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हम सब लोग आगम ग्रन्थों में पढ़ते सुनते आये हैं, आत्मा गुणों से सुशोभित हो जाने से काया गुणों की महिमा के समान कंचनमय होकर सुशोभित होने लगती है। जैन दर्शन शरीर की पूजा को नहीं किसी के नाम की पूजा को नहीं, गुणों की प्रधानता को लेकर पूज्य-पूजक भाव में अन्तर करता चला आया है। गुण आत्मा के भीतरी तत्त्व हैं। जो साधना के माध्यम से शरीर में दृश्यमान होने लगते हैं, जो अपने आप बाह्य प्रदर्शन को रोकने का संकेत देकर आत्मदर्शन की ओर प्रेरित करता है। आत्मा के गुण ही देहधारियों की मणिरत्न हुआ करते हैं। पर्याय बुद्धि को रखने वाले लोग पहले देह से आकर्षित होते हैं। आत्मदृष्टि रखने वाले लोग देह से नहीं गुणों से आकर्षित होते हैं, क्योंकि आत्म दृष्टा साधक स्वयं गुणों से सुशोभित होता है। गुण आत्मा का खजाना है, जिसे चोर चोरी नहीं कर सकता। कोई शिल्पी उन मणियों के टुकड़े भी नहीं कर सकता। न कोई आकार प्रकार दे सकता है, क्योंकि वे कोई पुद्गलों का पिण्ड नहीं है, जो स्पर्शन इन्द्रिय का विषय बन पाये। यह तो अनुभवजन्य है। देह से गुण प्रकट होने से यह चक्षु का इन्द्रिय का विषय अवश्य बन जाता है। जिसके कारण वचनों से गुणगान का रूप धारण कर लेता है, यह गुणों का रूप ही आत्मा के अन्दर उत्पन्न होने वाली क्रिया भावों का परिचय कराने में एक साधन का कार्य करता चला जाता है। साधक कार्य को नहीं आत्मा में उत्पन्न प्रशस्त भावों की ओर दृष्टि रखता है। बाह्य जगत् के विकारी भावों से मुख मोड़ लेता है। इन ५० वर्षों में गुरुदेव ने आत्मा की ओर दृष्टि रख के बाह्य जगत् से दूरी बनाकर देह को गुणों की मणियों से सुशोभित कर दर्शन प्रदान किया।
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श्रुत का अर्थ आगम ग्रन्थ हुआ करता है, जो जिनेन्द्र भगवान् से मुख से निकली जिनवाणी हुआ करती है। इसे ही जैन सिद्धान्त कहा जाता है। जो जैन सिद्धान्तों को जानता है और उस मय ही आचरण करता है। वास्तव में सच्चे श्रुतगामी आचार्य गुरुदेव हैं। जैसा शास्त्रों में लिखा है वैसा ही जीवन जीते हैं। श्रुत को कठिनता को सरलता में व्यक्त करने की योग्यता के धनी हैं। श्रुत को और नया रूप अपने चिंतन के माध्यमों से प्रदान करने का पुरुषार्थ प्रतिक्षण करते रहते हैं। श्रुत की समीचीन व्याख्या समीचीन साधकों के द्वारा ही सम्भव होती है। निष्पक्ष न्याय-नीति से जिस शब्द का जो अर्थ ध्वनित हो रहा है, उसे ही अपनी वाणी का विषय बनाकर जिनवाणी प्रस्तुत करना ही श्रेष्ठ, श्रेष्ठतम माना जाता है। आज समाज में एक ऐसा पंथ आ गया है, जो जिनवाणी के अर्थ का अनर्थ करने में लगे हुए हैं। द्रव्यसंग्रह ग्रन्थ की गाथा मुनि नियम का मुणि णियमा... प्रस्तुत कर पूर्वाचार्यों के द्वारा लिखित गाथाओं का समापन किया जा रहा है। इसे ही आचार्य उमास्वामी महाराज ने तत्त्वार्थसूत्र में निह्नव संज्ञा प्रदान की है। इन ५० वर्षों में इन विवादों दोषों से आचार्य गुरुदेव दूर रहकर अशुद्ध जिनवाणी के सामने शुद्ध जिनवाणी प्रस्तुत करने का भाव बनाये रखें। यही उनका विरोध का तरीका है। छोटी लाइन के सामने बड़ी लाइन, चर्चा से नहीं चर्या से खींचने का आयाम करते रहे इसलिए जैन साहित्य जगत् में आचार्य विद्यासागरजी का नाम एक साहित्यकार के रूप में अंकित हुए बिना रह नहीं पाया। यही उनकी श्रुतभक्ति उन्हें श्रुत में पारगामी बनाने में सफल रही |
