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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  3. सन्त शिरोमणि गुरुदेव आचार्य श्री108 विद्यासागर जी महाराज की दीक्षा के '50वें "संयम-स्वर्ण महोत्सव" के अंतर्गत मुनि पुंगव श्री 108 सुधा सागर जी महाराज के आशीर्वाद से व क्षुल्लक श्री 105 धैर्य सागर जी महाराज की प्रेरणा से "संयम-स्वर्ण महोत्सव समिति,जयपुर"(अध्यक्ष) समाज श्रेष्ठी श्री गणेश राणा व (महामन्त्री) समाज भूषण श्री राजेन्द्र के.गोधा के मार्गदर्शन द्वारा आयोजित और "अरिहन्त नाट्य संस्था,जयपुर" द्वारा प्रस्तुत क्षुल्लक श्री 105 धैर्य सागर जी महाराज द्वारा रचित एवम् श्री किरण प्रकाश जैन द्वरा रूपान्तरित आचार्य श्री की जीवनी पर आधारित भव्य लाइट एण्ड साउण्ड नाट्य प्रस्तुति (संसार शिखर से महाशिखर की ओर...एकमहायात्रा)" "अन्तर्यात्री-महापुरुष" जयपुर शहर में 16 जुलाई को शाम 6.30 बजे सुबोध पब्लिक स्कूल,रामबाग सर्किल पर किया जाएगा। इस नाटक में जयपुर शहर के 100 से भी अधिक कलाकार अभिनय करते नज़र आयेंगे, नाटक का निर्देशन युवा रंगकर्मी अजय जैन,आशीष गुप्ता कर रहे है व संगीत निर्देशन अवशेष जैन (जबलपुर) का है । देखना ना भूले 16 जुलाई शाम 6.30 बजे,सुबोध पब्लिक स्कूल में भारत के स्वर्णिम जैन इतिहास का सबसे बड़ा नाटक "अन्तर्यात्री-महापुरुष'' निवेदक श्री गणेश राणा (अध्यक्ष) श्री राजेन्द्र के.गोधा (महामंत्री) संयम-स्वर्ण महोत्सव समिति,जयपुर अजय जैन (मोहनबाड़ी) आशीष गुप्ता (निर्देशक) अरिहन्त नाट्य संस्था,जयपुर 7615060671
  4. सिद्धादि पंच परमेष्ठि यतीश्वरों से, जो हैं नमस्कृत नरों असुरों सुरों से। श्रद्धा समेत उनको शिर मैं नवाता, हूँ भाव प्राभृत सुनो! तुम को सुनाता ॥१॥ है भाव लिंग वर मुख्य मुझे सुहाता, है द्रव्य लिंग न यथार्थ जिनेश गाता। है भाव ही नियम से गुण-दोष हेतु, होता भवोदधि वही भव-सिन्धु-सेतु ॥२॥ ये भाव शुद्ध-तम हो, जब लक्ष्य होता, तो बाह्य संग तजना अनिवार्य होता। जो भीतरी कलुषता यदि ना हटाता, है बाह्य त्याग मुनि का वह व्यर्थ जाता ॥३॥ वे कोटि-कोटि शत कोटि भवान्तरों में, साधू तपे तप भले निशि-वासरों में। नीचे भुजा कर खड़े सब वस्त्र त्यागे, ना, शुद्ध भाव बिन केवलज्ञान जागे ॥४॥ जो अच्छ स्वच्छ परिणाम बना न पाते, पै बाहरी सब परिग्रह को हटाते। वे भाव शून्य करनी करते कराते, हा! बाह्य त्याग उनको किस काम आते? ॥५॥ रे! भाव लिंग बिन बाहर लिंग से क्या? वैरी मिटे, असि बिना असिकोष से क्या? है भाव, मोक्ष-पुर का पथ जान पंथी, ऐसा जिनेश कहते तज पूर्ण ग्रंथी ॥६॥ रे! बार-बार घर बाहर लिंग छोड़ा, निर्ग्रन्थ-रूप धर भी मन ना मरोड़ा। तूने सदा पुरुष हे! दुख बीज बोया, हो! भाव हीन चिर से भव बीच रोया ॥७॥ हो नारकी नरक भीषण योनियों में, तिर्यञ्च में असुर मानव योनियों में। तूने सही सुचिर दुस्सह वेदनायें, भा, भावना अब निजी-जिन देशनायें ॥८॥ दुस्सह्य दारुण भयंकर दु:ख भोगा, पा सातवें नरक में नित शोक रोगा। तेरा हुआ अहित ही हित ना हितैषी, वैसी सदा गति मिले मति होय जैसी ॥९॥ उत्पाटनों खनन ताड़न छेदनों से, औ बंधनों ज्वलन गालन भेदनों से। तिर्यञ्च हो कुगति में चिरकाल पीड़ा, तूने निरंतर सही बिन ज्ञान हीरा ॥१०॥ आकस्मिकी सहज दो दुख ये गिनाये, दो और मानसिक कायिक वेदना ये। तूने मनुष्य भव में दुख भार पाया, बीता वृथा अमित काल, न पार पाया ॥११॥ इन्द्रादि के विभव को लख सूखता था, देवी मरी विरह हेतु दुखी हुआ था। दुर्भावना सहित हो कब तू सुखी था, हो देव, देव गति में फिर भी दुखी था ॥१२॥ कंदर्प दर्पमय पंच कुभावनायें, भाई, रखीं विषय की उर-वासनायें। हो बार-बार बस केवल द्रव्य लिंगी, तू नीच-देव बनता अयि, भव्य अंगी ॥१३॥ पार्श्वस्थ भाव, बहु बार विभाव भाया, तूने मिला अमित काल वृथा बिताया। अज्ञान के वश दुराशय बीज बोया, पा दुःखरूप फल ही, फलरूप रोया ॥१४॥ जो वैभवों वर गुणों सुख सिद्धियों को, हैं श्रेष्ठ देव धरते सुर ऋद्धियों को। हो नीच देव दिवि में निज में बड़ों को, तू देख मानसिक दुःख सहे अनेकों ॥१५॥ दुर्भाव धार मन में मदमत्त नामी, चारों प्रकार विकथा करता सकामी। तू निन्द्य देव बनके बहुबार भोगा, है कष्ट, दुष्ट मति से फिर और होगा ॥१६॥ बीभत्स है, अशुचि है, मल का पिटारा, दुर्गन्ध-धाम जननी-जनु गर्भ सारा। ले जन्म हे मुनि! वहाँ बहु बार रोया, नीचे किए सिर टंगा बहुकाल खोया ॥१७॥ यों काल तो भव-भवों बहुमूल्य बीता, जो भिन्न-भिन्न जननी स्तन दूध पीता। जानो महाशय! कभी वह दूध सारा, लाखों गुना अधिक सागर से अपारा ॥१८॥ वे भिन्न-भिन्न भव में तव मात रोती, तू था मरा जब, तभी नहिं रात सोती। रोते हुए नयन से जल जो बहाया, लाखों गुना अधिक सागर से कहाया ॥१९॥ जो हड्डियाँ झड़ गई नख बाल छूटे, तेरे कटे भव-भवों नस नाल टूटे। कोई सुसंग्रह मनो उनको करेगा, तो साधु, मेरु गिरि से गुरु ही लसेगा ॥२०॥ भू व्योम में अनिल में, जल में वनों में, नद्यादि में अनल में, थल में द्रुमों में। तूने व्यतीत चिरकाल किया वृथा है, हो कर्म के वश, सही जग में व्यथा है ॥२१॥ तृष्णा लगी तृषित पीड़ित तू विचारा, त्रैलोक्य का सलिल पीकर पूर्ण डारा। तृष्णा मिटी न फिर भी उर की इसी से, शुद्धात्म चिंतन जरा करले रुची से ॥२२॥ है बार-बार, इक बार नहीं मरा है, तू काय को अमित बार तजा धरा है। हे धीर! साधु भवसागर में अनन्ता, संत्यक्त काय गिनते गिनते न अन्ता ॥२३॥ भोगा गया सकल पुद्गल भोग खारा, पूरा भरा कि जिससे त्रयलोक सारा। भाई तथापि नहिं तृप्ति हुई अभी भी, भोगो पुनः तुम भले सुख ना कभी भी ॥२४॥ संक्लेश वेदन वशात् भय सप्त द्वारा, औ रक्त स्राव विष भक्षण शस्त्र द्वारा। आहार-श्वास - अवरोधन से तुरन्ता, हो आयु का क्षय कहें अरहन्त सन्ता ॥२५॥ हा! अग्नि से तुम जले जल मध्य डूबे, शीतातिशीत-हिम से बिन वस्त्र जूझे। उत्तुंग वृक्ष गिरि पे चढ़ते गिरे थे, टूटे तभी कर पगों भय से घिरे थे ॥२६॥ जाने बिना रस विधी विष सेवने से, अन्याय कार्य कर- क्रूर अनार्य जैसे। तिर्यञ्च हो मनुज हो अपमुत्यु पाई, हैं आपने दुख सहे बहुबार भाई ॥२७॥ भाई निगोद गति में तुम जो गिरे थे, अन्तर्मुहर्त भर में दुख में परे थे। हा! साठ औ छह सहस्र व तीन सौ औ, छत्तीस बार मरते कुछ आज सोचो ॥२८॥ अन्तर्मुहूर्त भर में विकलेन्द्रि सारे, अस्सी व साठ द्वय बीस भवों सुधारे। चौबीस क्षुद्र भव औ धरते विचारे, पंचेन्द्रि जीव तक भी गुरु यों पुकारे ॥२९॥ ज्ञानादि रत्नत्रय के बिन ही मरे हो, जो बार-बार भव कानन में फिरे हो। ऐसे जिनेश कहते अब जाग जाओ, सानन्द रत्नत्रय धार विराग पाओ ॥३०॥ आत्मा निजात्मरत ही सम-दृष्टि-वाला, जो जानता स्वयम को वह बोध शाला। है आत्म में विचरता नित है सुहाता, चारित्र पंथ स्वयमेव वही कहाता ॥३१॥ वैसे अनेक भव में मरता रहा है, पै मृत्यु के समय में डरता रहा है। ले ले अतः मरण उत्तम का सहारा, तो बार-बार मरना मर जाय सारा ॥३२॥ तू द्रव्यलिंग भर बाहर मात्र धारा, हा! मृत्यु को श्रमण होकर भी न मारा। ऐसा न लोक भर में थल ही रहा हो, तूने जहाँ मरण जन्म नहीं गहा हो ॥३३॥ तू बाह्य मात्र अब लौ जिनलिंग धारा, धारा न भावमय लिंग कभी सुचारा। पीड़ा सही जनन मृत्यु तथा जरा से, पाया अनन्त भव में सुख ना जरा से ॥३४॥ प्रत्येक आयु परिणाम सुनामकों को, औ पुद्गलों क्षिति-तलों समयादिकों को। तूने गहा पुनि तजा बहुबार भाई, पीड़ा अनन्त भवसागर में उठाई ॥३५॥ लो तीन सौ फिर तियालिस राजु सारा, है लोक का विदित क्षेत्र जिनेन्द्र द्वारा। वे छोड़, मेरु तल के वसु देश न्यारे, सारे भ्रमे तुम यहाँ मर जन्म धारे ॥३६॥ तेरा शरीर प्रति, अंगुल भाग में ही, धारे छियानव कुरोग सराग देही। हे मित्र! शेष तन में कितने पता दे, दुस्सह्य रोग गिनती गिनके बता दे ॥३७॥ हो कर्म के वश अतीत भवों-भवों से, तूने सहे सकल रोग युगों-युगों से। रागी रहा फिर अनागत में सहेगा, क्या क्या कहें बहुत है भव में भ्रमेगा ॥३८॥ हैं पित्त मूत्र कफ मांस जहाँ भरे हैं; हैं आँत गात नस जाल जिसे घिरे हैं। माँ के रहा उदर में नव मास भाई, नीचे किये शिर टंगा चिर पीर पाई ॥३९॥ माँ बाप के रजस वीर्य घुला मिला था, संकीर्ण गर्भ जिसमें न डुला हिला था। खाया हुआ जननि ने वह अन्न खाया, उच्छिष्ट भोज करता महिनों बिताया ॥४०॥ नादान था शिशु रहा शिशु काल में था, तू खेलता नित निजी मल लार में था। सोता वहीं मल तजा मल खूब खाता, आपाद कण्ठ मल में तब डूब जाता ॥४१॥ ये मांस मेद मद रक्त जहाँ भरे हैं, हैं पित्त पीव नस नाल सड़े निरे हैं। दुर्गन्ध पूर्ण घट है यह काय तेरा, ऐसा विचार नहिं तो टल जाय वेला ॥४२॥ संमोह-मुक्त, मुनि मुक्त वही कहाता, ना, मुक्त-मात्र हितु बाँधव से सुहाता। भाई तजो इसलिए उस वासना को, भावो भजो नित निजीय उपासना को ॥४३॥ निर्ग्रन्थ हैं स्वतन से ममता नहीं है, मानी रहा स्वयम में रमता नहीं है। आतापनादि तप बाहुबली किया है, मासों, तथापि शिवलाभ कहाँ लिया है? ॥४४॥ निर्ग्रन्थ था मुनि बना मधु पिंग नामा, पूरा निरीह तन से तज संग कामा। भावी निदान फिर भी उससे घिरा था, श्रामण्य से इसलिए वह तो गिरा था ॥४५॥ वैसे वसिष्ठ मुनि भी बहु दु:ख पाया, भावी निदान मन से मन को लिपाया। ऐसा न लोक भर में थल ही रहा हो, मोही यहाँ भटकता न फिरा जहाँ हो ॥४६॥ चौरासि लाख दुखदायक योनियों में, ऐसा न थान अवशेष रहा भवों में। तूने जहाँ भ्रमण वास नहीं किया हो, हो भाव शून्य मुनि, मात्र मुधा जिया हो ॥४७॥ तू द्रव्य लिंग भर से न कहाय लिंगी, शुद्धात्म भाववश ही कहलाय लिंगी। तू भाव लिंग धर केवल द्रव्य में क्या? पी नीर, मात्र-जल भाजन डोर से क्या? ॥४८॥ धिक्कार बाहु मुनि ने क्षण में मिटाया, क्रोधाग्नि से नगर दंडक को जलाया। था बाह्यलिंग जिनलिंग लिया तथापि, जाके गिरा नरक रौरव में कुपापी ॥४९॥ द्वीपायनादि मुनि भी इस भाँति क्रोधी- हो, द्वारिका नगर दग्ध किया अबोधी। सम्यक्त्व बोध व्रत से च्युत, द्रव्य लिंगी, संसार को दृढ़ किया, सुन भव्य! अंगी ॥५०॥ वर्षों रही युवतियाँ जिन से घिरी थी, तो भी यतीश मति को किसने हरी थी? थे भाव से श्रमण, मोक्ष गये विरागी, वे धीर थे शिव कुमार मुनीश त्यागी ॥५१॥ थे द्वादशांग श्रुत चौदह पूर्व ज्ञाता, वे भव्यसेन मुनि हो उपदेश दाता। पै भीतरी श्रमणता उनमें नहीं थी, थी नग्नता न उर ऊपर में रही थी ॥५२॥ ये भिन्न-भिन्न तुष मास सदा सुहाते, ऐसा विशुद्ध मन से रट थे लगाते। पाई अत: कि शिवभूति मुनीश भाई, आत्मानुभूति शिवभूति, विभूति स्थाई ॥५३॥ जो भाव नग्न वह नग्न यथार्थ होता, पै मात्र नग्न मुनि तो अयथार्थ थोथा। हो नग्न पूर्ण तन भी मन भी निहाला, तो कर्म शीघ्र, कटते समझो सुचारा ॥५४॥ वो भाव की विमलता यदि है न प्यारी, निर्ग्रन्थरूप वह मात्र न कार्यकारी। यों जान मान मन आतम में लगा ले, शुद्धात्म का गुन गुनाकर गीत गाले ॥५५॥ काषायिकी परिणती जिसने घटायी, औ निन्द्य जान तन की ममता, मिटायी। शुद्धात्म में निरत है तज संग-संगी, है पूज्य साधु वह पावन भाव लिंगी ॥५६॥ बोले विशुद्ध मुनि यों निज तत्त्व पाऊँ, त्यागें ममत्व परतत्त्व समत्व ध्याऊँ। आधार मात्र मम निर्मम आतमा है, छोड़ें अशेष सब चूंकि अनातमा है॥५७॥ विज्ञान में चरण में दृग संवरों में, औ प्रत्यख्यान-गुण में लसता गुरो! मैं। शुद्धात्म की परम पावन भावना का, है पाक मोक्ष सुख है दुख वासना का ॥५८॥ पूरा भरा दृग विबोध-मयी-सुधा से, मैं एक शाश्वत सुधाकर हूँ सदा से। संयोग जन्य सब शेष विभाव मेरे, रागादि भाव जितने मुझसे निरे रे! ॥५९॥ हे भव्य! चार गति से निज को छुड़ाना, है चाहना यदि सुशाश्वत सौख्य पाना। तो शुद्ध भाव कर स्वीय स्वभाव भाना, तू शीघ्र छोड़ परकीय विभाव नाना ॥६०॥ जो जानता सहज जीव यथार्थ में हैं, होता विलीन निज जीव पदार्थ में है। पाता विमोक्ष द्रुत से कर निर्जरा को, सो नाशता जनन मृत्यु तथा जरा को ॥६१॥ है जीव चेतन निकेतन है निराला, ऐसा जिनेश कहते वह ज्ञान-शाला। ज्ञातव्य जीव, इस लक्षण धर्म द्वारा, शीघ्रातिशीघ्र मिटता वसु-कर्म-भारा ॥६२॥ जीवत्व का वह अभाव न सर्वथा है, सिद्धत्व में, विमल जीवपना रहा है। पाता विमोक्ष द्रुत से कर निर्जरा ओ! सो नाशता जनन मृत्यु तथा जरा को ॥६३॥ आत्मा सचेतन अरूप अगन्ध प्यारा, अव्यक्त है अरस और अशब्द न्यारा। आता नहीं पकड़ में अनुमान द्वारा, संस्थान से रहित है सुख का पिटारा ॥६४॥ सद्ज्ञान पंच विध है उसको अराधो, निर्वेग भाव धर के यह कार्य साधो। अज्ञानरूप तम निश्चित भाग जाता, हो स्वर्ग-मोक्ष सुख केवल जाग जाता ॥६५॥ क्या शास्त्र के पठन-पाठन से मिलेगा, संवेग भाव बिन कर्म नहीं टलेगा। श्रामण्य श्रावकपना शिव-ज्ञान हेतु, वैराग्य भाव जब हो, यह जान रे! तू ॥६६॥ ये नारकी पशु तथा कुछ आदिवासी, होते दिगम्बर नितान्त सुखाभिलाषी। पै चित्त में कुटिल कालुष भाव धारे, हैं भीतरी श्रमणता न धरें विचारे ॥६७॥ जो मात्र नग्न बन जीवन है बिताता, संसार में भटकता भव दुःख पाता। पाता न बोधि वह केवल नग्न साधु, वो साम्य का यदि बना न कदापि स्वादू ॥६८॥ प्रायः प्रदोष पर के पर को बताते, माया व हास्य मद मत्सर धार पाते। वे पात्र हैं अयश के अघ के घड़े हैं, जो नग्न हैं श्रमण मात्र बढ़े चढ़े हैं ॥६९॥ वैराग्य भाव जल से मन पूर्ण धोलो, निर्ग्रन्थ लिंग धरने सब वस्त्र खोलो। होता अवश्य उर में जिसके विकारा, लेता वही पर परिग्रह का सहारा ॥७०॥ है दोष-कोष वृष रूप-सुधा न पीते, है इक्षु पुष्प सम सार विहीन जीते। जो नग्न हो श्रमण हो नट नाचते हैं, वे निर्गुणी विफल हो नहिं लाजते हैं ॥७१॥ हैं रंग संग रखता पर में रमा है, है नग्न किन्तु, न विराग, निरा भ्रमा है। पाता नहीं सहज बोधि समाधि प्यारा, यों कुन्द-कुन्द जिन-आगम ने पुकारा ॥७२॥ वैराग्य से हृदय नग्न बने सलोना, मिथ्यात्व आदि मल कर्दम पूर्व धोना। निर्ग्रन्थ रूप फिर सादर धार लो ना, सो ही जिनेन्द्र मत के अनुसार होना ॥७३॥ सद्भाव को श्रमण हो नहिं धार पाता, दुष्टाष्ट कर्म मल को मन पे लिपाता। तिर्यञ्च हो भटकता अघ धाम रागी, सद्भाव, स्वर्ग-शिव-धाम सुनो विरागी ॥