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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पाठ ९ - अशेष व्यक्तित्व

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    अट्ठाईस मूलगुणों का पालन करने वाले साधक ही श्रमण' संज्ञा से सुशोभित होकर मुक्ति रमा का शीघ्र वरण करते हैं। प्रस्तुत पाठ में कहे जाने वाले पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पंच इन्द्रियनिरोध/जय तथा षट् आवश्यक के अतिरिक्त केशलोंच, आचेलक्य, अस्नान, भूमिशयन, अदंतधावन, स्थितिभोजन एवं एक भक्त भोजन रूप शेष सात मूलगुणों के परिपालन पूर्वक श्रमणों में २८ मूलगुणों की अशेषता( पूर्णता) हो जाती है। आचार्यश्रीजी के जीवन में मूलगुणों की अशेषता को प्रकट करने वाले कुछ प्रसंग इस पाठ में दर्शाए जा रहे हैं।

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    रत्नत्रय सुरक्षा कवच : शेष सात गुण

     

    वैराग्य का अक्षय पुंज : केशलोंच

    आगम की छाँव

     

    वियतियचउक्कमासे.. .............. उबवासेणेव कायव्वो ॥२९॥

    प्रतिक्रमण सहित दिवस (दिन) में दो, तीन या चार माह में उत्तम, मध्यम या जघन्य रूप लोंच उपवास पूर्वक ही करना चाहिए।

     

    लोचेन प्रकटं.........................निर्ममता परा।।१२७५, १२७६ ।।

    केशलोंच करने से मुनियों की सामर्थ्य प्रकट होती है, जिनलिंग (रूप) प्रकट होता है, अहिंसा व्रत की वृद्धि होती है और कायक्लेश नाम का तपश्चरण होता है। इससे वैराग्य की वृद्धि होती है, राग रूप शत्रु नष्ट होता है और शरीर से होने वाले निर्ममत्व की भी अत्यंत वृद्धि होती है।

     

    anivarchniya-vyaktitv-part-3-016.jpgआचार्यश्री का भाव 

    • केशलोंच करने से क्लेश नहीं होता, उससे तो क्लेश को ही संक्लेश हो जाता है। केशलोंच में चार माह का उल्लंघन नहीं करना चाहिए। उसके भीतर ही कर लेना चाहिए।
    • केशलोंच में खून भी निकलता है,राख आदि की याचना भी होती है। अतः केशलोंच के बाद प्रतिक्रमण एवं प्रायश्चित्त  स्वरूप उपवास किया जाता है।
    • रात में चींटी आदि जीवों की भी हिंसा हो सकती है, इसलिए दिन में ही करने को कहा है।
    • आचार्य महाराज(आचार्यश्री ज्ञानसागर जी) कहते थे-‘केशलोंच व प्रतिक्रमण स्वाश्रित होना चाहिए। स्वाभिमान जागृत रखो, अपनी शक्ति को छुपाओ नहीं।
    • ये ध्यान रखना, स्वाध्याय एवं उपवास को मूलगुण में नहीं रखा । बेला-तेला (एक साथ दो और तीन उपवास) कर लो और केशलोंच नहीं। केशलोंच तो मूलगुण है, उसे तो अपने हाथों से करना चाहिए, चाहे वह चार घंटे में हो या आठ घंटे में।

     

    anivarchniya-vyaktitv-part-3-017.jpgआचार्यश्री का स्वभाव

    उत्कृष्ट केशलोंचकर्ता - केशलोंच करने की समय सीमा जघन्य से ४ माह, मध्यम से ३ माह एवं उत्कृष्ट से २ माह कही गई है। दो महीने में केशलोंच अतिशयरूप आचरण को सूचित करने वाला होने से उत्कृष्ट कहलाता है।(२ माह में केश अत्यंत छोटे होते हैं, | हाथों से जिनकी पकड़ बड़ी ही मुश्किल से बन पाती है। और प्रत्येक २ माह में अपने केशों का कुंचन (उखाड़ना) एक आत्मस्थ साधक ही कर सकता है। आचार्यश्रीजी इस क्रिया को कायक्लेश तप का सबसे अच्छा साधन मानकर, सन् १९८0, सिद्धक्षेत्र मुक्तागिरि चातुर्मास से प्रत्येक २ माह में ही केशलोंच करते हैं। आचार्यश्रीजी का मुनि अवस्था का प्रथम केशलोंच, १८ अक्टूबर, १९६८ अर्थात् ३ माह, १७ दिन के बाद अजमेर, राजस्थान में हुआ था और दूसरा केशलोंच,  जनवरी, १९६९ में अर्थात् २ माह, २१ दिन में महावीर मार्ग, केसरगंज में हुआ था।

     

    आचार्यश्रीजी ने मुनि दीक्षा के पूर्व ब्रह्मचारी अवस्था में भी तीन बार केशलोंच किए। ब्रह्मचारी विद्याधर ने दूसरा केशलोंच दादिया, अजमेर, राजस्थान में फरवरी, १९६८ में किया था। उनके बाल काले, घने और धुंघराले थे। बड़ी कठोरता से राख (भस्म) का उपयोग किए बिना ही केशलोंच किए। जब आचार्य श्री ज्ञानसागरजी ने उनसे पूछा- ‘ब्रह्मचारीजी! आपने बिना भस्म के केशलोंच क्यों कर लिए, भस्म ले लेते तो यह लहु तो नहीं आता?' तब विद्याधरजी बोले- ‘एक बार ऐसा भी करके देखना था। धन्य है आचार्यश्रीजी की निरीहता को, जो शरीर के प्रति ममत्व को छोड़कर उत्कृष्ट रूप से केशलोंच करते हैं।

     

    आगम में जब कहा, तब करो - अप्रैल-मई, १९७६, कटनी (जबलपुर, मध्यप्रदेश) के ग्रीष्मकाल प्रवास में आचार्यश्रीजी को मलेरिया हो गया। बुखार १०६-१०७ डिग्री तक होने लगा। शरीर अत्यधिक शिथिल हो गया। इसी बीच केशलोंच करने की समयावधि भी होने को थी। जिस समय वह एक कदम भी चलने में समर्थ नहीं थे, उस स्थिति में उपवास पूर्वक केशलोंच करना शुरू कर दिया। पर दृढ़ीमन का साथ शरीर न दे सका, फलतः शेष केशलोंच संघस्थ ब्रह्मचारी भीमसेनजी (वर्तमान मुनि श्री भूतबलिसागरजी महाराज) से करवाने पड़े। पर उन्होंने आगमोक्त समयावधि का उल्लंघन नहीं किया।

     