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साधक जीवन समता, सामायिक के साथ प्रारम्भ होकर सामायिक चारित्र में विहार करते हुए षट्आवश्यक क्रियाओं का पालन करते हुए जीवनयापन की विधि चला करती है। आत्म परिणामों में समता बनाये रखना, समता से सनी हुई वाणी का प्रयोग करते हुए जनहित में समता, शान्त परिणाम, भद्रतापूर्वक श्रावकधर्म की प्रवृत्तियों का या श्रावक धर्म के षट्आवश्यक पालन कर वही समतामय होकर वह जिया करते हैं और जीने का उपदेश देते हैं। गुरुदेव मनवचन-काय की त्रिवेणी के साथ होकर समता की धरोहर को आत्मसात करते हुए प्रतिक्षण देखा जा सकता है। वास्तव में समता की सखी ही मुक्ति की वधु से मिलाने वाली है। चाहे उसे नाम सामायिक बोलो, क्षेत्र सामायिक बोलो, काल सामायिक बोलो, ये सब समता, सामायिक, सामायिक चारित्र के ही अंग हैं। इन्हीं में गमनागमन की प्रवृत्ति बनाये रखकर समय की पाबन्दी के अतिरिक्त अर्थात् सामायिक आवश्यक को छोड़कर अन्य समय भी सामायिक चारित्र में विहार चलता रहता है। उठते-बैठते, चलते-फिरते, खाते-पीते, सोते समय भी समय के साथ कर्मों को काटने की पद्धति चला करती है। उन्हें असंयम से प्रेम नहीं संयम के चारित्र से प्रेम है। इसलिए सोते हुए भी होशमय वृत्ति बनाये रखते हैं। मन में उस समता चारित्र के प्रति बहुमान प्रतिक्षण बढ़ता हुआ नजर आता है। उसी की पूजा आराधना, विनय भक्ति, उपास्य, आराध्य की समायोजना के भाव से समभाव विषम से सम परिस्थितियों की ओर दृष्टिपात करते हुए। सुबह से शाम, शाम से रात; इस प्रकार चौबीसों घण्टे आठों याम एक ही रस धारा में बहकर प्रवाहमान बने रहना, कभी बोर नहीं होना, लगातार ५० वर्षों से सामायिक चारित्र का पालन करते हुए संघ के लिये भी यही उपदेश देते हुए नजर आते हैं। सामायिक चारित्र के साथ सामायिक आवश्यक में उन्हें ढील पसन्द नहीं। यही उनकी मनोवृत्ति है।
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‘सु' शब्द शुभ का वाचक है। शुभकार्य ही चारित्र की आधारशिला होती है। यह पुण्य आत्मा का उद्धारक तत्त्व है, जो तप की साधना से प्राप्त होता है। ठण्ड, गर्मी, वर्षा इन तीनों ऋतुओं में तप की साधना करना, शीत ऋतु में कमरे दालान, सीढ़ियों के नीचे शयन करना। ग्रीष्म ऋतु में कमरे के अन्दर शयन करना या ध्यान करना, वर्षा ऋतु में भी कभी कुण्डलपुर की पहाड़ियों पर, कभी अमरकंटक के जंगल में चातुर्मास करना। कभी गर्मी के दिनों में शिलाओं पर बैठकर आतापनयोग करना। फल और रसों का परित्याग कर नीरस भोजन कर ग्रहण करना, जिसमें न नमक है, न मीठा है, न कोई सब्जी है। ऐसी कठोर तप साधना ही तपन को शीतल बनाती चली जाती है और शीत में ऊष्म बनाती चलती है। जंगल में मंगल वातावरण का प्रभाव बढ़ाते चलते हैं, तप के प्रभाव से भीड़ का कभी अभाव नहीं होता क्योंकि भीड़ से दूर रहते हैं इसलिए भीड़ उनके करीब होती है और जो लोग भीड़ के करीब होते हैं, उनसे दूर होती है। गुरुदेव इन ५० वर्षों में मंच से दूर रहे, इसलिए प्रपंच से बचे रहे और ऐसे जिनवाणी सेवक पंडित कैलाशचन्द्र वाराणसी जो मुनियों को नहीं मानते थे, तप साधना के प्रभाव से आचार्य विद्यासागर के दर्शन कर णमोकार मंत्र में णमो लोए सव्वसाहूणं जपते ही आचार्यश्री का दर्शन उन्हें सहज होता रहा, यह सम्यक्त्व चारित्र गुण के कारण ही इस जगत् में विपरीत मत बुद्धि वालों में सम्यग्ज्ञान की ध्वनि भरने वाले गुरुदेव तम प्रलयंकर विद्यासागर की उपाधि को प्राप्त हुए। अन्धकार को दूर करने वाले गुरुदेव जयवन्त हो।