७४॥ चक्री बनो अमर हो सुरसम्पदाएँ, लक्ष्मी मिले अमित दिव्य विलासताएँ। सद्भाव से परम पावन प्राण प्यारे, ज्ञानादि रत्न मिलते सुख के पिटारे ॥७५॥ होता त्रिधा वह शुभाशुभ शुद्ध न्यारा, है आत्म भाव जिन-शासन ने पुकारा। जो धर्म-ध्यान-मय है शुभ है कहाता, दुर्ध्यान सो अशुभ है न मुझे सुहाता ॥७६॥ आत्मा निजी विमल आतम लीन होता, सो शुद्ध भाव, विधि-कालुष पूर्ण धोता। जो श्रेष्ठ इष्ट इनमें चुन भव्य प्राणी, ऐसा जिनेश कहते मुनि-सेव्य-ज्ञानी ॥७७॥ सत् साधु ने दुखद मान गला दिया है, स्वीकार साम्य, सब मोह जला दिया है। आलोक-धाम जगसार जिसे मिलेगा? बोले प्रभो! यह नियोग नहीं टलेगा ॥७८॥ पंचाक्ष के विषय को तज वासनाएँ, जो भा रहे श्रमण षोडश भावनाएँ। वे शीघ्र तीर्थकर नामक कर्म बाँधे, औचित्य कार्य करते सुख क्यों न साधे ॥७९॥ सारे तपो सुतप द्वादश पर्वतों से, पालो त्रयोदश क्रिया मन-वाक्-तनों से। हे! साधु ज्ञानमय अंकुश से विदारो, उन्मत्त चित्त गज के मद को उतारो ॥८०॥ वैराग्य भाव मन में बहु बार भाना, पश्चात् विशुद्ध जिन-लिंग अहो निभाना। खाना यथाविधि, धरा पर रात सोना, ढोना द्विसंयम बिना पर गात होना ॥८१॥ हीरा अमूल्य मणि है मणि जातियों में, विख्यात चन्दन रहा द्रुम ख्यातियों में। त्यों जैनधर्म बहु धर्म प्रणालियों में, है श्रेष्ठ भावि-भव-नाशक, हो उरों में ॥८२॥ संमोह क्षोभ बिन शोभित हो रहा है, सो धर्म, आत्म परिणाम अहो रहा है। औ दान पूजन तथा व्रत पालना ये, है पुण्य, जैन मत में शुभ भावनाएँ ॥८३॥ सधर्म धार उसकी करते प्रतीति, श्रद्धान गाढ़ रखते रुचि और प्रीति। चाहे तथापि जड़धी भव भोग पाना, ना चाहते धरम से विधि को खपाना ॥८४॥ जो सर्व दोष तज के निज में रमा है, नीराग आतम निजातम में समा है। संसार में तरण-तारण धर्म नौका, ‘सो ही’ ‘जिनागम' कहे जग में अनोखा ॥८५॥ पै पुण्य का चयन ही करता कराता, श्रद्धान आत्म पर चूँकि नहीं जमाता। पाता न सिद्धि शिव है प्रतिकूल जाता, संसार में भटकता यति भूल जाता ॥८६॥ श्रद्धा निजात्म पर पूर्ण करो इसी से, वाक्काय से विनय से मन से रुची से। हो ध्यान ज्ञान अनुचिन्तन भी उसी का, हो मोक्ष, शीघ्र, फिर पार नहीं खुशी का ॥८७॥ हो भाव से मलिन तन्दुल मच्छ पापी, जा सातवें नरक में गिरता तथापि। हो जा अतः निरत स्वीय गवेषणा में, श्रद्धा समेत रुचि से जिनदेशना में ॥८८॥ आतापनादि तपना गिरि कन्दरों में, औ बाह्य संग तजना रहना वनों में। स्वाध्याय ध्यान करना पर से कराना, ये व्यर्थ हैं श्रमण के बिन साम्य बाना ॥८९॥ जीतो निजी सकल इन्द्रिय फौज वैरी, बाँधो अकम्प मन मर्कट चूंकि स्वैरी। निर्ग्रन्थ हो मत करो जनरंजना ना! पे आत्म रंजन करो न प्रपंच नाना ॥९०॥ मिथ्यात्व को समझ हेय विसारना है, औ नो कषाय नव को सब त्यागना है। सत् शास्त्र चैत्य गुरु भक्ति सँभारना है, आज्ञा जिनेश मत की नित पालना है ॥९१॥ सन्मार्ग तीर्थ करने पहले बताया, सत् शास्त्र बाद गण-नायक ने रचाया। ऐसा अतुल्य शुचि है श्रुत ज्ञान प्यारा, तू नित्य भक्ति उसकी कर भाव द्वारा ॥९२॥ सत् शास्त्र का सलिल सादर साधु पीते, हो प्यास त्रास उर दाह-विहीन जीते। चूड़ामणी जगत के स्वपराव-भासी, वे सिद्ध शुद्ध बनते शिवधाम-वासी ॥९३॥ तू झेल काय पर, त्याग प्रमाद सारा, बाईस दुस्सह परीषह कष्ट भारा। शास्त्रानुसार वह भी बन अप्रमादी, हो ध्यान! संयम नहीं बिगड़े समाधि ॥९४॥ निर्ग्रन्थ साधु उपसर्ग परीषहों से, भाई कदापि चिगते नहिं पर्वतों से। हो दीर्घ काल तक भी जल में तथापि, पाषाण है कठिन क्या गलता कदापि ॥९५॥ भा पंच विंशति सुपावन-भावनाएँ, भा सर्वदा सुखद द्वादश भावनाएँ। रे! भाव शून्य करनी किस काम आती, ना मात्र वो नगनता सुख है दिलाती ॥९६॥ तूने तजा यदपि संग तथापि, क्या है? तत्त्वार्थ, औ नवपदार्थ यथार्थ क्या है? क्या-क्या स्वरूप कब जीव-समास धारें, तू जान! चौदह निरे गुणथान सारे ॥९७॥ अब्रह्म है दश विधा उसको हटाना, है ब्रह्मचर्य नवधा जिसको निभाना। आदी हुआ मिथुन के दुख से घिरा है, संसार के सघन कानन में फिरा है॥९८॥ वैराग्य भाव जिसके मन में लसे हैं, आराधना वरण भी करती उसे है। वैराग्य से स्खलित है मुनि कष्ट पाता, संसार को सघन और तभी बनाता ॥९९॥ है भाव से श्रमण है जग नाम पाता, कल्याण पंच करता शिव धाम जाता। पै बाह्य में श्रमण केवल ना सुहाता, होता कुदेव-पशु मानव दुःख पाता ॥१००॥ जिह्वेन्द्रि का वश हुआ निज को भुलाया, छ्यालीस दोषयुत भोजन को उड़ाया। तूने अतः विधिवशात् बहुदुःख पाया, तिर्यञ्च हो विगत में कब सौख्य पाया ॥१०१॥ खा, पी लिया सचित भोजन पेय पानी, हो लोलुपी सरस का मति मंद मानी। तीव्रातितीव्र फलतः दुख ही उठाया, तू सोच आत्म चिरकाल वृथा बिताया ॥१०२॥ बीजादि पत्र फल-फूल समूल खाया, खाके सचित्त फिर भी मद ही दिखाया। हा! हा! अनन्त भव में भ्रमता फिरा है, कीड़ा बना विषय में रमता निरा है ॥१०३॥ है पाँचधा विनय सो, त्रययोग द्वारा, पालो उसे विनय जीवन हो तुम्हारा। कैसा गहे अविनयी भव कूल पाता, है भूलता धरम को प्रतिकूल जाता ॥१०४॥ श्रद्धा समेत जिन-भक्ति विलीन प्यारे, आचार्य आदि दश ये बुध सेव्य सारे। भाई यथाबल यथाविधि साधु सेवा, सद् भक्ति राग वश होकर तू सदैवा ॥१०५॥ जो भी प्रदोष व्रत में त्रय योग द्वारा, मानो लगा जब हुआ उपयोग खारा। धिक्कारते स्वयम को गुरु पास बोलो, मायाभिमान तज के, उर भाव खोलो ॥१०६॥ वे दुर्जनी कटुक, कर्ण कठोर गाली, देते, सदैव सहते शम-साम्यशाली। वैराग्य से श्रमण शोभित हो रहे हैं, जो काटने विधि प्रलोभित हो रहे हैं॥१०७॥ साधू क्षमा रमणि में रमते रमाते, संपूर्ण पाप पल में फलतः मिटाते। विद्याधरों नरवरों, असुरों सुरों के, होते नितान्त स्तुति-पात्र मुनीश्वरों के ॥१०८॥ धारो क्षमा गुण क्षमा जग जन्तुओं से, माँगो, करो, विनय से मन वाक् तनों से। क्रोधाग्नि से चिर तपा उर है तुम्हारा, सींचो क्षमा सलिल से फिर शान्तिधारा ॥१०९॥ सम्यक्त्व शुद्ध अविकार अहो सुधारो, दीक्षा गही समय को स्मृति से निहारो। निस्सार सार तम क्या समझो सयाने, हीरे समा विमल केवलज्ञान पाने ॥११०॥ नग्नत्व आदि जड़ बाहर लिंग धारो, हो के परन्तु भवभीत स्व को निहारो। हो भाव लिंग बिन द्रव्य न कार्यकारी, वैराग्य से मति करो अनिवार्य प्यारी ॥१११॥ आहार संग भय मैथुन चार संज्ञा, होके विलीन इनमें तज आत्म प्रज्ञा। संसार के सघन कानन में भ्रमे हो, खोये युगों युग युगों पर में रमे हो ॥११२॥ मैदान में शयन आसन भी लगाना, आतापनादि तपना तरुमूल पाना। मूलोत्तरादि गुण को रुचि से निभाना, पै ख्याति लाभ यश को मन में न लाना ॥११३॥ है आद्य कार्य निज तत्त्व अहो पिछानो, औ आस्रवादिक अशेष सुतत्त्व जानो। शुद्धात्म में तुम रमो ध्रुव नित्य प्यारा, धर्मार्थ काम मिटते, त्रय योग द्वारा ॥११४॥ तू तत्त्व-भाव-जल से नहिं सिंचता है, औचित्य को न जब लौ यदि चिंतता है। होते नहीं जनन-मृत्यु-जरा जहाँ पे, हे मित्र! जा न सकता शिव में वहाँ पे ॥११५॥ ये जीव के, समझ तू परिणाम सारे, हो पापरूप कुछ हो कुछ पुण्य प्यारे। हो बंध मोक्ष निज के परिणाम द्वारा, ऐसा जिनेश मत है अभिराम प्यारा ॥११६॥ मिथ्या असंयम कषाय कुयोग लेश्या, जो भी इन्हें धर रहा कर संक्लेश्या। बाँधे वही अशुभ कर्म नितान्त मोही, जो है जिनेश मत से अति दूर द्रोही ॥११७॥ सम्यक्त्व संयम यमादिक धारते हैं, वे पुण्य बंध करते, मन मारते हैं। संक्षेप से विविध है विधि-बंध गाथा, ऐसा जिनेश मत सुन्दर गीत गाता ॥११८॥ मैं ज्ञान आवरण आदिक अष्ट कर्मों, से हूँ बँधा सुचिर से तज आत्म धर्मों। चैतन्य आदिक अनन्त निजी गुणों को, देखें सही, अब जला विधि के गणों को ॥११९॥ सारे अठारह सहस्र सुशील होते, चौरासिलाख गुण उत्तर पूर्ण होते। भावो इन्हें सतत ये शुचि भावना है, क्या व्यर्थ के कथन से? कुछ लाभ ना है॥१२०॥ रे! आर्त-रौद्रमय ध्यान अवश्य छोड़ो, पै धर्म से शुकल से मन मात्र जोड़ो। दुर्ध्यान तो सुचिर से कर ही रहे हो, जो बार-बार भव में मर ही रहे हो ॥१२१॥ वे भाव से श्रमण, ध्यान-कुठार द्वारा, काटें सुशीघ्र भववृक्ष समूल सारा। जो मात्र नग्न मुनि इन्द्रिय दास होते, संसार-वृक्ष-जड़ में जल और देते ॥१२२॥ ज्यों दीप, गर्भ-घर में बुझता नहीं है, उद्दीप्त हो जबकि वायु चली नहीं है। त्यों ध्यान दीपक अकम्प सही जलेगा, औचित्य! रागमय वात नहीं चलेगा ॥१२३॥ सर्वोत्तमा शरण मंगल चार प्यारे, पूजें जिन्हें खग खगेन्द्र सुरेन्द्र सारे। आराधना सुगुण नायक हैं गुरो को, ध्याओ सदा विनय से परमेष्ठियों को ॥१२४॥ विज्ञान का विमल शीतल नीर पीते, सद्भाव से भरित भव्य सुधीर जीते। वे आधि व्याधि मृति जन्म जरादिकों से, होते विमुक्त, शिव हो लसते गुणों से ॥१२५॥ है पूर्णतः जल गया यदि बीज बोओ, औचित्य! अंकुरित भूतल में न हो वो। लो कर्म-बीज इकबार अहो जलेगा, भाई! भवांकुर पुनः उग ना सकेगा ॥१२६॥ जो भाव से श्रमण है शिवधाम जाता, हो मात्र बाह्य मुनि ना सुख त्राण पाता। यों जान मान गुण दोष सही सुचारा, भावात्मिका श्रमणता भज विश्व-सारा ॥१२७॥ तीर्थंकरों गणधरों हलधारियों के, उत्कृष्ट अभ्युदय हैं दिविवासियों के। जो भाव से श्रमण हैं, अनिवार्य पाते, संक्षेप से, सुन जरा जिन आर्य गाते ॥१२८॥ वे धन्य धन्य तम है, तज संग संगी, सम्यक्त्व-बोध-व्रत से शुचि भावलिंगी। है साधु निष्कपट भी त्रययोग द्वारा, वन्दूं उन्हें विमल हो उपयोग प्यारा ॥१२९॥ वे ऋद्धि-सिद्धि, खगदेव भले दिखाले, आ पास किंपुरुष किन्नर गीत गाले। सम्यक्त्व से सहित श्रावक भी ऋषी से, हो मुग्ध लब्ध न प्रभावित हो किसी से ॥१३०॥ हैं मोक्ष को सजल लोचन सिंचते हैं, हैं जानते मनस से नित चिंतते हैं। ऐसे मुनीश मन-मोहित क्या करेगा? स्वर्गीय स्वल्प सुख वो फिर क्या करेगा? ॥१३१॥ रोगाग्नि, देह घर ना जब लौं जलाती, दुर्वार मारक जरा जबलौं न आती। पंचेन्द्रियाँ शिथिल हों जबलौं नहीं हैं, रे ! आत्म का हित करो सुघड़ी यही है ॥१३२॥ तू विश्व जीव पर धार दया सुधारा, सारे अनायतन त्याग त्रियोग द्वारा। तेरा उपास्य बन जाय ‘महान सत्ता', जो सर्व जीव गतचेतन ज्ञानवत्ता ॥१३३॥ संभोग सौख्य सबने उस स्थावरों को, खाये अनन्त तुमने जग जंतुओं को। ऐसा अतीत भर में चिरकाल बीता, संसार में भटकता नहिं काल जीता ॥१३४॥ चौरासि लाख इन कुत्सित योनियों में, तू जन्म ले मर मिटा कि भवों-भवों में। क्या ज्ञात है कि दुख कारण क्या रहा है, हे मित्र! ‘प्राणिवध' कारण ही रहा है॥१३५॥ सद्भाव से अभयदान चराचरों को, देवो, सदा शुचि बना मनवाक्तनों को। ‘कल्याण पंच' फलरूप परम्परा से, पावो मुनीश! मुकती, मृति से जरा से ॥१३६॥ हैं वाद सर्व किरिया शत और अस्सी, बत्तीस वाद विनयी अक्रिया चवस्सी। अज्ञानवाद सडसष्ट अहो! पुकारे, ये वाद, तीन शत औ त्रय साठ सारे ॥१३७॥ सद्धर्म का श्रवण भी करता तथापि, छोड़े अभव्य न अभव्यपना कदापि। मिश्री मिला यदपि पावन दूध पीता, पै सर्प दर्प विष से रहता न रीता ॥१३८॥ लेता सदोष मत का जड़धी सहारा, मिथ्यात्व से ढक गया उर नेत्र सारा। सिद्धान्त में बस अभव्य रहा वही है, श्री जैन धर्म जिसको रुचता नहीं है ॥१३९॥ सेवा कुसाधुजन की करता मुधा है, सो ही कुधर्म मत में रत सर्वदा है। है तापसी कुतप ही तपता वृथा है, हो पात्र हा! कुगति का सहता व्यथा है॥१४०॥ मिथ्यात्व से भ्रमित दुर्जन संग पाया, भाई तुझे कुनय आगम ने ठगाया। संसार में फिर रहा चिर काल से तू, हे धीर! सोच चलना निज चाल ले तू ॥१४१॥ पाखंडिवाद त्रय सौ त्रय साठ खारे, उन्मार्ग हैं तुम इन्हें तज दो विसारो। सौभाग्य! जैन पथ पे निज को चलाओ, रे! वाक् विलास बस से?मन से भुलाओ ॥१४२॥ सम्यक्त्व के बिन मुनी शव ही कहाता, है मात्र नग्न चलता फिरता दिखाता। मोही त्रिलोक भर में वह निंद्य होता, आत्मा उड़ा, शव कहाँ कब वन्द्य होता ॥१४३॥ जैसा शशी उजल तारक के गणों में, जैसा मृगेन्द्र बलवान रहा मृगों में। सम्यक्त्व भी परम श्रेष्ठ सभी गुणों में, माना गया कि मुनि श्रावक के व्रतों में ॥१४४॥ धारा फणा मणि विशेष सुलाल ऐसा, होता सुशोभित फणाधर राज जैसा। वैसा सुशोभित सदा जिन-भक्त होता, सन्मार्ग में विमल दर्शन युक्त होता ॥१४५॥ तारा समूह नभ में जब जन्म पाता, वो पूर्ण चन्द्र जिस भाँति हमें सुहाता। निर्ग्रन्थ लिंग उस भाँति लसे सुचारा, सम्यक्त्व-शुद्ध तप ले व्रत युक्त प्यारा ॥१४६॥ मिथ्यात्व दोष, गुण दर्शन को विचारो, भाई! सुरत्न, समदर्शन को सुधारो। सोपान आदिम शिवालय का रहा है, औ सारभूत गुण रत्न यही अहा है॥१४७॥ कर्ता, अमूर्त, निज देह प्रमाण वाला, भोक्ता, अनादि अविनश्वर जीव प्यारा। विज्ञान दर्शनमयी उपयोग प्याला, ऐसा कहें जिन करें जग में उजाला ॥१४८॥ मोहादि घाति विधि के दल को मिटाते, वे भव्य साधु जिन लिंग धरें सुहाते। वैराग्य से लस रहे दूग पूर्ण खोले, तू खास दास उनका अयि चित्त होले ॥१४९॥ ज्यों चार घाति अघ-कर्म विनाशते हैं, त्यों लोक पूरण अलोक प्रकाशते हैं। दृक्-ज्ञान-सौख्य-बल ये प्रकटे गुणों से, होते सुशोभित अनन्त चतुष्टयों से ॥१५०॥ लो कर्म मुक्त बनता जब आतमा है, होता सुनिश्चित वही परमातमा है। ज्ञानी वही शिव चतुर्मुख ब्रह्म भी है, सर्वज्ञ विष्णु परमेष्ठि निजात्म ही है॥१५१॥ हो घाति कर्म दल से, जब मुक्त स्वामी, प्यारे, अठारह सदोष-विमुक्त नामी। त्रैलोक्य दीप तुम ही अति दिव्य देही! दो बोधि उत्तम बनँ फलतः विदेही ॥१५२॥ सद्भाव से भ्रमर हो निशिवासरों में, होता विलीन जिन के पद पंकजों में। आमूल-जन्म लतिका झट काटता है, वैराग्य शस्त्र बल से शिव साधता है॥१५३॥ ज्यों शोभता कमलिनी दृग मंजु पत्र, हो नीर में, न सड़ता रहता पवित्र। त्यों लिप्त हो विषय से न मुमुक्षु प्यारे, होते कषाय मल से अति दूर न्यारे॥१५४॥ नाना कला गुण विशारद हो निहाला, मानें उसे मुनि, सुसंयम शील-वाला। पै दोष-कोष बस केवल नग्न साधू, साधू रहा न वह श्रावक भी न! स्वादू ॥१५५॥ तीखी क्षमा दममयी असि हाथ धारे, वे धीर, नीर-निधि से मुनि वीर प्यारे। दुर्जेय उद्धत कषाय-बली, भटों को, हैं जीतते सुचिर कालिन संकटों को ॥१५६॥ पंचाक्ष के विषय के मकराकरों में, थे डूबते पतित भव्य भवों-भवों में। विज्ञान दर्शनमयी कर का सहारा, दे, धन्य ईश उस पार जिन्हें उतारा ॥१५७॥ उत्तुंग मोह तरु से लिपटी चढ़ी है, मायामयी विषम बेल घनी बढ़ी है। फूले खिले विषय फूल जहाँ जिसे वे, काटें विरोध असि से मुनि हा! न सेवें ॥१५८॥ कारुण्य से यदपि पूर्ण भरे निरे हैं, संमोह मान मद गौरव से परे हैं। चारित्र खड्ग कर लेकर, काटते हैं, सम्पूर्ण-पापमय स्तंभ न हाँफते हैं ॥१५९॥ ज्यों पूर्ण पौर्णिम शशी नभ में सुहाता, तारा समूह जिसको जब घेर पाता। त्यों श्री जिनेश मत के नभ में दिखाते, धारे सुमाल गुण की मुनि चन्द्र भाते ॥१६०॥ होते जिनेन्द्र अमरेन्द्र नरेन्द्र चक्री, हो राम तीर्थकर केशव अर्ध चक्री, वे ऋद्धि-सिद्धि गहते मुनि, संग त्यागी, होते गणेश ऋषि तारण हैं विरागी ॥१६१॥ अत्युज्वला अतुल निर्मल है निहाला, उत्कृष्ट सिद्धि सुख है शिव शील-वाला। वार्धक्य भी मरण भी जिसमें न भाते, साधू विराग जिसको अविलम्ब पाते ॥१६२॥ नीराग हैं नित निरंजन हैं निराले, हैं सिद्ध शुद्ध जग पूजित, पूज्य सारे। दे, वे मुझे विमल भाव, कषाय धोऊँ, सम्यक्त्व-बोध-व्रत में रत नित्य होऊं ॥१६३॥ ये धर्म अर्थ पुनि काम विमोक्ष चारों, हैं भाव पे निहित यों तुम तो विचारो। मंत्रादि सिद्धि सब भी बस!! भाव से हो, कोई प्रयोजन नहीं बकवाद से हो ॥१६४॥ सर्वज्ञ ने प्रथम तो सब जान पाया, सद् ‘भाव-प्राभृत' पुनः हमको सुनाया। जो भी पढ़ें यदि सुनें अविराम भावें, औचित्य, नित्य स्थिर शाश्वत धाम पावें ॥१६५॥ दोहा निजी भाव ही दुःख हैं, निजी भाव सुख कूप। भव-भव भ्रमते भाव से, भूल रहे निज रूप ॥ दुख से बचना चाहते, तजो परिग्रह भाव। नग्न हुए बिन शिव नहीं, बिना निजातम भाव ॥
