दया 'धर्म' का मूल है। दया बिना सब शून्य है। अहिंसा का दिग्दर्शन दया के भाव में दया के कार्य में सन्निहित है। जिसके पास दया का गुण है, करुणा उसके रग-रग में समाहित होती चली जाती है। बाहर में प्रेम और वात्सल्य का प्रसाद बाँटते हुए बिखरे लोगों को एक बनाने में औषधि के गुण के समान कार्य सम्पादित करते हुए देखा जा सकता है। कोई कलाकार पत्थर में काष्ठ में मूर्ति को अपनी श्रम साधना के द्वारा प्रकट कर देता है लेकिन प्राणी मात्र के प्रति मैत्री का भाव, करुणा का भाव, अनुकंपा का भाव, दया का भाव जिस जीव आत्मा में समाहित होता चला जाता है। वह जीव, आत्मा समीचीन दर्शन से परिपूरित होता चला जाता है। देखभाल कर चलने की योग्यता हासिल कर लेता है। इसी को आचार्य उमास्वामी महाराज ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की संज्ञा प्रदान की है। क्या इस प्रकार के गुणों से समाहित जीव आत्मा को दया, प्रेम, करुणा, वात्सल्य की मूर्ति लोगों के चक्षु इन्द्रिय का विषय बने बिना रह नहीं सकता। इन ५० वर्षों में गुरुदेव जैन जगत् में दया और प्रेम की मूर्ति के रूप में प्रकट हुए।