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कोई राही यदि दूर देश पहुँचने के लिए चलता है तो उसे लगातार चलना होता है, जिसमें श्रम और साधन की आवश्यकता होती है। इसी प्रकार मोक्षमार्ग पर गुरुदेव निरन्तर चले जा रहे हैं। उनके पास कोई साधन नहीं, कोई श्रम नहीं, यहाँ साधन और श्रम का प्रयोजन यही है, परिग्रह नहीं न कोई आरम्भ। मात्र पिच्छिका-कमण्डलु, मोक्षमार्गी के चिह्न है। पिच्छिका से जीवों की रक्षा करना, उठते-बैठते समय परिमार्जन करना। कमण्डलु शुचि उपकरण शरीर की शुद्धि के काम आने वाला। तीसरा शास्त्र ज्ञान अभ्यास के काम आने वाला, इन्हें शास्त्रीय भाषा में त्रय उपकरण कहते हैं, जिससे आत्मा का उपकार होता है। ये कोई न परिग्रह है न कोई आरम्भ के उपकरण। फिर श्रम कैसे हुआ, श्रम परिश्रम बाह्य साधनों में हुआ करता है। मोक्षमार्गी को अविरल मोक्ष के अभ्यास की साधना के साधन में लगा रहता है। जैसे कायोत्सर्ग की मुद्रा में लीन हो जाना। ध्यान, पद्मासन मुद्रा में लीन हो जाना। काय से ममत्व भाव को हटाने का निरन्तर अभ्यास चलता रहता है। मोह रहितोऽहं, राग रहितोऽहं, द्वेषरहितोऽहं, कर्मरहितोऽहं, नोकर्मरहितोऽहं, स्पर्शनइन्द्रिय रहितोऽहं, रसना इन्द्रियरहितोऽहं, घ्राण इन्द्रियरहितोऽहं, चक्षु इन्द्रिय रहितोऽहं, कर्ण इन्द्रिय रहितोऽहं, क्रोधमानमायालोभ रहितोऽहं, मन रहितोऽहं, वचन रहितोऽहं, काय रहितोऽहं, यही अभ्यास आत्मानुभूति में लगाये रखता है। रात-दिन के भेद का त्याग कर चौबीसों घण्टे आत्महित का सम्पादन मोक्ष के पथ का अनुगमन करने वाले गुरु देव लगातार ५० वर्षों से प्रभावना ही नहीं अपनी भावना से पथ का अनुशरण कर रहे हैं, इसलिए उनकी प्रभावना ही यश कीर्ति की पताका फहराती हुई हमें दृष्टिमान हो रही है।
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मोक्षमार्ग पर चलना-चलाना भवसागर से पार लगाना दण्डाधिकारी दण्ड देने का, प्रायश्चित देने का अधिकार आचार्य परमेष्ठी के पास होता है। वे एक निष्पक्ष न्यायाचार होते हैं, इसलिए उन्हें न्याय की मूर्ति की संज्ञा प्राप्त है, वे स्व के कल्याण में हमेशा तत्पर रहते हैं। अपने ही मार्ग पर उनकी सदैव दृष्टि लगी रहती है। अपने ही दोषों की आलोचना में उनका उपयोग कार्य करता है। इस साधना की श्रृंखला में तत्पर रहते हुए भी कोई भूला भटका प्राणी आ जाता है तो उसे भी मार्ग बता देते हैं क्योंकि रास्ता जानने वाला ही रास्ता बता सकता है। रास्ता बताने के लिए आचार्य परमेष्ठी को निश्चित किया गया है। एक बार एक व्यक्ति ने कहा-मैं संसार में आया हूँ तो मुझे क्या करना चाहिए। आचार्य गुरुदेव ने कहा-हम तो निकल गये हैं आप भटक मत जाना संसार के चक्कर में फँस न जाना गुरु के इन वाक्यों को सुनकर उस व्यक्ति के अंदर वैराग्य का भाव उत्पन्न हो गया, उसने आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत को गुरु के चरणों में बैठकर स्वीकार कर लिया, इसे कहते हैं स्वपर हित पथगामी, आचार्यश्री आगम में वर्णित गमनागमन की क्रिया में लगे हुए थे, रास्ते में किसी भव्य आत्मा ने उसके निवेदन पर रास्ता बता दिया। ऐसे ही एक बार पदयात्रा पर चले जा रहे थे, रास्ते में एक झोपड़ी के सामने एक पाषाण पर बैठ गये, उठने के बाद वह पत्थर पूज्य हो गया, उस ग्रामीण व्यक्ति ने अपने घर उठाकर रख लिया, अब लगा कि गुरु की तन की थकान निकली और उस ग्रामीण की भवसागर में घूमने की थकान कम हो गयी। जिनवाणी का स्वाध्याय करने का आदेश आगम वाक्य है। यह स्वाध्याय आवश्यक क्रिया है। इसके निमित्त से श्रावकजन लाभ लेना चाहे तो यह दोहरा काम हो जाता है। इसे ही स्व परहित कहा जाता है। ऐसे ही प्रवचन की वाणी से लोगों का मिथ्यात्व गलित होता है। वास्तव में प्रवचन अपने ही लिए हुआ करता है। यदि बीच में कोई लाभार्थी लाभ लेना चाहे तो दया, करुणा, वात्सल्य-मूर्ति सुबह-शाम भी जीवों के उपकार के लिए तत्पर रहते हैं। इन ५० वर्षों में अपनी चर्या अपने आत्म-उत्थान के लिए निश्चित रूप से की है। पर कोई दीन-हीन संसारी प्राणी के आ जाने पर समय का दान कर उसका मोक्षमार्ग प्रशस्त किया है। अपने और पर के हित के मार्ग पर चलने वाले गुरुदेव जयवंत हो।