  5. १ जुलाई से ८ जुलाई की सभी प्रतियोगिता में आप १२ जुलाई तक भाग ले सकते हैं ... परिमाण जल्द ही घोषित कर दिया जायेगा | 1 से ८ जुलाई तक की प्रतियोगोता आप नीचे लिंक पर देखे https://vidyasagar.guru/pratiyogita
  6. ज्ञाता अनेक विध आगम के यशस्वी, सम्यक्त्व संयम लिए तपते तपस्वी। धोते कषायमल, निर्मल शुद्ध प्यारे, आचार्य वे नमन हों उनको हमारे ॥१॥ जो भी जिनेश मत में जिन ने बताया, संक्षेप मात्र उसकी यह मात्र छाया। सम्बोधनार्थ सबको सुन लो! सुनाता, है बोध प्राभृत चराचरमोद-दाता ॥२॥ है आद्य आयतन चैत्यगृहा सुप्यारा, है तीसरी जिनप की प्रतिमा सुचारा। सद्दर्शना जिनप बिम्ब विराग-शाला, आत्मार्थ ज्ञान यह सात सुनाम माला ॥३॥ औ देव तीर्थकर अर्हत है प्रव्रज्या, जो हो विशुद्ध गुण से बिन राग लज्जा। ये हैं जिनोदित यथाक्रम जान लेना, आगे उन्हें कह रहा बस! ध्यान देना ॥४॥ जीते निजी-करण निर्विषयी दमी है, वाक्काय चित्त वश में रखता शमी है। निर्ग्रन्थ रूप यम संयम कूप भाता, हो सत्य आयतन वो जिन शास्त्र गाता ॥५॥ हैं राग रोष मद को मन में न लाते, चारों कषाय वश में रखते सुहाते। औ पाँच पाप तज सद्गत पाँच पाले, वे शुद्ध आयतन हैं ऋषि-राज प्यारे ॥६॥ साधा निजात्म मुनि निर्मल ध्यान-धारी, हीराभ से विमल केवलज्ञान-धारी। हैं सिद्ध-आयतन श्रेष्ठ-मुनीश्वरों में, वन्दूँ उन्हें विनय से निशि-वासरों में ॥७॥ विज्ञान धाम निज आतम को सुजाने, चैतन्य पिण्डमय भी पर को पिछाने। पाने महाव्रत सही खुद ज्ञान होता, वो साधु चैत्यगृह हो सुन! भव्य श्रोता ॥८॥ बंधादि मोक्ष सुख आतम भोगता है, लो धारता जब सचेतन-योगता है। षट्काय-जीव हितकारक नग्न-स्वामी, जीवन्त चैत्य गृह हैं जिनमार्ग-गामी ॥९॥ सम्यक्त्व बोध शुचि से शुचि वृत्त पालें, जीवन्त जंगम दिगम्बर साधु प्यारे। निर्ग्रन्थ ग्रन्थ तज-राग, विराग ही हैं, आदर्श-जैन मत में प्रतिमा वही है॥१०॥ जाने लखे स्वयम को समदृष्टिवाला, है शुद्ध आचरण से चलता निराला। निर्ग्रन्थ संयममयी प्रतिमा यही है, तो वन्दनीय वह है जग में सही है ॥११॥ पाये अनन्त सुख वीर्य अनन्त पाये, पा ज्ञान दर्शन अनन्त अतः सुहाये। दुष्टाष्ट कर्म तन के बिन जी रहे हैं, स्वादिष्ट-शाश्वत-सुखामृत पी रहे हैं ॥१२॥ व्युत्सर्गरूप-प्रतिमा ध्रुव हो लसे हैं, लोकाग्र जा स्थिर शिवालय में बसे हैं। वे सिद्ध जो अतुल निश्चल शैल सारे, हैं क्षोभ से रहित हैं हित हैं हमारे ॥१३॥ सद्धर्म को सहज सम्मुख शीघ्र लाता, सम्यक्त्व मोक्ष पथ संयम को दिखाता। निर्ग्रन्थ ज्ञानमय 'दर्शन' भी वही है, यों जैनशास्त्र हमको कहता सही है ॥१४॥ आर्या व क्षुल्लक दिगम्बर साधुओं का, वो वेश आलय स्वबोध दृगादिकों का। हो फूल से तुम सुगन्ध अवश्य पाते, हो दूध से घृत प्रशस्त मनुष्य पाते ॥१५॥ पात्रानुसार विधि-नाशक जैन दीक्षा, देते कृपाकर! कृपा कर उच्च शिक्षा। हैं वीतराग बन संयम शुद्ध पालें, आचार्य वे हि जिन बिम्ब' हमें संभालें ॥१६॥ सेवा करो विनय आदर वन्दना भी, आचार्य की सुखद पूजन भावना भी। कर्त्तव्य में सतत जागृत ज्ञान वाले, सम्यक्त्व सौध जिनबिम्ब रहे हमारे ॥१७॥ मूलोत्तरादिक गुणों सब सत्तपों से, हैं शुद्ध शुद्धतर शुद्धतमा व्रतों से। दीक्षादि दान करते गुण के समुद्रा, आचार्य ही नियम से अरहन्त मुद्रा ॥१८॥ सत् साधु की शुचिमयी अकषाय मुद्रा, है वन्द्य पूज्य जित-इन्द्रिय पूत मुद्रा। वो वस्तुतः सुदृढ़ संयमरूप मुद्रा, हे भव्य स्वीकृत वही अरहन्त मुद्रा ॥१९॥ सद्ध्यान योग यम संयम से सुहाता, सो मोक्ष मार्ग जिन आगम में कहाता। है लक्ष्य, मोक्ष जिसका वह ज्ञान से हो, ज्ञातव्य ज्ञान यह है निज ध्यान से हो ॥२०॥ भेदे न लक्ष्य बिन बाण धनुष्यधारी, जाने बिना वह धनुष्य न कार्यकारी। सो लक्ष्यभूत शिव को न कदापि पाता, जो ज्ञान-हीन भव में दुख ही उठाता ॥२१॥ हो शोभता पुरुष जो विनयी सही है, ले ज्ञान लाभ निज जीवन में वही है, है मोक्ष, मोक्ष पथ का वह लक्ष्य-ध्याता, विज्ञान से सहज मोक्ष अवश्य पाता ॥२२॥ प्रत्यंच हो श्रुत, मती स्थिर हो धनुष्य, हो बाण रत्नत्रय ले कर में अवश्य। शुद्धात्म लक्ष्य यदि मात्र किया सही है, तो साधु, मोक्ष पथ से चिगता नहीं है ॥२३॥ वे देव धर्म धन काम सुबोध देते, औचित्य जो निकट हो वह दान देते। है देव के निकट भी शिवदा प्रव्रज्या, है धर्म अर्थ कल केवल ज्ञान विद्या ॥२४॥ हो धर्म शुद्ध सदयावश हो प्रव्रज्या, वो सर्व संग बिन शोभित हो सुसज्या। वे देव हैं विगत मोह सदा कहाते, सोते सुभव्य जन को सहसा जगाते ॥२५॥ चारित्र से विमल दर्शन औ बनाने, पंचेन्द्रियाँ दमित संयम भी कराने। दीक्षा प्रशिक्षण गहे गुरु से, सुहाये, साधू स्वतीर्थ भर में डुबकी लगाये ॥२६॥ सम्यक्त्व ज्ञान तप संयम धर्म सारे, ये साधु के विमल निर्मल हो उजारे। औ साथ-साथ यदि वो समता रही है, तो तीर्थ जैन मत में सुखदा वही है ॥२७॥ निक्षेप चार वश पर्यय भाव द्वारा, ज्ञानादि पूर्ण गुण के गण भाव द्वारा। किंवा सुनो! च्यवन आगति आदि द्वारा, अर्हन्त रूप दिखता सुख का पिटारा ॥२८॥ है भाव मोक्ष दृग ज्ञान अनन्त पाये, आठों नवीन विधि-बंधन को मिटाये। स्वामी! अतुल्य गुण भार नितान्त जोते, वे ही जिनेश मत में अरहन्त होते ॥२९॥ ये पाप पुण्य मृति रोग जरादिकों को, मेटा समूल मल पुद्गल के दलों को, चारों गती भ्रमण-मुक्त हुए अतः हैं, विज्ञान धाम अरहन्त हुए स्वतः हैं ॥३०॥ पर्याप्ति प्राण गुणथान विधान द्वारा, औ जीव थान सब मार्गण-भाव द्वारा। सो स्थापना हृदय में अरहन्त की हो, शीघ्रातिशीघ्र जिससे भव अन्त ही हो ॥३१॥ हैं प्रातिहार्य वसु मंडित पूज्य प्यारे, चौंतीस सातिशय वे गुण भी सुधारें। बैठे उपान्त-गुण थानन में सयोगी, हैं केवली विमल हैं अरहन्त योगी ॥३२॥ ये मार्गणा कि, गति इन्द्रिय काय, योग, औ वेद दु:खद-कषाय व ज्ञान-योग। पश्चात संजम व दर्शन लेश्य भव्य, सम्यक्त्व, संज्ञिक अहार सुजान! भव्य ॥३३॥ आहार आदिम शरीर तथैव भाषा, औ आन-प्राण मन, मान! जिनेश दासा। पर्याप्तियाँ गुण छहों अरहन्त धारे, माने गये परम उत्तम देव प्यारे ॥३४॥ तू पाँच ही समझ इन्द्रिय प्राण होते, वाक्काय चित्त त्रय ये बल प्राण होते। औ आन प्राण इक आयुक प्राण सारे, माने गये समय में दश प्राण प्यारे ॥३५॥ हो जीव स्थान वह चौदहवाँ, मनुष्य, पंचेन्द्रियाँ मन मिले जिसमें अवश्य। पूर्वोक्त सर्व गुण पा अरहन्त प्यारे, बैठे उपान्त गुणथानन में उजारे ॥३६॥ वार्धक्य व्याधि दुख भी जिसमें नहीं है, ये श्लेष्म स्वेद मल थूक सभी नहीं है। आहार भी नहिं विहार कभी नहीं है, जो दोष कोष न घृणास्पद भी नहीं है ॥३७॥ सर्वांग में रुधिर मांस भरे हुए हैं, गोक्षीर शंख सम श्वेत धुले हुए हैं। पर्याप्तियां छह मिले दश प्राण सारे, शोभे हजार वसु लक्षण पूर्ण प्यारे ॥३८॥ ऐसे हि श्रेष्ठ गुणधाम प्रमोदकारी, सौगंध-सौध अति निर्मल मोहहारी। औदारिकी तन रहा अरहन्त का है, पूजो इसे पद मिले भगवन्त का है॥३९॥ जो राग रोष मद से प्रतिकूल होते, स्वामी कषाय मल से अति दूर होते। कैवल्य भाव शुचि आर्हत में जगा है, पूरा क्षयोपशम-भाव तभी भगा है॥४०॥ कैवल्य ज्ञान शुचि दर्शन-नेत्र द्वारा, हैं जानते निरखते त्रय लोक सारा। सम्यक्त्व से झग झगा लसते निराला, अर्हन्त का विमल भाव स्वभाव प्यारा ॥४१॥ उद्यान शून्य गृह में तरु कोटरों में, भारी वनों उपवनों गिरि गहवरों में। किंवा भयानक श्मशान-धरातलों में, कोई सकारण विमोचित आलयों में ॥४२॥ पूर्वोक्त स्थान भर में रह शील पाले, ऐसे जिनेश मत में मुनि मुख्य प्यारे। स्वाधीन हों जिन जिनागम तीर्थ ध्यावें, उत्साह साहस स्वतंत्रपना निभावें ॥४३॥ पाले महाव्रत तजें पर की अपेक्षा, हो के जितेन्द्रिय करें सबकी उपेक्षा। स्वाध्याय ध्यान भर में लवलीन होते, वे ही नितान्त मुनि श्रेष्ठ प्रवीण होते ॥४४॥ आरंभ पाप तज सर्व कषाय जीते, औ गेह ग्रन्थ भर से बन पूर्ण रीते। सारे सहें परिषहों उनकी प्रव्रज्या, मानी गई समय में वह लोक पूज्या ॥४५॥ वस्त्रादि दान धनधान्य कुदान से भी, छत्रादि स्वर्ण शयनासन दान से भी। मानी गई न जिनशासन में प्रव्रज्या, निर्ग्रन्थ, ग्रन्थ बिन ही लसती प्रव्रज्या ॥४६॥ जो साम्य, निंदन सुवंदन में सँभारे, मिट्टी गिरी कनक को तृण को निहारे। माने समान रिपु बाँधव लाभ हानी, दीक्षा सही श्रमण की यह साधु वाणी ॥४७॥ ना ही करे धनिक निर्धन की परीक्षा, छोटा बड़ा भवन यों न करें समीक्षा। जाते सभी जगह भोजन लाभ हेतु, दीक्षा सही श्रमण की यह जान रे! तू ॥४८॥ निर्ग्रन्थ हो निरभिमान निसंग प्यारे, निर्दोष निर्मम निरीह नितान्त न्यारे। नीराग नित्य निरहंपण शीलधारी, दीक्षा उन्हीं श्रमण की सुख झीलवाली ॥४९॥ निर्लोभ भाव रत हैं मुनि निर्विकारी, निर्मोह निष्कलुष निर्भय-भावधारी। आशा बिना विषय राग बिना विरागी, दीक्षा उन्हीं श्रमण की समझो सरागी! ॥५०॥ नीचे भुजा कर खड़े शिशु-रूप-धारे, वस्त्रास्त्र शस्त्र तज शांत स्व को निहारे, काटें निशा परकृतों मठ मंदिरों में, दीक्षा उन्हीं श्रमण की समझें गुरो! मैं ॥५१॥ धारी क्षमा शमदमान्वित हो सुहाते, स्नानादि तैल तजते तन को सुखाते। है राग-रोष मद से अति दूर ज्ञानी, दीक्षा उन्हीं श्रमण की सुन मूढ़ प्राणी ॥५२॥ भागीं नितान्त जिनकी मति मूढ़तायें, होंगी विनष्ट वसु ये विधि-गूढतायें। मिथ्या टली दृग विशुद्ध मिली शिवाली, दीक्षा उन्हीं श्रमण की समता- सुप्याली॥५३॥ उत्कृष्ट संहनन या कि जघन्य पावें, निर्ग्रन्थ वे बन सके जिन यों बतायें। दुष्टाष्ट कर्म क्षय की रख मात्र इच्छा, स्वीकारते भविक हैं जिन लिंग दीक्षा ॥५४॥ अत्यल्प भी विषय राग नहीं रहा है, ना बाह्य का ग्रहण संग्रह भी रहा है। दीक्षा उन्हीं श्रमण की जिन हैं बताते, जो जानते निखिल को लखते सुहाते ॥५५॥ साधू सहें परिषहों उपसर्ग बाधा, प्रायः रहें विजन में वन मध्य ज्यादा। एकान्त में शयन आसन साधते हैं, भू पे, शिला, फलक पे निशि काटते हैं ॥५६॥ साधू करें न विकथा व्यभिचारियों से, हो दूर षंड पशुवों महिलाजनों से। स्वाध्याय-ध्यान रत जीवन हैं बिताते, दीक्षा उन्हीं श्रमण की जिन हैं बताते ॥५७॥ सम्यक्त्व से नियम संयम के गुणों से, होते नितान्त मुनि शुद्ध व्रतों तपों से। दीक्षा विशुद्ध उनकी गुण-धारती है, प्यारी यही कह रही जिनभारती है॥५८॥ निर्ग्रन्थ आयतन हो मुनि के गुणों से, पूरा भरा नियम-संयम लक्षणों से। ऐसा जिनेश मत ने हमको बताया, संक्षेप से मुनिपना हमको दिखाया ॥५९॥ निर्ग्रन्थरूप सुख कूप अनूप प्यारा, षट्काय जीव हितकारक भूप न्यारा। जैसा जिनेन्द्र मत में जिन ने बताया, बोधार्थ भव्य जन को हमने दिखाया ॥६०॥ भाषा ससूत्र जिननायक ने बताया, सो शब्द का सब विभाव विकार-माया। मैं भद्रबाहु गुरु का लघु शिष्य छाया, जो ज्ञात था समय के अनुसार गाया ॥६१॥ वाक्देवि के पट प्रचार प्रसारकर्ता, हे! द्वादशांग श्रुत चौदह पूर्व धर्ता। हे! भद्रबाहु श्रुत-केवलज्ञानधारी, स्वामी! गुरो गमक हे! जय हो तुम्हारी ॥६२॥ (दोहा) जिन आलय औ आयतन, प्रतिमा, दर्शन सार। जैन बिम्ब औ जैन की मुद्रा सुख आगार ॥१॥ ज्ञान, देव, शुचि तीर्थ भी दीक्षा पथ अरहन्त। ग्यारह ये मुनिरूप हैं धरते भव का अन्त ॥२॥ पाषाणादिक में इन्हें थाप भजो व्यवहार। यही बोध प्राभृत रहा अबोध मेटन ‘हार' ॥३॥
