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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पाठ ४ - अपूर्व व्यक्तित्व

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    आचार्य श्री विद्यासागरजी का व्यक्तित्व अब तक के प्राप्त चरित्रों में अश्रुत है। ऐसा कभी नहीं सुना कि एक महापुरुष ने जब घर परित्याग किया हो तो पूरा परिवार गृहत्यागी हो गया हो।और जब श्रमण बनकर जिस गाँव/नगर से गमन किया हो, तब वहाँ के सैकड़ों युवायुवती उनके मार्ग के अनुगामी बन गए हों, परिवार के परिवार संयमपथ पर आरूढ़ हो गए हों। ऐसे अपूर्व व्यक्तित्व के धारी आचार्यश्रीजी के अपूर्व-अपूर्व कुछ प्रसंगों को प्रस्तुत पाठ का विषय बनाया जा रहा है।

     

    अपूर्व व्यक्तित्व  (1).jpg

     

    अपूर्व व्यक्तित्व  (2).jpgदीक्षा की आई मंगल बेला - आ गई वह स्वर्णिम बेला, रविवार, मध्याह्न का समय, ३० जून, १९६८ जब बाल ब्रह्मचारी विद्याधरजी की मन की मुराद पूर्ण होने जा रही थी। दीक्षार्थी ने प्रात:काल अपने धर्म के माता-पिता बने श्रीमान् हुकुमचंद्रजी लुहाड़िया एवं उनकी धर्मपत्नी श्रीमती जतनकुँवरजी द्वारा लाई गई सोने-चाँदी की द्रव्य से ‘शांति विधान किया। छोटे धड़े की नसिया एवं बड़े धड़े की नसिया के बीच छतरी मंदिर में एक विशाल पांडाल बनाया गया। विशाल जुलूस के साथ दीक्षार्थी बाल ब्रह्मचारी विद्याधरजी के पांडाल में प्रवेश करते ही, समाज के श्रेष्ठी वर्ग ने सरस्वती पुत्र गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी महाराज को ससंघ गाजे  बाजे के साथ लाकर दोपहर एक बजे के | लगभग मंचासीन किया गया। पाँच वर्षीय नन्हें बालक ने अपनी तोतली, सहज, मीठी वाणी में मंगलाचरण कर कार्यक्रम को गति प्रदान की। इसके बाद दीक्षार्थी बाल ब्रह्मचारी विद्याधरजी ने श्री १००८ जिनेन्द्रदेव का अभिषेक किया।

     

    अपूर्व व्यक्तित्व  (3).jpgपरिवार से माँगी क्षमा एवं अनुमति - धर्म माता श्रीमती जतनकुँवरजी के साथ शांति विधान करते हुए दीक्षार्थी विद्याधरजी अभिषेक क्रिया के बाद दीक्षार्थी बाल ब्रह्मचारी विद्याधरजी के बड़े भाई श्री महावीर भैयाजी से दो शब्द बोलने का निवेदन किया गया। महावीर भैया को हिन्दी भाषा ठीक से नहीं आती थी, अत: बोलने में ब्रह्मचारी विद्याधर ने उनकी सहायता की। उन्होंने कहा- ‘मुनि दीक्षा लेने की खुशी विद्याधर को है और आप सभी को है, परन्तु हमको नहीं है। हमारा भाई हमसे दूर हो जाएगा, लेकिन मुनि बनना तो बहुत अच्छा है, बनना ही चाहिए। हम परिवार की ओर से क्षमा माँगते हैं, जय जिनेन्द्र। ब्रह्मचारी विद्याधरजी ने भी जाने-अनजाने में हुई त्रुटियों के लिए बड़े भाई एवं परिवार से क्षमा माँगी। और दीक्षा के लिए दीक्षा की अनुमति प्रदान करते हुए। दीक्षार्थी के बड़े भाई महावीरजी अष्टगे अनुमति प्रदान करें, ऐसा महावीर भैया से निवेदन किया। इसे सुनकर महावीर भैया भाव विह्वल हो गए। उन्होंने आँखों में पानी भरकर भरे कंठ से कहा- मैं अनुमति प्रदान करता हूँ। यह दृश्य देखकर सभी की आँखों से आँसू बहने लगे। जय-जयकारों की नाद से आकाश गूंज उठा।

     

    अपूर्व व्यक्तित्व  (4).jpgदीक्षा का निवेदन - परिवार से अनुमति प्राप्त कर दीक्षार्थी बाल ब्रह्मचारी विद्याधरजी ने गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी महाराज से दीक्षा प्रदान करने का निवेदन करते हुए कहा- “आज मैं वंदनीय गुरुदेव का मंगल आशीर्वाद प्राप्त कर भौतिक सुखों को अंतिम प्रणाम कर रहा हूँ। युगादि में आदिम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव ने सर्वप्रथम मुक्ति का मार्ग प्रशस्त किया था। वे ही इस हुण्डा अवसर्पिणी काल के प्रथम निग्रंथ श्रमण थे। आज वे सिद्धालय में विराजमान हैं। दिगंबर हुए बिना, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र की उपलब्धि असंभव है। आज मैं मुक्ति के महान् एवं दिव्य पथ का पथिक बनने जा रहा हूँ। मेरी साधना सार्थक हो। मैं आदि तीर्थंकर ऋषभदेव से लेकर अंतिम तीर्थेश वर्धमान स्वामी तक सभी तीर्थंकर भगवंतों की और पूज्य गुरुदेव की शरण स्वीकार करता हूँ। मैं गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी से करबद्ध प्रार्थना करता हूँ कि वह मुझे निग्रंथ श्रमण की दीक्षा प्रदान कर अनुग्रहीत करें। इस प्रकार निवेदन करके बाल ब्रह्मचारी विद्याधरजी ने गुरुचरणों में श्रीफल के साथ अपना जीवन भी समर्पित कर दिया। गुरुवर ने सर पर पिच्छी रखकर हृदय से आशीर्वाद प्रदान किया।

     

    अपूर्व व्यक्तित्व  (5).jpgतृणवत् उखाड़े केश - इसके बाद दीक्षार्थी ने आसन लगाकर 'ॐ नमः सिद्धेभ्यः' बोलकर केशलोंच करना शुरू कर दिया। यह उनकी ब्रह्मचारी अवस्था का तीसरा केशलोंच था। इससे पूर्व वह दो बार केशलोंच कर चुके थे। पहली बार सितंबर-अक्टूबर, १९६७ मदनगंज-किशनगढ़ में, और दूसरी बार फरवरी, १९६८ दादिया ग्राम (अजमेर, राजस्थान) में बिना राख के किया था। दीक्षार्थी के एकदम काले, घने और मजबूत बाल थे, देखने वालों को लग रहा था कि यह सुकुमार नवयुवा अपने ही हाथों से कैसे और कब तक केश उखाड़ पाएगा। पर जिनका मन संसार शरीर भोगों से पूर्ण विरक्त हो चुका था, उन्हें यह कार्य कठिन होते हुए भी मन से सहज हो गया था। हाथों की अँगुलियाँ भले ही बालों को पृथक् करना न चाह रही हों, बालों के वियोग में मस्तक से भले ही आँसू रूप में रक्त बह रहा हो, पर दीक्षार्थी दृढ़, निष्कंप एवं अचल थे। उनकी प्रसन्न मुख मुद्रा पर मन की मुराद पूर्ण होने रूप संतुष्टि स्पष्टतः देखी जा सकती थी। वह अपने केशों को तृणवत् उखाड़ते चले जा रहे थे। और लगभग एक-सवा घंटे में केशकुंचन की क्रिया संपन्न हो गई।

     

    अपूर्व व्यक्तित्व   (6).jpgकेशलोंच के मध्य धीमंतों के उद्बोधन - बाल ब्रह्मचारी विद्याधरजी के केशलोंच के मध्य पंडित श्री विद्याकुमारजी सेठी, श्री नाथूलालजी वकील बूंदी, श्री के.एल. गोधा, पण्डित श्री हेमचन्द्रजी शास्त्री आदि धीमानों के वैराग्यपूर्ण उद्बोधन हुए। इस अवसर पर धर्मवीर सर सेठ साहब श्री भागचंदजी सोनी ने अपने उद्बोधन में कहा‘बाल ब्रह्मचारी विद्याधरजी युवावस्था में पंचमकाल की भौतिकता के आकर्षण के बावजूद पंचेन्द्रिय विषयों को त्यागकर वीतरागता की ओर कदमबढ़ा रहे हैं। दिगंबर साधु बनना बड़ा साहसिक कदम है।

     