    जब से संकल्प, तब से निर्जरा - ७ मार्च, २००१, कुंडलपुर, आचार्यश्रीजी आहार चर्या हेतु मंदिरजी में आए, उन्होंने सिद्धभक्ति ही कर पाई कि पेट गड़बड़ होने लगा। आचार्यश्रीजी मंदिरजी से वापस चले गए और उस दिन उन्होंने उपवास कर लिया। सायं को उन्होंने केशलोंच हेतु राख के लिए इशारा किया (गौरतलब है कि आचार्यश्रीजी ‘राख' के लिए 'खरा' शब्द का उपयोग करते हैं)। जिसे सुनकर संघस्थ अनेक मुनि महाराजों ने निवेदन किया- ‘आचार्यश्रीजी! आज का उपवास हो गया, अब आप कल केशलोंच का भी उपवास न करें।' आचार्यश्रीजी बोले-‘हमने तो प्रातः ही केशलोंच करने का संकल्प कर लिया था।

     

    आश्चर्य है! आज आहार कैसा होगा? इसका विकल्प किए बिना ही, केशलोंच मूलगुण का संकल्प भी निर्जरा में कारण होता है, सो उन्होंने वह संकल्प आहार के पूर्व ही कर लिया। धन्य है। उनकी संकल्प के प्रति निष्ठा और समयावधि के प्रति अद्भुत सजगता को ।

     

    निर्जरा, पर निर्जरा - अतिशय क्षेत्र महावीर जी, राजस्थान में अक्षयतृतीया (वैशाख शुक्ल, तृतीया) के दिन आचार्यश्रीजी की केशलोंच की पारणा (उपवास के बाद आहार) थी। संघस्थ ब्रह्मचारी श्री शांतिनाथजी, जो आचार्यश्रीजी के गृहस्थावस्था के छोटे भाई एवं वर्तमान में उन्हीं के प्रथम मुनि शिष्य मुनि श्री समयसागरजी हैं, पारणा का लाभ लेने आचार्यश्रीजी के साथ आहारचर्या में गए। भावना थी कि निरंतराय आहार करवाऊँगा। और हो गया उल्टा ही। उन्हीं के हाथों से आहार के शुरू में ही एक लम्बा-काला बाल अंजलि में आ गया। आचार्यश्रीजी मुस्कराए और अंतराय मान कर बैठ गए। यह देख ब्रह्मचारीजी अत्यंत दु:खी होकर, स्वयं भी चौके से निराहार वापस लौट गए। जब आचार्यश्रीजी को पता चला तब उन्होंने १५-१६ वर्ष की उम्र एवं राजस्थान की भीषण गर्मी को देखते हुए, उन्हें समझाबुझाकर भोजन करने भेज दिया। और स्वयं निर्जरा का साधन आया हुआ जानकर प्रसन्न भाव से अपने आवश्यकों में मग्न हो गए।

     

    धन्य है श्रमणचर्या। केशलोंच करने से शरीर का ऊपरी हिस्सा खिंच जाता है। जिनके बाल घने एवं मजबूत हों, उनका फिर क्या कहना। आचार्यश्रीजी के बाल अत्यंत काले, घने एवं मजबूत थे। उस पर राजस्थान की गर्मी के केशलोंच की पारणा में अंतराय...। सचमुच निराली है कर्मों की लीला।

     

    केशलोंच, एक अलौकिक परीक्षा - १३ फरवरी, २०१५, नेमावर, (देवास, मध्यप्रदेश) शुक्रवार का दिन था। आचार्यश्रीजी जंगल (शौच क्रिया) से लौट रहे थे। लौटते समय उन्होंने सीढ़ी पर चढ़ने के लिए सीमेंट के बने चबूतरे पर ज्यों ही पैर रखा कि वह टूट गया और आचार्यश्रीजी गिर गए। दायें हाथ में कमंडलु था, वह जमीन पर टिक गया। बायाँ हाथ जमीन पर तेजी से रगड़ खा गया, जिससे हथेली में गहरा घाव हो गया एवं कोहनी में भी चोट आ गई। हाथ का घाव इतना गहरा था कि वह १५-१७ दिन में मुश्किल से भर पाया था। ऐसी स्थिति में गुरुवर ने अगले ही दिन १४ फरवरी को केशलोंच कर लिए। एक हाथ से कैसे संभव हुआ होगा? कदाचित् चोट खाए बायें हाथ का उपयोग किया होगा, तो पीड़ा की सीमा क्या रही होगी?

     

    केशलोंच के बाद संघस्थ मुनि श्री संभवसागरजी ने आचार्यश्रीजी से कहा- ‘आपको हथेली में इतनी तकलीफ़ है, फिर भी आपने समय से तीन दिन पूर्व ही केशलोंच कर लिए। आचार्यश्रीजी बोले‘हमें परीक्षा में शत-प्रतिशत अंक लाने हैं, कम क्यों लाएँ? (हँसते हुए) देखो! परीक्षक को पूरे अंक देने होंगे। धन्य है आचार्य श्री विद्यासागरजी जैसे अलौकिक परीक्षार्थी को, जो परीक्षा देने में प्रति समय तत्पर रहते हैं। निर्जरा का एक भी अवसर जाने नहीं देते । स्वयं ही परीक्षक बन, खुद को परखते रहते हैं। कि मैं निर्जरा करने में शत-प्रतिशत सफल हो पा रहा हूँ कि नहीं।

     

    अनंत सुख का समुद्र : आचेलक्य

     आगम की छाँव

      

    वत्था...............जगदि पूज।।३०।।

    वस्त्र, चर्म और वल्कलों से अथवा पत्ते आदिकों से शरीर को नहीं ढकना, भूषण-अलंकार से और परिग्रह से रहित निग्रंथ वेश जगत् में पूज्य अचेलकत्व/आचेलक्य नाम का मूलगुण है।