  7. सर्वज्ञ हैं निखिल दर्शक वीतरागी, हैं वीतमोह परमेष्ठि प्रमाद त्यागी। जो भव्य जीव स्तुत हैं त्रयलोक द्वारा, अर्हन्त को नमन मैं कर बार-बारा ॥१॥ सर्वज्ञ दिव्य पद दायक पूर्ण साता, ज्ञानादि रत्नत्रय को शिर मैं नवाता। चारित्र-प्राभृत सुनो! अब मैं सुनाता, जो मोक्ष का परम कारण है कहाता ॥२॥ जो जानता ‘समय में' वह ज्ञान होता, श्रद्धान होय वह दर्शन नाम देता। दोनों मिले जब सुनिश्चल शैल होते, चारित्र निश्चय वही मन मैल धोते ॥३॥ ये जीव के त्रिविध भाव न आज के हैं, वैसे अनन्त ध्रुव सत्य अनादि के हैं। तीनों अशुद्ध पर शुद्ध उन्हें बनाने, चारित्र है द्विविध यों जिन-शास्त्र माने ॥४॥ श्रद्धान जैन-मत में अति शुद्ध होना, सम्यक्त्व का चरण चारित धार लो ना। औ संयमाचरण चारित दूसरा है, सर्वज्ञ से कथित सेवित है खरा है ॥५॥ मिथ्यात्व पंक तुमने निज पे लिपाया, शंकादि मैल दृग के दृग पे छिपाया। वाक् काय से मनस से उनको हटाओ, सम्यक्त्व आचरण में निज को बिठाओ ॥६॥ ये अष्ट अंग दृग के, विनिशंकिता है, नि:कांक्षिता, विमल-निर्विचिकित्सिता है। चौथा अमूढ़पन है उपगूहना को, धारो स्थितीकरण, वत्सल-भावना को ॥७॥ श्रद्धान होय जिनमें वह मोक्ष दाता, निःशंक आदि गुण युक्त सुदृष्टि साता। धारो सुबोध युत दर्शन को सुचारा, सम्यक्त्व आचरण चारित वो तुम्हारा ॥८॥ सम्यक्त्व के चरण से द्युतिमान होता, औ संयमाचरण में रममान होता। ज्ञानी वही बस नितान्त अमूढदृष्टी, निर्वाण शीघ्र गहता तज मूढ़दृष्टी ॥९॥ सम्यक्त्व के चरण से च्युत हो रहे हैं, पै संयमाचरण केवल ढो रहे हैं। अज्ञान-ज्ञान फल में अनजान होते, मोही न मोक्ष गहते, बिन ज्ञान रोते ॥१०॥ वात्सल्य हो, विनय हो, गुरु में गुणी में, अन्नादि देकर दया करते दुखी में। निर्ग्रन्थ मोक्ष पथ की करना प्रशंसा, साधर्मि-दोष ढकना, नहिं आत्म शंसा ॥११॥ पूर्वोक्त सर्व गुण लक्षित हो उन्हीं में, सारल्य भावयुत निष्कपटी सुधी में। मिथ्यात्व से रहित भाव सुधारते हैं, वे ही अवश्य जिन-दर्शन पालते हैं ॥१२॥ रागाभिभूत मत की स्तुति शंस सेवा, उत्साह धार यदि जो करते सदैवा। अज्ञान मोह-पथ से मन जोड़ते हैं, श्रद्धान जैन-मत का तब छोड़ते हैं ॥१३॥ निर्ग्रन्थ जैन-मत की स्तुति शंस-सेवा, उत्साह धार यदि जो करते सदैवा। श्रद्धान और जिनमें दृढ़ ही जमाते, सज्ज्ञान पा, न जिन दर्शन छोड़ पाते ॥१४॥ सम्यक्त्व बोध गहते तुम हो इसी से, मिथ्यात्व मूढ़पन को तज दो रुची से। भाई मिला जब सुधर्म तुम्हें अहिंसा, सारंभ मोह तज दो अघकर्म हिंसा ॥१५॥ त्यागो परिग्रह पुनः धर लो प्रव्रज्या, पालो सुसंयम तपो तप त्याग लज्या। निर्मोह भाव लसता उर में विरागी, पाता निजी विमल ध्यान सुनो सरागी ॥१६॥ मिथ्यात्व मोह मल दूषित पंथ में ही, आश्चर्य क्या यदि चले मति मन्द मोही। मिथ्या कुबोध वश ही विधि बंध पाते, अच्छी दिशा पकड़ के कब अन्ध जाते ॥१७॥ विज्ञान-दर्शन-तया समदृष्टि जाने, जो द्रव्य, द्रव्यगत पर्यय को पिछाने। सम्यक्त्व से स्वयम पे कर पूर्ण श्रद्धा, चारित्र-दोष हरते, करते विशुद्धा ॥१८॥ सम्मोह से रहित हैं उन ही शमी में, पूर्वोक्त तीन शुचि-भाव बसे यमी से। श्रद्धाभिभूत निज के गुण गीत गाते, काटे कुकर्म झट से भव जीत पाते ॥१९॥ प्रारंभ में गुण असंख्य पुनश्च संख्या, है कर्म नष्ट करते बनते अशंका। सम्यक्त्व आचरण पा दुख को मिटाते, संसार को लघु परीत सुधी बनाते ॥२०॥ सागार और अनगार-तया द्विधा है, वो संयमाचरण मोक्षद है सुधा है। सागार-संग-युत-श्रावक का कहाता, निर्ग्रन्थ रूप ‘अनगार' मुझे सुहाता ॥२१॥ सद्दर्शना सुव्रत सामयिकी स्वशक्ति, औं प्रोषधी सचित त्याग दिवाभिभुक्ति। है ब्रह्मचर्य व्रत सप्तम नाम पाता, आरंभ संग अनुमोदन त्याग साता। उद्दिष्ट त्याग व्रत ग्यारह ये कहाते, है एक देश व्रत श्रावक के सुहाते ॥२२॥ सानन्द-श्रावक, अणुव्रत पाँच पाले, आरम्भ नाशक, गुण-व्रत तीन धारे। शिक्षाव्रतों चहुँ धरें वह है कहाता, सागार संयम सुचारित सौख्य दाता ॥२३॥ हो त्याग स्थूल त्रसकायिक के वधों का, औ स्थूल झूठ बिन दत्त परों धनों का। भाई कभी न पर की वनिता लुभाना, आरम्भ संग परिमाण तथा लुभाना। ये पंच देशव्रत श्रावक तू निभाना ॥२४॥ सीमा विधान करना कि दशों दिशा में, औ व्यर्थ कार्य करना न किसी दशा में। भोगोपभोग परिमाण तथा बनाना, ये तीन श्रावक गुणव्रत तू निभाना ॥२५॥ सामायिका प्रथम प्रोषध है द्वितीया, सिद्धान्त में अतिथि पूजन है तृतीया। सल्लेखना चरम ये व्रत चार शिक्षा, शिक्षा मिले तुम बनो मुनि, धार दीक्षा ॥२६॥ होता कला सहित है टुकड़ा सुनो रे! सागार धर्म इस भाँति कहा, गुणों रे! पै संयमाचरण शुद्ध तुम्हें सुनाता, आराध्य धर्म यति का परिपूर्ण भाता ॥२७॥ पच्चीस हो शुचि क्रिया व्रत पाँच धारे, पंचाक्ष के दमन से सब पाप टारे। औ गुप्ति तीन समिती मुनि पाँच पाले, वो संयमाचरण साधक नग्न प्यारे ॥२८॥ जो चेतनों जडतनों अवचेतनों में, अच्छी बुरी जगत की इन वस्तुओं में। ना राग-रोष मुनि हो करता कराता, पंचाक्ष-निग्रह वही यह छन्द गाता ॥२९॥ हिंसा यथार्थ तजना भजना अहिंसा, हो झूठ स्तेय तज सत्य अचौर्य शंसा। अब्रह्म-संग तज, ब्रह्म निसंग होना, ये पाँच हैं तुम महाव्रत, धार लो ना ॥३०॥ साधे गये विगत में व्रत ये यहाँ हैं, साधे जिन्हें नित नितान्त महामना हैं। होते स्वयं सहज सत्य महान तातें, ये आप सार्थक महाव्रत नाम पाते ॥३१॥ वाक् चित्त-गुप्ति धरना लख भोज पाना, ईर्या समेत चलना उठ बैठ जाना। आदान निक्षपण से सब भावनायें, ये पाँच आद्य व्रत की सुख-साधनायें ॥३२॥ छोडो प्रलोभ, मन आगम ओर मोड़ो, गंभीर हो अभय हो भय हास्य छोडो, संमोह क्रोध तज दर्शन पालना, ये, हैं पाँच सत्यव्रत की शुभ भावनायें ॥३३॥ छोड़े हुए सदन शून्य घरों वनों में, सत्ता जमा कर नहीं रहना द्रुमों में। साधर्मि से न लड़ना शुचि भोज पाना, ये भावना व्रत अचौर्यन की निभाना ॥३४॥ देखो न अंग महिलाजन संग छोड़ो, स्त्री की कथा श्रवण से मन को न जोड़ो। संभोग की स्मृति तजो, न गरिष्ठ खाना, ये भावना परम ब्रह्मन की खजाना ॥३५॥ ये शब्द स्पर्श रस रूप सुगंध सारे, पंचाक्ष के विषय हैं कुछ सार खारे। ना राग रोष इनमें करना कराना, हैं भावना चरम जो व्रत की निभाना ॥३६॥ ईर्या सुभाषणवती पुनि एषणा है, आदान निक्षपण औ व्युतसर्गना है। पाँचों कही समितियाँ जिन ने इसी से, हो शुद्ध शुद्धतम संयम हो शशी से ॥३७॥ संबोधनार्थ भवि को जिन ने बताया, जो ज्ञान ज्ञान गुण लक्षण को दिखाया। सो ज्ञान जैनमत में निज आतमा है, यो जान, मान, फलतः दुख खातमा हैं ॥३८॥ होते अजीव अरु जीव निरे निरे हैं, ज्ञानी हुए कि इस भाँति लखे खरे हैं। औ राग रोष जिस जीवन में नहीं है, सो ‘मोक्षमार्ग' जिनशासन में वही है ॥३९॥ सम्यक्त्व बोध व्रत को शिवराह राही, श्रद्धाभिभूत बन के समझो सदा ही। योगी इन्हें हि लखते दिन-रैन भाई, निर्वाण शीघ्र लहते सुख चैन स्थाई ॥४०॥ विज्ञान का सलिल सादर साधु पीते, धारें अतः विमल भाव स्वतंत्र जीते। चूड़ामणी जगत के स्वपरावभासी, वे शुद्ध सिद्ध बनते शिवधाम वासी ॥४१॥ जो ज्ञान शून्य नहिं इष्ट पदार्थ पाते, अज्ञान का फल अनिष्ट यथार्थ पाते। यों जान, ज्ञान गुण के प्रति ध्यान देना, क्या दोष क्या गुण रहा, कुछ जान लेना ॥४२॥ ज्ञानी वशी चरित के रथ बैठ त्यागी, चाहें न आत्म तज के परको विरागी। निर्धान्त वे अतुल अव्यय सौख्य पाते, दिग्भ्रान्त ही समझ तू भवदुःख पाते ॥४३॥ सम्यक्त्व संयम समाश्रय से सुहाता, चारित्र सार द्विविधा शिव को दिलाता। संक्षेप से भविक लोकन को दिखाया, श्री वीतराग जिन ने हमको जिलाया ॥४४॥ चारित्र प्राभृत रचा रुचि से सुचारा, भावो इसे अनुभवो शुचि भाव द्वारा। तो शीघ्र चारगति में भ्रमना मिटेगा, लक्ष्मी मिले मुकति में रमना मिलेगा ॥४५॥ (दोहा) चार चाँद चारित्र से जीवन में लग जाय। लगभग तम भग ज्ञान शशि उगत उगत उगजाय ॥ समकित- संयम आचरण, इस विधि द्विविध बताय। वसुविध-विधिनाशक तथा सुरसुख शिवसुखदाय॥
  8. जो भी लखा सहज से अरहंत गाया, सत् शास्त्र बाद गणनायक ने रचाया। सूत्रार्थ को समझने पढ़ शास्त्र सारे, साधे अतः श्रमण है परमार्थ प्यारे ॥१॥ सत् सूत्र में कथित आर्ष परम्परा से, जो भी मिला द्विविध सूत्र अभी जरा से। जो जान मान उसको मुनि भव्य होता, आरूढ़ मोक्ष पथ पे शिव सौख्य जोता ॥२॥ साधू विराग यदि है जिन-शास्त्र ज्ञाता, संसार का विलय है करता सुहाता। सूची न नष्ट यदि डोर लगी हुई हो, खोती नितान्त, यदि डोर नहीं लगी हो ॥३॥ साधू ससूत्र यदि है भव में भले हो, होता न नष्ट भव में भव ही टले वो। हो जीव यद्यपि अमूर्त सुसूत्र द्वारा, आत्मानुभूति कर काटत कर्म सारा ॥४॥ सूत्रार्थ है वह जिसे जिन ने बताया, जीवादि तत्त्व सब अर्थ हमें दिखाया। प्राप्तव्य त्याज्य इनमें फिर कौन होते, जो जानते नियम से समदृष्टि होते ॥५॥ जो व्यावहार परमार्थतया द्विधा है, सर्वज्ञ से कथित सूत्र सुनो! सुधा है। योगी उसे समझते शिव सौख्य पाते, वे पाप पंकपन पूरण हैं मिटाते ॥६॥ विश्वास शास्त्र पर भी नहिं धार पाते, होते सवस्त्र पद भ्रष्ट कुधी कहाते। माने तथापि निज को मुनि, ध्यान देवो, आहार भूल उनको कर में न देवो ॥७॥ सत् सूत्र पा हरिहरादिक से प्रतापी, जा स्वर्ग कोटि भव में रुलते तथापि। स्थाई नहीं सहज सिद्धि विशुद्धि पाते, संसार के पथिक हो दुख वृद्धि पाते ॥८॥ निर्भीक सिंह सम यद्यपि हैं तपस्वी, आतापनादि तपते गुरु हों यशस्वी। स्वच्छन्द हो विचरते यदि, पाप पाते, मिथ्यात्व धार कर वे भवताप पाते ॥९॥ होना दिगम्बर व अम्बर त्याग देना, आहार होकर खड़े कर पात्र लेना। है मोक्षमार्ग यह शेष कुमार्ग सारे, ऐसा जिनेश मत है बुध मात्र धारें ॥१०॥ संयुक्त साधु नियमों यम संयमों से, उन्मुक्त बाधक परिग्रह संगमों से। हो वन्द्य वो नर सुरासुर लोक में हैं, ऐसा कहें जिनप, नाथ त्रिलोक के हैं ॥११॥ बाईस दुस्सह परीषह-यातनायें, पूरा लगा बल सहें बल ना छिपायें। हैं कर्म नष्ट करने रत नग्न देही, वे वन्द्यनीय मुनि, वन्दन हो उन्हें ही ॥१२॥ सम्यक्त्व बोध युत हैं जिनलिंगधारी, जो शेष देश-व्रत पालक वस्त्रधारी। ‘इच्छामि' मात्र करने बस पात्र वे हैं, ऐसा नितान्त कहते जिन-शास्त्र ये हैं ॥१३॥ वे क्षुल्लकादि गृहकर्म अवश्य त्यागे, इच्छा सुकार पद को समझे सुजागे। शास्त्रानुसार प्रतिमाधर शुद्धदृष्टी, पाते सुरेश पद भी शिवसिद्धि सृष्टि ॥१४॥ इच्छादिकार करना निज-चाह होना, इच्छा जिन्हें न निज की गुम-राह होना। वे धर्म की सब क्रिया करते भले ही, संसार दु:ख न टले भव में रुले ही ॥१५॥ तू काय से वचन से मन से रुची से, श्रद्धान आत्म पर तो कर रे इसी से। तू जान आत्म भर को निज यत्न द्वारा, पा मोक्ष लाभ फलतः ध्रुव रत्न प्यारा ॥१६॥ दाता-प्रदत्त कर में स्थित हो दिवा में, आहार ले, न बहू बार नहीं निशा में। बालाग्र के अणु बराबर भी अपापी, साधू परिग्रह नहीं रखता कदापी ॥१७॥ है जातरूप शिशु सा मुनि धार भाता, अत्यल्प भी नहिं परिग्रह भार पाता। लेता परिग्रह मनो बहु या जरा सा, क्यों ना करे फिर तुरन्त निगोदवासा ॥१८॥ जो मानते यदि परिग्रह ग्राह्य साधू, वे वन्दनीय नहिं हैं कहलाय स्वादू। होता घृणास्पद ससंग अगार होता, निस्संग ही जिन कहें अनगार होता ॥१९॥ जो पाँच पाप तज पंच महाव्रती हैं, निर्ग्रन्थ मोक्ष-पथ पे चलते यती हैं। निर्दोष पालन करें त्रय गुप्तियाँ हैं, वे वन्दनीय, कहती जिन-सूक्तियाँ है॥२०॥ जो भोजनार्थ भ्रमते मन मौन पालें, किंवा सुवाक् समिति से कर-पात्र धारें। सिद्धान्त में कथित वो गृह-त्यागियों का, दूजा सुलिंग परमोत्तम श्रावकों का ॥२१॥ आहार बैठ, कर में इक बार पा ले, आर्या सवस्त्र वह भी इक वस्त्र धारे। स्त्री का तृतीय वर लिंग यही कहाता, चौथा न लिंग मिलता जिन-शास्त्र गाता ॥२२॥ सदृष्टि तीर्थकर हो घर में भले ही, जो वस्त्र-धारक जिन्हें शिव ना मिले ही। निर्ग्रन्थ मोक्ष-पथ ही अवशिष्ट सारे, संसार-पंथ तजते समदृष्टि वाले ॥२३॥ हों बाहु मूल तल में स्तननाभि में भी, हों सूक्ष्म जीव महिला-जन-योनि में भी। वे सर्व वस्त्र तज दीक्षित होय कैसी, आर्या सवस्त्र रहती, रहती-हितैषी ॥२४॥ सम्यक्त्व मंडित सही शुचि दर्पणा है, स्त्री योग्य संयम लिए तज दर्पणा है। घोरातिघोर यदि चारित पालती है, तो आर्यिका तब न पापवती, सती है ॥२५॥ जो मास-मास प्रति मासिक दोष ढोती, शंका बनी हि रहती मन तोष खोती। होती निसर्ग शिथिला मति से मलीना, होती स्त्रियाँ सब अत: निज ध्यानहीना ॥२६॥ अन्नादि खूब मिलते पर अल्प पायें, इच्छा मिटी कि मुनि के दुख भाग जाये। होता अपार जल यद्यपि है नदी पे, धोने स्ववस्त्र जल अल्प गहे सुधी पै ॥२७॥ (दोहा) सूत्र सूचना, सुन, सुना रहा न पर में स्वाद। सूत्र-ज्ञान कर, कर स्वयं तप, न कभी परमाद ॥ जिनवर का यह सूत्र है, सुपथ प्रकाशक दीप। धारन कर, कर में दिखे, सुख कर मोक्ष समीप ॥
  9. (वसंततिलका छन्द) श्री वर्धमान वृषभादि जिनेश्वरों को, मैं वंदना कर सुजोड़ निजी करों को। संक्षेप से सहज दर्शन-मार्ग खोलू, खोलूँ जिनागम रहस्य निजात्म धोलें ॥१॥ जो धर्म मूल वह दर्शन नाम पाया, ऐसा सुशिष्यजन को जिन ने बताया, सद्धर्म का श्रवण ध्यान लगा सुनो रे! वे वन्दनीय नहिं दर्शन-हीन कोरे ॥२॥ वे भ्रष्ट हैं पुरुष दर्शन-भ्रष्ट जो हैं, निर्वाण प्राप्त करते न निजात्म को हैं। चारित्र भ्रष्ट पुनि चारित पा सिझेंगे, पै भ्रष्ट दर्शनतया न कभी सिझेंगे ॥३॥ जाने अनेक विध आगम को तथापि, आराधना न वरती उनको कदापि। सम्यक्त्व-रत्न तज के पर में रमे हैं, वे बार-बार भवकानन में भ्रमे हैं ॥४॥ वे कोटि वर्ष तक भी तपते रहेंगे, घोराति-घोर तप भी करते रहेंगे। ना बोधिलाभ उनको मिलता तथापि, सम्यक्त्व से रहित हैं मति मंद-पापी ॥५॥ सम्यक्त्व ज्ञान बल दर्शन वीर्य से हैं, जो वर्धमान, गतमान सदा लसे हैं। कालुष्य-पूर्ण-कलिका मल पाप त्यागी, सर्वज्ञ शीघ्र बनते, मुनि-वीतरागी ॥६॥ सम्यक्त्व का झर झरा झरना झरेगा, वो साधु का हृदय शीतल तो करेगा। तो नव्य कर्म मन आ न कभी लगेगा, औ पूर्व-लिप्त मन भी धुलता धुलेगा ॥७॥ ये भ्रष्ट मात्र जिन दर्शन भ्रष्ट जो हैं, निम्नोक्त, निम्नतम-भ्रष्ट कनिष्ठ यों हैं। धिक्कार ज्ञान-व्रत-भ्रष्ट कुधी कहाते, वे तो स्वयं मिट रहे पर को मिटाते ॥८॥ धारा स्वयं नियम संयम भोग-हारी, मूलोत्तरादि गुण ले तप योग-धारी। ऐसे सुधर्मरत को कुछ भ्रष्ट स्वैरी, दोषी सुसिद्ध करते मुनि-धर्म-वैरी ॥९॥ हो मूल नष्ट जिसका, फल फूल दाता, फूले फले न फिर वो द्रुम सूख-जाता। त्यों मूल नष्ट जिन दर्शन भ्रष्ट देही, होता न मुक्त भव से न बने विदेही ॥१०॥ ज्यों मूल के वश हि वृक्ष विशाल होता, शाखोपशाख परिवार अपार ढोता। त्यों मोक्षमार्ग जिनदर्शन मूल भाता, प्यारा जिनेश-मत है इस भाँति गाता ॥११॥ जो भ्रष्ट दर्शन, सुदर्शनधारियों से, हैं चाहते पद प्रणाम व्रती-जनों से। लूले व मूक बनते परलोक में हैं, पाते न बोधि भ्रमते त्रयलोक में हैं ॥१२॥ लो! जानबूझ यदि दर्शन भ्रष्ट को ही, लज्जा प्रलोभ भय से नमता सुयोगी। पाता न बोधि जिनलिंग सुधारता भी, जो पाप की विनय है करता वृथा ही ॥