    धन्य है, ऐसी भव्य आत्मा को। इस छोटी उम्र में मुनिव्रत के पालन हो पाने में समाज को संदेह हो रहा था। जब इस संदेह को लेकर समाज गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी के पास गई, तब उन्होंने कहा- ‘हमने सब प्रकार से परीक्षण कर लिया है और मेरी परीक्षा में 'विद्याधर' खरा उतरा है। अतः ‘विद्याधर' मुनि दीक्षा ग्रहण करने योग्य है। यह सुनकर हमने भी ब्रह्मचारी विद्याधरजी की हर प्रकार से परीक्षा की कि ये भोजन कैसे लेते हैं, सामायिक कैसे करते हैं, कितना सोते हैं, कितना पढ़ते हैं, लौकिकजनों से कितना संपर्क रखते हैं, गुरु के प्रति कितना समर्पण भाव है, धर्म का कितना ज्ञान है, वैराग्य कितना मजबूत है, क्या-क्या त्याग है ? आदि हर प्रकार से मैंने स्वयं व अन्य से परीक्षा करवाई, तो ब्रह्मचारी विद्याधरजी हर परीक्षा में खरे उतरे व १०० में से १०० अंक प्राप्त किए। ऐसे मनोज्ञ, वीतरागता व वैराग्य से ओतप्रोत भव्य मुमुक्षु को कौन दीक्षा ग्रहण करने से रोक सकता था ? और आज आप सबके समक्ष वह क्षण उपस्थित है। मैं इनकी जवाबदारी लेता हूँ। दीक्षा के उपरान्त किसी को भी कोई शिकायत नहीं मिलेगी। मुझे पूर्ण विश्वास है कि ब्रह्मचारी विद्याधरजी आचार्य श्री कुंदकुंद स्वामी की परंपरा को श्रेष्ठ ऊँचाइयों पर ले जाएँगे।' इस तरह धीमानों के उद्बोधनों के बीच एक-सवा घंटे में केशलोंच की क्रिया संपन्न हो गई।

     

    अपूर्व व्यक्तित्व   (7).jpgदीक्षा संस्कार - मुनि श्री ज्ञानसागरजी ने दीक्षा देने से पूर्व उदयपुर में विराजमान अपने गुरु आचार्य श्री शिवसागरजी से, ‘मैं दीक्षा प्रदान करूं' इसकी अनुमति मँगवाई। इस दीक्षा कार्यक्रम के विधानाचार्य पंडित श्री विद्याकुमारजी सेठी स्वयं जाकर स्वीकृति लाए। ९ वर्ष की अवस्था में बालक विद्याधर ने चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री १०८ शांतिसागरजी महाराज के प्रवचन सुनकर जो सपना सँजोया था, वह आज साकार होने जा रहा था। मुनि श्री ज्ञानसागरजी ने दीक्षार्थी को दीक्षा वेदी पर विराजमान किया। अपने कर-कमलों द्वारा उनके मस्तक पर आगम के अनुसार दीक्षा के संस्कार मंत्रोचारण पूर्वक प्रारंभ करने से पूर्व उन्होंने कहा- ‘मेरे दीक्षा गुरु आचार्य श्री शिवसागरजी की आज्ञा से उनकी परंपरा में ब्रह्मचारी विद्याधर के मुनि दीक्षा के संस्कार प्रारंभ करता हूँ।” इसके बाद दीक्षार्थी के दीक्षा संस्कार किए। दीक्षा संस्कार के बाद गुरुवर ने उन्हें वस्त्र त्याग करने को कहा। दीक्षार्थी ने पलभर में ही समस्त परिग्रह का परित्याग कर दिया और हो गए निग्रंथ दिगम्बर श्रमण। इसके बाद मुनिश्री ने दीक्षार्थी को जीव रक्षा का उपकरण (साधन) पिच्छिका एवं शुद्धि का उपकरण कमण्डलु प्रदान किया। हाथ में पिच्छिका के आते ही नवदीक्षित मुनि ने गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी को हाथ में पिच्छिका लेकर नमोऽस्तु किया, गुरुवर ने भी उन्हें प्रति नमोऽस्तु किया। दीक्षार्थी के धर्म के बने माता-पिता ने नवदीक्षित मुनि को शास्त्र प्रदान किया। सारा पांडाल आनंद विभोर हो जिनशासन की इस अद्वितीय क्रिया को एकटक निहार रहा था।

     

    दीक्षा का अतिशयकारी पल - दीक्षा संस्कार के बाद दीक्षार्थी ने ज्यों ही अपने वस्त्रों का परित्याग कर दिगंबर मुद्रा को प्राप्त किया, त्यों ही बेमौसम अचानक से बादलों की गड़गड़ाहट पूर्वक बारिश होने लगी, और मात्र दस मिनट होकर बंद हो गई। लोगों के आश्चर्य का उस समय ठिकाना नहीं रहा, जब देखा कि बारिश पांडाल एवं उसके आस-पास ही हुई है। अन्यत्र सभी जगह तो तेज धूप निकली है। सभी को यह दीक्षा किसी अतिशय से कम नहीं लग रही थी। उस समय के ये पल अनुभूति के विषय हैं, जिन्हें अभिव्यक्ति देना असंभव ही है।

     

    इस प्रसंग को सुनकर ऐसा लगा मानो विद्याधर का जीव देवलोक से इसी जिनमुद्रा को धारण करने का लक्ष्य लेकर इस पृथ्वीतल पर आया हो। और देवों ने अपने पूर्व साथी को लक्ष्य की प्राप्ति होते देख अपने हर्ष की अभिव्यक्ति बादलों की गड़गड़ाहट एवं जल की वर्षा करके की हो। धन्य है ऐसे महापुरुष को, जिनके कदम श्रमण पथ पर ‘अतिशय' के साथ रखे गए, और आज ५० वर्ष होने जा रहे हैं, उनके श्रमण जीवन का प्रत्येक पल नित नए-नए अतिशयों की कहानी लिखता जा रहा है।

     

    अपूर्व व्यक्तित्व   (8).jpg‘विद्याधर', बन गए 'विद्यासागर' - दीक्षा संस्कारों में एक नामकरण संस्कार भी होता है। इसमें दीक्षार्थी का नया नाम रखा जाता है। पुराने नाम के साथ जुड़ी स्मृतियों को छोड़ने, नए नाम के साथ नए कुल (तीर्थंकरों के कुल) में जन्म का अहसास कराने, इस कुल में हुए महापुरुषों के आचरणों को स्मरण में रखने एवं इस कुल की मर्यादाओं का ध्यान रखने हेतु नामकरण संस्कार किया जाता है। दीक्षा संस्कार हो गए, | पिच्छिका-कमण्डलु भी प्रदान कर दिया गया। अब सभी की दृष्टि इस ओर थी कि मुनिश्री अपने योग्य, विश्वासी एवं गुणी शिष्य का नामकरण क्या करते हैं। और जैसे ही गुरु ज्ञानसागरजी ने अपने ही साँचे में ढाले गए, अपने ही अंशभूत शिष्य का नाम अपने ही नाम का पर्यायवाची नाममुनि ‘विद्यासागर' रखते हुए उद्घोष किया, तो सारा पांडाल हर्ष विभोर हो उठा। गुरु और शिष्य के नाम की जय जयकारें आकाश एवं धरती पर ऐसी गूंजी, जिनकी ध्वनि जन-जन के मुख से आज तक प्रतिध्वनित हो रही है। और घटित हो गया एक ऐसा दुर्लभ संयोग कि ‘मुनि श्री विद्यासागर भट्टारक' के नाम पर, जिनका नाम ‘विद्याधर' रखा था, आज वह स्वयं भी उन्हीं के नामधारी बन गए।

     

    ‘चारित्र विभूषण' पद हुआ सुशोभित - इस अवसर पर सर सेठ साहब श्री भागचन्द्रजी सोनी, अजमेर द्वारा प्रस्तावित तथा समाज द्वारा अनुमोदित प्रस्ताव के अनुसार मुनि श्री ज्ञानसागरजी महाराज ‘चारित्र विभूषण' की उपाधि से सुशोभित हुए। और आचार्य कुंदकुंद स्वामीजी विरचित ‘समयसार' ग्रंथ की श्री जयसेनाचार्यजी द्वारा लिखित ‘तात्पर्य वृत्ति का हिन्दी अनुवाद गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी महाराज ने किया था, उस ग्रंथ के प्रकाशन की योजना का सूत्रपात भी इसी अवसर पर किया गया। इस तरह चरित्रनायक आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज की ‘मुनि दीक्षा' अत्यंत भव्यता के साथ संपन्न हुई थी। जिन्हें इन पलों के साक्षी बनने का सौभाग्य मिला वे आज भी उस दृश्य का स्मरण कर रोमांचित हो उठते हैं।

     