     आचार्यश्री का भाव

    • दिगम्बर अर्थात् दिक्- दिशाएँ ही, अम्बर-वस्त्र हों जिसका। ऐसे रूप को दिगम्बर, निग्रंथ रूप कहते हैं। इस रूप को धारण किए बिना, किसी को मुक्ति आज तक न मिली है और न ही मिलेगी।
    • आचार्य कुंदकुंददेव ने दिगम्बर मुद्रा को महानतम उपमाएँ दी हैं। दिगम्बर मुद्रा खेल नहीं है, बंधुओ! आचार्य कुंदकुंददेव ने इस चर्या, इस मुद्रा के लिए महान् से महानतम उपमाएँ दी हैंयही आयतन है, चैत्यगृह है, जिन प्रतिमा है, दर्शन है, वीतराग जिनबिम्ब है, जिनमुद्रा है।आत्मसंबंधी ज्ञान है, अरहंत भगवान् द्वारा प्रतिपादित देव है, तीर्थ है, अरहंत है और गुणों से विशुद्ध प्रव्रज्या (दीक्षा) है।
    • जिनलिंग (जिनमुद्रा) मोक्षमार्ग में दीपक के समान है। मोक्षमार्ग यदि देखना चाहते हो, तो इस दिगम्बरत्व के द्वारा ही उसे देखा जा सकता है जिनलिंग को देखकर मार्ग का दर्शन हो जाता है, इसलिए कहा जाता है- ‘दंसणमूलो धम्मो' दर्शन मात्र से जिनधर्म का दर्शन हो जाता है। जिनलिंग का बहुत बड़ा महत्त्व है।
    • यह ऐसी मुद्रा है, जिसे २४ तीर्थंकरों ने अपनाई। यह मुद्रा जिनलिंग मानी जाती है। इसके माध्यम से ही शरीर आश्रित आत्मतत्त्व को प्राप्त कर सकते हैं।
    • भीतर से तो सबकी आत्मा नग्न है। क्या नग्न, क्या सवस्त्र? जो मेरा है ही नहीं, उसका क्या ग्रहण, क्या त्याग?
    • जब आत्मा का स्वरूप समझ में आ जाता है तब वस्त्र को स्वीकारना लज्जा जैसी लगती है। मोक्षमार्ग में ‘पर' (दूसरे) की अपेक्षा नहीं होती, पर (दूसरे) को स्वीकारना मोक्षमार्ग को सहनीय नहीं, इसलिए मोक्षमार्गी को भी वस्त्र पहनना सहनीय नहीं है।
    • दिगम्बर होना अलग वस्तु है और अंदर के दिगम्बरत्व को सुरक्षित रखना अलग वस्तु है।
    • महावीर भगवान् का पक्ष अर्थात् आधार को लेकर जब हम धीरे-धीरे आगे बढ़ेंगे, तभी पूर्ण सरलता की प्राप्ति होगी। ग्रंथियों का विमोचन करना अर्थात् निग्रंथ होना, चारित्र को अंगीकार करना पहले अनिवार्य है।
    • यह कटु सत्य है कि गुण ही सर्वश्रेष्ठ हैं, मुद्रा नहीं। गुणों से ही गुणी की पूजा होती है। मात्र दिगम्बरत्व ही नहीं, उसके अनुरूप चर्या भी होनी चाहिए।
    • दिगम्बरत्व ही एक ऐसा बांध है। जिसे लाँघने का साहस परवादियों में नहीं हो सकता। ज्यों ही यह बांध टूटेगा त्यों ही धर्म का निर्मल स्वरूप नष्ट हो जाएगा।

     

     

    आचार्यश्री का स्वभाव

    यथाजात मुद्रा - सिद्धक्षेत्र नैनागिरिजी (छतरपुर, मध्यप्रदेश) में वर्षायोग संपन्न होने के उपरांत २ दिसंबर, १९८२ को वहाँ से विहार कर बंडा, दमोह, कटनी, शहडोल, अम्बिकापुर, डाल्टनगंज, हजारीबाग एवं ईसरी होते हुए २४ जनवरी, १९८३ को आचार्यश्रीजी ससंघ शाश्वत तीर्थराज श्री सम्मेद शिखरजी की वंदनार्थ मधुवन (गिरीडीह, बिहार) पहुँचे थे। वहाँ से आकर ईसरी नगर में ग्रीष्मकालीन वाचना एवं वर्षायोग- १९८३ भी संपन्न होने के पश्चात् कार्तिक शुक्ल द्वितीया, रविवार, विक्रम संवत् २०४0, ६ नवंबर, १९८३ को विहार कर पश्चिम बंगाल की राजधानी कलकत्ता की ओर आचार्यश्रीजी ने ससंघ विहार किया था। कलकत्ता में कार्तिक पूर्णिमा की ऐतिहासिक रथयात्रा संपन्न होने के बाद कलकत्ता से खण्डगिरि- उदयगिरि तीर्थक्षेत्र (भुवनेश्वर, उड़ीसा) की वंदनार्थ आचार्यवर्य पहुँचे थे। तदुपरांत कटक होकर अंगुल नगर, उड़ीसा के आसपास किसी ग्राम में आचार्य संघ के आहारचर्या संपन्न हुई थी। सारा संघ सामायिक में लीन हो गया। तभी कलकत्ता के श्रावकों को सूचना मिली कि उस ग्राम के जैनेतर बंधुओं ने आए हुए दिगम्बर साधुओं को लाठी से मारने की योजना बनाई है। वे तुरन्त ही कुछ पुलिस फोर्स को लेकर वहाँ आ गए। उन्होंने संघ को बाहर न निकलने का निवेदन किया। जहाँ संघ सामायिक कर रहा था वहाँ पर ताला डाल दिया।

     

    आचार्यश्रीजी सामायिक से उठे और बोले- ‘कुछ नहीं होगा, ताला खोलिए।' परन्तु श्रावक डरे हुए थे। उन्होंने पुनः कुछ सख्त होकर ताला खोलने का पिच्छी से इशारा किया। श्रावकों को ताला खोलना पड़ा। आचार्यश्रीजी स्वयं सबसे आगे हो गए, सारे संघ को एवं श्रावकों को अपने पीछे रखा और आदेश दिया- ‘कोई कुछ भी नहीं बोलेगा।' फिर आचार्यश्रीजी कमरे से बाहर निकले, तो देखा पूरी सड़क पर जैनेतर बंधु हाथों में लाठी लिए खड़े हैं। उन्होंने उन सबकी तरफ दृष्टि भर कर मात्र देखा, वे सभी सड़क के दोनों ओर दो भागों में विभाजित हो गए और बीच का मार्ग खाली हो गया। फिर आचार्यश्रीजी ने अपनी पिच्छी ऊपर उठाकर तीन बार उनके सामने घुमाई । सब एकदम शांत हो गए। हाथों की लाठियाँ नीचे झुक गईं, सारा संघ आराम से वहाँ से निलक गया?

     

    दिशाएँ ही वस्त्र हैं - अमरकंटक (शहडोल, मध्यप्रदेश) नर्मदा, सोन एवं जोहिला नदियों का उद्गम स्थल है। यहाँ की प्रकृति शीतल है। ग्रीष्मकाल में भी शीतकालीन ठंड-सम अनुभव होता है। फिर शीतकाल में पड़ने  वाली ठंड का क्या कहें? सन् १९९४ का शीतकालीन व ग्रीष्मकालीन प्रवास भी आचार्यसंघ का यहीं हुआ था। १५ जनवरी के प्रवेशकालीन दिवस पर तापमान १-२° सेल्सियस तक गिर गया था। उन दिनों इतनी अधिक सर्दी होती थी कि रात में गाड़ियों के ऊपर बर्फ जम जाया करती थी।
     

    जनवरी माह की एक रात को अचानक से अमरकंटक में रहने वाले महामण्डलेश्वर कल्याण बाबा प्रभृति अनेक वैष्णव बाबाजी लोग, दिगम्बर जैन साधु इतनी ठंडी में बिना कुछ ओढ़े एवं बिना कुछ जलाए रात्रि विश्राम कैसे करते होंगे, इनकी रात्रिकालीन चर्या क्या रहती होगी? यह देखने आ गए। यह देखकर उनके आश्चर्य का पार न रहा कि उनके पास न कोई ओढ़ना और न कोई बिछौना है।न उनके पास कोई हीटर या अग्नि लग/जल रही है। न कोई स्त्री-पुरुष या सेवक-सेविकाएँ ही हैं। वह तो एक काष्ठ के तख़त पर विश्राम कर रहे हैं। चारों ओर फैले अंधेरे के बीच एक प्रकाशपुंज की भाँति उनका शरीर दमक रहा है। निर्विकारी दिगम्बरचर्या के साक्षात् दर्शन कर उनके मन श्रद्धा से भर गए। और कह उठे-‘निग्रंथ साधु ही उच्चस्तरीय साधक हैं, सचमुच में दिगम्बर अर्थात् दिशाएँ ही इनके वस्त्र हैं।” तख़त पर विश्राम कर रहे हैं। चारों ओर फैले अंधेरे के बीच एक प्रकाशपुंज की भाँति उनका शरीर दमक रहा है। निर्विकारी दिगम्बरचर्या के साक्षात् दर्शन कर उनके मन श्रद्धा से भर गए। और कह उठे‘निग्रंथ साधु ही उच्चस्तरीय साधक हैं, सचमुच में दिगम्बर अर्थात् दिशाएँ ही इनके वस्त्र हैं।