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साधु का जीवन वस्तुतः साधना तप ही हुआ करता है लेकिन आगम ग्रन्थों को सरलीकृत प्रस्तुतिकरण के साथ सामान्यजन तक पहुँचाने का भाव भी आत्मसाधना के साथ मानस पटल में उत्पन्न होते रहते हैं। लेखनकला, साहित्यसृजन, काव्यकला ये सब अपने ही उपयोग को स्थिर रखने के साधन हैं, ना कि ख्याति-लाभ-पूजा की दृष्टि से लिखे जाते हैं। यह मूकमाटी महाकाव्य आचार्य गुरुदेव की दृष्टि में आया और उन्होंने संस्कृत भाषा में लिखने का मन बनाया था, बाद में सोचा यह जनहितकारी नहीं बन पायेगा, फिर हिन्दी में लिखने का विचार आया फिर बुन्देली कहावत अनुभवों का सहारा ले कार्य प्रारम्भ हुआ, जिस पर देशभर के ३५० मनीषियों ने समीक्षा लिखी जो मूकमाटी मीमांसा नाम से प्रकाशित हुई, संघ के साधुओं ने भी समीक्षा लिखी। माटी की तीन अवस्थाओं के बारे में लिखा-आचार्य गुरुदेव को यह समीक्षा मैंने पढ़कर सुनाई, उन्हें बहुत पसंद आयी, फिर भी जब प्रकाशन की बात सामने आई तो उन्होंने संघ के साधुओं की समीक्षा ग्रन्थ में शामिल करने का निषेध कर दिया, तब समझ में आया गुरुदेव की सोच के बारे में अपनों के द्वारा लिखी हुई समीक्षा निष्पक्ष कैसे हो सकती है? दिल्ली के एक साहित्यकार रामप्रसाद शर्मा ने समीक्षा कटु आलोचन के साथ लिखी, उसमें जैन आगम में वर्णित वेदों की चर्चा थी। जैसे-स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद इस कथानक को पढ़कर शर्माजी समझे यह दिगम्बर साधु आचार्य विद्यासागर वेदों के आलोचक हैं। तब रामटेक में दिल्ली के डॉक्टर सत्यप्रकाश जैन के साथ आचार्यश्री के दर्शन के लिए एवं चर्चा के लिए आना हुआ, तब वे दर्शन कर अभिभूत हुए चर्चा कर शंका का समाधान हुआ जैन साधु जैनधर्म के प्रति नतमस्तक हुए आचार्यश्री ने समाधान करते हुए कहा-यहाँ वेद ग्रन्थों की चर्चा नहीं है। जैनधर्म कथित स्त्री, पुरुष, नपुंसक वेदों की चर्चा है। अब शर्माजी की मन की कलुषता का अंत हुआ, चेहरे पर प्रसन्नता की लकीरें छा गयीं, तब उनके मन में यही भाव आया। इतने बड़े साहित्यकार संत जीर्ण-शीर्ण स्थान पर अपना बैठना-उठना बनाये रखे हैं। इन ५० वर्षों में गुरुदेव ऐसे तामझाम से दूर रहकर साहित्य-सृजन में लगे रहे।
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बाजार में शुद्ध वस्तु का मूल्य अधिक होता है फिर भी उसका क्रय बढ़ता ही चला जाता है, इसके पीछे कारण यही होता है शुद्ध तत्त्व से ही आत्मा के परिणाम विशुद्ध होते हैं, क्योंकि शास्त्रों के पठन-पाठन से संयम के विशुद्धि, लब्धि स्थानों का ज्ञान ही आत्म रुचि में शुद्धता की रुझान को बढ़ावा प्रदान करता है। तन की शुद्धता, मन की शुद्धता, वचन की शुद्धता, ये तीनों शुद्धता साधक के चारित्र को प्रकट करती है। जो शुद्ध तत्त्व के चिन्तन में लगा रहता है, उसका उपयोग भी शुद्ध ही होता है। यदि वह वचन का उपयोग करता है तो वह वचन शुद्ध और विशुद्ध सिद्ध-मंत्र के समान प्रकट हुए जान पड़ते हैं। यदि मन में कोई सोच उत्पन्न होती है वह भी शुद्ध तत्त्व से आच्छादित होती है, वही वचन के द्वारा प्रस्फुटित होती है तो बाह्य जगत् में जनहित के कार्य का परिदर्शन कराती है। इसी कारण मन-वचन के विशुद्ध परिणामों से कायजन्य रोग विनष्ट होते चले जाते हैं, यही शुद्ध उपयोगी श्रमण का श्रामण्य है, जो चक्षु इन्द्रियधारी जीवों को अत्यन्त प्रिय होता चला जाता है, जिसका परिणाम यह होता है, वे लोग उन्हें जिन देवता, शुद्ध विशुद्ध, आचार्य परमेष्ठी के रूप में मान्यता प्रदान कर, शास्त्रों में वर्णित शुद्ध उपयोगी श्रमण का दर्शन ५० वर्षों से इस भारत भू पर निरन्तर चला आ रहा है। जो लोग ऐसा मानते हैं आज साधु परमेष्ठी, आचार्य परमेष्ठी, उपाध्याय परमेष्ठी नहीं होते, उनकी इन मिथ्या धारणाओं को अपनी चर्या, चर्चा से खण्डित करने वाले गुरुदेव जयवन्त हों।