    गुरु एवं शिष्य के अमृत वचन - दीक्षा का कार्य संपन्न होने के बाद गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी महाराज ने नवदीक्षित मुनि श्री विद्यासागरजी को संबोधित करते हुए प्रेरणास्पद मार्मिक संबोधन दिया, जो प्रथम पाठ्य पुस्तक ‘प्रणामांजलि' में पाठकों को द्रष्टव्य रहा। इसके बाद मुनि श्री विद्यासागरजी से भी बोलने के लिए निवेदन किया गया। तब ‘मुनि दीक्षा को प्राप्त कर गुरु के प्रति उपकारी भावों से भरे नवोदित मुनि श्री विद्यासागरजी ने मंच से कहा -“गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी मुनि महाराज की जय । मैने अपने आत्म कल्याण हेतु यह दीक्षा ग्रहण की है और गुरु महाराज ने मुझे दीक्षा देकर मुझ पर बहुत बड़ा उपकार किया है। मैं गुरु महाराज को विश्वास दिलाता हूँ। कि भगवान् महावीर की वाणी को जैसा आचार्य कुंदकुंद महाराज आदि ने बताया है वैसा ही मोक्षमार्ग स्वीकार करके उस पर मैं निर्दोष रीति से चलूंगा। आपके द्वारा दिए मुनि पद में किसी भी प्रकार का दोष नहीं लगने दूंगा। गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी मुनि महाराज की...जय।

     

    गुरु कृपा सबसे फलदाई - गुरुओं की कृपा से क्या संभव नहीं है ? बाल ब्रह्मचारी विद्याधरजी की दीक्षा के समय अजमेर की समाज ने लगभग दस हजार लोगों के आने का अनुमान कर रसोई बनाई थी। किन्तु लोगों की संख्या बीस-पच्चीस हजार तक पहुँच गई । समाज के प्रतिनिधि घबड़ा कर गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी महाराज के पास गए। और उनसे बोले- ‘गुरुदेव हमारी समाज की इज्जत का सवाल है, भोजन कम न पड़ जाए। आप आशीर्वाद दीजिए!' तब गुरुवर ने कहा- ‘भोजन सामग्री के पात्रों को सफेद कपड़े से ढंक कर कोठयार (भण्डार) में रख दो और वहाँ सामग्री निकालने वाले व्यक्ति को शुद्ध वस्त्र पहना कर बैठा दो, अन्य कोई दूसरा व्यक्ति भीतर न जाए। ध्यान रखना वह कोठ्यार वाला व्यक्ति पात्र के ऊपर ढंके हुए वस्त्र को हटाए बिना ही, सामग्री निकालकर देता जाए।' ऐसा ही किया गया, फिर क्या था, सभी आगन्तुकों का भोजन हो गया, पर भोजन खत्म नहीं हुआ।

     

    अजमेर का स्वर्णिम इतिहास - धर्मवीर सर सेठ साहब श्री भागचंद्रजी सोनी ने ब्रह्मचारी विद्याधरजी की दीक्षा के समय कहा ‘प्राकृतिक सुषमा से पूर्ण भारत के हृदय स्वरूप अजमेर के इतिहास में हुई यह प्रथम मुनि दीक्षा थी। इससे अजमेर धन्य हो गया।' १७ इस अवसर पर सौभाग्यमलजी रचित ‘विद्याधर जीवन चरित' एवं प्रभुदयालजी वकील रचित गीत हजारों की संख्या में बाँटे गए। अमरसेना' आदि पुस्तकें एवं स्तुतियाँ भी समाज में बाँटी गईं। साधर्मीजनों के लिए प्रीतिभोज भी कराया गया।

     

    आज मुनि विद्यासागरजी आचार्य विद्यासागरजी बन, गुरु ने जो देखा था, उसको साकार करते हुए, दीक्षा के ५० वर्ष पूर्ण कर चुके हैं। आचार्यश्रीजी की दीक्षा के दिन आशु कवि प्रभुदयालजी ने गुरुभक्ति से ओत-प्रोत होकर कहा- ‘वर्ण लिखे जाएँगे सुवर्ण के। और आज वही सत्य हो रहा है। आचार्य भगवन् के ‘संयम स्वर्ण महोत्सव' के अवसर पर उनकी दीक्षा से जुड़ा ‘अजमेर' नगर अपने इतिहास में इस सौभाग्य को स्वर्णिम अक्षरों से लिख रहा है। राजस्थान की समाज आज भी पलक पाहुड़े बिछाकर वर्षों से आचार्यश्रीजी के आने का इंतज़ार कर रही है। उन्हें विश्वास है कि एक बार पुनः आचार्यश्रीजी के चरण इस धरती को अवश्य ही पवित्र करेंगे। वहाँ के श्रावक श्रेष्ठी श्री राजेन्द्रकुमारजी धनगसिया ने आचार्यश्रीजी की आगवानी हेतु लकड़ी के ऊपर इंपोर्टेड वर्क वाला एक कीमती स्वर्ण रथ का निर्माण करवाया है, जिसके निर्माण कार्य में सात वर्ष लगे। और लकड़ी का ही इंपोर्टेड वर्क वाला एक सिंहासन भी तैयार करवाकर रखा है।

     

    वर्षों से प्रतीक्षारत यह परिवार अपने इस रथ एवं सिंहासन को संयम स्वर्ण महोत्सव २८ जून, २०१७ के दिन चन्द्रगिरि, डोंगरगढ़ (राजनांदगाँव) छत्तीसगढ़ लाए थे। यह सिंहासन उस समय अनमोल हो गया जब संयम स्वर्ण महोत्सव के दिन आचार्यश्रीजी उस पर आसीन हुए। उनके विराजमान होते ही उसकी शोभा सहस्र गुणित हो गई।

     

    मुनि श्री विद्यासागरजी का प्रथम आहार - दीक्षा संस्कार के दिन दीक्षार्थी का निर्जल उपवास होता है। अगले दिन गुरु एवं शिष्य आहार चर्या करने नगर की ओर निकले। गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी के आहार करवाने का सौभाग्य श्रावक श्रेष्ठी श्री छीतरमलजी दोसी को प्राप्त हुआ। एवं मुनि श्री विद्यासागरजी के प्रथम आहार (पारणा) करवाने का परम सौभाग्य सर सेठ साहब भागचन्द्रजी सोनी परिवार को प्राप्त हुआ। नवोदित मुनिश्री को नवधाभक्ति पूर्वक आहार करवाकर सेठ साहब धन्य हो गए। हजारों की संख्या में नर-नारी आहार देखने उमड़ पड़े। बैण्ड-बाजे एवं विशाल जुलूस के साथ सर सेठ भागचन्द्रजी सोनी मुनि श्री विद्यासागरजी को सोनीजी की नसिया तक पहुँचाने गए। इस दिन मुनिश्री की नाकी (नकसीर) फूट गई थी। गर्मी का मौसम, दीक्षा के कई दिनों पहले से दूर-दूर घरों में निमंत्रण पर जाना, बिनौली वगैरह का निकलना आदि के कारण गर्मी बढ़ गई थी। और पारणा के दिन श्रावकों ने आहार में दूध की ठण्डाई एवं मौसम्मी का रस दे दिया। इससे आहार की संयोजना बिगड़ गई । अतः सर्द-गर्म होने से नाकी (नकसीर) फूट गई।

     

    बच्चों जैसे रोकर हुई महावीर भैया की वापसी - बाल ब्रह्मचारी विद्याधरजी की मुनि दीक्षा के प्रथम पारणा के दिन महावीर भैया ने आहार दान देने का सौभाग्य प्राप्त किया। और उसी चौके में स्वयं भोजन किया। अगले दिन २ जुलाई को उन्होंने और मल्लू भैया ने गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी के चरणों में सदलगा वापस जाने की भावना व्यक्त की। उस समय वह गुरुवर के समक्ष शब्दशः कुछ बोल नहीं पा रहे थे, उन्हें विद्याधर को छोड़कर जाना और उनको मुनि अवस्था में देखना यह सब स्वप्न-सा लग रहा था। जाते समय वह स्वयं को रोक नहीं सके। और बच्चों की तरह फूट-फूट कर रो पड़े। गुरुवर ने उन्हें आशीर्वाद देते हुए कहा- ‘जैसा कहा है, उसका ध्यान रखना।'

     

    उसी समय एक श्रावक श्री चेतन दोसीजी भी इचलकरंजी, महाराष्ट्र जा रहे थे। इचलकरंजी सदलगा के पास होने से महावीर भैया और मल्लू भैया उन्हीं के साथ सदलगा के लिए निकल गए। समाज के विशिष्ट लोगों ने महावीर भैया को सपरिवार पुनः पधारने का आमंत्रण दिया। एवं पत्र व्यवहार हेतु श्री कैलाशचंद्रजी पाटनी, अजमेर का पता (एड्रेस) भी उन्हें दे दिया।

     