     

    नवजीवन का सृजन : अस्नान  

     आगम की छाँव

     

     पहाणादि....................................मुणिणो।।३१।।

    स्नानादि के त्याग कर देने से जल्ल (सर्वांग को प्रच्छादित करने वाला मल), मल (शरीर के एकदेश को प्रच्छादित करने वाला मल) और पसीने (सर्वांग लिप्त हो जाना) से मुनि के प्राणी संयम और इन्द्रिय संयम पालन करने रूप घोर गुण स्वरूप अस्नान व्रत होता है।

     

    आचार्यश्री का भाव

    • स्नान से निवृत्ति होना ही, अस्नान व्रत बन जाता है।
    • यह शरीर अत्यंत मलिन है, जो जल से कभी भी शुद्ध नहीं हो सकता। हम जितनी बार स्नान करेंगे, उतनी ही राग की वृद्धि होती है ।
    • हिंसा होगी। जल अपने आप में जीव है, अतः स्नान करने पर जलकायिक जीवों की हिंसा हुई। जल तपाया तो अग्नि की शरण में जाना पड़ता है सो अग्निकायिक जीवों की हिंसा एवं वायुकायिक जीवों की भी हिंसा हुई। इन सबसे बचने के लिए अस्नान व्रत लिया जाता है। हाथ-पैर धो लेते हैं बस।
    • स्नान पापों और राग को बढ़ाने वाला होता है। पूर्वाचार्यों ने कहा है कि अपनी पिच्छी से अपने शरीर का परिमार्जन कर लेना चाहिए। यानी पिच्छी के द्वारा शरीर की शुद्धि कर लो।स्नान करने के लिए नहीं कहा है।
    • आप लोगों के स्नान के लिए सूर्य देवता कृपा करेंगे। सनलाइट में आप अच्छे ढंग से कार्य कर सकते हैं और रात में मूनलाइट भी रहती है। आप कहो नहीं, वह हमेशा-हमेशा जलता रहता है। और आपके लिए अच्छे ढंग से स्नान करा देगा।वायु स्नान में कोई बाधा नहीं है।

     

    आचार्य श्री का स्वभावanivarchniya-vyaktitv-part-3-023.jpg

    सनलाइट, मूनलाइट से नहाता हूँ - सन् १९८४ में पिसनहारी की मढियाजी, जबलपुर, मध्यप्रदेश में चातुर्मास के दौरान देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधीजी की हत्या ३१ अक्टूबर, १९८४ को हो जाने से नगर में कयूं लगा हुआ था। स्थिति की नाजुकता को नियंत्रण करने पुलिस के अतिरिक्त सेना भी तैनात थी। उस क्षेत्र में नियुक्त सेना के कुछ प्रमुख अधिकारी एवं जवानों ने भी आचार्यश्रीजी के प्रथम बार दर्शन किए। गुरुवर का सुंदर एवं आकर्षक रूप देखकर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने वहीं किसी श्रावक से पूछा कि आपके गुरुवर बड़े सुंदर हैं। एवं इनकी काया स्वर्ण जैसी चमकीली है, ये किस साबुन से स्नान करते हैं? वह श्रावक मन ही मन हँसे और बोले आप लोग स्वयं चलकर गुरुवर से ही पूछ लीजिए। उन्होंने गुरुवर के पास जाकर अपनी जिज्ञासा रखी। गुरुवर मुस्कराए और  बोले- ‘भैया! हम तो दो बार स्नान करते हैं। दिन में ‘सनलाइट' से और रात्रि में 'मूनलाइट' से।' सेना के उन अधिकारी ने कहा- ‘पर हमने तो सुना है कि दिगम्बर जैन साधु स्नान नहीं करते हैं।' आचार्य भगवन् । बोले-'हाँ, स्नान नहीं करना हमारा मूलगुण है।' गुरुवर मुस्कराने लगे। उन्हें बात समझते देर न लगी कि यह स्वर्णपना उनकी तपस्या का प्रभाव है, किसी साबुन का नहीं। और सनलाइट, मूनलाइट कोई साबुन नहीं, बल्कि सूर्य व चंद्रमा की किरणें हैं।

     

     

    एक बार नहीं, कई बार स्नान करता हूँ - सन् १९९४ अमरकंटक (शहडोल, मध्यप्रदेश) में आचार्यश्रीजी के दर्शन करने कुछ नेपाली बंधु आए। उन्होंने आचार्यश्रीजी से कहा- ‘हमने सुना है आप कभी स्नान नहीं करते हैं, तो आपको कुछ लगता नहीं है?' आचार्यश्रीजी बोले- ‘किसने कहा हम स्नान नहीं करते। आप लोग तो दिन में एक ही बार स्नान करते होंगे, हम तो कई-कई बार स्नान करते हैं। आप जिसको सूर्यनारायण मानते हैं। और जो यहाँ का सनसेट (सूर्यास्त के समय सूर्य की किरणें) प्रसिद्ध ही है। उसी से हम सर्वप्रथम स्नान करते हैं। तीन बार प्रतिक्रमण करते हैं तो उससे स्नान होता है। देव वंदना करते हैं, उससे भी स्नान हो जाता है। हमारा यह आध्यात्मिक स्नान ही होता है। और फिर हँसते हुए बोले- ‘देखो भैया! हम तो प्रतिदिन कईकई बार, कई प्रकार से स्नान करते हैं।

     

    साधना विकास का सूर्योदय : भूमिशयन

     आगम की छाँव

     

    संस्तरे निर्जने.................शयनमेव तत्॥१३१४, १३१५॥

    मुनिराज अपने परिश्रम से ऊपर उठने के लिए तिर्यंच, स्त्री, नपुंसक आदि से रहित निर्जन एकांत में किसी थोड़ी-सी बिछी हुई घास आदि पर अथवा प्रासुक भूमि, पाषाण, तखता आदि पर किसी एक करवट से अथवा धनुष के समान पैर समेट कर या डंडे के समान शयन करते हैं। उसको भूमिशयन नाम का मूलगुण कहते हैं।

     