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बचपन के दिनों में विद्याधर के अन्दर रत्नत्रय के भावों का उत्पन्न होना पूर्व के जन्मों के संस्कारों का संयोग ही कहा जा सकता है। उन्होंने अपने छोटे भाई-बहनों को खेल-खेल में रत्नत्रय का सबक सिखाया। ये संस्कार इतने परिपक्व हुए कि वे विद्याधर से विद्यासागर बने। अपने दोनों छोटे भाइयों को रत्नत्रय की दीक्षा प्रदान कर बचपन का स्वप्न साकार किया। दोनों बहनों को ब्रह्मचर्य की दीक्षा प्रदान कर ब्राह्मी-सुन्दरी की परिपाटी को आगे बढ़ाया। इसी रत्नत्रय के प्रभाव, भाव का विकास क्रमशः होता चला गया। माता-पिता ने भी रत्नत्रय को धारणकर रत्न की महत्त्वता को प्रकट किया। यह रत्नत्रय का भाव, इतना विकसित हुआ, आप बाल ब्रह्मचारी साधक मुनि होने के नाते आपने अपने संघ में बाल ब्रह्मचारियों को स्थान प्रदान कर उस पवित्र शुद्ध विशुद्ध रत्नत्रय के महत्त्व को बढ़ाकर वीतराग भाव को परिपक्व किया। एक ऐसे रत्नत्रयधारी साधक आपश्री के करकमलों से दीक्षा लेने का भाव एक गृहस्थ के मन में भी आता है। मैं जब भी दीक्षा ग्रहण करूं तब भी ऐसे ही साँचे गुरु से भले ही दीक्षा न मिले लेकिन उनकी आज्ञा आदेश का एक संकेत भी जीवन में दीक्षा के भाव से परिपूरित ही होगा। कितने गृहस्थों ने गृह त्याग कर आपके श्रीचरणों में दीक्षा न मिलने पर समाधि के समय दीक्षा स्वीकार कर समाधिमरण धारण किया। जिन गृहस्थों को कुछ नहीं मिला तो उन्होंने आपसे देशसंयम धारण किया, जिन्हें और कुछ नहीं मिला उन्होंने अष्ट मूलगुण, अणुव्रतों को धारण किया। इन ५० वर्षों में संयम की परम्परा आराधना कर आराधकों को जन्म देने वाले आपश्री गुरुदेव हैं।
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राग का जीवन से रहित हो जाना वैराग्य का भाव समाहित हो जाना। उस पद के अनुरूप जीना प्रारम्भ हो जाना, देह की विकृतियों का नष्ट हो जाना, आत्मा में रत्नत्रय की प्राप्ति बाह्यअभ्यन्तर से साधना की दृष्टि आकर्षण का केन्द्र बाह्य जगत के लिए बनता चला जाता है। प्रभावना की दृष्टि नहीं, बस, शर्त यही है अपनी भावना पर दृष्टि हो, यही भाव सुन्दर अच्छा और सच्चा वीतराग दर्शन का भाव बन जाता है, जिसे देखने मात्र से राग-द्वेष-मोह को छोड़ने का भाव हो जाता है। मोह को छोड़ना ही मोक्ष को चाहने का भाव है। यहाँ तक पहुँचने वाला संस्कारों को लेकर आने वाला योगी होगा, जिसका आज नाम सुनते ही मन प्रफुल्लित हो जाता है। नाम का आकर्षण रत्नत्रय के विशुद्ध परिणाम का प्रतिफल है, जिसे किसी ने देखा न हो, नाम सुनते ही अपने आप में धन्यता का अनुभूत अनुभव कर मन, वचन, काय से समाहित हो जाते हों, फिर साक्षात् दर्शन की बात ही क्या है? जो भी इनके चरणों में आता है, इन्हीं का होए बिना रहता नहीं, विरोधी वैर भूल जाता है। बदले में भक्त बन भक्तपने की भेंट श्रीचरणों में अर्पित कर देता है। आज गुरुदेव के ५० वर्ष संयम साधना के पूर्ण होने जा रहे हैं, फिर भी देखो अभी तक छवि की सौम्यता थी, अब उन चरणों की पूज्यता, सौम्यता का आकर्षण इतना बढ़ा, जाति, वैर, भेदभाव छोड़कर सामान्यजन भी चरण छूने के लिए तत्पर हैं, अपने घर में पूजा मंदिर बनाकर चरणों की पूजा भी अपने ढंग से कर रहे हैं, यही उनके चारित्र की सुभगता का कारण बन आई हैं।