    दीक्षा का वृत्तांत सुन, पारिवारिक मनोदशा - महावीर भैया, विद्याधर की दीक्षा की यादों को धरोहर के रूप में सँजोकर घर पहुँचे। अजमेर पहुँचने से लेकर वापस सदलगा आने तक का सारा वृत्तांत- विद्याधर का दृढ़ वैराग्य, गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी का विश्वास, दीक्षा की भव्यता एवं समाज का उत्साह सब कुछ कह सुनाया। दीक्षा महोत्सव के छायाचित्र (फोटो) देखकर परिवार का एक-एक सदस्य भावुक हो उठा और उनकी आँखों से आँसू बहने लगे। अक्काजी (माँ) महावीर भैया से बोलीं- ‘बेटा ! तुमने वहाँ जाकर साहस का काम किया । पूरा भरा का भरा परिवार होते हुए भी यदि घर का एक भी सदस्य नहीं पहुँचता तो यह ठीक नहीं होता।' अन्नाजी भी स्वयं को नहीं रोक पाए। वे बोले- ‘महावीर ! खेती का काम जल्दी-जल्दी पूर्ण कर लो और चौके की तैयारी करो। हम सब लोग शीघ्र ही अजमेर जाएँगे।' अन्नाजी के इस वाक्य ने घर के सभी सदस्यों में प्राण फेंक दिए। खेद एवं वियोग का क्षण हर्ष एवं उत्साह में परिवर्तित हो गया। सारा परिवार अजमेर जाने की तैयारी में जुट गया। अन्नाजी ने विद्याधर के पहनने वाली सोने की तीन लरों (लड़ी) वाली चेन (जनेऊ) एवं अँगूठी सुनार के यहाँ गलवाकर उसके १०८ स्वर्ण पुष्प तैयार करवाए।

     

    महावीर भैया के आने का समाचार सुनकर घर पर कुटुंबीजनों, समाज के लोगों एवं ग्रामवासियों का आना-जाना शुरू हो गया। विद्याधर की दीक्षा की चर्चा सदलगा के घर-घर में, प्रत्येक गली एवं चौराहों पर सभी जगह होने लगी। महावीर भैया ने कैलाशचंद्रजी पाटनी को पत्र द्वारा परिवार में वातावरण के शांत होने एवं सपरिवार शीघ्र अजमेर पहुँचने की सूचना भेज दी।

     

    अपूर्व व्यक्तित्व   (9).jpgअजमेर पहुँचा अष्टगे परिवार - अजमेरवासियों के पुण्य से गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी ससंघ के वर्षायोग की स्थापना ९ जुलाई, १९६८ को अजमेर नगर में हुई।* २० जुलाई के लगभग अन्नाजी अपने घर पर ताला डाल कर सभी सदस्यों के साथ विद्याधर के मित्र मारुति को भी लेकर अजमेर के लिए रवाना हुए। महावीर भैया ने स्वयं के सपरिवार अजमेर पहुँचने की सूचना पत्र द्वारा कैलाशचंद्रजी पाटनी को भेज दी थी। वह समाज के विशिष्ट व्यक्तियों के साथ अष्टगे | परिवार को स्टेशन पर ससम्मान लेने पहुँचे। उन्होंने एडवोकेट माणिकचंद्र जी सोगानी के ऑफिस (कार्यालय) के ऊपर खाली कमरे में उनके ठहरने एवं चौके लगाने की व्यवस्था कर दी। अन्नाजी ने सपरिवार सोनी जी की नसिया में विराजमान गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी के  दर्शन किए एवं उनके चरणों में कुछ दिन रुकने और आहार दान देने की भावना व्यक्त की। इसे सुनकर मुनि श्री विद्यासागरजी बोले- ‘इतनी दूर क्यों आए ? आहार दान देने के लिए क्या वहाँ कोई साधु नहीं मिले ?' तब माँ कहती हैं- ‘दीक्षा के समय नहीं आ पाए थे। इसीलिए चौका लेकर आ गए।' मुनि श्री विद्यासागरजी हँसते हुए बोले- ‘अरे! इस शरीर को बीस साल तक खिलाया, फिर भी मन संतुष्ट नहीं हुआ।' सब हँसने लगे। परिवार ने मुनि श्री विद्यासागरजी से इतनी कम उम्र में दीक्षा लेने का कारण पूछा। वह बोले- ‘घर के संस्कार धर्म के थे। एवं वैराग्य तो आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज के प्रवचन सुनकर बचपन में ही हो गया था। किन्तु छोटा होने से दीक्षा नहीं ले पाए थे। 

     

    आहार देकर संतुष्ट हुआ परिवार - अष्टगे परिवार को गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी को नवधा भक्ति पूर्वक आहार करवाने का सौभाग्य तीसरे दिन प्राप्त हुआ। जिस दिन गुरुवर का आहार हुआ, उसी दिन आहार के बाद अन्नाजी एवं अक्काजी ने गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी से आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण कर लिया।

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    वह क्षण भी आ गया, जिसका अष्टगे परिवार को बेसब्री से इंतज़ार था। आहार चर्या के समय जिनमुद्रा को धारण किए हुए ‘विद्याधर' मुनि श्री विद्यासागरजी के रूप में आकर अष्टगे परिवार के सामने खड़े हो गए। कल जो पुत्र था, आज वह गुरु बनकर सामने खड़ा था। कल जो कहा करता था कि माँ भोजन दो न। अब उसी को आहार करवाने की प्रतीक्षा करते-करते पाँच-छह दिन बीत गए। और आज उसे जिनमुद्रा में अपने सामने खड़े होते देख अष्टगे परिवार आह्लाद से भर गया। जिस माँ ने सारी उम्र साधुओं को आहार करवाए, आज उसे अपनी ही कोख से जन्मे, अपने ही हाथों से पाले गए पुत्र को जिनमुद्रा में पड़गाहन कर उन्हें आहार करवाकर आत्म संतोष प्राप्त हुआ था। कितना दुर्लभ पल होगा वह ! निश्चित ही इस समय याद आया होगा माँ को, कि इसी पुत्र के गर्भ के समय ही तो स्वप्न में दो चारणऋद्धिधारी मुनियों को पड़गाहन कर आहार करवाए थे। आज उन्हें अपने स्वप्न का साक्षात् फल दिखाई दे रहा था। धन्य है जिनशासन की अलौकिक महिमा, जो मात्र अनुभूति का विषय है।

     

    स्वर्ण एवं रजत पुष्पों से की भव्य पूजन - अष्टगे परिवार का अजमेर में २५-२७ दिन का प्रवास रहा। इसी बीच एक दिन रविवारीय प्रवचन के पूर्व सकल दिगंबर जैन समाज की उपस्थिति में अष्टगे परिवार ने गुरु पूजन का विशेष कार्यक्रम रखा। उसमें अन्नाजी द्वारा लाए गए सोने के १०८ पुष्प एवं मारुति द्वारा लाए गए चाँदी के पुष्पों से बड़ी भव्यता से पूजन की। कार्यक्रम संचालक प्रोफेसर श्री निहालचंदजी बड़जात्या के निवेदन पर अन्नाजी ने दो शब्द बोले। सबसे पहले गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी की एवं मुनि श्री विद्यासागरजी की जय बोली। फिर आगे बोले- ‘हमको हिन्दी साफ़ नहीं आती, आप लोग समझ लेना। गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी महाराज तो जौहरी हैं। उन्होंने दक्षिण भारत के रत्न को पहचान लिया और उसे तराश दिया। हमने आपके बारे में सुना है कि आप संस्कृत के विद्वान् पंडित हैं। आपने बहुत सारा साहित्य लिखा है। और ब्रह्मचारी अवस्था में मुनियों को पढ़ाया भी है। हमने आपके लिए विद्याधर को गोद दे दिया है। अब आप इसको अपने जैसा ही विद्वान् पंडित बनाना, जिससे ये अपना और दूसरों का भला कर सके।

     

    मल्लप्पाजी के उद्बोधन के बाद सर सेठ साहब भागचंद्रजी सोनी एवं सकल दिगंबर जैन समाज ने माता-पिता का मंच से सम्मान किया। श्री भागचंद्रजी सोनी ने अपने वक्तव्य में कहा- ‘स्त्रीणां शतानि शतशो जनयन्ति पुत्रान्’ संसार में ऐसी माताएँ कम होती हैं, जो ऐसे पुत्र को जन्म देती हैं। मुनि विद्यासागरजी (ब्रह्मचारी विद्याधर) का परिवार धन्य है। मल्लप्पाजी द्वारा चढ़ाए गए सोने के १०८ पुष्पों को देखकर वह बोले- ‘हमारे मंदिर में यही एक कमी थी, जिसे मल्लप्पाजी ने पूर्ण कर दिया। वे पुष्प नसियाजी में धरोहर के रूप में आज भी रखे हुए हैं।

     

    इसके बाद पूज्य गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी एवं मुनि श्री विद्यासागरजी के संक्षिप्त प्रवचन हुए। अष्टगे परिवार कुछ दिन और गुरु चरणों में ठहरकर हर्ष एवं वियोग के मिश्रित भावों के साथ वापस सदलगा चले गए।