    आचार्यश्री का भाव

    • जैसा आगम में लिखा है वैसे सोएँ उससे भी कर्म निर्जरा होती है।
    • भू-शयन में तृण-घास पर शयन, काष्ठ-तखत पर शयन, प्रासुक भूमि व शिला पर शयन रूपये चार शयन जो कहे गए हैं, वे पृथ्वी के ऊपर की बात है, शरीर के ऊपर डालने की बात नहीं है। नहीं तो ये आवरण हो जाएँगे।
    • मुलायम आदि वस्तुओं का प्रयोग न करें। एक पार्श्व भाग से शयन करें। परिमार्जन करके  करवट लेना चाहिए।
    • मुनियों को अल्प भोजन करना चाहिए एवं कठिन आसनों पर बैठना और कठिन शय्या पर सोना | चाहिए, जिससे निद्रा विजय कर सकें।
    • हम उपवास की बात तो करते हैं, लेकिन भूशयन नामक ये हमारा मूलगुण है। हमें मूलगुण को पहले देखना चाहिए।
    • दो संस्तर एक साथ नहीं लेना चाहिए। इससे शरीर एक प्रकार से अभ्यस्त होता है, आदत पड़ने पर छूटती नहीं इसलिए प्रकृति के अनुकूल चलना चाहिए।

     anivarchniya-vyaktitv-part-3-027.jpgआचार्यश्री का स्वभाव

    धरती बनी बिछौना-आसन - शेष गुणों में पठित अशेष गुणों का पालन आचार्यश्रीजी अशेष (पूर्ण) रूप में करते हैं। चार संस्तरों(साधु के बिछौना) में से तृण एवं चटाई रूप संस्तर का अब आपका आजीवन के लिए त्याग है। वह मात्र काष्ठ संस्तर और शिला (भूमि) संस्तर का उपयोग करते हैं। वे कहते हैं, हीन संहनन के साथ उत्कृष्ट साधना करने पर निर्जरा भी तो अधिक होगी। जब महाव्रती बनकर दुकान खोली है, तब अधिक से अधिक आमदनी(निर्जरा) की चाह साधक को होना चाहिए।

     

    वर्ष १९७०, किशनगढ़-रैनवाल, (जयपुर) राजस्थान के चातुर्मास का प्रसंग है। इस समय मुनि श्री विद्यासागरजी अपने गुरु आचार्य श्री ज्ञानसागरजी की चरण छाँव तले अपनी साधना बढ़ा रहे थे। इस चातुर्मास में मुनि श्री ने ‘भूमिशयन' नामक मूलगुण का पालन उत्कृष्टता के साथ किया। चातुर्मास की स्थापना (आषाढ़ शुक्ल चतुर्दशी) के दिन से ही आपने प्रतिदिन चौबीसों घंटे जमीन पर ही उठना-बैठना एवं शयन करने का कठोर नियम ले लिया। जिसका पालन कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी, चातुर्मास के निष्ठापन (समाप्ति) तक किया। समाज की मर्यादा के कारण केवल प्रवचन के समय वह तखत (लकड़ी के पाटे) पर बैठते थे, शेष समय भूमि ही उनका आसन एवं बिछौना बनी रही। ग्रीष्मकाल में प्राय:कर आज भी आचार्यश्रीजी जमीन पर ही उठना-बैठना पसंद करते हैं।

     

    आचार्यश्रीजी का सन् १९८६ में अतिशयक्षेत्र पपौराजी, टीकमगढ़, मध्यप्रदेश की ओर विहार चल रहा था, रास्ते में मड़ावरा, (ललितपुर) उत्तरप्रदेश से सामायिक करके विहार हुआ। सूर्यास्त होने पर जंगल में ही रुक गए। वहाँ पर एक मानवाकार गढ्डा दिखाई दिया। उसी में आचार्यश्रीजी परिमार्जन करके बैठ गए। श्रावक चटाई-पाटा लेकर आए, किंतु उसका उपयोग किए बिना ही गुरुदेव ने भूशयन किया। इसी प्रकार दमोह (मध्यप्रदेश) नगर में जटाशंकर पर्वत के ऊपर बालू भूमि में शरीर से ममत्व रहित होकर शयन करते थे। भूशयन मूलगुण के ऐसे अनेक प्रसंग हैं, जब गुरुदेव ने काष्ठ संस्तर को भी स्वीकार नहीं किया।

     

    निर्जरा का प्रवेश द्वार : अदंतधावन ।

    आगम की छाँव

     

    अंगुलि............................अदंतमणं ।।३३।।

    अंगुली, नख, दातौन और तृण विशेष के द्वारा पत्थर या छाल आदि के द्वारा दाँत के मल का शोधन नहीं करना, यह संयम की रक्षा रूप अदंतधावन व्रत है।

     आचार्यश्री का भाव

    • दाँतों को अब हम (साधु) किसी प्रकार के मंजन आदि से सुशोभित करें, ऐसा संभव नहीं हैं। हाँ, दाँतों में भोजन के समय कुछ रह गया हो तो उसको आप निकाल सकते हैं। अन्न आदि रह न जाए उससे, जीवोत्पत्ति न हो, इस अपेक्षा से भी दाँत साफ़ किए जाते हैं।और सब लें ऐसा भी नहीं।
    • यदि एक बार लकड़ी आदि के द्वारा दाँतों में फंसा हुआ अन्न आदि निकालते हैं, तो वहाँ जगह बन जाती है। फिर अन्न कण फँसता ही जाएगा। इसलिए प्रतिदिन लकड़ी चाहिए पड़ेगी और दाँतों में गेप भी हो जाएगा।
    • अलंकार और आभूषण ये दो चीजें हैं। असंयमी है, तो वह अलंकार, आभूषण के साथ शरीर को अलंकृत कर लेता है। पर साधुओं को दंत मंजन नहीं करना चाहिए। क्योंकि दाँत जो हैं, वे अलंकार में आते हैं। दाँतों को चमकीला बनाना, इससे भी रूप में निखार आता है।
    • दाँतों को चमकीला बनाने का उद्देश्य न रहे, यह भी एक प्रकार से परीषहजय है।

     

     anivarchniya-vyaktitv-part-3-029.jpgआचार्यश्री का स्वभाव

    रहते-सहते-कहते कुछ न  - आचार्यश्रीजी को जब भी कोई पीड़ा होती है, तो वह पहले से ज्ञात नहीं हो पाती, क्योंकि वह स्व मुख से कुछ भी नहीं कहते हैं। जब पीड़ा की पराकाष्ठा हो जाती है, तब कहीं शारीरिक लक्षणों से ज्ञात हो पाता है, कि उन्हें कुछ तकलीफ़ है। इस पर भी वह सहजता से उपचार स्वीकार नहीं करते हैं। बहुत ही अधिक स्थिति बने, तब कहीं केवल काष्ठ औषधि को स्वीकार करते हैं। सन् २००८, रामटेक (नागपुर, महारष्ट्र) में आचार्यश्रीजी की दाढों में भयंकर दर्द हुआ। आहार कर पाना मुश्किल हो गया। दस-बारह दिन केवल पेय पदार्थ ही ले पाए। दर्द निवारक देशी उपचार स्वरूप ‘अमृतधारा' आदि गाल पर लगाने से पीड़ा किंचित् भी कम नहीं हो रही थी। संघस्थ साधुओं ने चिकित्सक से परामर्श किया। चिकित्सक ने कहा- ‘कुछ औषधि नहीं लेते तो कम से कम इस मंजन को, जो शुद्ध रूप से बनाया गया है, दाँतों पर रगड़ कर पाँच मिनट तक लगाए रखने से भी लाभ मिल सकता है। पर गुरुवर तो ‘अदंतधावन' मूलगुण के पालनकर्ता हैं, उन्होंने अँगुली से दाँतों पर मंजन नहीं रगड़ा।

