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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पाठ ७ - आत्मजयी व्यक्तित्व

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    आचार्यश्रीजी कहते हैं- ‘मन एवं इन्द्रियों के विषय जिसके अधीन हैं, ऐसे संयमी मुनि का शरीर जिनागम में ‘आयतन' कहा गया है। जो रत्नत्रयधारी (मुनि) होता है, वही शुद्ध आत्मा का ध्यान कर सकता है। और महाव्रत धारण किए बिना रत्नत्रय प्राप्त नहीं हो सकता। इसके लिए इन्द्रियों के विषयों से ऊपर उठना होता है। यह संकल्प एक दिन के लिए नहीं, बल्कि जीवन पर्यंत के लिए होता है। अनमोल है यह चर्या, यह व्रत, जो आज भी दिगंबर साधु पाल रहे हैं। कहाँ तक कहा जाए यह पथ, यह चर्या ऐसी है जिसका मूल्य कभी भी आँका नहीं जा सकता?' दिगंबर साधुओं के २८ मूलगुणों में पठित पंचेन्द्रिय निरोध'के अनुरूप ढल गया है जिनका जीवन, ऐसे अग्रगण्य, ‘आत्मजयी'साधक आचार्यश्रीजी से संबंधित प्रसंगों को इस पाठ में प्रस्तुत किया जा रहा है।

     

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    0074 - Copy.jpgसंयम की पृष्ठभूमि : पंचेन्द्रिय निरोध

     

    आगम की छाँव

    चक्खू सोदं...................सया मुणिणा।।१६।।

    मुनि को चाहिए कि वह चक्षु, कर्ण, घ्राण, जिह्वा और स्पर्शन इन पाँच इन्द्रियों को अपने विषयों से हमेशा रोके।

     

    रोधा अप्रवृत्तयः....................कियन्तस्ते पंचैव।।

    इन्द्रियों की विषयों में प्रवृत्ति नहीं करना रोध कहलाता है। सम्यक् ध्यान के प्रवेश में प्रवृत्ति करना अर्थात् धर्म-शुक्ल ध्यान में इन्द्रियों को प्रविष्ट करना यह इन्द्रिय निरोध है।

     

     

    0074.jpg आचार्यश्री का भाव

    • साधु के २८ मूलगुणों में ५ मूलगुण इन्द्रियविजय के रूप में हैं। इन्द्रिय विषयों में व्यापार होते ही ये गुण निश्चित रूप से मलिन हो जाते हैं। चूँकि इन्द्रियाँ मन के अधीन हैं, अतः इन्द्रिय विजय के साथ-साथ जितमना होने के लिए मन का भी निग्रह आवश्यक है |
    • स्पर्शन इन्द्रिय के आठ, रसना के पाँच, घ्राण के दो, चक्षु के पाँच एवं कर्णेन्द्रिय के सात विषय हैं। इनमें हर्ष-विषाद नहीं करना इन्द्रिय निरोध है।
    • पंचेन्द्रिय विषय हाथी के समान हैं और सिंह के समान संयमी है। इन्द्रियाँ अनर्थ करने वाली हैं, जो संसारी जीवों को संसार-भ्रमण कराने में मुख्य कारण हैं। यदि वास्तविक सुख चाहते हो तो इन्द्रिय निरोध अवश्य करते रहना चाहिए।
    • आत्मानुभूति में बाधा डालने वाली इन्द्रियाँ हैं। पराजित होने का मूल कारण इन्द्रिय लोलुपता है, जिसके कारण त्याग-तपस्या सब भस्म हो जाती है।
    • अपनी-अपनी इन्द्रियों के विषयों से बचने का पुरुषार्थ करना ही इन्द्रिय निरोध है। पंचेन्द्रिय निरोध करने के लिए नोट्स की कोई आवश्यकता नहीं, अपितु अधिक चिंतन करने की आवश्यकता है।
    • वैराग्य के बिना पंचेन्द्रिय निरोध नहीं हो सकता है।
    • आप आस्रव को रोकना चाहते हैं तो इन्द्रिय निरोध करना सीखो। और यदि निर्जरा करना चाहते हैं तो भी पाँचों इन्द्रियों को वश में रखो।
    • भवों-भवों का पुण्य, इतनी बड़ी पूरी पूँजी लगा दी इस जिनलिंग को धारण करने में। फिर भी पाँच इन्द्रियों के विषय में ध्यान है। इस लिंग की कीमत तो समझो।

     

    कछुवे-सम

    इन्द्रिय संयम से

    आत्म रक्षा हो।

     

    आचार्यश्री का स्वभाव

     

    रसोई घर, इन्द्रिय निरोध का परीक्षालय - १ मार्च, २00६ , कुण्डलपुर (दमोह, मध्यप्रदेश) पूजन होने के बाद आचार्यश्रीजी ने कहा कि श्रमणों के इन्द्रियजय का सबसे बड़ा साधन चौका (रसोई घर) है। साधु को पाँचों इन्द्रियों के विषय चौके में ही उपलब्ध होते हैं। पंचेन्द्रियजय कर पाने में हम कितने सफल हैं, समर्थ हैं, इसकी परीक्षा चौके में हो जाती है। साधु यदि एषणा समिति' का पालन सम्यक् प्रकार से करता है तो पंचेन्द्रियजय हो ही जाती है। हम चौके में सफल हो गए तो मंदिर से भी ज्यादा निर्जरा चौके में हो सकती है। आचार्यश्रीजी ने ‘ओरिया' (आँवले की कढी) में पाँचों इन्द्रिय और मन के विषय को घटाते हुए कहा- ‘लो यहीं देख लो - कटोरी में ओरिया आया। उसमें हल्दी नहीं डली, साँवला-सा दिख रहा है। ओरिया का गुण, उसका रूप उसमें नहीं दिख रहा, कैसे खाएँ ? चक्षु-इन्द्रियजय चली गई। अच्छे-अच्छे नाम वाले व्यंजन अच्छे लगते हैं। यह क्या है?‘ओरिया', क्या नाम है? अतः कर्णेन्द्रियजय चली गई। बरसात या सर्दी का मौसम है। ‘ओरिया' ठण्डा-ठण्डा है। खाया नहीं जा रहा, हटा दिया। इस लिए स्पर्शनइन्द्रियजय चली गई। मुख तक गया नहीं कि घ्राण इन्द्रिय ने अपना कार्य किया, यह तो जला हुआ-सा है, अब कैसे खाएँ? नाक सिकुड़ गई। घ्राण-इन्द्रियजय भी चली गई। मुख में लिया, यह कोई ‘ओरिया' है? आँवले का, नमक का कोई स्वाद ही नहीं, काहे का (कैसा) ‘ओरिया' है? नहीं लेना, तब रसनाइन्द्रियजय चली गई। पता नहीं कैसे बनाते हैं?....... आदि जो मन में संकल्प-विकल्प उठने लगे, तो बस मन इन्द्रियजय भी चली गई।