     

    प्रथम दीक्षा जयंती समारोह - अजमेर नगर को आचार्य श्री विद्यासागरजी की प्रथम मुनि दीक्षा जयंती मनाने का भी सौभाग्य प्राप्त हुआ था। जैन मित्र, २६ जून, १९६९ में इस प्रकार का समारोह समाचार प्रकाशित हुआ- ‘प्रथम दीक्षा जयंती अजमेर- २० जून, १९६९, सोनीजी की नसिया में मध्याह्न एक बजे से पूजा-पाठ आदि विशेष कार्यक्रम पूर्वक शुभारंभ हुआ। तीन बजे से सर सेठ साहब श्री भागचंद्रजी सोनी की अध्यक्षता में विशाल सभा का आयोजन हुआ। इसमें स्थानीय ‘दैनिक नवज्योति' समाचार पत्र के सम्पादक मोहनराजजी भंडारी, सर्व श्री सुन्दरलालजी सोगाणी एडवोकेट, पंडित विद्याकुमार सेठी, पंडित हेमचंद्रजी शास्त्री एवं ब्रह्मचारी मुख्तारसिंह, ब्रह्मचारी महाराजप्रसादजी हस्तिनापुर, मनोहरलालजी तथा युवा ब्रह्मचारी दीपचंदजी छाबड़ा ने पूज्य मुनिराज १०८ श्री विद्यासागरजी महाराज के त्यागमय जीवन पर प्रकाश डाला। इसके बाद अध्यक्षीय भाषण हुआ। पश्चात् मुनि श्री १०८ ज्ञानसागरजी एवं मुनि श्री १०८ विद्यासागरजी महाराज के मार्मिक प्रवचन हुए। अंत में समारोह के संयोजक श्री निहालचंदजी जैन द्वारा आभार प्रदर्शन के बाद कलशाभिषेक हुए।

     

    गुरुच्छाया बने मुनि विद्यासागरजी - गुरु एवं शिष्य की तारतम्यता कुछ अनोखी ही थी। गुरुवर प्रयत्नशील थे कि जो कुछ भी मेरे पास है- चारित्र या ज्ञान, वह सब कुछ इस शिष्य में उड़ेल दें। और शिष्य प्रयत्नशील थे कि जो कुछ भी गुरु से मिल रहा है, उसे पूरा का पूरा जीवन में ढाल दें। फलतः शिष्य अपने गुरु की छाया बन गए थे। न तो नामार्थ भेद था और न ही आचरण में। शिष्य के निर्माण, विकास, आचार्य पद पदारोहण एवं गुरुवर की समाधि से जुड़े प्रसंगों को पाठ्य पुस्तक-१ - ‘प्रणामांजलि' में पाठक पढ़ चुके हैं।

     

    अपूर्व व्यक्तित्व   (11).jpgचरम सेवा कर, गुरु को दी विदाई - गुरुवर आचार्य श्री ज्ञानसागरजी एवं शिष्य आचार्य श्री विद्यासागरजी, गुरु-शिष्य परंपरा के जीवंत उदाहरण बन गए हैं। जिनेन्द्र भगवान् द्वारा जो कहा गया, उसका अक्षरशः पालन करना गुरु और शिष्य दोनों का परम धर्म था। शिष्य श्री विद्यासागरजी के लिए गुरु श्री ज्ञानसागरजी के वाक्य आगम प्रमाण थे। उन्हें गुरु का एक-एक इशारा वज्र की लकीर की भाँति अमिट था। शिष्य में यदि समर्पण की पराकाष्ठा थी, तो लघुता से प्रभुत्व की प्राप्ति का टॅग गुरु में था। तभी गुरु ने जिस शिष्य को अ-आ से क्ष, त्र, ज्ञ तक सिखाया, यूँ कहें अँगुली पकड़कर चलना सिखाया, और जब शिष्य का पूर्ण विकास कर दिया, तब उसी शिष्य को अपना गुरु बना लिया। और फिर गुरु स्वयं शिष्य बनकर उनके चरणों में अपना समाधिमरण करवाने की प्रार्थना निवेदित करने लगे । यहाँ आचार्य पद के संस्कार शिष्य पर किए नहीं कि वहाँ तत्क्षण ही शिष्य को गुरु रूप में स्वीकार कर, गुरु होकर भी स्वयं को शिष्य रूप में ढाल लेना यह एक अपूर्व आश्चर्य ही था! किसकी महानता मानँ ? शिष्य की ओर दृष्टि जाती तो लगता ऐसा कैसा अपूर्व व्यक्तित्व है इनका कि जिसके सामने गुरु को शिष्य बनने में हल्की-सी हिचकिचाहट नहीं हुई । शायद गुरु ने समझ लिया था कि गुरु बनकर भी इसको गर्व नहीं छुएगा। गुरु बनकर भी इसका शिष्यत्व नहीं छूटेगा। और हुआ भी यही। उन्हें निर्यापकाचार्य बनना पड़ा अपने ही गुरु का । सो गुरु के ही गुरु बनकर संबोधन देने लगे। इस कार्य को भी गुरु आज्ञा मानकर स्वीकार कर लिया, क्योंकि उनका शिष्यत्व भाव छूटा ही नहीं था। समाधि साधना में संलग्न गुरु की ऐसी सेवा की कि ‘गुरु श्री भद्रबाहुस्वामी और शिष्य श्री चंद्रगुप्त मुनि' का उदाहरण पुनः जीवंत हो उठा।

     

    अपूर्व व्यक्तित्व   (12).jpgचौबीसों घंटे गुरु के पास रहते...- गुरुवर की सल्लेखना के समय आचार्य श्री विद्यासागरजी चौबीसों घंटे उनके पास रहते थे। राजस्थान की जून माह की भीषण गर्मी में सायटिका के दर्द के कारण गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी बाहर की हवा सहन नहीं कर पाते थे, अत: उन्हें बंद कमरे में ही सोना पड़ता था। आचार्यश्रीजी भी उन्हीं के साथ उसी बंद कमरे में ही अंदर सोते थे। गुरुवर कहते भी थे- 'तुम दिन भर गर्मी में रहते हो, रात में बाहर जाकर थोड़ा विश्राम कर लिया करो। कुछ ठंडक मिल जाएगी।' पर आचार्य श्री विद्यासागरजी कहते“मुझे आपके पास रहने में न तो गर्मी लगती है, न ही ठंड। मैं ठीक हूँ।' गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी अपने शिष्य की लगन, निष्ठा, आदरभाव, सेवाभाव देखकर चकित रह जाते थे।

     

    एक बार संघ में एक महाराज की नाकी फूटती देख आचार्यश्रीजी ने अपनी नाकी (नकसीर) फूटने का प्रसंग सुनाते हुए कहा-‘गुरु महाराज की समाधि चल रही थी। गर्मी का समय था तीन वर्ष से बारिश नहीं हुई थी। रात भर जागते थे। कहीं पर थोड़ा-सा भी ठंडा स्थान मिलता, वहाँ घंटे-दो घंटे सो जाते थे। आहार लिया नहीं जाता था। लोगों ने दूध में ठंडाई मिलाकर दे दी तो नाकी (नकसीर) फूट गई थी।' गुरुभक्ति के इस प्रसंग को सुनकर ज्ञान हुआ कि वे अपने गुरु की सल्लेखना के समय मात्र एक-दो घंटे ही विश्राम करते और शेष समय उन्हीं की सेवा में तत्पर रहते थे।

     

    गुरु को लगाते हाथ का सिरहाना...- गुरु वृद्ध थे। सायटिका से पीड़ित थे। शरीर कृश था उन्हें सिर में पीड़ा होने पर आचार्यश्रीजी अपने हाथ का सिरहाना लगा देते थे। और घंटों-घंटों बिना हिले-डुले बैठे रहते थे। धन्य है, आचार्यश्रीजी की ऐसी साधना को! जैसा चरित्र पुराणों में महापुरुषों को सुना था, वैसा आज हमें प्रत्यक्ष देखने मिल रहा है। हमारा परम सौभाग्य है कि ऐसे चरित्रधारी महापुरुष के युग में जन्म हुआ।

     