     

    बहुत अनुनय-विनय किए जाने पर उन्होंने मात्र उसको पानी में घोलकर कुल्ला करना स्वीकार किया। संघस्थ ज्येष्ठ साधुओं ने उनसे निवेदन किया कि इस मंजन को कुछ देर तक मुख में ही रखे रहें, तो अच्छा रहे। पर गुरुवर तो रहे संकोची, चौके में इतनी देर तक कैसे बैठे? सो मंजन का कुल्ला बस करके आ जाते।

     

    एक दिन गुरुवर का आहार टीकमगढ़ (मध्यप्रदेश) वाली ब्रह्मचारिणी बहनों के यहाँ हुआ। बहनों को चिकित्सक वाली बात ज्ञात थी। उन्होंने आहार के बाद गुरुवर को कुल्ला करने मंजन वाला जल दिया और उसके साथ ही (डरते-डरते) नीचे का पात्र हटा दिया। गुरुवर ने इशारा किया, तो उन बहनों ने साहस करके निवेदन किया- ‘भगवन्! यह जरूरी है, आप मंजन का जल कुछ देर मुख में रखे रहें।' करुणावशात् गुरुदेव कुछ ही देर ठहरे और पुनः पात्र के लिए इशारा कर दिया। पात्र रखते ही कुल्ला करके गुरुवर चले गए। उन्होंने औषधि लेना या दाँतों पर मंजन रगड़ना नहीं स्वीकारा। अंततः दाढ़ों को निकलवाना ही पड़ा।

     

    दाँतों को निकालने के लिए वह किसी स्प्रे या इंजेक्शन का प्रयोग नहीं करवाते। जिस तरह स्वयं केशों को उखाड़ते वैसे ही आहार के बाद चिकित्सक से दाँतों को उखड़वा लेते हैं। वर्तमान में उनके पाँच दाँत ही शेष हैं। बाकी उनके सभी दाँत निकल चुके हैं।  धन्य है ऐसे गुरुवर को, जिनकी दाँतों की असह्य वेदना भी बाधक न बन पाई, अपने अदंतधावन नामक मूलगुण के पालन करने में।

     

    आहार नियंत्रक : स्थिति भोजन।

     आगम की छाँव

     

     स्वपाद. ......................स्थिति-भोजनम्॥१३३२- १३३३।।

    अपने पैरों के रखने की भूमि, उत्सृष्ट (अंजलि से आहार-पानी) गिरने का पात्र रखने की भूमि और दाताओं के खड़े होने की भूमि, ऐसी तीन प्रकार की विशुद्ध पृथ्वी को दृष्टि में रखकर अपने दोनों पैरों को समान स्थापन कर बुद्धिमान मुनियों को दूसरे के घर में जाकर, दीवार आदि के सहारे के बिना खड़े होकर करपात्र (हाथों की अंजलि) में शुद्ध भोजन लेना चाहिए। इसको स्थिति भोजन नामक मूलगुण कहते हैं।

     

     आचार्यश्री का भाव

    •  बैठकर के भोजन करने से आहार संज्ञा बढ़ती है, और खड़े होकर भोजन करने से जिह्वा इन्द्रिय वश में हो जाती है। ऐसा जिनेन्द्र देव ने कहा है। और हमें (श्रमणों को) खड़े होकर भोजन (आहार) ग्रहण करने की आज्ञा दी है।
    • खड़े होकर भोजन करने से शारीरिक क्षमता ज्ञात हो जाती है। ये सबसे बड़ा कारण है स्थिति भोजन का। जब तक उनके हाथ मिल (अंजलि बन सकती) सकते हैं एवं पैर खड़े रहने के लिए स्थिर रह सकते हैं, तब तक ही मुनिगण आहार लेते हैं। अन्यथा उपवास धारण कर लेते हैं।
    • मान लो दस-बीस किलो मीटर चलकर आए हैं, थक गए, अब आराम के साथ बैठकर खा लें? नहीं खा सकते। अब आपको खड़े-खड़े ही भोजन करना पड़ेगा। आपके (श्रमण के) जीवन में बैठकर के भोजन होगा ही नहीं।
    • जब तब हम (साधु) भोजन करेंगे, खड़े रहेंगे। इनको (श्रावक) भी खड़ा होना पड़ेगा। कुर्सी लेकर बैठ जाएँ, नहीं ,ऐसा नहीं हो सकता।
    • मान लीजिए कोई मुनिराज को धीरे-धीरे भोजन करना पड़ता है तो २ घंटे २४ मिनट तक ले सकते हैं। तो आप लोगों (श्रावकों) को उत्कृष्ट सामायिक करने का अवसर प्राप्त हो सकता है। इससे श्रावकों की भी संख्यात नहीं असंख्यात गुणी निर्जरा होगी। आप लोग यदि मुनि बनना चाहते हैं, तो अभी से अभ्यास कर सकते हैं।

     

    आचार्यश्री का स्वभाव

    स्थिति भोजन, तो स्थिति भोजन - दिगंबर साधु एक ही स्थान पर स्थिर रूप से खड़े होकर आहार करते हैं। वे एक बार में जहाँ-जैसा (शास्त्र में बताया वैसे) पैर जमाकर खड़े हो जाते, फिर वहाँ से पैरों का खिसकाना या उठाना नहीं करते। यह उनका स्थिति भोजन नाम का मूलगुण माना जाता है।सन् २०००, पैण्ड्रा रोड, मध्यप्रदेश में आचार्यश्रीजी के पैरो में अचानक से असहनीय वेदना होने लगी। पैर फैलाना भी मुश्किल हो गया। आसन भी नहीं लगा पा रहे थे। उठना-बैठना दूभर हो गया था। प्रारंभ में रोग की पकड़ नहीं हो पाई। आठ-दस दिन तो अत्यंत कठिनाई के रहे। बाद में पता चला, कि यह ‘हरपीस जोस्टर' नामक रोग है। इसकी वेदना का अहसास भुक्तभोगी ही समझ सकता है। एक दिन आचार्यश्रीजी की वैय्यावृत्ति करते-करते एक  ब्रह्मचारी भैयाजी ने उनसे धीरे से पूछा‘आचार्यश्री जी! हरपीस रोग में कैसा दर्द होता है? और आप कैसे सहन करते हैं?' आचार्यश्रीजी मुस्कराते हुए बोले- ‘दर्द कैसा होता? जैसे बहुत सारे फौले हों और उनमें सुई चुभाकर नीबू-मिर्च डाला जाए, तब उसमें जितनी जलन होती है, उतनी जलन इस रोग में हवा लगने से होती है, पर सहन तो समता से करना होता है।