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जीवन प्राप्त होना सहज हो सकता है लेकिन शुद्ध रीति, नीति से उसका निर्वाह करना कठिन होता है और मनुष्य भव का जीवन प्राप्त होने पर कषायों से रिक्त जीवन के कार्यों को सम्पादित करना भव्य पुरुषों का कार्य होता है। जो भवसागर से पार होने की क्षमता के धारक होते हैं कषाय के निमित्त मिलने पर कषाय न उखड़े ये अंदर के साम्यभाव की शक्ति का प्रभाव है दुष्ट वचन में भी आक्रोश नहीं आना, ये आक्रोश परीषह का कमाल है। क्रोध कषाय एक ऐसा ईंधन है, जो आत्मा को अनंत संसार की यात्रा के लिए कारण बन जाता है। जो इस मर्म को जानते हैं। वे क्रोध, मान, माया, लोभ इन चारों कषायों को अछूत रोग समझकर हमेशा बचने का प्रयास करते रहते हैं। यही कषायों का उपशमन करने का तरीका है। साधन हो और यदि पास में साधना है तो कषाय के साधन व्यर्थ चले जाते हैं। कषाय आत्मा को कसती चली जाती है। जिससे आत्मा दुर्गति में फँसता चला जाता है। ऐसे ज्ञान गरिमा, सम्यक् परिणामों से परिलच्छित गुरुदेव इन ५० वर्षों में समाज के बीच में रहकर अपनी आत्मा को पूर्ण रूप से निष्कषाय बनाए रखा जो शिष्यों के प्रतिकूल वातावरण से भी क्षुब्ध नहीं हुए, यही उनका कषाय रहित जीवन रहा।
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शासन पर के ऊपर नहीं स्व के ऊपर किया जाता है। इन्द्रियों को अपनी आत्मा के बस में करने वाला जिनशासक हुआ करता है। वह अपनी आत्मा को विभिन्न प्रकार के गुणों से आच्छादित करता हुआ परीषह विजय करता हुआ कष्ट के दिनों में भी साम्यभाव में जीना सुख दुख वैरी बंधु में साम्यदृष्टि रखना, ऐसे गुणों की परम्परा का निर्वाह करने वाला जिनशासक का वह दीपक होता है, जो पर के नहीं बल्कि अपने सहारे चला करता है, जो स्वाश्रित जीवन जीने वाला दुनियाँ का प्रकाश पुंज बनता चला जाता है। दीपक के तल में अंधेरा हो सकता है पर जिनेन्द्र गुणों से आच्छादित जीवन के तल में भी, अंदर भी बाहर भी चारों दिशाओं में प्रकाश ही प्रकाश है, जो आत्मा का हित चाहता है, वो प्रकाश के घेरे में आकर इन्द्रियों पर लगाम लगाने की कला से लेकर आत्म अनुभव की निज सम्पत्ति के सम्पादन में अपने आपको समर्पित करता चला जाता है। ऐसे उस दीपक पुंज की बात कही जा रही है, जो विद्या और ज्ञान आत्मा और शरीर के विज्ञान से महिमा मण्डित गुणों की मणियों से परिपूरित आचार्य गुरुदेव ५० वर्षों में जिनशासन की प्रभावनाओं की ध्वजा पहरा कर बुंदेलखण्ड की माटी को जिनशासनमय बनाकर मिथ्यात्व, मायाचार, छल-कपट के टुकड़े करने वाले प्रसिद्ध देदीप्यमान साधक सिद्ध हुए हैं।
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जीवन में निश्चलता आना ही साधक की साधना का अंग हुआ करता है। वह मन, वचन, काय की चंचलता को रोकने का आयाम करता रहता है। यही उसका व्यायाम, प्राणायाम हुआ करता है। यही उसकी एकाग्रता का प्रतिबिम्ब आत्मदर्पण में प्रतिपल झलकता रहता है। भय को वह स्पंदन से रहित करने के सतत अभ्यास से अपने मन, वचन, काय की प्रवृत्तियों को रोकने में लगाए रखता है। चंचलता के लिए आचार्यों ने आगम ग्रन्थों में, पुराण ग्रन्थों में बंदर के उदाहरण को दिग्दर्शित कराया है। कहते हैं यदि बंदर को शराब पिला दी जाए तो वह और अधिक चंचल हो जाता है। वैसे बुंदेली में कहावत है-बंदरा प्यार में छुपता नहीं, कहने का प्रयोजन यही हो सकता है कि उसे चारा के अंदर या यों कहे घास के अंदर छुपा, दो तो भी सहज पता चल जायेगा कि इसके अंदर बंदर है। आचार्य गुरु देव एक अचल, अटल योगी की तरह निश्चल चंचलता रहित साधना के लिए भारत भूमि पर प्रसिद्धि को प्राप्त कर ५० वर्षों को पूर्ण कर यह दिखा दिया, सिखा दिया है, मेरे शिष्यों चर्या करो, क्रिया करो, अचल, अटल चंचलता रहित। यही निरीहवृत्ति साधक की दशा होना चाहिए।