    अपूर्व व्यक्तित्व   (13).jpgएक बार शिष्य समूह के बीच चल रही चर्चा में किसी प्रसंग पर आचार्यश्रीजी अपने गुरु की स्मृति में डूब गए, और उन्हें याद कर बोले- ‘एक दिन की बात है, जब गुरुदेव का स्वास्थ्य ठीक नहीं था। उन्हें सिरहाने की आवश्यकता होती थी, तो एक बार श्रावकगण लकड़ी का सिरहाना बनाकर ले आए। कहने लगे- ‘महाराज! आपको सिर में तकलीफ़ होती है। इसलिए इसका उपयोग कर लीजिए।' उत्तर में गुरुजी ने कहा- ये तो गडेगा। मखमल का मुलायम तकिया लगा दो तो अच्छा रहेगा।' फिर श्रावकों से कहा, “साधक के लिए ये परीक्षा की घड़ी है। मुझे अपना पेपर हल करना है। यदि इसका उपयोग करता हूँ तो परीषह जय नहीं हो पाएगा और असंख्यातगुणी कर्म निर्जरा का अवसर चूक जाएगा।' यह सुनकर शिष्यों ने कहा- ‘गुरुदेव! आपने अपने गुरु की ऐसी भी उत्कृष्ट सेवा की है कि भीषण गर्मी में भी अपने हाथों का सिरहाना बनाकर उनके निकट घंटों-घंटों तक बैठे रहते थे।' आचार्यश्री मुस्कराते हुए कहते हैं- “मुझे उनके समीप ही शीतलता का अनुभव होता था। ऐसा होना भी स्वाभाविक है, जिन्होंने मुझे बालक अवस्था में प्रारंभिक शिक्षा से ही पढ़ाया है, वो तो परम उपकारी हैं।'

     

    कंधों पर बिठाकर कराया विहार...- सन् १९७०, मई-जून माह की भीषण गर्मी में गुरुवर आचार्य श्री ज्ञानसागरजी का ससंघ विहार फुलेरा से रैनवाल- किशनगढ़ (जयपुर, राजस्थान) की ओर चल रहा था। वृद्धावस्था में क्षीण हो रहे शरीर के कारण तेज धूप से गुरुवर को पैरों में फोले आ गए। तब मुनि श्री विद्यासागरजी ने अपने गुरु को कंधों पर बिठाकर रास्ते में पड़ने वाली सूखी रेत की नदी को पार कर लगभग ४ किलो मीटर का विहार करवाया था।

     

    बेटे से भी बढ़कर की सेवा - अपने गुरु की ऐसी सेवा की, जैसे की थी श्रवणकुमार ने अपने माता-पिता की। एक पल भी नज़रों से ओझल नहीं होते थे। उनके प्रति वह इतने सजग और सतर्क थे कि उनकी श्वासों के स्पंदन की गति का भी अहसास उन्हें होता था और उनकी हल्की-सी भी हलचल होने पर तत्काल ही उसे समझने के लिए ये सदैव तत्पर रहते थे।

     

    आचार्यश्रीजी की अपने गुरु के प्रति ऐसी समर्पित सेवा देखकर पंडित श्री पन्नालालजी साहित्याचार्य, सागर, मध्यप्रदेश ने लिखा है- '१० लाख रुपये की संपत्ति पाने वाला लड़का भी अपने माँ-बाप की ऐसी सेवा नहीं कर सकता था, जैसी तत्परता एवं तन्मयता पूर्वक उन्होंने अपने गुरु की सेवा की थी।

     

    अपूर्व व्यक्तित्व   (14).jpgनिर्जरामूलक सेवा - अपूर्व समर्पण, अगाध निष्ठा, शास्त्रोक्त सेवा करने वाले आचार्य श्री विद्यासागरजी ने जब से गुरु की शरण प्राप्त की, तब से एक पल को भी उन्हें छोड़ा नहीं। जिस कुशलता से गुरु ने शिष्य के जीवन का निर्माण किया, वैसी ही कुशलता से शिष्य ने गुरु के जीवन का उपसंहार (समाधि) करवा दिया। १ जून, १९७३ को मुनि श्री ज्ञानसागरजी आचार्य श्री विद्यासागरजी के मुख से णमोकार मंत्र सुनते सुनते समधीस्त हो गए |

     

    हर पल गुरु का अहसास - गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी की समाधि के पश्चात् आगे की यात्रा आचार्य श्री विद्यासागरजी को गुरु के बिना ही करनी थी। वह युवा आचार्य थे। बाहर के वातावरण से अपरिचित थे। जब से घर से निकले, उन्हें हर पल गुरु का साथ प्राप्त रहा। गुरुजी के समाधिस्थ हो जाने के बाद उन्हें कैसी, क्या अनुभूति हुई होगी ? क्या गुरु का वियोग असह्य रहा होगा ? अथवा अपने भावी जीवन के प्रति चिंतित हुए होंगे ? क्या होगी उनकी मन:स्थिति ?

     

    एक बार श्री निर्मलकुमारजी पाटोदी, इंदौर, मध्यप्रदेश ने आचार्यश्रीजी से इस संबंधित जिज्ञासा रखी, उन्होंने पूछा- ‘आचार्यश्रीजी ! जब गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी महाराज की समाधि हो गई थी, तब आपको कैसा लगा ?' आचार्यश्रीजी बोले- ‘उस दिन मुझे बड़ा अच्छा लगा। मुझे इस बात का बड़ा संतोष हुआ कि मैंने अपना कर्तव्य पूरा कर लिया। एक लंबे अंतराल के बाद मैंने बाहर तखत पर विश्राम किया था। उन्होंने पुनः पूछा‘आचार्यश्रीजी! आपको ऐसा नहीं लगा कि आपके ऊपर से एक बहुत बड़ा हाथ उठ गया?' आचार्यश्रीजी बोले- “नहीं, ऐसा कतई (बिलकुल) भी नहीं लगा।' क्षणिक दीबैंकऑफराजथानल, ठहरकर बोले- ‘ध्यान रखो! मोक्षमार्ग नितांत स्वाश्रित है। संसार के सारे बंधन तो निमित्त मात्र हैं। सब निमित्त-नैमित्तिक संबंध हैं। गुरु के प्रति भक्ति रखना चाहिए मोह नहीं। गुरु का मोह भी मोक्षमार्ग में बाधक है। आचार्यश्रीजी द्वारा दिए गए समाधान में उनमें अत्यंत निस्पृही भावों के दर्शन पाकर पाटोदीजी अभिभूत हो गए। आचार्यश्रीजी हमेशा कहते हैं- ‘मैं मानता ही नहीं कि वह कहीं गए हैं। मुझे तो लगता है आज भी वह मेरे साथ हैं। देह से न सही, पर आज्ञा रूप में वह हर पल अब भी हमारे गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी की समाधि के पश्चात् आचार्य श्री विद्यासागरजी पास और हमारे साथ हैं।'

     

    अपूर्व व्यक्तित्व   (15).jpgएक बार आचार्यश्रीजी गुरु का स्मरण करते हुए बोले- ‘गुरु के जाने के बाद उनके लाभ का पता चलता है। कितना बड़ा उपकार किया और बदले में कुछ नहीं चाहा। वृद्धावस्था में भी कितना दे दिया। देखो! उन्होंने मोक्षमार्ग खोल दिया, आत्म वैभव से परिचय करा दिया, नहीं तो मैं कहाँ होता? रास्ते की कठिनाई में वे ही सामने आते हैं। हम एड़ी से लेकर चोटी तक काम करें, कुछ नहीं होगा, परन्तु गुरु का एक अनुभव ही सब कुछ कर देता है। शास्त्रों से ज्ञान मिलता है, परन्तु गुरु से ज्ञान और अनुभव दोनों मिलते हैं।' दस किताब पढ़ने के उपरांत भी आपको वो नहीं मिलेगा जो गुरु से मिलता है। | ‘गुरु से कुछ नहीं मिलता ऐसा नहीं, उनसे जो मिलता है वह दुनिया में कहीं नहीं मिलता। शास्त्रों का मर्म गुरु के हृदय में छिपा होता है। यदि उनके आचार-विचार सामने आते हैं तो उनकी अनुपस्थिति भी उपस्थिति ही है। परोक्ष में भी गुरु वचन की उपस्थिति है तो परिस्थिति बिगड़ेगी नहीं। मैं अजर, अमर, अविनाशी तत्त्व हूँ- ये गुरु ने बताया।‘समयसार' के रहस्य को खोलकर दिखा दिया, ये क्या कम है। जगत् की नश्वरता का भान कराने वाले एवं आत्मा से परिचय कराने वाले गुरु ही हैं।

     

    धन्य है गुरु समर्पण का यह अपूर्व, निराला, अद्वितीय, अलौकिक एवं अकथ उदाहरण । गुरु आज्ञा में रहकर आचार्यश्रीजी अभी भी एक प्रकार से गुरु सेवा ही कर रहे हैं। ऐसी उनकी कर्तव्यनिष्ठ सेवा भावना, अलिप्त समर्पण एवं निर्जरामूलक गुणानुराग को अनंतानंत बार प्रणाम हो।

     