     

    इन्द्रिय विषयों में विषाद (अरति) भाव लाने के साथ हर्ष भाव आने पर भी इन्द्रियजयी नहीं बन सकते। क्या गरमागरम है, क्या स्वाद है, क्या गंध है, क्या रूप है, देखते ही खाने का भाव बने, जलेबीघेवर-बावर क्या नाम है। इन सब में आनंद मनाना पाँचों इन्द्रियों पर विजय पाने से च्युत होने का लक्षण है। चौके में अच्छे-अच्छे शब्द सुनने मिल रहे हैं। बड़ा आदर सत्कार हो रहा। इसमें आनंद आ रहा, मन प्रफुल्लित हो रहा है तो मन-इन्द्रियजय भी चला गया। यदि मान-सम्मान की ओर दृष्टि नहीं रहती, विषयों के प्रति साम्य भाव रहता है, तो वह विशेष रूप से निर्जरा का कारण है। जिनशासन की महिमा अपरंपार है।जो आहार दे रहा है, जो ले रहा है और जो देख भी रहा है उन सबकी निर्जरा हो सकती है।

     

    ध्यान रखना, साधु रसों में चटक-मटक नहीं करते। यह बहुत सुंदर है, बढ़िया है, ऐसा कहना तो दूर, मन में भी ऐसा भाव आ जाएगा, तो गुणस्थान से नीचे आ जाएँगे। साधु को घटिया-बढ़िया से कोई मतलब नहीं रहता। उनके अंदर तो ‘अरसमरूवमगंध.....' वाली गाथा चलती रहती है। वहाँ (चौके में) पर प्रसन्नता के साथ बार-बार इसका प्रयोग करो, आनंद आएगा। वहाँ पर मूलाचार, समयसारादि अध्यात्म ग्रंथों के अवलोकन का अवसर मिलता है, प्रयोग रूप में। प्रयोग करो हम बारबार कहते हैं आप मानें तब न।

     

    अन्तर्मुखी होने का सरल साधन : चक्षु इन्द्रियनिरोध

     

    आगम की छाँव 

    सच्चित्ताचित्ताणं..................................मुणिणो॥१७॥

    सचेतन और अचेतन पदार्थों के क्रिया, आकार और वर्ण के भेदों में मुनि के जो राग-द्वेष आदि संग का त्याग है वह चक्षुनिरोध व्रत होता है।

     

    आचार्यश्री का भाव

    • रूप को देखने वाली आँखें महत्त्वपूर्ण नहीं हैं, बल्कि जो स्वरूप को दिखावें, वे ही आँखें महत्त्वपूर्ण हैं।
    • नेत्र बहिर्मुखी होने के लिए सरल साधन हैं।
    • चक्षु इन्द्रियनिरोध जिसके हो जाता है, वह व्यक्ति गुण का सागर बन जाता है।
    • नेत्र इन्द्रिय के व्यापार से, इधर-उधर देखने से, पर-पदार्थ की ओर दृष्टि ले जाने से राग-द्वेष अधिक होता है।
    • यदि हमने नेत्र इन्द्रिय को संयत बना लिया तो समझना आज भी बहुत बड़ी साधना कर ली।
    • हमें यह देखना पसंद है, यह नहीं.....आदि। अरे! अब अन्य को देखने की बात नहीं, भगवान् को देखो। बाकी विकृतियों को देखने में आपका (श्रमण का) गुण नहीं पलता।"

     

    पैरों में काँटें

    आँखों में गड़े फूल

    आँखें चली क्यों।

     

    आचार्यश्री का स्वभाव  

     

    मनोज्ञ-अमनोज्ञ...क्या? - एक बार संघस्थ मुनि श्री पुनीतसागरजी महाराज को अतिसार (लूजमोशन) हो गया। आराम नहीं हो रहा था। तब आचार्यश्रीजी ने कहा- ‘क्या हमें उनकी जंगल (शौच) देखने मिल सकती है? (मल के रंग-रूप के आधार पर रोग की जाँच हो जाती है) जब आचार्यश्रीजी शुद्धि करके आहार चर्या के लिए मंदिरजी जा रहे थे, तब रास्ते में उन्हें महाराजजी के शौच जाने की सूचना मिली। यह सुनते ही वह शौच देखने वापस लौट आए। अपने नेत्रों से उनके मल का निरीक्षण किया। रोग को समझकर तदनुकूल उपचार बताकर आहार चर्या को निकलने के लिए वापस मंदिरजी चले गए। धन्य हैं। गुरुवर, जो आहार चर्या को जाते समय दूसरे के मल को देखकर भी अंश मात्र ग्लानि के भाव आपके चेहरे पर नज़र नहीं आए।

     

    स्वयं की विजय : श्रोत्र इन्द्रियनिरोध

     