     

     जिन पैरों में इतनी असह्य पीड़ा हो । जिन्हें हल्का-सा फैलाना भी मुश्किल हो, उन पैरों से खड़े होना और उसमें भी खड़े होकर, पैर को खिसकाए बिना आहार ग्रहण करना, कितना कठिन रहता होगा! वे जितनी देर खड़े हो पाते उतने समय में जितना आहार पहुँच पाता उतना ही लेकर बैठ जाते थे। एक ओर असह्य वेदना और दूसरी ओर अपूर्ण आहार। यह सब वे समता भाव से सहन करते थे। स्थिति भोजन तो ‘स्थिति भोजन,' यह मूलगुण है श्रमण का। वे किन्हीं परिस्थितियों में मूलगुण के साथ सामंजस्य नहीं करते।

     

    धन्य हैं दिगंबर श्रमण को, जो समता से सब कुछ सहन कर सकते हैं, पर अपने मूलगुणों में दोष नहीं लगने देते। यदि खड़े होने की सामर्थ्य नहीं तो उपवास कर लेते हैं। इस प्रकार की आई हुईं प्रतिकूलताओं को वे परीक्षा का अवसर मानते हैं। इसके लिए वे बार्डर पर खड़े सैनिकों की भाँति हर पल सजग एवं तैयार रहते हैं।

     

    इन्द्रिय मृग बंधक : एकभक्त भोजन

    आगम की छाँव

     

    उदयत्थमणे..........................मुहत्तकालेयभत्तं तु।।३५॥

    सूर्य के उदय और अस्त के काल में से तीन-तीन घड़ी (२४ मिनट की १ घड़ी/घटी/ घटिका) से रहित मध्य काल के एक, दो अथवा तीन मुहूर्तकाल (४८ मिनट का मुहूर्त) में एक बार भोजन करना, यह एकभक्त मूलगुण है। भोजन की दो बेला (समय) होती हैं। उसमें एक बेला में भोजन करना अर्थात् दिन में एक बार भोजन करना ‘एकभक्त भोजन' नामक मूलगुण है।

     

     आचार्यश्री का भाव

    • मान को पूर्ण रूप से जीतने का साधन है आहारचर्या । चक्रवर्ती होकर भी (मुनि बनने पर) दूसरे के घर आहार लेना होता है। आहार का विकल्प भी निर्विकल्प होकर करना चाहिए। यह भी भगवान् के द्वारा दिया हुआ मूलगुण है‘एक बार भोजन करना।
    • साधुचर्या निर्दोष रहेगी, तो दिगम्बरत्व भी सुरक्षित रहेगा। उसमें भी मुख्यत: आहारचर्या निर्दोष रहनी चाहिए। उसमें भी सिंहवृत्ति रहना चाहिए अर्थात् जब आवश्यक हो तभी आहार करना चाहिए।
    • स्वेच्छा से संयम धारण किया है। स्वयं सहन करो। दुर्लभ से मिलता है संयम। शरीर के धर्म को चलाने के लिए खा रहा हूँ, मेरे लिए नहीं खा रहा हूँ। मुझे तो आत्मसाधना करनी है। ऐसे भाव रहना चाहिए।
    • साधु आहार के समय पर ज्ञेय-ज्ञायक संबंध रखते हुए भी ध्यान रखता है कि कितने ग्रास लेना है। नहीं तो ‘अइमत्तभोयणाए' (मुनि- दैवसिक/रात्रिक प्रतिक्रमण) यह जो आगम में कहा है। उसे केवल प्रतिक्रमण में ही नहीं पढ़ना है। कितना लेना है, यह भी ध्यान में रखना होता है। लेकिन जो लेना होता है, वह अच्छे से लेते हैं। २४ घंटे निकालना है। आहार के समय भी असंख्यातगुणी कर्म की निर्जरा होती है, और ज्ञेय-ज्ञायक संबंध चलता है।

     

    आचार्यश्री का स्वभाव

    एक चौके का नियम - सन्१९९० में आचार्यश्रीजी का चातुर्मास सिद्धक्षेत्र मुक्तागिरिजी (बैतूल, मध्यप्रदेश) में चल रहा था। एक दिन संघस्थ ज्येष्ठ मुनि श्री योगसागरजी का तीन चौके से लौटकर अलाभ हो गया (अलाभ अर्थात् विघ्न उपस्थित हो जाने पर आहार ग्रहण नहीं करना)। पहले चौके में मृत चींटा पड़ा हुआ था, दूसरे चौके में बहुत से चींटे निकल आए एवं तीसरे चौके में किसी श्रावक के पैर के नीचे चींटा दब कर मर गया, जिससे ग्लानि होने पर उन्होंने अलाभ कर लिया। और ईर्यापथ भक्ति में गुरुदेव को अलाभ का कारण बताया। उसे सुनकर गुरुवर बोले-'ये तो ठीक नहीं।' और मौन हो गए। कुछ दिन बाद आचार्यश्रीजी ने संघस्थ ज्येष्ठ मुनि श्री समयसागरजी एवं मुनि श्री योगसागरजी को बुलाया, और कहा‘एक चौके में ही पड़गने का नियम भी लिया जा सकता है। दोनों मुनिराजों ने हँसकर कहा- ‘हाँ, अच्छा रहेगा।' आचार्यश्रीजी बोले- ‘मैं भी ग्रहण करता हूँ और आप लोग भी कायोत्सर्ग कर लें। 

     

    anivarchniya-vyaktitv-part-3-031.jpg

     

    आचार्यश्रीजी किसी भी विषय पर पूर्वापर विचार करके निर्णय लेते हैं। पूज्य श्री योगसागरजी के अलाभ वाले प्रसंग के दिन उनके मुख से निकला था, “यह तो ठीक नहीं, तब से लेकर जिस दिन नियम ग्रहण किया तब तक उन्होंने अच्छे-से विचार किया होगा। संभव है मन ही मन संकल्प कर इसका प्रयोग भी कर लिया हो, तब जाकर दोनों मुनिराजों सहित स्वयं ने इस नियम को अंगीकार किया होगा। यही कारण रहता कि उनके द्वारा ग्रहण किए गए प्रायः सभी नियम जीवनपर्यंत के लिए होते हैं। और पालन करने के लिए वह मेरु-सम अचल बने रहते हैं।]

     