    परिवार बना मुक्ति अनुरागी - २ मार्च, १९७५ के दिन अनंतनाथजी (मुनि श्री योगसागरजी) जो उस समय १९ वर्ष के होंगे, अपनी अक्का (माँ) के कहने से घर पर बिना बताए ही माँ एवं दोनों बहनों (शांताजी-सुवर्णाजी को साथ लेकर आचार्य श्री विद्यासागरजी के दर्शनार्थ मुंबई से रतलाम होते हुए रात्रि ११ बजे अजमेर पहुँचे। खेत से घर आने पर अन्नाजी को जब पता चला तो वह भी शांतिनाथ (मुनि श्री समयसागरजी) को साथ लेकर अनंतनाथजी के पहुंचने से पहले ही रात्रि ९.३० बजे अजमेर पहुँच गए। पर आचार्य श्री विद्यासागरजी का वहाँ से विहार हो चुका था। टोंक, राजस्थान के पास पछाल गाँव में उन्हें आचार्यश्रीजी के दर्शन हुए। दोपहर में आचार्यश्रीजी का प्रवचन हुआ। बहन शांता-सुवर्णा ने आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत लेने की भावना व्यक्त की। आचार्यश्रीजी ने कहा- ‘अच्छा, देखेंगे।' और वहाँ से विहार कर पुस्तलाँ होते हुए सवाई माधोपुर पहुँच गए। परिवार ने यहाँ पर चौका लगाया। अनंतनाथ कुछ सामग्री लाने के लिए बाजार गए थे। अपरिचित स्थान होने से वह समय पर वापस नहीं आ पाए। और यहाँ परिवार को आचार्यश्रीजी के नवधा भक्तिपूर्वक आहार करवाने का सौभाग्य प्राप्त हो गया।

     

    बहन शांता एवं सुवर्णा ने लिया ब्रह्मचर्य व्रत - पहले ऐसी परंपरा थी कि आहार के बाद भी श्रावक के घर में ही साधु की अष्ट द्रव्य से पुनः पूरी पूजन होती थी और संक्षिप्त उद्बोधन भी होता था। बहन शांता एवं सुवर्णा ने आहार के बाद चौके में ही आचार्यश्रीजी से ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण कर लिया। इस तरह गृहस्थावस्था की दोनों छोटी बहनों को आचार्यश्रीजी की प्रथम शिष्या बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। जब अन्नाजी ने आचार्यश्रीजी से पूछा‘शांता-सुवर्णा को व्रत कितने दिन का दिया ?' तब आचार्यश्रीजी ने उनकी ओर बस एक दृष्टि डाली और मौन बने रहे।” अक्काजी बोलीं- जीवनपर्यंत के लिए दिया है। इस तरह दोनों बहनों ने ८ अप्रैल, १९७५ को आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण कर मुक्तिपथ पर कदम रखे।  

     

    माँ एवं बहनों को आचार्य श्री धर्मसागरजी के संघ में भेजा - सवाई माधोपुर से विहार करके ८-१० दिन में आचार्यश्रीजी अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी, राजस्थान तीर्थ पर पहुँचे। लगभग एक माह तक परिवार ने यहाँ आहार दान का लाभ प्राप्त किया। माँबहनों ने घर त्याग पूर्वक साधना करने की भावना व्यक्त की। महावीर जयंती, २४ अप्रैल, १९७५ के आस-पास आचार्यकल्प श्री श्रुतसागरजी ससंघ का आगमन यहाँ हुआ। और वह ससंघ (उपाध्याय श्री अजितसागरजी, मुनि श्री यतीन्द्रसागरजी आदि मुनिराज एवं आर्यिका श्री विशुद्धमतिजी आदि पिच्छीधारी) शांतिवीरनगर में विराजमान हुए। आचार्य श्री विद्यासागरजी तीर्थक्षेत्र में मुख्य जिनालय परिसर में पूर्व से ही विराजमान थे। एक दिन आचार्यश्रीजी ने माँ एवं बहनों से कहा- “आप लोग आचार्य श्री धर्मसागरजी के संघ में जाकर धर्म साधना कर सकते हैं। और कजौड़ीमलजी के साथ उन्हें खतौली, जिला-मुजफ्फरनगर, उत्तरप्रदेश में विराजमान आचार्य श्री धर्मसागरजी की शरण में भेज दिया। उन तीनों को जाते हुए देखकर अनंतनाथ को राम, सीता एवं लक्ष्मण की याद हो आई। उन्होंने सजल नेत्रों से अक्काजी एवं दोनों बहनों के चरण स्पर्श कर विदाई दी। इस समय तक आचार्यश्रीजी के संघ में कोई ब्रह्मचारिणी शिष्याएँ नहीं होने से उन्हें खतौली भेज दिया।

     

    अन्नाजी ने कहा - अब मुझे भी घर नहीं जाना - जब श्रीमती श्रीमंतीजी एवं दोनों पुत्रियाँ घर न जाकर विरक्तमन हो आचार्य श्री धर्मसागरजी के संघ में चली गईं, तब अन्नाजी ने आचार्यश्रीजी से कहा- ‘अब मुझे भी घर नहीं जाना है। जिनके लिए हमें घर जाना था, जब वे ही नहीं हैं, तो घर जाने से क्या मतलब? हमें भी वैराग्यपथ अपनाना है।' आचार्यश्रीजी ने अन्नाजी के मनोभावों के अनुसार उन्हें क्षुल्लक श्री स्वरूपानंदजी के साथ शांतिवीरनगर, महावीरजी में ही विराजमान आचार्यकल्प श्री श्रुतसागरजी के पास भेज दिया। वहीं के वहीं आचार्यश्रीजी के पास भी उनका आना-जाना होता रहता था।

     

     भाई अनंतनाथ एवं शांतिनाथ का ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण करना - अक्काजी एवं अन्नाजी ने अपने दोनों पुत्रों अनंतनाथ एवं शांतिनाथ से महावीर भैया के पास वापस घर लौट जाने को कहा। ऐसी स्थिति में दोनों करते भी क्या ? सो वे घर जाने को तैयार हो गए। जाते समय आचार्यश्रीजी के दर्शन करने गए, तो आचार्यश्रीजी कन्नड़ भाषा में बोले- ‘देख लो ! जिस खेती-बाड़ी पर तेरा-मेरा करके कितने लोग चले गए, फिर भी खेत एवं घर वहीं का वहीं है। मैं भी तेरा  मेरा करके चला आया। आज वह सब छोड़कर मेरा जीवन आनंदमय बन गया है। मानव जीवन को सार्थक करना है। मनुष्य जीवन दुर्लभ रत्न के समान है। तुम भी हमारे जैसे बन सकते हो।' अनंतनाथजी ने पूछा- ‘क्या-क्या करना होगा ?' आचार्यश्रीजी बोले- ‘ब्रह्मचर्य व्रत को स्वीकार कर लो।' बस फिर क्या था, गीली मिट्टी में बीजारोपण हो गया। आत्म कल्याण की बात हृदय में उतर गई और उसी दिन २ मई, १९७५ को दोनों भाइयों ने श्रीफल चढ़ाकर आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण कर लिया। अन्नाजी ने दोनों पुत्रों से कहा- ‘अपनी इच्छा एवं बुद्धि से कार्य करना। बाद में मेरे पास रोते हुए नहीं आ जाना।' दोनों भाइयों ने अपनी वेश-भूषा बदल ली, धोती-दुपट्टा पहन लिया और सिर का मुंडन करवा लिया। तब वे आचार्य श्री विद्यासागरजी के संघ में शामिल हो गए। जो पहले बड़े भाई थे, आज उन्हें ही गुरु रूप में स्वीकार कर लिया गया। तत्त्वार्थसूत्र, पंचास्तिकाय, कातंत्ररूपमाला, नाममाला एवं संस्कृत व्याकरण आदि का अध्ययन प्रारंभ हो गया। फिर आचार्यश्रीजी ससंघ का विहार भरतपुर, राजस्थान की ओर हो गया। भरतपुर में संघ का २० दिन प्रवास रहा। इस तरह महावीर भैया को छोड़कर पूरा का पूरा परिवार मुक्ति अनुरागी बन गया।

     