     आगम की छाँव 

    षर्षभौ..............................हानिकृत्।।६२३-६२४॥२२

    षङ्ग, ऋषभ, गांधार, धैवत, मध्यम, पंचम और निषाद ये जीवों से उत्पन्न होने वाले सात प्रकार के स्वर हैं। जीवों से उत्पन्न हुए इन शब्दों को तथा वीणा आदि अचेतन पदार्थों से उत्पन्न हुए शब्दों को रागपूर्वक सुनना श्रोत्र निरोध नाम के गुण को हानि पहुँचाने वाला है। अर्थात् किसी भी प्रकार के शब्दों में राग नहीं करना श्रोत्र-इन्द्रियनिरोध गुण है।

     आचार्यश्री का भाव  

     

    • जिस प्रकार यथालब्ध आहार की बात करते हैं, वैसे ही यथालब्ध शब्द सुनने के भी आदी या अभ्यस्त होना चाहिए ।
    • दूसरे की स्तुति-परक शब्द सुनने में हमारी कर्म निर्जरा और अधिक होती है, परंतु अपनी स्तुति करने में वो निर्जरा नहीं होती।
    • पर्वत की चोटी पर बैठ कर तप करने में वो निर्जरा नहीं होती है, जो निर्जरा हमारी निंदा परक शब्दों को सुनने में होती है।
    • निंदा-प्रशंसा दोनों में समान होना चाहिए। यही तो परीक्षा है। कोई भी बरस जाए, फिर भी संयमी अपनी मर्यादा नहीं छोड़ता।
    •  दुर्वचनों को सुनने से कर्मों की निर्जरा हो रही है, किन्तु अज्ञानी को यह सहन नहीं होता। और ज्ञानी कहता है, इससे हमारा माथा दु:खता नहीं है, बल्कि माथा उठता है कि कितनी क्षमता है मुझमें।
    • आलोचना, प्रशंसा इन दोनों को सुनकर छोड़ दो, हमेशा निर्विकल्पता रहेगी।
    • कटु वचन को सुनकर जिसे रंज नहीं होता, वह निरोगी है। कानों को मीठा सुनना, प्रशंसा सुनना जिसे अच्छा लगता है, वह रोगी है।
    • कर्ण इन्द्रिय को शहनाई अच्छी लगती है। कोलाहल सुनकर सामायिक में मन नहीं लगता और कोई रेडियो चलाता है तो अच्छा लगता है। इन सबसे बचो। हम बता ही सकते हैं,करना तो आपको ही है।

     

    शब्द पंगु हैं।

    जवाब न देना भी

    लाजवाब है।

     

     

    आचार्यश्री का स्वभाव 

    बुरा भी बुरा लगे - सिद्धक्षेत्र नैनागिरिजी (छतरपुर, मध्यप्रदेश) का प्रसंग है। पहाड़ी पर जैन मंदिर परिसर के बगल में ही एक हिन्दू मंदिर भी है। उसमें एक साधु रहते थे। उनके द्वारा मंदिर में माईक, स्पीकर द्वारा कुछ न कुछ शोरगुल चलता रहता था। एक दिन उसी मंदिर की बाउंड्री के पास आचार्यश्रीजी जिस समय सामायिक कर रहे थे, उसी समय वह साधु माईक के द्वारा ज़ोर-ज़ोर से ‘सियाराम, जय राम, जय जय राम' की राम धुन किए जा रहे थे। उस दिन उस समय आचार्यश्रीजी ने पाँच घंटे तक सामायिक की। सामायिक से उठने के उपरांत एक मुनि महाराज ने पूछा- ‘आचार्यश्रीजी! इतने व्यवधान के उपरांत भी आपका मन सामायिक में कैसे लगा रहा?' आचार्यश्रीजी मुस्कुराते हुए बोले- ‘वह ठीक ही तो कह रहा है। प्राकृत भाषा में ‘सिया' का अर्थ ‘स्यात्' (किसी अपेक्षा से) होता है। मैंने सोचा यदि देखा जाए तो मैं भी सिया (किसी अपेक्षा से) राम (भगवान् आत्मा) हूँ। और मैं अपने रामत्व का ध्यान करता रहा।

     

    प्रतिक्रिया से परे... - इसी तरह वर्षों पूर्व अजमेर, फिरोजाबाद तथा नैनागिरिजी में भी आचार्यश्रीजी ने जैन सिद्धांत से संबंधित विषय आस्रव और बंध के क्षेत्र में मिथ्यात्व की भूमिका को स्पष्ट करते हुए उस मिथ्यात्व को अकिंचित्कर (कुछ भी नहीं करने वाला), ऐसा कहा था। उनकी विवक्षा को न समझ पाने के कारण बहुत से विद्वानों ने उसकी अपने-अपने अनुसार प्रतिक्रिया व्यक्त की थी। इस पर भी आचार्यश्रीजी ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की, मौन ही बने रहे। किसी विद्वान् ने उनसे पूछा- ‘आपने स्पष्टीकरण क्यों नहीं दिया? मौन रहकर आपको क्या मिला?' आचार्यश्रीजी बोले- ‘इससे मुझे बड़ा लाभ हुआ। मेरी समता बढ़ी और स्वाध्याय भी बढ़ा है। धन्य है! गुरुदेव को, जिन्हें पर-निमित्त प्रभावित भी नहीं कर पाए।

     

    प्रशंसा, गुरु शंसा लगे - एक दिन प्रात:काल आचार्यश्रीजी के पास दर्शन हेतु भीलवाड़ा, राजस्थान से कुछ श्रावक आए और उन्होंने बहुत ही भक्ति-समर्पण से युक्त एक-दो भजन प्रस्तुत किए कि आप ही हमारे खेवनहार हैं, उद्धारक हैं, कल्याणकर्ता हैं आदि-आदि। वहाँ पर उपस्थित आर्यिकाओं को लगा, इन सब श्रावकोंकी भक्ति, भाव व समर्पण समझकर आचार्यश्रीजी क्या सोचते होंगे? सो किसी आर्यिका ने अपनी जिज्ञासा गुरुदेव के सामने रख दी।

