने लगे जो कि बड़े ही सुहावने थे, जिन्हें सुनकर उस सेठ का दिल भी बड़ा खुश हुआ। परन्तु संयोगवंश थोड़ी देर बाद ही वह बच्चा मर गया तो वहां पर गाने के स्थान पर छाती और मूड कूट-कूट कर रोया जाने लगा। जिसे सुनकर सेठ के मन में आश्चर्य हुआ। अतः उसने अपनी माता से पूछा कि मैया यह क्या बात है? थोड़ा देर पहिले जो गाना-गाया जा रहा था वह तो बहुत ही सुरीली आवाज में था मगर अब जो गाना गाया जा रहा है वह तो सुनने में बुरा प्रतीत हो रहा है। | माता ने कहा, बेटा! यह गाना नहीं किन्तु रोना है। थोड़ी देर पहिले जिस बच्चे के जन्म की खुशी में गीत गाये जा रहे थे वही बच्चा अब मर गया है जिसे देखकर उसके घर वाले अब रो रहे हैं सेठ दोड़ा और जहां वह बच्चा मरा हुआ पड़ा था तथा लोग रो रहे थे वहां गया। उसने उस मरे हुए बालक को देखा और खूब गौर से देखा। देखकर वह बोला कि क्या मरा है? इसका मुंह, कान, नाक, हाथ, आंखे और पैर आदि सभी तो ज्यों का त्यों है फिर आप लोग रो क्यों रहे हैं ? तब उन रोने वालों में से एक आदमी कहने लगा कि सेठ साहब आप समझते नहीं हो, तुमने दुनिया देखी नहीं है इसीलिये ऐसा कहते हो। देखो अपने लोगों का पेट कभी ऊंचा होता है और कभी नीचा लेकिन इसका नहीं हो रहा है। अपनी छाती धड़क रही है परन्तु इसकी छाती में धड़कन बिल्कुल नहीं है। मतलब कि हम लोगों के इन जिन्दा शरीरों में एक प्रकार की शक्ति है। जिससे कि जीवन के सब कार्य सम्पन्न होते हैं जिसका कि नाम है आत्मा। वह आत्मा इसके शरीर में नहीं रही है अत: यह मुर्दा यानी बेकार हो गया है। हम लोगों के शरीर में से वह निकल जाने वाली है सो किसी की दो दिन पहले और किसी की दो दिन पीछे अवश्य निकल जावेगी एवं हमारे ये शरीर भी इसी प्रकार मुर्दा बन जावेंगे, मौत पा जावेंगे।

 

आत्मा जिसका कि वर्णन ऊपर आ चुका है जिसके कि रहने पर शरीर जिन्दा और न रहने पर मुर्दा बन जाता है और वह आत्मा अपने मूल रूप में सास्वत है, कभी भी नष्ट होने वाली है और अमूर्तिक है उसमें न तो किसी प्रकार का काला पीला आदि रूप है, न खट्टा मीठा, चरपरा आदि कोई रस है। न हलका भारी, रूखा, चिकना, ठण्डा गरम और कड़ा या नरम ही है। न खुशबूदार या बदबूदार ही है। हां सिर्फ चेतनावान है, हरेक चीज के गुण दोषों पर निगाह करने वाला है। जिसमें अवगुण समझता है उनसे दूर रहकर गुणवान के पीछे लगे रहना चाहता है। यह इसकी अनादि की टेव है जिसकी वजह से नाना तरह की चेष्टाएं करने लग रहा है। उन चेष्टाओं का नाम ही कर्म हे। उन कर्मों की वजह से ही शरीर से शरीरान्तर धारण करता हुआ चला आ रहा है, इसी का नाम संसार चक्र है।

 

संसार चक्र में परिभ्रमण करता हुआ आत्मा इतर जीवात्मा को कष्ट देने वाला बनकर नरक में जन्म लेता है तो वहाँ स्वयं अनेक प्रकार के घोर कष्ट सहन करता है। अपने ऐश आराम की सोचते रहकर छल वृत्ति करने वाला पशु या पक्षी बनता है तो वहां अपने से अधिक बलशाली अन्य प्राणियों द्वारा बञ्चना पूर्वक कष्ट उठाता है। हां, अगर औरों के भले की सोचता है तो उसके फलस्वरूप स्वर्ग में जन्म लेकर सुख साता का अनुभव करने वाला बनता है। परन्तु संतोष भाव से अपना समय बिताने वाला मानव बनता है। इस मानव जन्म में अपने आपके उद्धार का मार्ग यदि वह चाहे तो ढूंढ निकाल सकता है। लेकिन अधिकांश जीवात्मा तो मानव जन्म पाकर भी मोह माया में ही फंसे रहते है। इस शरीर के संबंधियों को अपना संबंधी मानकर मानकर उनमें मेरामेरा करने वाला और बाकी के दूसरों को पराये मानकर उनसे नफरत करने वाला होकर रहता है।

 

कोई विरला ही जीव ऐसा होता है जो कि शरीर से भी अपने आप (आत्मा) को भिन्न मानता है एवं जब कि आप इस शरीर से तथा इतर सब पदार्थों से भी भिन्न है। ऐसी हालत में पराये गुण दोषों पर लुभाने से क्या हानि लाभ होने वाला है। पराये गुण दोष पर में होते हैं उनसे इसका क्या सुधार बिगाड़ हो सकता है? क्यों व्यर्थ ही उनके बारे में संकल्प विकल करके अपने उपयोग को भी दूषित बनावे? तटस्थ हो रहता है। उसके लिये फिर इस संसार में न कोई भी सम्पत्ति ही होती है और न कोई विपत्ति ही, वह तो सहज तथा सच्चिदानन्द भाव को प्राप्त हो रहता है।

 

समता के द्वारा ममता को मिटा डालता है। क्षमा से क्रोध का अभाव कर देता है। विनीत वृत्ति के द्वारा मान का मूलोच्छेद कर फेंकता है। अपना तन, मन और वचन से प्राप्त किये हुये सरल भाव से कपट को पास में भी नहीं आने देता है और निरीहता के द्वारा लोभ पर विजय प्राप्त कर्म निजयी बन कर आत्मा से परमात्मा हो लेता है फिर सूके हुये घाव पर खरूंट की भांति उसका यह शरीर भी अपने समय पर उससे अपने आप दूर हो जाता है। आगे लिये फिर कभी शरीर धारण नहीं करना पड़ता।

 

॥ ॐ शान्ति॥

यही एक कर्त्तव्य है सुखी बने सब लोग।

रोग शोक दुर्भोग का कभी न होवे योग ।

यही एक कर्तव्य है कहीं न हो संत्रास।

किसी जीव के चित्त में, सब ले सुख की सांस ।

 यही एक कर्तव्य है कभी न हो दुष्काल।

भूप और अनुरूप भी सभी रहें खुशहाल।

इति शुभं भूयात्

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