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आचार्यों ने इच्छा निरोधो तपः सूत्र दिया। यह सूत्र ही साधक की साधना शैली का आधार हुआ करता है। इच्छा ही संसार को वृद्धि प्रदान करने वाला अवगुण है। इच्छा से रहित भाव प्रणाली की संहिता ही आत्म साधक का गुण होता है। यह इच्छा रहित तप उसके समग्र जीवन में चलता रहता है। प्रायश्चित में पूर्वाचार्यों ने तप को प्रदान करने के संकेत दिए हुए हैं। इसी आधार पर तपमय जीवन जीने वाला बिना कामना के निष्काम योगियों की श्रेणी में खड़ा होकर प्रात:काल की वंदना में अपना स्थान बना लेता है। इच्छा एक नहीं होती, अनंत होती है। एक की पूर्ति होने पर, दूसरी को जन्म लेने में देर नहीं लगती है। योगी इच्छा के जन्म लेने के स्वभाव को जानते हैं इसलिए वे इच्छा निरोध की जीवन राह को सहज, सरल, स्वाभाविक ढंग से जीने का अभ्यास बनाकर रसपरित्यागमय कार्यशैली को स्थान प्रदान करते हैं। कभी नमक, कभी मीठा, कभी दूध, कभी फल, कभी सब्जी, कभी घी, न कोई ओढ़ना, न कोई बिछौना। इस प्रकार की इच्छा रहित जीवन शैली के ५० वर्ष पूर्ण कर गुरुदेव की देह, नीरस भोजन से भी कंचनमय प्रकट हुई जानकर पड़ रही है। इत्यादि के त्याग की जीवनशैली बनाकर चल रहे हैं।
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आचार्यों ने परिग्रह को पाप का बाप की संज्ञा दी है, परिग्रह आत्मा के गुणों को बहुत जल्दी नष्ट करता है और बाहर में कलंक के रूप का दर्शन कराता है। किसी व्यक्ति को भूत बाधा हो गई हो, तो तंत्र-मंत्र वादी उसे आसानी से निकाल देता है। लेकिन परिग्रह का भूत तंत्र-मंत्र से नष्ट नहीं होता है। वह तो त्याग के भाव से सहज ही चला जाता है। यदि वह नहीं जाता है। तो वही परिग्रह मूर्च्छा का कारण बन जीव आत्मा के गुणों को नष्ट कर पतन की ओर लेता चला जाता है। एक परिग्रह की कणिका अनंत पापों के बंधन की चूलिका का निर्माण करते चली जाती है। आवक का जीवन परिग्रह से प्रारंभ होता है और साधु का जीवन परिग्रह के त्याग से प्रारंभ होता है। एक त्याग करता है एक धारण करता है। जिसके जीवन में त्याग की प्रधानता रही हो उसके सामने सोने की डली भी पड़ी हो तो उसके मन से ग्रहण करने का भाव कदापि नहीं आ सकता है। इस प्रकार की बाह्य और अभ्यन्तर परिग्रह के त्याग रूपी जीवन शैली में ५० वर्षों तक रहने वाले गुरुदेव ने गृहस्थों का परिग्रह छुड़वाकर एक नया कीर्तिमान स्थापित किया है। जिसके प्रति फलस्वरूप तीर्थों का दिग्दर्शन है।
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दया 'धर्म' का मूल है। दया बिना सब शून्य है। अहिंसा का दिग्दर्शन दया के भाव में दया के कार्य में सन्निहित है। जिसके पास दया का गुण है, करुणा उसके रग-रग में समाहित होती चली जाती है। बाहर में प्रेम और वात्सल्य का प्रसाद बाँटते हुए बिखरे लोगों को एक बनाने में औषधि के गुण के समान कार्य सम्पादित करते हुए देखा जा सकता है। कोई कलाकार पत्थर में काष्ठ में मूर्ति को अपनी श्रम साधना के द्वारा प्रकट कर देता है लेकिन प्राणी मात्र के प्रति मैत्री का भाव, करुणा का भाव, अनुकंपा का भाव, दया का भाव जिस जीव आत्मा में समाहित होता चला जाता है। वह जीव, आत्मा समीचीन दर्शन से परिपूरित होता चला जाता है। देखभाल कर चलने की योग्यता हासिल कर लेता है। इसी को आचार्य उमास्वामी महाराज ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की संज्ञा प्रदान की है। क्या इस प्रकार के गुणों से समाहित जीव आत्मा को दया, प्रेम, करुणा, वात्सल्य की मूर्ति लोगों के चक्षु इन्द्रिय का विषय बने बिना रह नहीं सकता। इन ५० वर्षों में गुरुदेव जैन जगत् में दया और प्रेम की मूर्ति के रूप में प्रकट हुए।