     

    ख्याति-पूजा-लाभ से दूर गुरुवर बोले- ‘मैं अपने गुरु पर लगा लेता हूँ। मैं उनकी भक्ति में लीन हो जाता हूँ।' आर्यिका ने पुनः कहा- ‘आचार्यश्रीजी ! ये ख्याल तो आता होगा कि कितनी बड़ी-बड़ी और कितनी सारी जिम्मेदारियाँ हैं सबके कल्याण के लिए?' आचार्यश्रीजी ने कहा- हाँ, उनके कल्याण का भाव तो आता है। पर ये सब निमित्त-नैमित्तिक संबंध हैं। सब बिजली की चमक के समान है।

     

    स्वयं के प्रति प्रशंसात्मक वचनों को गुरु शंसा में लगा लेना उनकी अपनी गुरु के प्रति समर्पण की अनूठी कला है। और स्तुतिपरक शब्दों से भावित एवं निंदापरक शब्दों से प्रभावित नहीं होना गुरुजी की विशेषता है। गुरुजी कहते हैं- ‘प्रशंसा और ख्याति की चाहत रखना खाई में कूदना है।' 

    धर्म सुगंधि विस्तारक : घ्राण इन्द्रियनिरोध

     

     आगम की छाँव

     पयडीवासणगंधे..............................मुणिवरस्स।।१९।।

    जीव और अजीव स्वरूप, सुख और दुःख रूप, प्राकृतिक तथा पर-निमित्तक गंध में जो रागद्वेष का नहीं करना है, वह मुनिराज का घ्राण इन्द्रियजय व्रत है।

     

    आचार्यश्री का भाव 

    • घ्राण इन्द्रिय के विषय हमारे लिए कोई सुगंध के रूप में, कोई दुर्गध के रूप में फूटते हैं।
    • हम सुगंध में तो फूल जाते हैं, लेकिन दुर्गध के समय नाक सिकोड़ना या नाक बंद करना, येसम्यग्दृष्टि का स्वभाव नहीं है। वीतराग सम्यग्दर्शन का स्वरूप वही है कि किसी भी पदार्थ में सुगंध या दुर्गंध के आने पर समभाव बनाए रखना।
    • सुगंध-दुर्गंध लौकिक पद्धति है। संयमी के लिए तो वह पुद्गल की परिणति है।

     

    गंध खाने में

    न आती फिर तू क्यों

    सौगंध खाता।

     

    आचार्यश्री का स्वभाव 

     

    सुगंध एवं दुर्गंध सब एक समान - आचार्यश्रीजी को सुगंधित पदार्थ लुभाते नहीं हैं एवं दुर्गंधित पदार्थ व्याकुल भी नहीं करते हैं। अर्थात् दुर्गंधित पदार्थों का सामीप्य मिलने पर भी उनकी नासिका एवं मुख सिकुड़ते नहीं है। विहार करते समय कई बार रास्ते में दुर्घटनाग्रस्त मृत सड़े-गले पशु पड़े रहते हैं। जिनसे इतनी तीव्र दुर्गंध आ रही होती है कि साथ में चलने वालों की नाक सिकुड़ जाती, मुख विकृत हो जाते, यहाँ तक कि हाथ से नाक भी बंद कर ली जाती। और वहीं आचार्यश्रीजी उसी मार्ग पर पूर्ववत् प्रसन्न मुद्रा में ही विहार करते रहते। उनके चेहरे पर प्रतिक्रिया का कोई भी हाव-भाव नज़र नहीं आता, वह तो ‘मनोज्ञामनोज्ञेन्द्रियविषयरागद्वेषवर्जनानिपंच' तत्त्वार्थसूत्र के इस सूत्र का चिंतन करते-करते विहार कर जाते।

     

    इसी प्रकार सन् १९९६ में गिरनार यात्रा के समय एक दिन गोबर की खुली सार के बाहर आचार्यश्रीजी को बैठने के लिए स्थान मिला था, बैठे तो सभी थे वहाँ, पर सबकी नाक-मुँह सिकुड़ रही थी। एक मात्र आचार्य भगवन् थे कि उनके चेहरे पर अब भी वही प्रशस्तता थी, जो हरे-भरे सुगंधित उद्यानों के बीच से निकलते समय रहती है।

     

    आचार्यश्रीजी ने तो ग्लानि एवं सुगंध-दुर्गध को जीत लिया है। गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी वृद्ध थे, जिससे उन्हें जब कभी आहार के बाद स्थान पर पहुँचने से पूर्व ही मल विसर्जित हो जाता था। आचार्यश्रीजी उन्हें अपने हाथों की झोली बनाकर नियत स्थान पर लाते थे, और उनकी शुद्धि आदि करवाते थे। समाधिकाल में भी वह ही उनकी सारी चर्या पलवाते थे। किसी भी समय उनके मुख पर कोई विकार नज़र नहीं आता था। धन्य है गुरुवर को, जिनकी साम्य प्रकृति प्रेरणादायी एवं अनुकरणीय है। ऐसे इन्द्रिय साधक को कोटिशः नमन्...।

     

    सर्व इन्द्रिय वशीकरण मंत्र : रसना इन्द्रियनिरोध

     

     आगम की छाँव

    अन्नादिचतुराहारे... .........स कथ्यते ।।६४६-६४७॥

    जो मुनि आत्मध्यानरूपी अमृत से तृप्त हो रहे हैं और इन्द्रियों को जीतने वाले हैं, ऐसे मुनिराज खट्टे-मीठे आदि छहों रसों से परिपूर्ण, जिह्वा इन्द्रिय को सुख देने वाले, अत्यन्त मनोज्ञ और प्रासुक अन्नादिक चारों प्रकार का आहार प्राप्त होने पर जो अपनी आकांक्षा रोक लेते हैं, उसमें गृद्धता धारण नहीं करते उसको जिह्वा इन्द्रिय का निरोध कहते हैं।