१३॥ वाक्काय चित्त पर संयम पूर्ण ढोते, जो अंतरंग-बहिरंग निसंग होते। ले शुद्ध अन्न स्थित हो शुचि बोध धारें, सो जैन-दर्शन, सुएषण दोष टारे ॥१४॥ सम्यक्त्व से प्रथम उत्तम बोध होता, सबोध से सब पदार्थ सुशोध होता। सत् शोध से पुनि हिताहित ज्ञान होता, सम्यक्त्व मोक्ष-पथ में वर-दान होता ॥१५॥ ज्ञाता बने जब हिताहित के अमानी, मिथ्या कुशील तज शील सुधार ज्ञानी। स्वर्गीय वैभव विलास नितान्त पाते, औ अन्त में बन अनन्त, भवान्त जाते ॥१६॥ पीयूष है विषय सौख्य विरेचना है, पीते सुशीघ्र मिटती चिर वेदना है। भाई जरा-मरण-रोग विनाशती है, संजीवनी सुखकरी जिनभारती है ॥१७॥ है आद्य लिंग जिन-लिंग असंग भाता, दूजा सुक्षुल्लक व ऐलक का कहाता। है आर्यिका पद तृतीय जिनेश गाया, चौथा न लिंग जिनदर्शन में बताया ॥१८॥ पंचास्तिकाय छह-द्रव्य पदार्थ-नौ हो, जीवादि-तत्त्व पुनि सात यथार्थ औ हो। श्रद्धान भव्य इन ऊपर है जमाता, मानो उसे तुम सुदृष्टि वही कहाता ॥१९॥ तत्त्वार्थ में रुचि भली भव-सिन्धु सेतु, सम्यक्त्व मान उसको व्यवहार से तू। सम्यक्त्व निश्चयतया निज-आतमा ही, ऐसा जिनेश कहते शिवराह-राही ॥२०॥ सोपान जो प्रथम शाश्वत मोक्ष का है, है सार रत्न-त्रय में गुण योग का है। सम्यक्त्व रत्न वह है जिनदेव गाते, धारो उसे हृदय में अविलंब तातें ॥२१॥ जो भी बने प्रथम चारित धार लेना, श्रद्धान शेष व्रत पे फिर धार लेना। श्रद्धान ईदृश किया उस भव्य में है, सम्यक्त्व यों जिन कहें निज द्रव्य में है॥२२॥ चारित्र ज्ञान सम-दर्शन-लीन, त्यागी, तल्लीन है नियम में तप में विरागी। साधू करें सुगुण-गान गुणी-जनों का, वे वन्द्य हैं कथन यों जगदीश्वरों का ॥२३॥ निस्संग नग्न मुनि से चिढ़ता सदा है, मात्सर्य भाव उनसे रखता मुधा है। मिथ्यात्व-मंडित वही मतिमूढ़ मोही, स्वैरी रहा नियम संयम का विरोधी ॥२४॥ शीलादि के सदन है मुनि के गुणों के, जो वन्द्य खेचर नरों असुरों सुरों के। ऐसे दिगम्बर जिन्हें लख गर्व धारें, सम्यक्त्व से स्खलित वे नर सर्व सारे ॥२५॥ शास्त्रानुसार नहिं केवल वस्त्र त्यागी, वे वन्द्य हैं नहिं असंयत भी सरागी। दोनों समान इनमें कुछ भेद ना है, है एक भी नहिं यमी गुरुदेशना है ॥२६॥ ये जात-पाँत कुल भी नहिं वन्द्य होते, ना वन्द्य भी तन रहा, गुण वन्द्य होते। कोई रहे श्रमण श्रावक निर्गुणी हैं, वे वन्दनीय नहिं हैं कहते गुणी हैं ॥२७॥ जो धारते श्रमणता तपते तपस्वी, हैं शील ब्रह्मगुण से लसते यशस्वी। श्रद्धाभि-भूत वन में शुचि भाव द्वारा, वन्दै सुमुक्ति पथ को मुनि को सुचारा ॥२८॥ कल्याण में जगत के रत सर्वदा हैं, हो के निमित्त हरते जग आपदा है। चौंतीस सातिशय चौसठ चामरों से, शोभे जिनेश नित वन्द्य नरामरों से ॥२९॥ सम्यक्त्व ज्ञान तप और चरित्र प्यारे, ये हैं सभी गुण सुसंयम के पुकारें। चारों मिलें तब मिले वह मोक्ष प्यारा, ऐसा कहें कि जिनशासन है हमारा ॥३०॥ है ज्ञान सार नर का जग में कहाता, सम्यक्त्व सार नर का सबमें सुहाता। सम्यक्त्व से चरित हो वह कार्यकारी, चारित्र से मुकति हो अनिवार्य प्यारी ॥३१॥ आराधना चउ लिए जिन-लिंग धारें, सम्यक्त्व ज्ञान तप चारित पूर्ण पालें। संदेह क्या फिर भला मुनि सिद्ध होते, वे पाप पंक फलतः अविलम्ब धोते ॥३२॥ सम्यक्त्व शुद्धतम पा समदृष्टि वाले, कल्याण पंच फलतः विरले संभाले। सम्यक्त्व दिव्य मणि है जग-पूज्य तातें, क्या मर्त्य क्या सुर सुसाधु उसे पुजाते ॥३३॥ सम्यक्त्व का सुफल मानव जन्म पाता, पाता सुगोत्र कुल उत्तम सद्य पाता। सम्यक्त्व से मनुज हो यह क्या न पाता, है अंत में अमित अक्षय मोक्ष पाता ॥३४॥ चौंतीस सातिशय से लगते विराट, धारें सुलक्षण जिनेश हजार आठ। स्वामी विहार करते जबलौं सही है, है स्थावरा शुचिमयी प्रतिमा वही है ॥३५॥ योगी यथाविधि यथाबल कर्म सारे, काटे स्वकीय, तप बारह धर्म धारे। निर्वाण प्राप्त करते भव-पार जाते, आते न लौट भव में तन धार पाते ॥३६॥ (दोहा) मुनिवर की वह नग्नता रत्नत्रय का धाम। दर्शन प्राभृत में सही पाता दर्शन नाम ॥१॥ पूज्य दिगम्बर-पन अतः पूजत पाप पलाय। चरित ज्ञान दृग मिलत हैं दर्शन आप सुहाय ॥२॥
  10. देव-शास्त्र-गुरु-स्तवन ‘सन्मति' को मम नमन हो, मम मति सन्मति होय। सुर-नर-पशुगति सब मिटे गति पंचम गति होय ॥१॥ चन्दन चन्दर चांदनी, से जिनधुनि अति शीत। उसका सेवन मैं करूं मन-वच-तन कर नीत ॥२॥ सुर, सुर-गुरु तक, गुरु चरण-रज सर पर सुचढ़ाय। यह मुनि-मन गुरु भजन में, निशि-दिन क्यों न लगाय ॥३॥ श्री कुन्दकुन्दाय नमः ‘कुन्दकुन्द' को नित नमू, हृदय कुन्द खिल जाय। परम सुगंधित महक में, जीवन मम घुल जाय ॥४॥ श्री ज्ञानसागराय नमः तरणि ‘ज्ञानसागर' गुरो! तारो मुझे ऋषीश। करुणाकर! करुणा करो कर से दो आशीष ॥५॥
  11. ‘अष्टपाहुड' आचार्य श्री कुन्दकुन्द के प्राकृत ग्रन्थ 'अष्टपाहुड' का ही हिन्दी पद्यानुवाद है। प्रारम्भ में मंगलाचरण है, जिसमें सर्वप्रथम देव-शास्त्र-गुरु का स्तवन है। पुनः आचार्य श्री कुन्दकुन्द को नमस्कार है और तदनन्तर गुरु श्री ज्ञानसागरजी महाराज से विघ्नविनाशार्थ करुणापूर्ण आशीर्वाद की प्रार्थना है। अष्टपाहुडों में रचित मूल ग्रन्थ का उसी क्रम से हिन्दी पद्यानुवाद है। इसमें दर्शनपाहुड, सूत्रपाहुड, चारित्रपाहुड, बोधपाहुड, भावपाहुड, मोक्षपाहुड, लिंगपाहुड तथा शीलपाहुड का विवरण प्रस्तुत कर अन्य ग्रन्थों की तरह इसका भी समापन निर्माण के स्थान एवं समय परिचय के साथ हुआ है। अत्यन्त मनोरम नयनाभिराम नैनागिरि क्षेत्र है, जहाँ देवगण सदा विचरण करते हैं तथा ऋषि-मुनि विश्राम कर शान्ति का अनुभव करते हैं। वहीं वीर निर्वाण संवत् २५०५ (विक्रम संवत् २०३५) की कार्तिक कृष्ण अमावस्या दीपमालिका दिवस, ३१ अक्टूबर, १९७८, मंगलवार के दिन यह अनुवाद पूर्ण हुआ। अनुवाद के अन्त में इस ग्रन्थ की समाप्ति के स्थान एवं समय का परिचय आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज स्वयं इस प्रकार देते हैं- नयन मनोरम क्षेत्र हैं, नैनागिरि अभिराम। जहाँ विचरते सुर सदा, ऋषि मन ले विश्राम॥ वर्ण गगन गति गन्ध का, दीपमालिका योग। पूर्ण हुआ अनुवाद है, ध्येय मिटे भव रोग॥
  12. गुरु-स्तुति हे नेमिचन्द्र! मुनि कौमुद मोदकारी, सिद्धान्त पारग विराग चिरागधारी। दो ज्ञानसागर गुरो! मुझको सुविद्या, विद्यादिसागर बनँ तज दें अविद्या ॥ भूल क्षम्य हो लेखक कवि मैं हूँ नहीं मुझमें कुछ नहिं ज्ञान। त्रुटियाँ होवें यदि यहाँ शोध पढ़ें धीमान ॥ मंगल कामना चाहो शाश्वत मोक्ष को, चाहो केवलज्ञान। संगत्याग कर नित करो, निज का केवल ध्यान ॥ रवि से बढ़कर तेज है, शशि से बढ़कर ज्योत। झाँक देख निज में जरा, सुख का खुलता स्रोत ॥ पर में सुख कहिं है नहीं, खुद ही सुख की खान। निजी नाभि में गंध है, मृग भटके बिन ज्ञान ॥ आत्म कथा तज क्यों करो,नित विकथा निस्सार। पय तज, पीते विष भला, क्यों हो निज उद्धार ॥ प्रतिदिन सविनय चाव से, इसको पढ़ तू! भव्य। सुर सुख शिव सुख नियम से, पाते अक्षय द्रव्य ॥ समय एवं स्थान परिचय देव गगन गति गंध की, तिथि श्रुत पंचमि सार। ग्राम अभाना में लिखा, ध्येय मिले भव पार॥
  13. (मंगलाचरण) देवाधिदेव जिन नायक ने किया है, जो जीव का कथन द्रव्य अजीव का है। सौ-सौ सुरेन्द्र झुकते जिनके पदों में, वन्दू सदा विनत हो उनको अहो मैं ॥१॥ भोक्ता स्वदेह परिमाण सुसिद्ध स्वामी, होता स्वभाव वश हो वह ऊर्ध्वगामी। कर्ता अमूर्त उपयोगमयी तथा है, सो जीव जीवभर की नव ये कथा है॥२॥ उच्छ्वास स्वाँस बल इन्द्रिय आयु प्यारे, ये चार प्राण जग जीव त्रिकाल धारे। संगीत यों गुन-गुना व्यवहार गाता, पै जीव में नियम से चिति प्राण भाता ॥३॥ ज्ञानोपयोग इक दर्शन नाम पाता, यों जीव का द्विविध है उपयोग भाता। चक्षु अचक्षु अवधी वर केवलादि, ये चार भेद उस दर्शन के अनादि ॥४॥ मिथ्या, सही मति श्रुतावधि ज्ञान तीनों, कैवल्य ज्ञान मनपर्यय ज्ञान दोनों। यों ज्ञान अष्ट विध हैं गुरु हैं बताते, प्रत्यक्ष ज्ञान चहुँ चार परोक्ष भाते ॥५॥ यों चार आठ विध दर्शन-ज्ञानवाला, सामान्य जीव परिलक्षण है निराला। ऐसा स्वगीत व्यवहार सुना रहा है, पै शुद्ध ‘ज्ञान दृग' निश्चय गा रहा है ॥६॥ ये पंच पंच वसु दो रस वर्ण स्पर्श, गंधादि जीव गुण को करते न स्पर्श। सो जीव निश्चय-तया कि अमूर्त भाता, पै मूर्त बन्ध वश है व्यवहार गाता ॥७॥ आत्मा विशुद्धनय से शुचि धर्म का है, औ व्यावहार वश पुद्गल कर्म का है। कर्ता अशुद्धनय से रति भाव का है, चैतन्य के विकृत भाव विभाव का है ॥८॥ रे व्यावहार नय से विधि के फलों को, है भोगता सुख, दुखों जड़ पुद्गलों को। आत्मा विशुद्धनय से निज-चेतना को, पै भोगता तुम सुनो जिन-देशना को ॥९॥ विस्तार संकुचन शक्ति-तया शरीरी, छोटा बड़ा तन प्रमाण दिखे विकारी। पै छोड़ के समुद्घात दशा हितैषी, है वस्तुतः; सकल जीव असंख्यदेशी ॥१०॥ पृथ्वी जलानल समीर तथा लतायें, एकेन्द्रि जीव सब थावर ये कहायें। हैं धारते करण दो त्रय चार पंच, शंखादि जीव त्रस हैं सुख है न रंच ॥११॥ संज्ञी कहाय समना अमना असंज्ञी, पंचेन्द्रि हो द्विविध शेष सभी असंज्ञी। एकेन्द्रि जीव सब बादर सूक्ष्म होते, पर्याप्त औ इतर ये दिन-रैन रोते ॥१२॥ है मार्गणा व गुणथान तथा विकारी, होते चतुर्दश चतुर्दश कायधारी। गाता अशुद्धनय यों सुन भव्य! प्यारे, पै शुद्ध, शुद्धनय से, जग जीव सारे ॥१३॥ उत्पाद ध्रौव्य व्यय लक्षण से लसे हैं, लोकाग्र में स्थित शिवालय में बसे हैं। वे सिद्ध न्यून कुछ अंतिम काय से हैं, निष्कर्म अक्षय सजे गुण आठ से हैं ॥१४॥ आकाश पुद्गल व धर्म अधर्म काल, ये हैं अजीव सुन तू अयि भव्य बाल। रूपादि चार गुण पुद्गल में दिखाते, है मूर्त पुद्गल न, शेष अमूर्त भाते ॥१५॥ संस्थान भेद तम स्थूलपना व छाया, औ सूक्ष्मता करम बंधन शब्द माया। उद्योत आतप यहाँ जग में दिखाते, पर्याय वे सकल पुद्गल के कहाते ॥१६॥ धर्मास्तिकाय खुद ना चलता चलाता, पै प्राणि पुद्गल चले गति है दिलाता। मानो चले न यदि वे न उन्हें चलाता, ज्यों नीर मीन-गति में, गति दान-दाता ॥१७॥ ज्यों जीव पुद्गल रुके स्थिति है दिलाता, होता अधर्म वह है स्थिति दान-दाता। मानों चले, नहिं रुके स्थिति दे न भाई, छाया यथा पथिक को स्थिति में सहाई ॥१८॥ जीवादि द्रव्य दल को अवकाश देता, आकाश सो कह रहे जिन आत्म जेता। होता वही द्विविध लोक अलोक द्वारा, ऐसा सदा समझ तू जिन शास्त्र सारा ॥१९॥ जीवादि द्रव्य छह ये मिलते जहाँ है, माना गया अमित लोक वही यहाँ है। आकाश केवल, अलोक वही कहाता, ऐसा वसन्ततिलका यह छन्द गाता ॥२०॥ जीवादि द्रव्य परिवर्तन रूप न्यारा, औ पारिणाममय लक्षण आदि धारा। तू मान काल व्यवहार वही कहाता, पै वर्तनामय सुनिश्चिय काल भाता ॥२१॥ जो एक-एक करके चिर से लसे हैं, जो लोक के प्रति प्रदेशन में बसे हैं। कालाणु हैं रतन राशि समान प्यारे, होते असंख्य कहते ऋषि संत सारे ॥२२॥ हैं द्रव्य भेद छह जीव अजीव द्वारा, श्री वीर ने सदुपदेश दिया सुचारा। हैं अस्तिकाय इनमें बस पंच न्यारे, पै काल के बिना सुनो अयि भव्य प्यारे ॥२३॥ जीवादि क्योंकि जब हैं इनको इसी से, श्री वीर ‘अस्ति' इस भाँति कहें सदी से। औ काय से सब सदैव बहुप्रदेशी, है ‘अस्तिकाय फलत:' समझो हितैषी ॥२४॥ आकाश में अमित जीव व धर्म में हैं, होते असंख्य परदेश अधर्म में हैं। है मूर्त संख्य गतसंख्य अनन्त देशी, ना काल काय फलतः इक मात्र देशी ॥२५॥ है मूर्त यद्यपि रहा अणु एक देशी, होता अनेक मिल के अणु नैक देशी। तो अस्तिकाय फलतः उपचार से है, सर्वज्ञ यों कह रहे व्यवहार से है॥२६॥ जो पुद्गलाणु जड़ है अविभाज्य न्यारा, आकाश को कि जितना वह घेर डाला। माना गया वह प्रदेश यहाँ अकेला, सर्वाणु स्थान यदि ले वह दे सकेगा ॥२७॥ जो पुण्य पाप विधि आस्रव बंध तत्त्व, औ निर्जरा सुखद संवर मोक्ष-तत्त्व। ये भी विशेष सब जीव अजीव के हैं, संक्षेप से गुरु उन्हें कह तो रहे हैं ॥२८॥ तो! आत्म के उस निजी परिणाम से जो, हो कर्म आगमन हा! अविलम्ब से वो। है भाव आस्रव वही अरु कर्म आना, है द्रव्य आस्रव यही गुरु का बताना ॥२९॥ मिथ्यात्व औ अविरती व प्रमाद-योग, क्रोधादि भावमय आस्रव दुःख योग। ये पाँच-पाँच दश पाँच त्रि चार होते, देही इन्हें धर सदैव अपार रोते ॥३०॥ मोहादि कर्म-पन में ढल पुद्गलों का, आता समूह जड़ आतम में जड़ों का। हो द्रव्य आस्रव वही बहु-भेद वाला, ऐसा जिनेश कहते सुख वेद शाला ॥३१॥ जो कर्म बन्ध जिस चेतन भाव से हो, है भाव बन्ध वह दूर स्वभाव से हो। दोनों मिले जब परस्पर कर्म आत्मा, सो द्रव्यबन्ध जिससे निज धर्म खात्मा ॥३२॥ है बन्ध चार विध है प्रकृति प्रदेशा, औ आनुभाग थिति है कहते जिनेशा। ही योग से प्रकृति बंध प्रदेश होते, भाई कषाय वश शेष हमेश होते ॥३३॥ है भाव आस्रव-निरोधन में सहाई, चैतन्य से उदित जो परिणाम भाई। सो भाव-संवर सुनिश्चय ने पुकारा, द्रव्यास्रवा रुकत संवर द्रव्य न्यारा ॥३४॥ ये गुप्तियाँ समितियाँ व्रत साधनाएँ, सत्यादि धर्म दश द्वादश भावनाएँ। औ जीतना परिषहों सुचरित्र नाना, हैं भाव-संवर सभी गुरु का बताना ॥३५॥ भोगा गया करम का झड़ना सुचारा, कालानुसार तप से निज भाव द्वारा। सो भाव, भावमय निश्चित निर्जरा है, औ कर्म का झरण द्रव्य सुनो जरा है॥ सत् त्याग से विधि-झरे अविपाक सो है, छूटे विधी समय पे सविपाक सो है। यों निर्जरा यह नितान्त द्विधा-द्विधा है, प्राप्तव्य मार्ग अविपाक भली सुधा है॥३६॥ जो आत्म भाव सब कर्म विनाश हेतु, सो भाव-मोक्ष सुन ले जिनदास रे तू। औ आत्म से पृथक हो जड़ कर्म सारे, सो द्रव्य-मोक्ष मिलता जिन धर्म धारे ॥३७॥ देही शुभाशुभ विकार विभावधारी, है पुण्य-पापमय निश्चय से विकारी। होता शुभायु शुभगोत्र सुनाम साता, है पुण्य शेष बस! पाप किसे सुहाता ॥३८॥ रे मोक्ष का सुखद कारण ही वही है, विज्ञान औ चरित दर्शन जो सही है। ऐसा कहे कि व्यवहार यथार्थ में तो, रत्नत्रयात्मक निजात्म निजार्थ में हो ॥३९॥ रे! आत्म द्रव्य तज अन्य पदार्थ में वो, ज्ञानादि रत्नत्रय ही न यथार्थ में हो। आत्मा रहा इन त्रयात्मक ही स्वतः है, सो मोक्षकारण निजातम ही अतः है॥