    इस प्रकार संघशिरोमणि आचार्यश्रीजी एवं दोनों ज्येष्ठ मुनिराजों ने ‘एक चौके में ही पड़गने' का नियम ग्रहण कर लिया। अब वह किन्हीं कारणोंवश विघ्न उपस्थित होने पर दूसरे चौके में पड़गाहन नहीं देंगे, फलतः उपवास कर लेंगे। नियमों का दृढ़ता से पालन करने वालों की परीक्षा की घड़ी भी शीघ्र ही आ जाती है। आचार्यश्रीजी एवं दोनों मुनि महाराजों को नियम ग्रहण करने के दो या तीन दिन बाद ही ऐसा योग बना कि किन्हीं कारणवश उन तीनों महाराजों को अपने-अपने चौके से वापस लौटना पड़ा। और एक साथ नियम ग्रहण किए हुए आचार्यश्रीजी एवं दोनों मुनि महाराजों का एक साथ ही अलाभ (उपवास) हो। गया।

     

    अत्यल्प समय में आहार चर्या - आचार्यश्रीजी की आहार चर्या अत्यल्प समय में संपन्न हो जाती है। नवधाभक्ति पूर्वक श्रावक पड़गाहन करते हैं तब नीची दृष्टि कर उसके घर आहार को चले जाते हैं। और आधा घंटे में आहार संपन्न कर वापस भी आ जाते हैं। वे कहते हैं- ‘शरीर के धर्म को चलाने के लिए खा रहा हूँ। मेरे लिए नहीं खा रहा हूँ। मुझे तो आत्म-साधना करनी है- ऐसे भाव होना चाहिए साधु के। ऐसी ही भावना से वे आहार ग्रहण करते हैं। आहार के समय उनकी अनासक्तता देखकर ऐसा लगता है जैसे बोतल में भोजन भरा जा रहा हो। एक बार आहार करना भी श्रमण का एक मूलगुण है। उसका ही पालन करने वह चौके में जाते है और शीघ्र ही वापस आ जाते हैं।

     

    एक बार मई-जून, १९९९, कुण्डलपुर (दमोह, मध्यप्रदेश) में आचार्यश्रीजी के आहार चल रहे थे। चौके में चार ही लोग थे। एक श्राविका आचार्यश्रीजी से ‘छैना के रसगुल्ला लेने का बार-बार निवेदन कर रही थी। और गुरुवर बार-बार अंजलि बंद कर रहे थे। गुरुवर द्वारा ‘रसगुल्ला' नहीं लिए जाने पर भी, कटोरी को वापस रखते समय उस श्रविका की अचानक से प्रशस्त हँसी फूट पड़ी। गुरुवर की प्रश्नवाचक रूप से दृष्टि उस पर पड़ी। वह विनम्रतापूर्वक  बोली- ‘आचार्यश्रीजी! हमारे द्वारा बार-बार निवेदन करने पर यदि आप उसे ले लेते हैं, तब तो लाभ ही लाभ है और यदि नहीं भी लें, तब भी हम चौके वालों को लाभ है। इस बार भी गुरुवर ने ऐसे देखा मानो पूछ रहे हों कि न लेने पर कैसा लाभ? वह बोली- ‘गुरुवर आप लीजिए। ऊँ-हूँ, आप लीजिए न। ऊँहूँ। ऐसा करने पर भले ही आपने उसे नहीं लिया, पर जितना समय आपको चौके में रहना था उससे कुछ अधिक देर ठहरने का सौभाग्य तो हम लोगों को मिल गया। तो हुआ न लाभ?' यह सुनकर आचार्यश्रीजी सहित सभी को हँसी आ गई। धन्य है गुरुदेव को, जो वे सब प्रकार की चाह से परे अनासक्त भाव से अपनी चर्या में रत हैं।

     

    उपसंहार

    २८ मूलगण पालन करते समय कदम-कदम पर, क्षण-क्षण में हमे लाभ ही लाभ है। आचार्यश्रीजी कहते हैं- ‘मूलाचार में यह उल्लेख मिलता है जो व्यक्ति मूल की रक्षा नहीं करता है और टहनी, शाखाओं, उपशाखाओं, फल, फूल, पत्ते व कोंपल इत्यादि सुरक्षित रखना चाहता है, यह संभव नहीं है। मूल के बिना कुछ भी मूल्यवान नहीं होता, मूल रहेगा तभी ब्याज मिलता है अन्यथा नहीं। सब जगह ये ही युक्तियाँ हैं। आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज ने कहा था- ‘मूलधन को सुरक्षित रखना, ज्यादा ब्याज के लोभ में नहीं पड़ना, प्रचार-प्रसार में मूलगुणों को भुलाना नहीं।' मूलाचार पढो, बारबार पढ़ो और अपनी तुलना करते चलो। डायरी लिखने मात्र से कुछ नहीं होता। लिखा हुआ भी जीवन में नहीं आ रहा है, तो उन लिखी हुईं डायरियों का क्या महत्त्व ? सब अलग रख दो। निश्चय यानी ‘समयसार' की आँख और व्यवहार यानी मूलाचार की आँख। बाहर की मुद्रा व्यवहार और भीतर की मुद्रा निश्चय है। बाहर आने पर बाहर की मुद्रा से चलेंगे तो ठीक रहेगा और भीतर जाने पर भीतर की मुद्रा से चलेंगे तभी ठीक रहेगा। इस प्रकार अंत में उपसंहार यही निकलता है कि यदि व्यवहार को नहीं अपनाओगे तो निश्चय तक नहीं पहुँच सकोगे। मूलगुण साधुत्व की कसौटी है। इस कसौटी पर आचार्य श्री विद्यासागरजी को परखने पर हम उन्हें शुद्ध स्वर्ण की भाँति खरे पाते हैं। आपको इंद्रियाँ नहीं नचाती, बल्कि वे आपके इशारे पर नाचती हैं। योग (मन, वचन, काय) आपको नहीं भटकाते, अपितु योगों का प्रवर्तन आपकी इच्छा पर निर्भर है। आपके शरीर का प्रत्येक अवयव आपकी आज्ञा का पालन करता है।

     

    आचार्यश्रीजी सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान एवं चारित्र की अमूल्य निधि के ऐसे खजाँची हैं, जिसका उन्होंने संरक्षण ही नहीं किया, बल्कि पूर्ण आस्था, संकल्प और दृढता के साथ उपयोग करते हुए उसका संवर्धन भी किया है। यही कारण है कि आचार्यश्रीजी की निर्दोष ‘प्रायोगिक' चर्या से बना उनका ‘महत् व्यक्तित्व' जिनशासन को गौरवान्वित करता हुआ, आत्मजयी बनकर ‘अशेष' (संपूर्ण) कर्मों से मुक्त कराने में साधकभूत होकर श्रमणधर्म की गौरवगाथा गा रहा है। ऐसे ‘गौरवशाली व्यक्तित्व के चरणों में हार्दिक श्रद्धा और भक्तिभाव से नत होकर हम सब आत्मगौरव का अनुभव करते हैं।

     

    मुनियों के २८ मूलगुण समस्त प्रयोजन की सिद्धि करने वाले हैं।

    जिस प्रकार बाजार में सामान खरीदने जाते हैं।

    तो पैसों की आवश्यकता होती है,

    उसी प्रकार जब हम शुद्धोपयोग आदि ध्यान-तप करना चाहें

    तो उसके लिए २८ मूलगुण होना जरूरी है।


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