     

    आचार्यश्री का भाव

    • रस की इच्छा जिह्वा इन्द्रिय की भूख है, पेट की भूख नहीं। साधक संयमीजन जिह्वा इन्द्रिय की नहीं, पेट की भूख दूर करते हैं।
    • जिह्वा इन्द्रिय राक्षसी के समान है।
    • रसना इन्द्रिय को वश में करके समता भाव में आ जाना चाहिए। प्रसन्नता के साथ सोचो कि ये मुझे कब से नचा रही है। अब मैं इसे नचाऊँगा।
    • जिसका रसना इन्द्रिय पर नियंत्रण नहीं है, वह दीन-हीन होता है। वह विषयों पर जय को प्राप्त नहीं कर सकता।
    • प्राकृतिक रूप से जो ठंडी चीज़ है, उसे लेने में दोष नहीं। पर ठंडी चीज़ खाने में अच्छी लगी यहजिह्वा इन्द्रिय का अविजय है
    • जिह्वा इन्द्रिय ताज़ी बन गई तो कर्मरूपी जंगल हरा-भरा हो जाता है।

     

    बिना रस भी

    पेट भरता छोड़ो
    मन के लड्डू।

     

     आचार्यश्री का स्वभाव

     

     ...अब, रसना को रस भान कहाँ? - ९ मई, २०१४, नेमावर, (देवास, मध्यप्रदेश) ग्रीष्मकाल में आचार्यश्रीजी का आहार एक चौके में चल रहा था। चौके में चापर (चोकर) की लपसी और चावल की महाराष्ट्रियन पद्धति से खीर बनी हुई थी। एक श्राविका अपने दोनों हाथों में एक जैसे दो बर्तनों में दोनों वस्तुओं को लिए आचार्यश्रीजी से लेने का निवेदन कर रही थी। लपसी हल्की एवं ठंडी प्रकृति वाली होने से गुरुदेव का भाव लपसी लेने का था। किंतु वह श्राविका खीर देने का भाव अपने मन में सँजोए थी। उसने आचार्यश्रीजी से पहले खीर लेने का निवेदन किया। पर आचार्यश्रीजी ने अंजलि नहीं खोली । तब उसने एक ऐसी श्राविका को आहार देने बुलाया, जो शांति पूर्वक आहार की व्यवस्था में संलग्न थी, जिसने अभी तक एक भी ग्रास नहीं दिया था। गुरुवर ऐसे धैर्यशाली श्रावकों को बड़ा ही प्रोत्साहन देते हैं। सो उन्होंने भी अपनी भाव मुद्रा से चापर की लपसी का पात्र उसे देने की अभिव्यक्ति की।

     

    परंतु आहार देने में कुशल उस श्राविका ने चतुराई से खीर वाला पात्र उसे पकड़ा दिया। और जब गुरुदेव द्वारा उसे लेकर जल लेने का भाव अभिव्यक्त हुआ, तब वह बोली- ‘आचार्य भगवन्! अभी जल नहीं, अभी तो चापर की लपसी चलनी है।' यह सुनकर आचार्यश्रीजी ने बड़े ही आश्चर्य से खीर वाले खाली पात्र की ओर देखा, जिनका भाव था कि हमने अभी-अभी वही तो ली है। वह श्राविका बोली- “नहीं, भगवन् ! मैंने इन्हें खीर वाला पात्र दे दिया था, अभी तो खीर चली है।' आचार्यश्रीजी को श्रावकों के मातृत्व भाव पर हँसी आ गई। फिर उन्होंने चापर की लपसी नहीं ली।

     

    धन्य हैं! आचार्य भगवन् को, जिन्हें चापर की लपसी और चावल की खीर के स्वाद में अंतर ही समझ में नहीं आया। सच ही है, आए भी कैसे? जिनका उपयोग अध्यात्म रस के स्वाद में लगा है। अब उनकी रसना को अन्य रसों का भान कहाँ ?

     

    उन्होंने ब्रह्मचारी अवस्था से ही रसों के राजा कहे जाने वाले नमक एवं मीठा इन दोनों रसों का त्याग कर दिया था। जब उन्हें स्वास्थ्य की दृष्टि से गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी महाराज के कहने पर नीम की पत्तियों का एक लोटा रस पीना पड़ता था, तब वह उसे बिना नाक-मुँह सिकोड़े सहजता से इतने कड़वे रस को हँसते-हँसते पी लेते थे। इस तरह आरंभ से ही वह इन्द्रियजयी साधक रहे।

     

    शील समुद्र वर्धक : स्पर्शन इन्द्रियनिरोध

     

    आगम की छाँव

     कर्कश मृदुशीतोष्णाः. ..................योगिनां महान्।।६६२-६६३ ।।

    कठोर, कोमल, शीत, उष्ण, स्निग्ध, रूक्ष तथा हल्का-भारी ये जीव-अजीव से होने वाले आठ स्पर्श हैं। ये आठों ही स्पर्श शुभ भी हैं और अशुभ भी हैं। जो मुनिराज इन आठों प्रकार के स्पर्शों में अपनी अभिलाषा का त्याग कर देते हैं उसको स्पर्शनेन्द्रिय का निरोध कहते हैं। यह स्पर्शनेन्द्रिय का निरोध मुनियों के लिए सर्वोत्कृष्ट है।

     