४०॥ है आत्म रूप वह जीव अजीव श्रद्धा, सम्यक्त्व, किन्तु करता न अभव्य श्रद्धा। सम्यक्त्व होय तब ज्ञान सुचारु सच्चा, संमोह संशय विमुक्त सुहाय अच्छा ॥४१॥ संमोह संभ्रम ससंशय हीन प्यारा, कल्यान खान वह ज्ञान प्रमाण प्याला। माना गया स्व पर भाव-प्रभाव दर्शी, साकार नैक विधि शाश्वत सौख्यस्पर्शी ॥४२॥ साकार के बिन विशेष किये बिना ही, सामान्य द्रव्य भर का वह मात्र ग्राही। है भव्य मान वह दर्शन नाम पाता, ऐसा जिनागम यहाँ अविराम गाता ॥४३॥ हो पूर्व दर्शन जिसे फिर ज्ञान होता, छद्मस्थ दो न युगपत् उपयोग ढोता। दो एक साथ उपयोग महाबली को, मेरा उन्हें नमन हो जिन केवली को ॥४४॥ जो त्यागता अशुभ को शुभ को निभाना, मानो उसे हि व्यवहार चरित्रवाना। ये गुप्तियाँ समितियाँ व्रत आदि सारे, जाते अवश्य व्यवहार-तया पुकारे ॥४५॥ जो बाह्य भीतर क्रिया भववर्धिनी है, ज्ञानी निरोध उनका करते गुणी हैं। वे ही यमी चरित निश्चय धार पाते, ऐसा जिनेश कहते भव-पार जाते ॥४६॥ है मोक्षमार्ग द्वय को अनिवार्य पाता, सद्ध्यान लीन मुनि वो निजकार्य धाता। भाई अतः यतन से शुचि भाव से रे, अभ्यास ध्यान निज का कर चाव से रे ॥४७॥ हो चित्त को अचल मेरु अहो बनाना, हो चाहते सहज ध्यान सदा लगाना। अच्छे बुरे सुखद दु:खद वस्तुओं में, ना मोह द्वेष रति राग करो जड़ों में ॥४८॥ पैंतीस सोलह छ पाँच व चार दो एक, जो शब्द वाचक रहे परमेष्ठियों के। या अन्य भी पद मिले गुरु-देशना से, ध्यावो उन्हें तुम जपो शुचि चेतना से ॥४९॥ जो घाति कर्म दल को जड़ से मिटाया, संपूर्ण ज्ञान सुख-दर्शन-वीर्य पाया। औ दिव्य देह स्थित है अरहन्त आत्मा, है ध्येय-ध्यान उसका कर अन्तरात्मा ॥५०॥ द्रष्टा व ज्ञायक त्रिलोक अलोक के हैं, आसीन जो शिखर पे त्रयलोक के हैं। दुष्टाष्ट कर्म तन वर्जित ध्येय प्यारे, आकार से पुरुष सिद्ध सदैव ध्या! रे ॥५१॥ आचार पंच तप चारित्र वीर्य प्यारा, औ ज्ञान दर्शन जिनागम ने पुकारा। आचार में रत स्वयं पर को कराता, आचार्यवर्य मुनि ध्येय वही कहाता ॥५२॥ धर्मोपदेश समयोचित नित्य देते, ज्ञानादि रत्नत्रय में रस पूर्ण लेते। होते यतीश उवझाय प्रवीण तातें, हो आपके चरण में हम लीन जातें ॥५३॥ सम्यक्त्व ज्ञान समवेत चरित्र होता, है मोक्षमार्ग वह है सुख को सँजोता। जो साधते सतत हैं उसको सुचारा, वे साधु हैं नमन हो उनको हमारा ॥५४॥ कोई पदार्थ मन में सुविचारता है, हो वीतराग मुनि राग विसारता है। एकत्व को नियम से वह शीघ्र पाता, संसार में सुखद निश्चय ध्यान ध्याता ॥५५॥ चिन्ता करो न कुछ भी मन से न डोलो, चेष्टा करो न तन से मुख को न खोलो। यों योग में गिरि बनो शुभ ध्यान होता, आत्मा निजात्म रत ही वरदान होता ॥५६॥ सद्ज्ञान पा तप महाव्रत धार पाता, वो साधु ध्यान-रथ बैठ स्वधाम जाता। सध्यान पूर्ण सधने तुम तो इसी से, ज्ञानादि में निरत हो नित हो रुची से ॥५७॥ मैं ‘नेमिचन्द्र' मुनि हूँ मति मन्दधी हूँ, है ‘द्रव्य संग्रह' लिखा लघु हूँ यमी हूँ। विज्ञान कोष गत-दोष सुसाधु नेता, शोधे इसे बस यही मन-अक्ष-जेता ॥५८॥
  14. जीव सचेतन द्रव्य रहे हैं तथा अचेतन शेष रहें, जिनवर में भी जिनपुंगव वे इस विध जिन वृषभेश कहें। शत-शत सुरपति शत-शत वंदन जिन चरणों में सिर धरते, उन्हें नहूँ मैं भाव-भक्ति से मस्तक से झुक-झुक करके ॥१॥ सुनो! जीव उपयोग-मयी है तथा अमूर्तिक कहलाता। स्व-तन बराबर प्रमाणवाला कर्ता - भोक्ता है भाता ॥ ऊर्ध्वगमन का स्वभाव-वाला सिद्ध तथा है अविकारी। स्वभाव के वश विभाव के वश कसा कर्म से संसारी ॥२॥ आयु, श्वास और बल इन्द्रिय यूँ चार प्राण को धार रहा। विगत, अनागत, आगत में यह जीव रहा व्यवहार रहा ॥ किन्तु जीव का सदा-सदा से मात्र चेतना श्वास रहा। निश्चय नय का कथन यही है दिला हमें विश्वास रहा ॥३॥ आतम में उपयोग द्विविध है आगम ने यह गाया है। ज्ञान रूप औ दर्शनपन में गुरुवर ने समझाया है ॥ ज्ञात रहे फिर दर्शन भी वह चउविध माना जाता है। अचक्षुदर्शन चक्षु अवधि औ केवलदर्शन साता है ॥४॥ मति-श्रुत दो-दो और अवधि दो उलट-सुलटे चलते हैं। मन-पर्यय औ केवल दो यूँ ज्ञान भेद वसु मिलते हैं। मति-श्रुत परोक्ष, शेष सभी हो विकल-सकल प्रत्यक्ष रहे। लोकालोकालोकित करते त्रिभुवन के अध्यक्ष कहें ॥५॥ आतम का साधारण लक्षण वसु-चउ-विध उपयोग रहा। गीत रहा व्यवहार गा रहा सुनो! जरा उपयोग लगा ॥ किन्तु शुद्धनय के नयनों में शुद्ध ज्ञान-दर्शनवाला। आतम प्रतिभासित होता है बुध-मुनि मन हर्षणहारा ॥६॥ पंच रूप रस पंच, गंध दो आठ स्पर्श सब ये जिनमें। होते ना हैं ‘जीव' वही है कथन किया है यूँ जिन ने ॥ इसीलिए हैं जीव अमूर्तिक निश्चय-नय ने माना है। जीव मूर्त व्यवहार बताता कर्मबंध का बाना है ॥७॥ पुद्गल कर्मादिक का कर्ता जीव रहा व्यवहार रहा। रागादिक चेतन का कर्ता अशुद्धनय से क्षार रहा ॥ विशुद्ध नय से शुद्धभाव का कर्ता कहते संत सभी। शुद्धभाव का स्वागत कर लो कर लो भव का अंत अभी ॥८॥ आतम को कृत-कर्मों का फल सुख-दुख मिलता रहता है। जिसका वह व्यवहार भाव से भोक्ता बनता रहता है ॥ किन्तु निजी शुचि चेतन भावों का भोक्ता यह आतम है। निश्चयनय की यही दृष्टि है कहता यूँ परमागम है ॥९॥ समुद्घात बिन सिकुड़न-प्रसरण-स्वभाव को जो धार रहा। लघु-गुरु तन के प्रमाण होता जीव यही व्यवहार रहा ॥ स्वभाव से तो जीवात्मा में असंख्यात-परदेश रहे। निश्चयनय का यही कथन है संतों के उपदेश रहे ॥१०॥ पृथिवी-जल-अगनी-कायिक औ वायु-वृक्ष-कायिक सारे। बहु-विध स्थावर कहलाते हैं मात्र एक इन्द्रिय धारे॥ द्वय-तिय-चउ-पञ्चेन्द्रिय-धारक त्रसकायिक प्राणी जाने। भवसागर में भ्रमण कर रहे कीट पतंगे मनमाने ॥११॥ द्विविध रहे हैं पञ्चेन्द्रिय भी, रहित मन औ सहित-मना । शेष जीव सब रहित-मना हैं कहते इस विध विजितमना ॥ स्थावर, बादर सूक्ष्म द्विविध हैं दुःख से पीड़ित हैं भारी। फिर सब ये पर्याप्त तथा हैं पर्याप्तेतर संसारी ॥१२॥ तथा मार्गणाओं में चौदह गुणस्थानों में मिलते हैं। अशुद्ध-नय से प्राणी-भव में युगों-युगों से फिरते हैं। किन्तु सिद्ध-सम विशुद्ध-तम हैं सभी जीव ये अविकारी। विशुद्धनय का विषय यही है विषय-त्याग दे अघकारी ॥१३॥ अष्ट कर्म से रहित हुए हैं अष्ट गुणों से सहित हुए। अंतिम तन से कुछ कम आकृति ले अपने में निहित हुए। तीन लोक के अग्रभाग पर सहज रूप से निवस रहे। उदय नाश-ध्रुव स्वभाव युत हो शुद्ध सिद्ध हो विलस रहे ॥१४॥ पुद्गल-अधर्म-धर्म-काल-नभ पाँच द्रव्य इनको मानो। चेतनता से दूर रहें ये ‘अजीव' तातै पहिचानो ॥ रूपादिक गुण धारण करता मूर्त द्रव्य ‘पुद्गल' नाना। शेष द्रव्य हैं अमूर्त क्यों फिर मूर्ती पर मन मचलाना? ॥१५॥ टूटन - फूटन रूप भेद औ सूक्ष्म स्थूलता आकृतियाँ । श्रवणेन्द्रिय के विषय-शब्द भी प्रतिछवि छाया या कृतियाँ ॥ चन्द्र, चाँदनी रवि का आतप अंधकार आदिक समझो । ‘पुद्गल' की ये पर्याये हैं पर्यायों में मत उलझो ॥१६॥ गमन कार्य में निरत रहे जब जीव तथा पुद्गल भाई। धर्म द्रव्य तब बने सहायक प्रेरक बनता पर नाही ॥ मीन तैरती सरवर में जब जल बनता तब सहयोगी। रुकी मीन को गति न दिलाता उदासीन भर हो, योगी! ॥१७॥ किसी थान में रुकते हों जब जीव तथा पुद्गल भाई। अधर्म उसमें बने सहायक प्रेरक बनता पर नाही ॥ रुकने वाले पथिकों को तो छाया कारण बनती है । चलने वालों को न रोकती उदासीनता ठनती है ॥१८॥ योग्य रहा अवकाश दान में जीवादिक सब द्रव्यों को। वही रहा आकाश द्रव्य है समझाते जिन भव्यों को ॥ दो भागों में हुआ विभाजित बिना किसी से वह भाता। एक ख्यात है लोक नाम से अलोक न्यारा कहलाता ॥१९॥ जीव द्रव्य औ अजीव पुद्गल काल-द्रव्य आदिक सारे। जहाँ रहें बस ‘लोक' वही है लोकपूज्य जिनमत प्यारे॥ तथा लोक के बाहर केवल फैला जो आकाश रहा। अलोक वह है केवल-दर्पण में लेता अवकाश रहा ॥२०॥ जीव तथा पुद्गल पर्यायों की स्थिति अवगत जिससे हो। लक्षण वह व्यवहार काल का परिणामादिक जिसके हो ॥ तथा वर्तना लक्षण जिसका ‘काल' रहा परमार्थ वही। समझ काल को उदासीन पर वर्णन का फलितार्थ यही ॥२१॥ इक-इक इस आकाश देश में इक-इक कर ही काल रहा। रत्नों की वह राशि यथा हो फलतः अणु-अणु काल कहा ॥ परिगणनायें ये सब मिलकर अनन्त ना पर अनगिन हैं । स्वभाव से तो निष्क्रिय इनको कौन देखते बिन जिन हैं ॥२२॥ जीव - भेद से अजीव पन से द्रव्य मूल में द्विविध रहा। धर्मादिक वश षड् विध हो फिर उपभेदों से विविध रहा ॥ किन्तु काल तो अस्तिकाय पन से वर्जित ही माना है। शेष द्रव्य हैं, अस्तिकाय यूँ ‘ज्ञानोदय' का गाना है ॥२३॥ चिर से हैं ये सारे चिर तक इनका होना नाश नहीं। इन्हें इसी से ‘अस्ति' कहा है जिन ने जिनमें त्रास नहीं ॥ काया के सम बहु-प्रदेश जो धारे उनको ‘काय' कहा। तभी अस्ति औ काय मेल से ‘अस्तिकाय' कहलाय यहाँ ॥२४॥ एक जीव में नियम रूप से असंख्यात परदेश रहे। धर्म-द्रव्य औ अधर्म भी वह उतने ही परदेश गहे ॥ अनन्त नभ में पर पुद्गल में संख्यासंख्यानंत रहे। एक 'काल' में तभी काल ना काय रहा अरहंत कहें ॥२५॥ प्रदेश इक ही पुद्गल-अणु में यद्यपि हमको है मिलता। रूखे-चिकने स्वभाव के वश नाना स्कन्धों में ढलता ॥ होता बहुदेशी इस विध अणु यही हुआ उपचार यहाँ। सर्वज्ञों ने अस्तिकाय फिर उसे कहा श्रुत-धार यहाँ ॥२६॥ जिसमें कोई भाग नहीं उस अविभागी पुद्गल अणु से। व्याप्त हुआ आकाश-भाग वह ‘प्रदेश' माना है जिन से ॥ किन्तु एक आकाश देश में सब अणु मिलकर रह सकते। वस्तु तत्त्व में बुधजन रमते जड़ जन संशय कर सकते ॥२७॥ आस्रव-बन्धन-संवर-निर्जर तिहा मोक्ष तत्त्व भी बतलाया। सात-तत्त्व नव पदार्थ होते पाप-पुण्य को मिलवाया ॥ जीव - द्रव्य औ पुद्गल की ये विशेषताएँ मानी हैं। कुछ वर्णन अब इनका करती, जिन-गुरुजन की वाणी है ॥२८॥ द्रव्यास्रव औ भावास्रव यों माने जाते आस्रव दो। आतम के जिन परिणामों से कर्म बने भावास्रव सो॥ कर्म-वर्गणा जड़ हैं जिनका कर्म रूप में ढल जाना। द्रव्यास्रव बस यही रहा है जिनवर का यह बतलाना ॥२९॥ मिथ्या-अविरत पाँच-पाँच हैं त्रिविध-योग का बाना है। पन्द्रह-विध है प्रमाद होता कषाय-चउविध माना है ॥ भावास्रव के भेद रहे ये रहे ध्यान में जिनवचना। ध्येय रहे आस्रव से बचना जिनवचना में रच पचना ॥३०॥ ज्ञानावरणादिक कर्मों में ढलने की क्षमता वाले। पुद्गल - आस्रव द्रव्यास्रव' है जिन कहते समता वाले ॥ रहा एक विध-द्विविध रहा वह चउविध, वसुविध, विविध रहा। दुखद तथा है, जिसे काटता निश्चित ही मुनि-विबुध रहा ॥३१॥ द्रव्य-भावमय ‘बन्ध' तत्त्व भी द्विविध रहा है तुम जानो। चेतन भावों से विधि बँधता भाव-बन्ध सो पहिचानो ॥ आत्म-प्रदेशों कर्म प्रदेशों का आपस में घुल-मिलना। द्रव्य-बन्ध है बन्धन टूटे आपस में हम तुम मिलना ॥३२॥ प्रदेश, अनुभव तथा प्रकृति थिति ‘द्रव्य बन्ध' भी चउविध है। प्रशम -भाव के पूर, जिनेश्वर-पद-पूजक कहते बुध हैं ॥ प्रदेश का औ प्रकृति-बन्ध का ‘योग’ रहा वह कारण है। अनुभव-थिति बन्धों का कारण कषाय' है वृष -मारण है ॥३३॥ चेतनगुण से मंडित जो है, आतम का परिणाम रहा। कर्मास्रव के निरोध में है कारण सो अभिराम रहा ॥ यही भाव-संवर' है माना स्वाश्रित है सम्बल वर है। कर्मास्रव का रुक जाना ही रहा द्रव्य-संवर' जड़ है ॥३४॥ पञ्च-समितियाँ तीन-गुप्तियाँ पञ्च-व्रतों का पालन हो। बार-बार बारह-भावन भी दश-धर्मों का धारण हो । तथा विजय हो परीषहों पर बहुविध-चारित में रमना। भेद भाव-संवर' के ये सब रमते इनमें वे श्रमणा ॥३५॥ अपने सुख-दुख फल को देकर जिन भावों से विधि झड़ना। यथाकाल या तप-गरमी से भाव-निर्जरा उर धरना ॥ पुद्गल कर्मों का वह झड़ना द्रव्य-निर्जरा यहाँ कही। भाव-निर्जरा द्रव्य-निर्जरा सुनो! निर्जरा द्विधा रही ॥३६॥ सब कर्मों के क्षय में कारण आतम का परिणाम रहा। भाव-मोक्ष वह यही बताता जिनवर मत अभिराम रहा ॥ आत्म -प्रदेशों से अति-न्यारा तन का, विधि का हो जाना। ‘द्रव्य-मोक्ष' है, मोक्षतत्त्व भी द्रव्य-भावमय सोपाना ॥३७॥ शुभ-भावों से सहित हुआ सो जीव पुण्य हो आप रहा। अशुभ-भाव से घिरा हुआ ही जीव आप हो पाप रहा ॥ सुर-नर-पशु की आयु-तीन ये उच्चगोत्र औ सुख साता। नाम-कर्म सैंतीस पुण्य हैं, शेष पाप हैं दुखदाता ॥३८॥ सच्चादर्शन तत्त्वज्ञान भी सच्चा, सच्चा चरण तथा। ‘मोक्षमार्ग-व्यवहार' यही है प्रथम यही है शरण-कथा ॥ परन्तु ‘निश्चय-मोक्षमार्ग' तो निज आतम ही कहलाता। क्योंकि आतमा इन तीनों से तन्मय होकर वह भाता ॥३९॥ ज्ञानादिक ये तीन रतन तो आत्मा में ही झिल-मिलते। शेष सभी द्रव्यों में झांको कभी किसी को ना मिलते ॥ इसीलिए इन रत्नों में नित तन्मय हो प्रतिभासित है। माना निश्चय मोक्षसौख्य का, कारण आतम भावित है ॥४०॥ जीवाजीवादिक तत्त्वों पर करना जो श्रद्धान सही। ‘सम-दर्शन' है वह आतम का स्वरूप माना,जान सही ॥ जिसके होने पर क्या कहना संशय - विभ्रम भगते हैं। समीचीन तो ज्ञान बने वह प्राण-प्राण झट जगते हैं ॥४१॥ विमोह-विभ्रम जहाँ नहीं है संशय से जो दूर रहा। निज को निज ही, पर को पर ही जान रहा, ना भूल रहा ॥ समीचीन बस ‘ज्ञान' वही है बहुविध हो साकार रहा। मन-वच-तन से गुणीजनों का जिसके प्रति सत्कार रहा ॥४२॥ दृश्य रही कुछ अदृश्य भी हैं लघु कुछ, गुरु कुछ ‘वस्तु' रही। इसी तरह बस तरह-तरह की स्वभाववाली अस्तु सही ॥ ‘दर्शन' तो सामान्य मात्र को विषय बनाता अपना है। विषय भेद तो 'ज्ञान' कराता जिनमत का यह जपना है ॥४३॥ पूर्ण-ज्ञान वह जिन्हें प्राप्त ना उन्हें प्रथम तो दर्शन हो। बाद ज्ञान उपयोग नहीं दो एक-साथ, कब दर्शन हो? पूर्ण - ज्ञान से पूर्ण - सुशोभित केवलज्ञानी बने हुए। एक साथ उपयोग धरे दो अन्तर्यामी बने हुए ॥४४॥ अशुभ-भावमय पाप-वृत्ति को मन-वच-तन से जो तजना। शुभ में प्रवृत्ति करना समुचित ‘चारित' है मन रे भजना ॥ यह ‘चारित्र-व्यवहार' कहाता समिति-गुप्ति व्रत वाला है। इस विध जिनशासन है गाता सुधा-सुपूरित प्याला है ॥४५॥ बाहर की भी भीतर की भी क्रिया मात्र को बंद किया। भव के कारण पूर्ण मिटाना यही मात्र सौगंध लिया ॥ उस ज्ञानी का जीवन ही वह रहा परम शुचि चारित है। जिनवाणी का यही बताना मुनीश्वरों से धारित है ॥