    महावीर भैया ने भेजा अपनी मृत्यु का तार - दर्शन करने आए परिजनों में से जब कोई भी घर वापस नहीं पहुँचा, तब महावीर भैया को भारी धक्का लगा। उनकी स्थिति पागलों जैसी हो गई। वह अकेले स्वयं को सँभालते भी कैसे, सो अपनी मृत्यु का झूठा तार आचार्य श्री धर्मसागरजी के पास खतौली, मुजफ्फरनगर, उत्तरप्रदेश भेज दिया, जहाँ पर माँ एवं दोनों बहनें साधनारत थीं। तार सुनकर आचार्य श्री धर्मसागरजी ने माँ श्रीमंतीजी से कहा‘जाओ, पहले अपना कर्तव्य करो।' और उन्हें आचार्य श्री विद्यासागरजी के पास भरतपुर, राजस्थान भेज दिया। यह समाचार श्रीमहावीरजी में आचार्यकल्प श्री श्रुतसागरजी के पास भी पहुँच गया, अतः मल्लप्पाजी भी वहाँ से भरतपुर पहुँच गए। सारा परिवार यहीं एकत्रित हो गया। पर आचार्य श्री विद्यासागरजी को जैसे आभास हो गया हो कि यह तार झूठा है, सो विश्वास के साथ बोले- “यह तार झूठा है, ऐसा कुछ भी नहीं हुआ।' अनंतनाथ से बोले- ‘तुम इन तीनों (माँ एवं बहनों) को लेकर श्रीमहावीरजी में विराजमान आचार्यकल्प श्री श्रुतसागरजी की संघस्थ आर्यिका श्री विशुद्धमतिजी के पास छोड़ आओ।' अनंतनाथ उनको लेकर श्रीमहावीरजी पहुँचे, पर आचार्यकल्प श्री श्रुतसागरजी ने उन्हें संघ में रखने से मना कर दिया, और बोले- ‘बड़े महाराज (आचार्य श्री धर्मसागरजी) ने जो कहा, सो करो।' ब्रह्मचारी अनंतनाथजी ने निवेदन किया कि आचार्यश्री (विद्यासागरजी) तो कह रहे हैं कि यह सब झूठ है। आप इन्हें आर्यिका श्री विशुद्धमतिजी के पास साधना हेतु रख लें।'

     

    आचार्यकल्प श्री श्रुतसागरजी बोले- ‘आपके गुरु महाराज तो बारहवें गुणस्थानवर्ती निर्मोही साधक हैं। मैं तो छट्टे गुणस्थानवर्ती वीतरागी साधु हूँ। मैं नहीं रख सकता।' ब्रह्मचारी अनंतनाथजी ने वापस भरतपुर आकर जब सारी चर्चा आचार्यश्रीजी को बताई, तब आचार्यश्री बोले- “यदि ऐसा है तो पहले घर जाओ।' तब शांतिनाथ को संघ में छोड़कर माता-पिता व दोनों बहनें ब्रह्मचारी अनंतनाथजी के साथ घर वापस चले गए।

     

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    शाम को ६-७ बजे तक वह सदलगा पहुँच गए। घर पर ताला लगा था। खिड़की से अंदर झाँक कर देखा तो चौबीसी भगवान् के ऊपर प्रतिदिन जलने वाली लाइट यथावत् जल रही थी। शुकून हो गया कि सब कुछ ठीक है। पड़ोसी से पता चला कि महावीर भैया मंदिरजी गए हैं। श्री मल्लप्पाजी के कहने पर घर का ताला तोड़कर घर में प्रवेश किया। लगभग एक-डेढ़ माह तक सभी घर पर रहे। श्री मल्लप्पाजी लगभग ढाई माह तक घर पर रहे। विरक्तमन को घर की चौखट कब बाँध पाई है, जो वो बँधते । पिताजी को घर पर छोड़कर महावीर भैया स्वयं ही माँ, बहन एवं अनंतनाथ को लेकर १५ अगस्त, १९७५ को फिरोजाबाद, उत्तरप्रदेश में वर्षायोगरत आचार्य श्री विद्यासागरजी के पास गए। ४-५ दिन बाद आचार्यश्रीजी के कहने पर महावीर भैया ब्रह्मचारी अनंतनाथजी को वहीं संघ में छोड़कर माँ एवं बहनों को वर्षायोगरत आचार्य श्री धर्मसागरजी के पास सहारनपुर, उत्तरप्रदेश ले गए। उन्हें संघ की शरण में छोड़कर महावीर भैया घर वापस लौट गए।

     

    वैरागी बढ़ चले अपनी-अपनी राह - बाल ब्रह्मचारी अनंतनाथजी भी संघ में आकर अपनी साधना में लग गए। एक दिन आचार्यश्रीजी की आज्ञा से बाल ब्रह्मचारी शांतिनाथजी ने उपवासपूर्वक केशलोंच किया। तब ब्रह्मचारी अनंतनाथजी को लगा कि आचार्य महाराज को हमारे ऊपर विश्वास नहीं है कि हम भी साधना कर सकते हैं। अतः आचार्यश्रीजी को विश्वास दिलाने हेतु उन्होंने बिना अनुमति के ही उपवासपूर्वक केशलोंच कर लिए। इससे आचार्य महाराज दंड स्वरूप दो दिन तक मौन ज़रूर रहे, पर उन्हें विश्वास हो गया कि ब्रह्मचारी अनंतनाथजी भले ही बचपन में असाध्य बीमार रहे हों, पर अब वह साधना करने में सक्षम हैं। वहाँ आचार्य श्री धर्मसागरजी के चरणों में अन्नाजी-अक्काजी एवं दोनों बहनों की दीक्षा हो गई यहाँ ब्रह्मचारी अनंतनाथजी एवं शांतिनाथजी भी मोक्षपथ पर अपनी साधना बढ़ाते हुए क्रमशः मुनि श्री योगसागरजी एवं मुनि श्री समयसागरजी बनकर संघ के गौरव बन गए। आज पूज्य मुनि श्री समयसागरजी संघ के प्रथम दीक्षित ज्येष्ठ-श्रेष्ठ साधु हैं। एवं पूज्य मुनि श्री योगसागरजी क्रम में उनके बाद ज्येष्ठ साधु हैं।

     

    उपसंहार

     

    ज्ञान जब हृदयंगम होकर चारित्र में उतरता है तभी उपयोगी होता है, अन्यथा नहीं। चारित्र, ज्ञान को माँजता है अर्थात् ज्ञान, चारित्र के द्वारा शुद्ध होता है। ज्ञान कल्याणकारी तब हो सकता है, जब हम उस पर चलने लगते हैं। ज्ञान की शोभा तो संयम है, अहिंसा है, क्षमा है, कषाय का अभाव है। सही ज्ञान की प्रतिष्ठा वह है, जिसके माध्यम से तत्त्वज्ञान से हीन व्यक्ति भी तत्त्वज्ञान की ओर आकृष्ट हो। जाए।* मात्र उपदेश देने या सुनने से ज्ञान नहीं बढ़ता, ज्ञान को ऊर्ध्वगमन संयम के द्वारा ही मिलता है।

     

    इस प्रकार के भावों से भर कर बाल ब्रह्मचारी विद्याधरजी ने अपने गुरु से सम्यग्ज्ञान के साथ जैनेश्वरी मुनि दीक्षा को अंगीकार कर सम्यक्चारित्र को भी प्राप्त कर लिया। अब वह रत्नत्रय रूपी वायुयान में सवार होकर जहाँ केवल तद्भव मोक्षगामी जीव ही अपनी पूर्व पर्यायों में गए होते हैं। ऐसी विशुद्धि एवं उत्पत्ति के अपूर्व-अपूर्व स्थानों की यात्रा करते हुए शीघ्र ही मोक्ष-महल में प्रवेश करने के लिए पुरुषार्थी बन गए हैं।

     

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    संयम ही जिनका जीवन बन गया है ऐसे आचार्य भगवन् कहते हैं- ‘जिस तरह बेल बिना बंधन के ऊपर की ओर नहीं जाती, ब्रेक के बिना गाड़ी का जीवन ख़तरे में रहता है, उसी प्रकार संयम के बिना जीवन की सार्थकता नहीं होती। वे कहते हैं- ‘हम तो जीवनपर्यंत के लिए बँधे हुए हैं। जब तक मुक्ति का संपादन नहीं होता, हमने अपने आपको भगवान् की शरण में बाँध लिया है, दुनिया की किसी भी बात से नहीं। यह गुरु की आज्ञा है, हम तो देव-शास्त्र-गुरु से बँधे हैं। जो देव- शास्त्र- गुरु से जुड़ा है, उसका  संकल्प दृढ़तर हो जाता है। मोक्षमार्ग में कदम रखने के बाद मोहमार्ग की ओर नहीं जाना चाहिए, अन्यथा मोक्षमार्ग समाप्त हो जाएगा।' 

     

     ऐसे परम वैराग्यवर्धक भावों से भरे हुए आचार्यश्रीजी की दीक्षा के बाद उनके पास पूरे परिवार का आना-जाना होता रहा, जिससे पूरा परिवार इस पथ पर बढ़ गया एवं गृहस्थावस्था के भाई-बहन संघ के सदस्य अर्थात् आपके ही शिष्य बन गए तब भी राग की अंश मात्र कणिका भी उन्हें स्पंदित नहीं कर सकी। मोह की पवन उन्हें छू न सकी। ऐसे अनेक प्रसंग सामने उपस्थित हो जाते हैं, जो उनकी निर्ममत्व की कहानी कह रहे होते हैं।

     

    मुक्ति का पथ संयम की आराधना से

    पूर्णता को प्राप्त होता है।

    संयम रूपी बंधन कोई बंधन नहीं होता,

    वरन् सांसारिक गतिविधियों से

    मुक्त होने के लिए यह एक अनिवार्य साधन होता है।


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