    आचार्यश्री का भाव

    • पहले स्पर्शन इन्द्रिय को वश में करना चाहिए। इसलिए कहा है, ध्यान करने के पहले स्पर्शन इन्द्रिय पर जय करो।
    • जो सर्दी खाता है वो ही गर्मी खा सकता है। ऐसा महाराजश्री (आचार्य श्री ज्ञानसागरजी) हमेशा कहा करते थे।
    • बाहरी पुद्गल की ओर दृष्टि जाती है तब उसको छूने के भाव होते हैं जो इस स्पर्शन इन्द्रिय के कारण होते हैं।
    • व्रती लोगों को ऐसे संस्तर नहीं रखना चाहिए, जिसमें कोमलता का अनुभव होता है।
    • जिस प्रकार काले सर्प को संकट के समान समझकर छूना नहीं चाहते हैं, वैसे ही व्रती लोगों के लिए चाहे वो स्त्री हो या पुरुष, कोमल स्पर्श वाले, रुई वाले गट्ठों को, कोमल शय्या को एवं रेशमी वस्त्र को भी नहीं छूना चाहिए।
    • ब्रह्मचर्य व्रत वाले के लिए कोमल आसन एवं शय्या पर नहीं बैठना और न ही सोना चाहिए। ऐसे में ब्रह्मचर्य व्रत की हानि होती है।
    • शरीर के प्रति सुख देने वाले पदार्थों से भी बचना चाहिए। प्रकृति के अनुकूल ही प्रकृति का प्रयोग करना चाहिए। सहजता से मिले, ऐसा करना चाहिए। कृत्रिम साधनों का प्रयोग न करें। 

                                             

     फूलों की रक्षा

    काँटों से हो शील की

    सादगी से हो।

     

    आचार्यश्री का स्वभाव 

     

    आत्मस्पर्शी को, शेष स्पर्शो से क्या ? - सन् १९८०, सिद्धक्षेत्र मुक्तागिरि, (बैतूल, मध्यप्रदेश) में चातुर्मास करके आचार्यश्रीजी का ससंघ विहार रामटेक, (नागपुर, महाराष्ट्र) की ओर हुआ। दिसम्बर का महीना था। अम्बाड़ा गाँव पहुँचने से पूर्व ही अंधेरा होने लगा। आचार्यश्रीजी ससंघ एक खेत में ठहर गए। खेत में ज्वार के डंठलों से बना एक स्थान था। रात्रि विश्राम करने के भाव से आचार्यश्रीजी ससंघ उसी स्थान पर प्रतिक्रमण और सामायिक करने बैठ गए।

     

    रात होने से ठंड बढ़ने लगी। श्रावकों ने अपने अनुसार सेवा लाभ लिया। वह स्थान एकदम खुला था, और नीचे बिछे डंठल तो डंठल ही थे। इसके बावजूद भी स्पर्श-इन्द्रियजयी आचार्यश्रीजी अपने आसन पर अडिग रहे। किसी प्रकार के प्रतिक्रिया के भाव उनके चेहरे पर नहीं झलके। लगभग आधी रात बीत जाने के बाद शरीर को विश्राम देने के लिए उन्हीं डंठलों पर एक करवट से लेट गए। सारे संघ ने मन ही मन विचार कर लिया था कि गुरुवर के लेटने के बाद ही वह विश्राम करेंगे। सो उनके उपरांत सभी साधुवूद भी लेट गए।

     

    रात में ठंड बढ़ती देख श्रावकों ने पास में रखे सूखे ज्वार के डंठल सभी साधुओं के ऊपर डाल दिए। सब चुपचाप देखते रहे, किसी ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। लोग यह सोचकर निश्चिंत हो गए कि अब ठंड कम लगेगी, पर ठंड तो उतनी ही रही। डंठल का बोझ और चुभन अवश्य बढ़ गई थी। उपसर्ग व परीषह के बीच सभी साधुजन शांत भाव से चुपचाप सब सहते रहे। सुबह श्रावकों ने आकर ठंडल हटाए। आचार्यश्रीजी ने आगे विहार किया। कुछ ही दूर आगे जाकर वह बोले- ‘देखो, कल सारी रात कर्म निर्जरा करने का कैसा अवसर मिला, ऐसे अवसर का लाभ उठाना चाहिए।' यह सुनकर सभी महाराज दंग रह गए। मन ही मन अत्यंत श्रद्धा और विनय से भरकर उनके चरणों में झुक गए। धन्य है आचार्य भगवन् ! जिन्हें मूलगुण के किसी भी गुणधर्म के रूप में क्यों न देखा जाए। तो भी उनकी छवि हर बार निराली ही निराली नज़र आती है।

     

    पंच इन्द्रिय स्वामी : मन

     

    आगम में ‘मन के निरोध' का २८ मूलगुणों में पृथक् रूप से पाठ नहीं किया गया है। पर ‘पंच इन्द्रियनिरोध' मूलगुण पढ़ा गया है। पंचइन्द्रिय निरोध मूलगुण का पालन तभी संभव है, जब । मन का निरोध कर लिया गया हो। क्योंकि पाँचों इन्द्रियों का व्यापार मन के ही अधीन होता है। मन को पाँचों इन्द्रियों का स्वामी कहा जा सकता है/ जाता है। अतः मन का निरोध करना पहले आवश्यक है। इसका ग्रहण अव्यक्त रूप से इन्द्रियनिरोध में हो जाता है।

     

    आगम की छाँव  ...

     

    नानाविकल्पजालरूपं मनो भण्यते...

    नाना प्रकार के विकल्प जाल को मन कहते हैं।

    अनिन्द्रियं मनः अन्त:करणमित्यनर्थान्तरम्...।

    अनिन्द्रिय, मन और अंत:करण ये एकार्थवाची नाम हैं।

     

    मन के भेद - मन दो प्रकार का है, द्रव्यमन व भावमन।

     

    द्रव्यमन - जो हृदयस्थान में आठ पाँखुड़ी के कमल के आकार वाला है, तथा अंगोपांग नामकर्म केउदय से मनोवर्गणा के स्कंध से उत्पन्न हुआ है। उसे द्रव्यमन कहते हैं।

     

    भावमन - वीर्यांतराय और नोइन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम की अपेक्षा रखने वाले आत्मा की विशुद्धि को भावमन कहते हैं।

     

