साधक जीवन समता, सामायिक के साथ प्रारम्भ होकर सामायिक चारित्र में विहार करते हुए षट्आवश्यक क्रियाओं का पालन करते हुए जीवनयापन की विधि चला करती है। आत्म परिणामों में समता बनाये रखना, समता से सनी हुई वाणी का प्रयोग करते हुए जनहित में समता, शान्त परिणाम, भद्रतापूर्वक श्रावकधर्म की प्रवृत्तियों का या श्रावक धर्म के षट्आवश्यक पालन कर वही समतामय होकर वह जिया करते हैं और जीने का उपदेश देते हैं। गुरुदेव मनवचन-काय की त्रिवेणी के साथ होकर समता की धरोहर को आत्मसात करते हुए प्रतिक्षण देखा जा सकता है। वास्तव में समता की सखी ही मुक्ति की वधु से मिलाने वाली है। चाहे उसे नाम सामायिक बोलो, क्षेत्र सामायिक बोलो, काल सामायिक बोलो, ये सब समता, सामायिक, सामायिक चारित्र के ही अंग हैं। इन्हीं में गमनागमन की प्रवृत्ति बनाये रखकर समय की पाबन्दी के अतिरिक्त अर्थात् सामायिक आवश्यक को छोड़कर अन्य समय भी सामायिक चारित्र में विहार चलता रहता है। उठते-बैठते, चलते-फिरते, खाते-पीते, सोते समय भी समय के साथ कर्मों को काटने की पद्धति चला करती है। उन्हें असंयम से प्रेम नहीं संयम के चारित्र से प्रेम है। इसलिए सोते हुए भी होशमय वृत्ति बनाये रखते हैं। मन में उस समता चारित्र के प्रति बहुमान प्रतिक्षण बढ़ता हुआ नजर आता है। उसी की पूजा आराधना, विनय भक्ति, उपास्य, आराध्य की समायोजना के भाव से समभाव विषम से सम परिस्थितियों की ओर दृष्टिपात करते हुए। सुबह से शाम, शाम से रात; इस प्रकार चौबीसों घण्टे आठों याम एक ही रस धारा में बहकर प्रवाहमान बने रहना, कभी बोर नहीं होना, लगातार ५० वर्षों से सामायिक चारित्र का पालन करते हुए संघ के लिये भी यही उपदेश देते हुए नजर आते हैं। सामायिक चारित्र के साथ सामायिक आवश्यक में उन्हें ढील पसन्द नहीं। यही उनकी मनोवृत्ति है।