४६॥ निश्चय औ व्यवहार भेद से द्विविध यहाँ शिव-पंथ रहा। ध्यान काल में निश्चित उसको पाता है मुनि संत अहा ॥ इसीलिए तुम दत्त-चित्त हो एक-मना हो विजित-मना। सतत करो अभ्यास ध्यान का शीघ्र बनो फिर विगत-मना ॥४७॥ शुद्धातम के सहज - ध्यान में होना जब है तल्लीना। चंचल मन को अविचल करना चाहो यदि निज-आधीना ॥ मोह करो मत, राग करो मत, द्वेष करो मत, तुम तन में। इष्ट रहे कुछ, अनिष्ट भी हैं पदार्थ मिलते त्रिभुवन में ॥४८॥ णमोकार ‘पैंतीस वर्ण का मन्त्र रहा सोलह, छह का। पाँच, चार, दो इक वर्गों का द्वार-ध्यान का, निज-गृह का ॥ यों परमेष्ठी-वाचक वर्गों का नियमित जप-ध्यान करो। या गुरु-संकेतों पर मन को कीलित कर अवधान करो ॥४९॥ घाति-कर्म चउ समाप्त करके शुद्ध हुए जो आप्त हुए। अनन्त-दर्शन अनन्त-सुख-बल पूर्ण- ज्ञान को प्राप्त हुए ॥ परमौदारिक तन-धारक हो परम पूज्य अरहन्त हुए। इन्हें बनाओ ध्येय ध्यान में जय! जय! जय! जयवंत हुये ॥५०॥ लोक शिखर पर निवास करते तीन-लोक के नायक हैं। लोकालोकाकाश तत्त्व के केवलदर्शक-ज्ञायक हैं। पुरुष रूप आकार लिए हैं ‘सिद्धातम' हैं कहलाते। स्व-तन-कर्म को नष्ट किये हैं ध्यावें उनको हम तातें ॥५१॥ दर्शन-ज्ञानाचार प्रमुख कर चरित-वीर्य-तप खुद पालें। पालन करवाते औरों से शिव-पथ पर चलने वाले ॥ ये हैं मुनि 'आचार्य' हमारे पूज्यपाद पालक प्यारे। ध्यान इन्हीं का करें रात-दिन विनीत हम बालक सारे ॥५२॥ भव्य - जनों को धर्म-देशना देने में नित निरत रहें। तीन-रतन से मण्डित होते लौकिकता से विरत रहें। ‘उपाध्याय' ये पूज्य कहाते यतियों के भी दर्पण हैं। मनसा-वचसा-वपुषा इनको नमन कोटिशः अर्पण हैं ॥५३॥ यथार्थ दर्शन तथा ज्ञान से नियम रूप से सहित रहे। निरतिचार वह ‘चारित ही है मोक्षमार्ग' यह विदित रहे ॥ इसी चरित की ‘साधु’ साधना सदा सर्वदा करता है। ध्यान-साधु का करो इसी से सभी आपदा हरता है ॥५४॥ चिंता क्या है, चिन्तन कुछ भी साधु करें वह, पर इतना। ध्यान रहे बस निरीहता का साधुपना पनपे उतना ॥ एक ताजगी निरी-एकता पाता निश्चित साधु वही। यही ध्यान है निश्चय समझो साधु बनो! पर स्वादु नहीं ॥५५॥ कुछ भी स्पन्दन तन में मत ला बंद-मुखी हो, जल्प न हो। चिंता, चिन्तन मन में मत कर चेतन फलतः निश्चल हो ॥ अपने ही आतम में अपना अविचल हो, जो रमना है। ध्यान रहे यह परम ध्यान है और ध्यान तो भ्रमणा है ॥५६॥ व्रत के धारक, तप के साधक श्रुत-आराधक बना हुआ। वही ध्यान-रथ-धुरा सु-धारे नियम रहा यह बँधा हुआ ॥ इसीलिए यदि सुनो तुम्हें भी ध्यानामृत को चखना है। व्रत में, तप में, श्रुत में निज को निशिदिन तत्पर रखना है ॥५७॥ बिन्दु मात्र श्रुत का धारक हूँ, पार सिन्धु का कब पाता। नेमिचन्द्र नामक मुनि मुझसे लिखा ‘द्रव्यसंग्रह' साता ॥ दूर हुए दोषों से कोसों - श्रुत - कोषों से पूर हुए। शोधे वे 'आचार्य' इसे यदि भाव यहाँ प्रतिकूल हुए ॥५८॥
  15. ५८ गाथाबद्ध जैन शौरसेनी प्राकृत भाषा का एक लघु ग्रन्थ है, जिसमें षट् द्रव्यों का सलक्षण एवं सभेद संक्षिप्त प्रतिपादन हुआ है, अतः अध्यात्म-ग्रन्थ है। लघु होता हुआ भी यह बड़ा महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि गागर में सागर वाली उक्ति चरितार्थ होती है। वीर निर्वाण संवत् २५०४, विक्रम संवत् २०३५ की श्रुतपंचमी-ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी, शनिवार, ११ जून १९७८ को ग्राम अभाना, दमोह (म० प्र०) में इस द्रव्यसंग्रह' का पद्यानुवाद 'ज्ञानोदय छन्द' पूर्ण हुआ तथा दूसरा पद्यानुवाद वीर निर्वाण सं० २५१७ की अक्षय तृतीया (द्वितीय वैशाख शुक्ल तृतीया), विक्रम संवत् २०४८, गुरुवार, १६ मई, १९९१ के दिन श्री दिगम्बर जैन सिद्धक्षेत्र मुक्तागिरि (मेंढागिरि) जिला बैतूल (म० प्र०) नित्यानन्द को देने वाला यह अनुवाद समाप्त हुआ। इसमें जैनदर्शन के विवेच्य विषय चर्चित हुए हैं। जैसे—जीव स्वदेह परिमाण है। वह स्वभाववश ऊर्ध्वगामी होता है। दर्शन के चार भेद, ज्ञान के मति, श्रुत, अवधि जैसे भेद, प्रत्यक्ष और परोक्षज्ञान का निरूपण, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्त सत् द्रव्य, चतुर्विध गुणयुक्त पुद्गल, पाँच अस्तिकाय, कर्म, बन्ध, संवर तथा निर्जरा आदि तत्त्वों की चर्चा की गई है। सबका पर्यवसान मोक्ष में है।
  16. आशीष लाभ तुम से यदि मैं न पाता, जाता लिखा नहिं “निजामृत पान' साता। दो ‘ज्ञानसागर' गुरो! मुझको सुविद्या, विद्यादिसागर बनूं तजदूँ अविद्या ॥१॥ (दोहा) ‘कुन्दकुन्द' को नित नमूँ, हृदय कुन्द खिल जाय। परम सुगन्धित महक में, जीवन मम घुल जाय ॥२॥ ‘अमृतचन्द्र' से अमृत, है झरता जग-अपरूप। पी पी मम मन मृतक भी, अमर बना सुख कूप ॥३॥ तरणि ‘ज्ञानसागर' गुरो! तारो मुझे ऋषीश। करुणाकर! करुणा करो कर से दो आशीष ॥४॥ सुफल मुनि बन मन से जो सुधी करें ‘निजामृतपान'। मोक्ष ओर अविरल बढ़े चढ़े मोक्ष सोपान ॥५॥ मंगलकामना विस्मृत मम हो विगत सब विगलित हो मद मान। ध्यान निजातम का करूँ, करूं निजी-गुण गान ॥१॥ सादर शाश्वत सारमय समयसार को जान। गट गट झट पट चाव से करूँ ‘निजामृतपान' ॥२॥ रम रम शम-दम में सदा मत रम पर में भूल। रख साहस फलतः मिले भव का पल में कूल ॥३॥ चिदानन्द का धाम है ललाम आतम राम। तन मन से न्यारा दिखे मन पे लगे लगाम ॥४॥ निरा निरामय नव्य मैं नियत निरंजन नित्य। जान मान इस विध तजूँ विषय कषाय अनित्य ॥५॥ मृदुता तन मन वचन में धारो बन नवनीत। तब जप तप सार्थक बने प्रथम बनो भवभीत ॥६॥ पापी से मत पाप से घृणा करो अयि! आर्य। नर वह ही बस पतित हो पावन कर शुभ कार्य ॥७॥ भूल क्षम्य हो लेखक, कवि मैं हूँ नहीं, मुझमें कुछ नहिं ज्ञान। त्रुटियाँ होवें यदि यहाँ, शोध पढ़े, धीमान! ॥८॥ स्थान एवं समय परिचय कुण्डल गिरि के पास है नगर दमोह महान। ससंघ पहुँचा मुनि जहाँ भवि जन पुण्य महान् ॥९॥ देव-गगन गति गंध की वीर जयन्ती आज। पूर्ण किया इस ग्रन्थ को निजानन्द के काज ॥१०॥ पूर्ण होने का स्थान दमोह नगर (म० प्र०) और काल वीर निर्वाण सं० २५०४ (महावीर जयन्तीचैत्र शुक्ल त्रयोदशी, वि० सं० २०३५, शुक्रवार, २१ अप्रैल १९७८)।
  17. इसविध अनेक निज बल आकर होकर आतम भाता है, सहज ज्ञान-पन को फिर भी नहिं तजता पावन साता है। आत्म द्रव्य पर्यय का न्यारा अक्षय अव्यय केतन है, क्रम-अक्रम-वर्ती पर्यय से शोभित होता चेतन है॥२६४॥ वस्तु तत्त्व ही अनेकान्तमय स्वयं रहा, गुरु लिखते हैं, अनेकान्त के लोचन द्वारा जिसे सन्त जन लखते हैं। स्याद्वाद की और शुद्धि पा बनते मुनिजन वे ज्ञानी, जिन मत से विपरीत किन्तु ना जाते बन के अभिमानी ॥२६५॥ किसी तरह पर यत्न सुधी जन वीतमोह बन गतरागी, केवल निश्चल ज्ञान भाव का आश्रय करते बड़ भागी। शिव का साधक रत्नत्रय वे फलतः पाकर शिव गहते, मूढ़ मोह वश विरागता बिन भव-भव भ्रमते दुख सहते ॥२६६॥ स्याद्वाद से पूर्ण कुशलता पा अविचल संयम-धारी, पल पल अविरल अविकल निर्मल निज को ध्यावे अविकारी। ज्ञानमयी नय क्रियामयी नय इन्हें परस्पर मित्र बना, पाता मुनिवर वही अकेला शुद्ध-चेतना मात्रपना ॥२६७॥ चेतन रस का पिण्ड चण्ड है सहज भाव से विहस रहा, विराग मुनि में इस विध आतम उदित हुआ है विलस रहा। चिदानन्द से अचल हुवा वह एक रूप ही सदा हुआ, शुद्ध ज्योति से पूर्ण भरा है प्रभात सुख का सदा हुआ ॥२६८॥ शुद्ध-भावमय विराग मम मन में जब द्युतिपन उदित हुआ, स्याद्वाद से झगर झगर कर स्फुरित हुवा है मुदित हुवा। अन्य भाव से फिर क्या मतलब भव या शिव पथ में रखते, स्वीय भाव बस उदित रहे यह, यही भावना मुनि रखते ॥२६९॥ यद्यपि बहुविध बहुबल आलय आतम तमनाशक साता, नय के माध्यम ले लखता हूँ खण्ड-खण्ड हो नश जाता। खण्ड निषेधित अतः किए बिन अखण्ड चेतन को ध्याता, शान्त, शान्ततम अचल निराकुल छविमय केवल को पाता ॥२७०॥ ज्ञान मात्र हो ज्ञेय रूप में यह जो मैं शोभित होता, किन्तु ज्ञेय का ज्ञान मात्र नहिं तथापि हूँ बाधित होता। ज्ञेय रूप-धर ज्ञान विकृतियाँ सतत उगलती उजियाली, परन्तु ज्ञाता ज्ञान-ज्ञेयमय वस्तु मात्र मम है प्यारी ॥२७१॥ आत्म-तत्त्व मम चित्रित दिखता कभी चित्र बिन लसता है, चित्राचित्री कभी-कभी वह विस्मित सस्मित हँसता है। तथापि निर्मल-बोध-धारि के करे न मन को मोहित है, चूँकि परस्पर बहुविध बहुगुण-मिले आत्म में शोभित हैं॥२७२॥ द्रव्यदृष्टि से एक दीखता पर्यय वश वह नेक रहा, क्षण-क्षण पर्यय मिटे क्षणिक है, ध्रुव गुण वश तू देख अहा ? ज्ञानदृष्टि से विश्व व्याप्त पर स्वीय-देश में खड़ा हुआ, अद्भुत वैभव सहज आत्म का देखो निज में पड़ा हुआ ॥२७३॥ बहती जिसमें कषाय-नाली शांति सुधा भी झरती है, भव पीड़ा भी वहीं प्यार कर मुक्ति रमा मन हरती है। तीन लोक भी आलोकित है अतिशय चिन्मय लीला है, अद्भुत से अद्भुत-तम महिमा आतम की जय शीला है ॥२७४॥ सकल विश्व ही युगपत् जिसमें यदपि निरन्तर चमक रहा, तदपि एक बन जयशाली है सहज तेज से दमक रहा। निज रस पूरित रहा अतः वह तत्त्व बोध से सहित रहा, चेतन का जो चमत्कार है अचल व्यक्त हो स्फुरित रहा ॥२७५॥ चेतन-मय-शुचि 'अमृतचन्द्र' की सौम्य ज्योति अवभासित है, अविचल-आतम में आतम से आतम को कर आश्रित है। बाधा बिन वह रही अकेली रही न काली मोह-निशा, फैली परितः विमल-धवलिमा उजल उठी हैं दशों दिशा ॥२७६॥ स्वपर-रूप यह विपर्यास हो प्रथम ऐक्य कर निज तन में, रागादिक कर आतम उलझे कर्तृ-कर्म के उलझन में। कर्म-कर्मफल' चेतन का फिर अनुभव-वश नित खिन्न हुआ, ज्ञान-रूप में निरत वही अब तन-मन से अति भिन्न हुआ ॥२७७॥ वस्तु-तत्त्व की यथार्थता का वर्णन जिसने किया सही, शब्द-समय ने ‘समयसार' का स्वयं निरूपण किया यही। कार्य-रहा नहिं अब कुछ करने ‘अमृतचन्द्र' हूँ सूरि यदा, लुप्त गुप्त हूँ सुसुप्त निज में सुख अनुभवता भूरि सदा ॥२७८॥ (दोहा) मेटे वाद विवाद को निर्विवाद स्याद्वाद। सब वादों को खुश रखे पुनि पुनि कर संवाद ॥१॥ समता भज तज प्रथम तू पक्षपात परमाद। स्याद्वाद आधार ले समयसार पढ़ वाद ॥२॥ श्री अमृतचन्द्रसूरये नमः (दोहा) दृग व्रत चिति की एकता, मुनिपन साधक भाव। साध्य सिद्ध शिव सत्य है, विगलित बाधक भाव ॥१॥ साध्य साधक ये सभी, सचमुच में व्यवहार। निश्चयनय-मय नयन में, समय समय का सार ॥२॥
  18. उजल उजल स्याद्वाद-शुद्धि हो जो बुध को अति भाती है, वस्तु-तत्त्व की सरल व्यवस्था इसीलिए की जाती है। एक ज्ञान ही युगपत् होता उपाय उपेय किस विध है, इसका भी कुछ विचार करते गुरुवर बुधजन इस विध है ॥२४७॥ पशु सम एकान्ती का निश्चित ज्ञान पूर्णतः सोया है, पर में उलझा हुवा सदा है निज बल को बस खोया है। स्याद्वादी का यदपि ज्ञान वह सकल ज्ञेय का है ज्ञाता, तदपि निजी पन तजता नहिं है स्वरस भरित ही है भाता ॥२४८॥ देख जगत को 'ज्ञान' समझकर एकान्ती बन मनमानी, पशु सम स्वैरी विचरण करता ज्ञेय-लीन वह अज्ञानी, जगत-जगत में रहा निरा, पर जगत जानता स्याद्वादी, जग में रह कर जग से न्यारा, मुनिवर निज रस का स्वादी ॥२४९॥ पर पदार्थ के ग्रहण भाव कर आगत पर-प्रति-छवियों से, ज्ञान-शक्ति अति निर्बल जिनका जड़ जन नशते पशुओं से। अनेकान्त को ज्ञानी लखता, ज्ञेय-भेद-भ्रम हरता है, सतत उदित पर एक ज्ञान का, अबाध अनुभव करता है ॥२५०॥ पर प्रति-छवि से पंकिल चिति को इक विध, शुचि करने मानी, स्वपर प्रकाशक ज्ञान स्वतः पर उसे त्यागता अज्ञानी। पर ज्ञेयों से चित्रित चिति को स्वतः शुद्धतम स्याद्वादी, पर्यायों वश अनेकता बस चिति में लखता निज स्वादी ॥२५१॥ निज का अवलोकन ना करता एकान्ती पशु मर मिटता, पूर्ण प्रकट स्थिर पर को लखता मुग्ध हुवा पर में पिटता। स्याद्वादी निज अवलोकन से पूरण-जीवन जीता है, शुद्ध-बोध द्युति-पाकर भाता तुरत-राग से रीता है॥२५२॥ निज आतम को नहीं जानता पर में रत, पा विकारता, विषय-वासना वश निज को शठ सकल, द्रव्यमय निहारता। पर का निज में अभाव लख, पर-पर को पर ही जान व्रती निज के शुचितम बोध तेज में स्याद्वादी रममान यती ॥२५३॥ भिन्न क्षेत्र स्थित पदार्थ-दल को विषय बनाता अपना है, बाहर भ्रमता, मरता निज को परमय लख शठ सपना है। निज को निज का विषय बनाकर निज में निज बल समेटता, आत्म क्षेत्र में रत स्याद्ववादी होता पर-पन सुमेटता ॥२५४॥ आत्म-क्षेत्र में स्थिति पाने शठ भिन्न-क्षेत्र स्थित पदार्थपन, तजे संग तज चिति-गत-ज्ञेयों मरता तजता निजार्थपन। निज में स्थित होकर लखता नित पर में निज की अभावता, स्याद्वादी मुनि पर तजता पर तजता कभी न स्वभावता ॥२५५॥ पूर्व ज्ञान का विषय बना था उसको नशता लख, सो ही, स्वयं ज्ञान का नाश मान पशु मरता हताश हो मोही। बाह्य वस्तुएँ बार-बार उठ मिटती, परन्तु स्याद्वादी, स्वीय काल वश, त्रिकाल ध्रुव निज को लख रहता ध्रुव स्वादी ॥२५६॥ ज्ञेयालम्बन जब से तब से-ज्ञान हुवा यों कहें वृथा, ज्ञेयालम्बन-लोलुप बन शठ पर में रमते सहें व्यथा। भिन्न काल का अभाव निज में मान जान वे गतमानी, सहज, नित्य, निज-निर्मित शुचितम ज्ञानपुंज में रत ज्ञानी ॥२५७॥ पर परिणति को निज परिणति लख पर में पाखण्डी रमता, निज महिमा का परिचय बिन पशु एकान्ती भव-भव भ्रमता। सब में निज-निज भाव भरे हैं उन सबसे अति दूर हुआ, प्रकट निजामृत को अनुभवता स्याद्वादी नहिं चूर हुआ ॥२५८॥ विविध विश्व के सकल ज्ञेय का उद्भव अपने में माने, निर्भय स्वैरी शुद्ध भाव तज खेल-खेलते मनमाने। पर का मुझमें अभाव निश्चित समझ किन्तु यह मुनि ऐसा, निजारूढ़ स्याद्वादी निश्चल लसे शुद्ध दर्पण जैसा ॥२५९॥ उद्भव व्यय से व्यक्त ज्ञान के विविध अंश को देख, तभी, क्षणिक तत्त्व को मान कुधी जन सहते दुख अतिरेक सभी। पै स्याद्वादी चितिपन सिंचित सरस सुधारस सु पी रहा, अडिग-अचल बन शुद्ध-बोध-घन सुजी रहा, मुनि सुधी रहा ॥२६०॥ निर्मल निश्चल बोध भरित निज आतम को शठ जान अहा। जल उछलती चिति परिणति से भिन्न आत्म परमाण अहा। नित्य ज्ञान हो भंगुर बनता उसे किन्तु द्युतिमान, वही, चेतन-परिणति बल से ज्ञानी-ज्ञान क्षणिकता लखे सही ॥२६१॥ तत्त्व ज्ञान से वंचित ऐसे मूढ़ जनों को दर्शाता, ज्ञान मात्र वह आत्म तत्त्व है साधु जनों को हर्षाता। अनेकान्त यह इस विध होता सतत सुशोभित अपने में, स्वयं स्वानुभव में जब आता मिटते सब हैं सपने ये ॥२६२॥ वस्तु तत्त्व की सरल व्यवस्था उचित रूप से करता है, अपने को भी उचित स्थान पर स्थापित खुद ही करता है। तीन लोक के नाथ जिनेश्वर जिन-शासन पावन प्यारा, अनेकान्त यह स्वयं सिद्ध है विषय बनाया जग सारा ॥२६३॥ ॥ इति स्याद्वादाधिकारः ॥ दोहा मेटे वाद-विवाद को, निर्विवाद स्याद्वाद। सब वादों को खुश रखे, पुनि पुनि कर संवाद ॥१॥ समता भज, तज प्रथम तू पक्षपात परमाद। स्याद्वाद आधार ले, ‘समयसार' पढ़ बाद ॥२॥