     आचार्यश्री का भाव 

    इन्द्रिय विषय मन के अधीन - पाँचों इन्द्रियों के विषय नियत हैं एवं प्रत्येक का स्थान भी नियत है। किंतु मन का न तो स्थान नियत है, और न ही विषय नियत है। वह मन क्षण-क्षण में अलग-अलग वस्तुओं को विषय बनाता रहता है। मन कभी वस्तु की प्रतीक्षा नहीं करता, बल्कि वह वस्तु कितनी भी दूर हो उसे अपना विषय बना लेता है और बार-बार स्मरण में लाता रहता है। कोई इन्द्रिय अपने विषय की माँग नहीं करती, मन ही माँग करता है। प्रत्येक इन्द्रियों के विषयों की पूर्ति मन ही करता है।

     

    मन को विज्ञानी नहीं, सम्यग्ज्ञानी जानता है। - पाँच इन्द्रियों के साथ-साथ एक मन भी हुआ करता है। आज तक विज्ञान इन्द्रियों के बारे में तो खोज कर चुका है। लेकिन मन कहाँ होता है, इसकी खोज नहीं कर पाया। इन्द्रियाँ देखने में आती हैं, इसलिए इन्हें पकड़ना सहज होता है। लेकिन जो अंतरंग का विषय है, वह विज्ञान की खोज से परे है। उसे विज्ञानी नहीं, सम्यग्ज्ञानी जान सकता है।

     

    मन काबू सो सब काबू - मन कभी भी समझना नहीं चाहता, वह तो हमेशा समझाना चाहता है, उसी का नाम मन है। मन को संतुलित करके रखा जाए, तो उस पर काबू पाना आसान है। जैसे सितार के तार थोड़े भी ढीले हो जाएँ, तो संगीत बिगड़ जाता है और अगर ज़ोर से खींच दिए जाएँ, कस दिए जाएँ तो वे टूट जाते हैं। उन्हें तो ठीक से संतुलित किए जाने पर ही अच्छा संगीत सुनाई देता है। ऐसा ही मन को संतुलित करके रखा जाए, तो उस पर काबू पाना संभव है, आसान है।

     

    मन चंचल है। वह ख्याति, पूजा के लिए जीवनपर्यंत व्यर्थ के कामों में भी लग सकता है। मन यदि इन्द्रिय विषयों के प्रति रुचि जागृत कर सकता है तो वह इन्द्रिय विषयों के प्रति उदासीनता भी ला सकता है। मन में ये दोनों ही संभावनाएँ हैं। संयमी मन के अधीन नहीं रहते। इन्द्रियों को इष्ट लगे या अनिष्ट, वे सब कुछ सहन करते हुए आगम के अनुसार ही चर्या करते हैं। श्रावक और साधु में यही सबसे बड़ा अंतर है कि साधु मन को मना लेता है और श्रावक मन की मान लेता है।

     

    मन दमन नहीं, वशीभूत करें - अपने मन को वश में करने वाले ही महात्मा माने गए हैं। मन को वश में करने का अर्थ मन को दबाना नहीं, बल्कि मन को समझाना है। मन को समझाना, उसे प्रशिक्षित करना, उसे तत्त्व के वास्तविक स्वरूप की ओर ले जाना ही वास्तव में मन को अपने वश में करना है। मन दिखता नहीं। उसका नाम ही अंतरंग है, वह भीतर रहता है। लेकिन जो बाहर (इन्द्रियाँ) दिखती हैं, उन सबको वह वशीभूत कर लेता है। इसलिए मन की आराधना छोड़कर, हमें मन को आत्मा की आराधना की ओर लगाना चाहिए। मन को वश में करोगे, तो सम्यग्ज्ञान प्राप्त होगा, मोक्ष पाओगे। 

     

    मन को बार-बार साफ़ करें - मन को सदा प्रशस्त रखें। उसकी चंचलता से बचें । जिस प्रकार चश्मा एक बार खरीदा जाता है, लेकिन बार-बार उसे साफ़ करना पड़ता है तभी दृश्य साफ़ दिख पाता है। उसी प्रकार मन में जो विकारों की धूल है उसे बार-बार साफ़ करना पड़ता है, तभी निर्मल मन से आत्म-वस्तु दिख पाती है। भीतर की यथाजात वस्तु अद्भुत होती है। जिसका मन रूपी सरोवर शांत है वहाँ पर राग-द्वेष रूपी तरंगें उत्पन्न नहीं हो सकतीं।

     

    अपना मन, अपने विषय में क्यों न सोचता? - मन लग रहा है, यह अच्छा नहीं है। बल्कि यह विचार करो कि मन कहाँ लग रहा है? अपना मन, अपने विषय में क्यों नहीं सोचता? हम दूसरे के बारे में सोचते रहते हैं, जबकि हमें अपने बारे में अधिक सोचना चाहिए। जिसका मन (धर्म में) नहीं लगता, उस मन को नरक में भेज दो।* मन रंजन, तन रंजन, जन रंजन को छोड़े बिना निरंजन को नहीं जान सकता। संसार इन तीनों ही रंजनों में लगा हुआ है। सबसे बड़ी कमज़ोरी है, ख्याति, पूजा व लाभ की चाह। यह मन का विषय है जो सब कुछ छोड़ सकता है, पर यह नहीं।

     

    बोलो, कब मन को रोका तुमने? - मन का गुलाम सबसे उत्कृष्ट गुलाम माना जाता है। यह सुनने में अच्छा नहीं लगेगा, लेकिन देख लो स्वयं को। यहाँ पर कोई भी ऐसा नहीं है, जो आत्मा की गुलामी नहीं कर रहा हो। सब मन की गुलामी कर रहे हैं। बोलो, ‘कब मन को रोका है तुमने? कब मन के द्वंद्वों पर अंकुश लगाया है, कौनसा क्षण आया है, जिस समय तुम्हारा मन कषायों से रहित हुआ हो? निर्णय करो, बहुत बड़ा भेद-विज्ञान होगा। तुम्हें एक क्षण को भी भेद-विज्ञान/आत्मा का अनुभव हुआ है?' यदि मानसिक साधना प्रौढ़ होती जाती है तो शारीरिक साधना अपने आप प्रौढ़ होती चली जाती है। मानसिक साधना प्रधान मंत्री है। और शारीरिक कलेक्टर जैसी है। प्रधानमंत्री आ गया तो सभी आ ही जाएँगे।