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जीवन जीने की कला संयम की साधना के साथ क्रमशः निखार को लिए हुए चलती रहती हैं। शांत रहने का परिणाम अशांत प्रवृत्ति वाले पुरुष को शांत होने की नित्य प्रेरणा देता रहता है। क्रूर से क्रूर हिंसक प्राणी भी अपनी हिंसा की प्रवृत्ति को छोड़ लाभदायी सिद्ध मंत्र की तरह काम करता चला जाता है। जटिल व कठिन प्रश्नों का उत्तर अंदर और बाहर से शांत होने पर अपने आप चला आता है। शांति का परिणाम क्षयोपशम को बढ़ाने में सहयोगी कारण बनता है। जब आदमी कोलाहल से रहित शांत वातावरण में चला जाता है तो उसका तनाव भी अपने आप उस शांत वातावरण में विलीन होता चला जाता है। ऐसे संयम साधक गुरुदेव ५० वर्षों में अंदर व बाहर से शांत बने रहे इसलिए बाहर में शांत छवि का दर्शन देकर सैकड़ों-हजारों युवक, युवतियों को विषय वासना से निकालकर हमेशा के लिए शांत बनाकर उनकी दिशा बदलकर दशा का परिवर्तन कराने वाले शांत छवि वाले गुरुदेव जयवंत हैं।
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अंदर का परिणाम बाहर के मुखमण्डल पर आए बिना रहता नहीं। आदमी जैसा बाहर होता है, वैसा अंदर भी हो तो जीवन सुंदर ही होता है और जो अंदर है, वो बाहर हो तो उसका मंदिर बने बिना रहता नहीं। विपरीत परिस्थितियों में भी जिसके मुखमण्डल पर प्रसन्नता की लकीरें छाई रहती हैं वह उसके अंदर का समता भाव ही सुख-दुख में रहने के लिए छाया के समान प्रेरित करता रहता है। यदि पैदल चलते समय पैरों में काँटों की चुभन हो गई हो, कंकरों ने अपना निवास स्थान बना लिया हो, पैरों में छाले लकीरों के रूप में उछल आते हैं, फिर भी मुख की प्रसन्नता बरकरार बनी रहती है। इसे जैन आगम की भाषा में प्रसन्न वदन कहा जाता है। जिसके पास प्रसन्नता का धन परिपूरित रहता है, वह दूसरे को भी बाँटता चला जाता है, यह प्रसन्नता एक ऐसा गुण का प्रसाद है, जिससे आदमी विपरीत परिस्थितियों का आसानी से सामना कर लेता है। आचार्य गुरुदेव ५० वर्षों में कितनी सामाजिक व संघ की विपरीत परिस्थितियों में भी प्रसन्नता से परिपूरित रहने वाले समता धारक साधक हैं।
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संयम स्वर्ण महोत्सव आरती ले के कर में कंचन थाल, जिसमे दीप पचास प्रजाल, संयम स्वर्ण महोत्सव मनायें सब समाज | धन्य गुरुश्री विद्यासागर, संयम साधना के रत्नाकर, किया धर्म का प्रचार, गूंजे चहूँ दिश जय-जयकार || संयम स्वर्ण महोत्सव............................. ज्ञान गुरु के परम शिष्य हो, उनके जैसे जग में शायद कोई हो उनसे लीनी दीक्षा धार, ज्ञान गुरु की कृपा अपार| संयम स्वर्ण महोत्सव............................. मुखड़े पें सोहें तेरे, तपस्या की ज्योति नयना लुटाये हर पल ममता के मोती शत्रु-मित्र है एक सामान, नहीं राग-द्वेष का नाम संयम स्वर्ण महोत्सव............................. मिश्री सी वाणी तेरी अमृत घोले टन को मिटाकर, मन के हिये पट खोले तेरी महिमा अम्परम्पार, गागर में है सागर सार संयम स्वर्ण महोत्सव............................. आचार्य श्री जी मंगलकारी जन-जन की तुमने, जिंदगी सवारी तारे दे व्रत, नियम चार, किया भविजन का उद्धार संयम स्वर्ण महोत्सव............................. कैसे गुरुवार की महिमा गायें सूरज को कैसे दीप दिखायें आजा जो तेरे दरबार हो गया उनका बेडापार संयम स्वर्ण महोत्सव............................. आप जियो गुरु साल हजारों इक - इक साल के दिन हो हजारों हो हजारों साल पचास, संयम स्वर्ण महित्सव साल संयम स्वर्ण महोत्सव............................. जब तक नभ में चाँद - सितारे युग-युग में गूंजे यशगान तुम्हारें है यह प्यासे मन की चाह, गुरुवार दिखलाये सद्द राह संयम स्वर्ण महोत्सव.............................
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आचार्य श्री की खजुराहो में आगवानी
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