  19. कर्तृ-भोक्तृ-मय विभाव भावों घटा, मिटा अघ-अंजन से, दूर रहा है, पद पद पल पल बंध मोक्ष के रंजन से। अचल प्रकटतम महिमाधारी ज्ञानपुंज दृग मंजु सही, शुद्ध, शुद्धतम, विशुद्ध शोभित स्वरस-पूर्ण द्युति पुण्यमही ॥१९३॥ | जैसा चेतन आतम का निज संवेदन निज भाव रहा, वैसा कर्तापन आतम का होता नहिं पर भाव-रहा। मूढ़पना वश करता आत्मा विषयी मोही अज्ञानी, मिटा मूढ़पन, कर्ता नहिं हो मुनिवर निर्मोही ज्ञानी ॥१९४॥ यदपि स्वरस से भरा जीव है विदित हुवा नहिं कर्ता है, तीन लोक में फैल रहा ले शुचि-चिति-द्युति शिव धर्ता है। तदपि मूढ़ता की कोई है महिमा सघना-गम न्यारी, इसीलिए विधि बंधन होता दुखकारी, सुख-शम-हारी ॥१९५॥ जैसा कर्तापन आतम का होता नहिं निज भाव रहा, वैसा होता चेतन का नहिं भोक्तापन भी भाव रहा। मूढ़पना वश भोक्ता आत्मा विषयी मोही अज्ञानी, उसे नाशकर सुखी अवेदक मुनि हो निर्मोही ज्ञानी ॥१९६॥ अज्ञानी विधिफल में रमता निश्चित विधि का वेदक है, ज्ञानी विधि में रमता नहिं है वेदक ना, निज-वेदक है। इस विध विचार मुनिगण! तुमको मूढ़पना बस तजना है, ज्ञानपने के शुद्ध तेज में निज में निज को भजना है ॥१९७॥ ज्ञानी विराग मुनि नहिं विधि का करता वेदन, विधि करता, केवल विधिवत विधि का विधिपन जाने, गुण-वारिधि धरता। कर्तापन वेदन-पन को तज केवल साक्षी रह जाता, शुचितम स्वभाव रत होने से कर्म-मुक्त ही कहलाता ॥१९८॥ निज को पर का कर्ता लखते पर में मुनि जो अटक रहे, मोहमयी अति घनी निशा में, इधर उधर वे भटक रहे। यदपि मोक्ष की आशा रखते, तदपि सदा भव दुख पाते, साधारण जनता सम वे भी नहिं अक्षय शिव सुख पाते ॥१९९॥ आत्म-तत्त्व औ अन्य तत्त्व ये स्वतन्त्र-स्वतन्त्र रहते हैं, एक-मेक हो आपस में मिल प्रवाह बन ना बहते हैं। कर्तृ-कर्म संबंध सिद्ध वह इसविध जब ना होता है, फिर किस विध पर कर्तृ-कर्म-पन हो, क्यों फिर तू रोता है॥२००॥ सभी तरह सम्बन्ध निषेधित करते जग के नाथ सभी, सम्बन्ध न हो एक वस्तु का अन्य वस्तु के साथ कभी। वस्तु भेद होने से, फिर क्या कर्तृ-कर्म की दशा रही, निज के अकर्तृपन मुनि फलतः लखते, अब ना निशा रही ॥२०१॥ ज्ञान तेज अज्ञान भाव में ढला खेद जिनका तातें, निज-पर स्वभाव तो ना जाने पागल पामर कहलाते। मूढ़ कर्म वे करते फलतः लखते निज चैतन्य नहीं, भाव कर्म का कर्ता चेतन अतः स्वयं है, अन्य नहीं ॥२०२॥ कर्म कार्य जब किया हुवा, पर जीव प्रकृति का कार्य नहीं, अज्ञ प्रकृति भी स्वकार्य फल को भोगे तब अनिवार्य सही। मात्र प्रकृति का भी न, अचेतन प्रकृति! जीव ही कर्ता है, भाव कर्म सो चेतनमय है, पुद्गल ज्ञान न धरता है॥२०३॥ मात्र कर्म ‘कर्ता' यों कहता निज कर्तापन छिपा रहा, कथंचिदात्मा ‘कर्ता' कहती जिन श्रुति को ही मिटा रहा। उस निज घातक की लघुधी को महामोह से मुंदी हुई, विशुद्ध करने अनेकान्तमय वस्तु स्थिती यह कही गई ॥२०४॥ लखे अकर्तामय निज को नहिं जैन सांख्य सम ये तब लौं, कर्तामय ही लखे सदा, शुचि भेद-ज्ञान नहिं हो जबलौं। विराग जब मुनि तीन गुप्ति में लीन, समिति में नहिं भ्रमते, कर्तृभाव से रहित पुरुष के बोध-धाम में तब रमते ॥२०५॥ कर्ता भोक्ता भिन्न-भिन्न हैं आत्म तत्त्व जब क्षणिक रहा, इस विध कहता सुगत उपासक जिसमें-बोध, न तनिक रहा। चेतन का शुचि चमत्कार ही उसके भ्रम को विनशाता, सरस सुधारस से सिंचन कर मुकुलित कलिका विकसाता ॥२०६॥ अंश भेद ये पल-पल मिटते अंशी से अति पृथक रहे, अतः विनश्वर अंशी है, हम वस्तु तत्त्व के कथक रहें। विधि का कर्ता अतः अन्य है विधि का भोक्ता अन्य रहा, इस विध एकान्ती मत, मत तुम धारो जिन-मत वन्द्य अहा ॥२०७॥ शुचितम निज को लखने वाले अति-व्याप्ति मल जान रहें। काल उपाधी वश आतम में अधिक अशुचिपन मान रहें। सूत्र-ऋजु नया, श्रय ले चिति को क्षणिक मान आतम त्यागा, बौद्धों ने मणि स्वीकारा पर त्यागी माला बिन धागा ॥२०८॥ कर्ता भोक्ता में विधि वश हो अन्तर या ना किंचन हो, कर्ता भोक्ता हो या ना हो चेतन का पर चिंतन हो! माला में ज्यों मणियाँ गॅथी चिति चिंतामणि आतम में, पृथक उन्हें कर कौन लखेगा शोभित जो मम आतम में ॥२०९॥ व्यवहारी मानव दृग की ही केवल यह है विशेषता, कर्तृ कर्म ये भिन्न-भिन्न ही यहाँ झलकते अशेषता। निश्चयनय का विषयभूत उस विरागता का ले आश्रय, मुनि जब लखता निजको, भेद न अभेद दिखता सुख आलय ॥२१०॥ आश्रय, आश्रय-दाता क्रमशः सुपरिणाम परिणामी है, अतः कर्म परिणाम उसी का परिणामी वह स्वामी है। कर्ता के बिन कर्म न पदार्थ दोनों का वह भर्ता है, वस्तु स्थिति है निज परिणामों का निज ही बस कर्ता है॥२११॥ अमिट-अमित-द्युति बल ले चेतन जग में विहार करता है, किन्तु किसी में वह ना मिलता यों मुनि विचार करता है। यदपि वस्तुएँ परिणमती हैं अपने-अपने भावों से, तदपि वृथा क्यों व्यथित मूढ़ है स्वभाव तज अघ-भावों से ॥२१२॥ एक वस्तु वह अन्य वस्तु की नहीं बनेगी गुरु गाता, वस्तु सदा बस वस्तु रहेगी वस्तु तत्त्व की यह गाथा। इस विध जब यह सिद्ध हुआ पर पर का फिर क्या कर सकता? एक स्थान पर रहो भले ही मिलकर रहना चल सकता ॥२१३॥ अन्य वस्तु के परिणामों में पदार्थ निमित्त बनता है, पदार्थ परिणामी परिणमता परकर्ता नहिं बनता है। अन्य वस्तु का अन्य वस्तु है करती इस विध जो कहना, व्यवहारी जन की वह दृष्टी निश्चय से तुम ना गहना ॥२१४॥ निज अनुभवता शुद्ध द्रव्य मुनि लखने में जब तत्पर हो, एक द्रव्य बस विलसित होता, नहीं प्रकाशित तब पर हो। ज्ञेय ज्ञान में तदपि झलकते ज्ञान बना जब शुचि दर्पण, किन्तु मूढ़ तू पर में रमता निजपन पर में कर अर्पण ॥२१५॥ शुद्ध आत्म की स्वरस चेतना ज्ञानमयी वह जभी मिली, विषय विषैली रहे भले पर पृथक पड़ी पर सभी गिरी। धवलित भूतल करती किरणें शशि की ‘भूमय' नहिं होती, ज्ञान, ज्ञेय को जान 'ज्ञेय मय' नहिं हो, यह शुचितम ज्योति ॥२१६॥ ज्ञान-ज्ञान बन, ज्ञेय निजी को बना, न जब तक शोभित हो, राग-रोष ये उठते उर में आतम जब तक मोहित हो। मूढ़पने को पूर्ण हटाकर, ज्ञान ज्ञानपन पाता है, अभाव-भावों हुए मिटाकर पूरण स्वभाव भाता है ॥२१७॥ मूढ़पने में ढला ज्ञान ही राग-रोष है कहलाता, समाधिरत मुनि रागादिक को तभी नहीं कर वह पाता। विराग दुग पा रागादिक का तत्त्व दृष्टि से नाश करो, सहज प्रकट शुचि ज्ञान ज्योति हो, मोक्षधाम में वास करो ॥२१८॥ रागादिक कालुष भावों का पर-पदार्थ नहिं कारण है, तत्त्वदृष्टि से जब मुनि लखते अवगम हो अघ-मारण है। समय-समय पर पदार्थ भर में जो कुछ उठना मिटना है, अपने-अपने स्वभाव वश ही समझ जरा! तू इतना है ॥२१९॥ मानस सरवर में यदि लहरें राग रंग की उठती हैं, पर को दूषण उसमें मत दो स्वतंत्र सत्ता लुटती है। चेतन ही बस अपराधी है, बोध हीन रति करता है, ‘बोध-धाम मैं'' सुविदित हो यह अबोध पल में टलता है॥२२०॥ पर पदार्थ ही केवल कारण रागादिक के बनने में, डरते नहिं है कतिपय विषयी जड़ जन इस विध कहने में। डूबे निश्चित, कभी नहीं वे मोह सिन्धु को तिरते हैं, वीतराग विज्ञान विकल बन भव-भव दुख से घिरते हैं॥२२१॥ परम विमल निश्चयतामय निज बोध धार पर से ज्ञानी, दीप घटादिक से जिस विध ना विकृत प्रभावित मुनि ध्यानी। निज-पर भेदज्ञान बिन फिर भी राग-रोष कर अज्ञानी, वृथा व्यथा क्यों भजते, तजते समता, करते नादानी ॥२२२॥ राग-रोष से रहित ज्योति धर निज निजपन को छूते हैं, विगत अनागत कर्म मुक्त हैं कर्मोदय ना छूते हैं। विरत पाप से, निरत निजी शुचि-चारित में है अति भाते, निज रस से सिंचित करती जग, ‘ज्ञान चेतना' यति पाते ॥२२३॥ ज्ञान चेतना करने से ही, शुद्ध, शुद्धतर बनता है, पूर्ण प्रकाशित ज्ञान तभी हो बद्ध कर्म हर, तनता है। मूढ़पने के संचेतन से बोध विमलता नशती है, तभी चेतना नियमरूप से विधि बन्धन में फँसती है ॥२२४॥ कृत से कारित अनुमोदन से तन से वच से औ मन से, विगत अनागत आगत विषयों निकालता मैं चेतन से। सकल क्रिया से विराम पाया, निज चेतन का आलम्बन, लेता विराग मुनि बन, तू भी अब तो कर तन मन स्तम्भन ॥२२५॥ मैंने मोही बन व्रत में यदि अतिक्रमण का भाव किया, मन वच तन से उसका विधिवत् प्रतिक्रमण का भाव लिया। चेतन रस से भरा हुआ, सब क्रिया रहित निज आतम में, स्थिर होता, स्थिर हो जा, तू भी भ्रमता क्यों जड़ता-तम में ॥२२६॥ मोह भाव से अनुरंजित हो साम्प्रत कर्म किया करता, उनका भी मैं आलोचन कर दया भाव निज पे धरता। चेतन रस से भरा हुआ-सब क्रिया रहित निज आतम में, स्थिर होता, स्थिर हो जा! तू भी भ्रमता क्यों जड़ता तम में ॥२२७॥ वीतमोह बन, वीतराग बन निग्रह कर मन स्पंदन का, प्रत्याख्यान करू मैं अब उस भावी विधि के बन्धन का। चेतन रस से भरा हुआ सब-क्रिया रहित निज आतम में, स्थिर होता, स्थिर हो जा! तू भी भ्रमता क्यों जड़ता-तम में ॥२२८॥ इस विध बहुविध विधि के दल को विगत अनागत आगत को, तजकर करता भाग्य मानकर विशुद्ध नय के स्वागत को। शशि सम शुचितम चेतन आतम-में बस निशदिन रमता मैं, निर्मोही बन, निर्विकार बन, केवल धरता समता मैं ॥२२९॥ मेरे विधि के विष-तरु में जो कटु-विष-फल-दल लटक रहे, सड़े गिरे वे बिना भोग के मन कहता ना निकट रहे। फलतः निश्चल शैल सचेतन-शुचि आतम को अनुभवता, इस विध विचार विराग मुनि में समय समय पर उद्भवता ॥२३०॥ अशेष-वसुविध विधि के फल को पूर्ण उपेक्षित किया जभी, अन्य क्रिया तज निज आतम को मात्र अपेक्षित किया तभी। अमिट काल की परम्परा मम भजे निरंतर चेतन को, द्रुत गति से फिर विहार करले सहज स्वयं शिव-केतन को ॥२३१॥ विधि-विष-द्रुम को विगत काल में विभाव जल से सींचा था, पर अब उसके फल ना खा खा निज फल केवल सुख पाता। सदा सेव्य है सुन्दरतम है मधुर मधुरतर है साता, इस विध निज सुख, क्रिया रहित है जिसको मुनिवर है पाता ॥२३२॥ विधि से विधि फल से अविरति से विरत व्रती हो संयत हो, विकृत चेतना पूर्ण मिटाकर संग रहित हो, संगत हो। ज्ञान-चेतनामय निज रस से निज को पूरण भर जीवो, परम-प्रशम रस-सरस सुधारस है मुनि झट घट-भर पीवो ॥२३३॥ ज्ञान ज्ञेय से ज्ञेय ज्ञान से यदपि प्रभावित होते हैं, पर ये निज निज के कर्ता पर-के कदापि ना होते हैं। सकल वस्तुएँ भिन्न-भिन्न हैं ऐसा निश्चय जभी हुवा, ज्ञान आप में पाप-ताप बिन उज्ज्वल निश्चल तभी हुवा ॥२३४॥ पर से न्यारा स्वयं संभारा धारा इस विध रूप निरा, गृहण-त्याग-मय-शील-शून्य है अमल ज्ञान सुख कूप मिरा ? आदि मध्य औ अन्त रहित है जिसकी महिमा द्युतिशाली, शुद्ध-ज्ञान-घन नित्य उदित है सहज विभामय सुख-प्याली ॥२३५॥ निज आतम में निज आतम को जिसने स्थापित किया यमी, कच्छप सम संकोचित इन्द्रिय पूर्ण रूप से किया दमी। जो कुछ तजने योग्य रहा था उसको उसने त्याग दिया, ग्राह्य जिसे झट ग्रहण किया, क्यों तूने पर में राग किया? ॥२३६॥ स्वयं सुखाकर ज्ञान दिवाकर इस विध निश्चित प्रकट रहा, सुचिरकाल से पूर्ण रूप से पर द्रव्यन से पृथक रहा। उत्तर दो अब ज्ञान हमारा आहारक फिर हो कैसा? जिससे तुम हो कहते रहते ‘‘काय ज्ञान का हो'' ऐसा!!॥२३७॥ शशिसम उज्ज्वल उज्वलतर हैं निर्विकारतम ज्ञान महा, इसीलिए जड़काय ज्ञान का हो नहिं सकता जान अहा! “यथाजात' ज्ञानी का केवल जड़तन ना शिव-कारण हो, उपादान कारण शिव का मुनि-ज्ञान, तरण ही तारण हो ॥२३८॥ ज्ञान-चरित-समदर्शन तीनों एकमेव घुल मिल जाना, मोक्षमार्ग है यही समझ लो शिव सुख सम्मुख मिल जाना। यही सेव्य है यही पेय है उपादेय है ध्येय यही, मुमुक्षु-मुनि को अन्य सभी बस हेय रही या ज्ञेय रही ॥२३९॥ चरित-ज्ञान-दृगमय ही शिवपथ, जिसमें जो यति थिति पाता, ध्यान उसी का करता चिन्तन करता निशिदिन थुति साता। निज में विचरण करता पर से दूर सदा हो जीता है, वही आर्य! अनिवार्य मुनीश्वर ‘समयसाररस' पीता है॥२४०॥ इस विध पावन शिव फल दाता रत्नत्रय जो तजते हैं, जड़ तन आश्रित यथाजात में केवल ममता भजते हैं। अनुपम अखण्ड ज्योतिपिण्ड शुचि समयसार को नहिं लखते, भले दिगम्बर बने रहें वे आत्म-बोध जब नहिं रखते ॥२४१॥ बाह्य-क्रिया में उलझे रहते जड़ जन उलटे लटके हैं, भाग्यहीन वे उन्हें न दर्शन मिलते अन्तर्घट के हैं। जैसा तन्दुल बोध जिन्हें ना तुष का संग्रह करते हैं, वैसा मोही आत्म ज्ञान बिन, तपा-तपा तन मरते हैं॥२४२॥ देह-नग्नता भर में केवल, जो मुनि ममता रखते हैं, समयसार को कभी नहीं वे धर के समता लखते हैं। निमित्त शिव का देह-नग्नता, पर-आश्रित है पुद्गल है, किन्तु ज्ञान तो उपादान है, निज आश्रित है, सद्बल है ॥२४३॥ बस करदो, बहु विकल्प जल्पों से कुछ नहिं होने वाला, परमारथ का अनुभव कर लो, मानस मल धोने वाला। स्वरस-सरस भरपूर-पूर्ण-शुचि ज्ञान विभा से भासुर है, समयसार ही सार विश्व में, जिस बिन आकुल आ-सुर है॥२४४॥ विश्वसार है विश्व-सुलोचन अक्षय, अक्षय-सुखकारी, समयसार का कथन यहाँ अब पूर्ण हो रहा दुखहारी। शुद्ध ज्ञान-घन-मय जो शिव सुख पावन परमानन्दपना, उसे यही बस दिला, नशाता निश्चित मन का द्वंद्वपना ॥२४५॥ अचल उजल यह एक अखंडित निज संवेदन में आता, किन ही बाधाओं से-बाधित हो न, अबाधित है भाता। इस विध केवल-ज्ञान निकेतन आत्म तत्त्व यह सिद्ध हुवा, झुक झुक सविनय प्रणाम उसको करता यह मुनि'शुद्ध हुवा ॥२४६॥ ॥ इति सर्वविशुद्धज्ञानाधिकारः ॥ दोहा ज्ञान दुःख का मूल है ज्ञान हि भव का कूल। राग सहित प्रतिकूल है राग रहित अनुकूल ॥१॥ चुन-चुन इनमें उचित को अनुचित मत चुन भूल। समयसार का सार है निज बिन पर सब धूल ॥२॥
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