     

    मन रूपी बच्चे को सुला कर, आत्मा रूपी माँ काम करे - किसी ने आचार्यश्रीजी से कहा कि मेरा मन बड़ा चंचल है। वह धार्मिक क्रियाओं में भी चंचल हो जाता है, इससे काम लेने का तरीका बतलाइए। तब आचार्यश्रीजी ने उदाहरण देते हुए कहा- ‘जैसे घर में बच्चा रोता, मचलता एवं ऊधम करता है तो माँ उसे पालने में सुला देती है और अपना काम कर लेती है। यदि बीच में बच्चा जाग जाता है तो माँ पुनः पालना झुला देती है, बच्चा फिर सो जाता है। ठीक उसी प्रकार मन रूपी बच्चे को सुला करके आत्मा रूपी माँ को अपना काम कर लेना चाहिए।

     

     मन को विषयों के बाजार में मत भेजो - हमारा मन बच्चे के समान है। जैसे बच्चे को बाजार में नहीं भेजते, क्योंकि वह कुछ भी खरीदकर खा सकता है और ठगा भी जा सकता है। वैसे ही अपने मन को पंचेन्द्रिय विषयों के बाजार में मत ले जाओ। यदि ले जाना पड़े तो समझा कर ले जाओ।

     

    ठंडे बस्ते में

    मन को रखो फिर

    आत्मा में डूबो।

     

    आचार्यश्री का स्वभाव

    पंचेन्द्रिय एवं मन रूपी गेट बंद रखो - आचार्यश्रीजी का विहार बरगी (जबलपुर, मध्यप्रदेश) से सन् १९८४ में हो रहा था। वहाँ बहुत बड़ा बाँध बँधा हुआ था, जो बाद में ‘रानी अवन्तीबाई सागर बरगी (एन.वी.डी.ए.) डेम' के नाम से प्रसिद्ध हुआ है। उसे देखकर आचार्यश्रीजी बोले- 'बाँध में भले ही कितना भी पानी भरा रहे, लेकिन वह कभी भी हमें नुकसान नहीं पहुँचा सकता, क्योंकि उसमें मजबूत गेट लगे हुए हैं। ठीक वैसे ही इस संसार की नदी में हमारे सामने पंचेन्द्रिय विषय भरे पड़े हैं, लेकिन ये हमारा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते। बस पंचेन्द्रिय एवं मन रूपी गेट मत खोलो। मन को संयत रखो। और जैसे बाँध पर सरकार आकर बारबार नहीं देखती। जिन्हें जिम्मेदारी दी गई है उसको व्यवस्थित रखना उनका कर्तव्य है ठीक इसी प्रकार हम साधकों से देव- शास्त्र-गुरु बार-बार कुछ नहीं कहते। यह तो अपना कर्तव्य है, आप करिए।

     

    उपसंहार

    इस प्रकार आचार्यश्रीजी कहते हैं- ‘पंचेन्द्रिय के विषयों की इच्छा नहीं करना और अरुचि जनक वस्तु की मिलने पर भी अरति उत्पन्न नहीं होना इन्द्रिय विजय कहलाती है। जीव के पास इन्द्रिय रूपी पाँच खिड़कियाँ हैं, जिनमें से विषय चोर आते रहते हैं और मन सिंहद्वार के समान है, जो विषय रूपी चोरों को रास्ता दिखाता रहता है। साधु को, ज्ञानी को इन्द्रिय रूपी को चोरों से हमेशा बचकर रहना चाहिए, क्योंकि उनके पास सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूपी रत्न हैं।

     

    वर्तमान में चारों ओर इन्द्रिय विषयों के काँटें बिखरे हैं। हम अपने मन के जरिए इन काँटों से ग्रसित भी हो सकते हैं और उसी मन के माध्यम से मोक्ष की यात्रा भी कर सकते हैं। इसलिए काँटों के मध्य रहकर भी फूल की तरह मुस्कराना सीखो। जब पंचेंद्रिय के विषय खाली हो जाएँ, तब मैं साधना करूं, ऐसा तीन काल में भी संभव नहीं। हमें इन सबके बीच में रहकर ही साधना करनी होगी। आप अपनी सोच मोक्षमार्ग की ओर जागृत करेंगे तभी पुरुषार्थ कर पाएँगे।

     

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    ठंडक में गर्माहट अथवा गर्मी में ठंडक, बैठने हेतु चिकना अथवा खुरदरा पाटा की प्राप्ति की भावना से रहित, कंकड़-काँटों के चुभने पर भी प्रतिकार की भावना से रहित, नीरस-सरस आहार में साम्यभाव, दुर्गंध-सुगंध में एकीभाव, कुछ अच्छा देखने की इच्छा से रहित, सुस्वर-दुःस्वर में समत्व (समानता)। इस प्रकार पाँचों इन्द्रियों की विषयों की अभिलाषा से रहित और पाँचों इन्द्रियों के अमनोज्ञ विषय उपलब्ध होने पर भी प्रतिकार करने की भावना से रहित, राग-द्वेष रूप परिणामों से रहित, सदा समता रूप मंद मुस्कान युक्त आचार्यश्रीजी श्रेष्ठ पंचेन्द्रिय संयमक हैं।

     

     पाँचों इन्द्रियों के विषयों से मन को हटाकर 

    अपने आत्म-ध्यान में लगाना ही ज्ञानीपने का लक्षण है।

    यदि आप योगी बनेंगे तो मन आपका सहयोगी बनेगा।

    और यदि आप भोगी बनेंगे तो मन आपको रोगी बना देगा।

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