जीवन प्राप्त होना सहज हो सकता है लेकिन शुद्ध रीति, नीति से उसका निर्वाह करना कठिन होता है और मनुष्य भव का जीवन प्राप्त होने पर कषायों से रिक्त जीवन के कार्यों को सम्पादित करना भव्य पुरुषों का कार्य होता है। जो भवसागर से पार होने की क्षमता के धारक होते हैं कषाय के निमित्त मिलने पर कषाय न उखड़े ये अंदर के साम्यभाव की शक्ति का प्रभाव है दुष्ट वचन में भी आक्रोश नहीं आना, ये आक्रोश परीषह का कमाल है। क्रोध कषाय एक ऐसा ईंधन है, जो आत्मा को अनंत संसार की यात्रा के लिए कारण बन जाता है। जो इस मर्म को जानते हैं। वे क्रोध, मान, माया, लोभ इन चारों कषायों को अछूत रोग समझकर हमेशा बचने का प्रयास करते रहते हैं। यही कषायों का उपशमन करने का तरीका है। साधन हो और यदि पास में साधना है तो कषाय के साधन व्यर्थ चले जाते हैं। कषाय आत्मा को कसती चली जाती है। जिससे आत्मा दुर्गति में फँसता चला जाता है। ऐसे ज्ञान गरिमा, सम्यक् परिणामों से परिलच्छित गुरुदेव इन ५० वर्षों में समाज के बीच में रहकर अपनी आत्मा को पूर्ण रूप से निष्कषाय बनाए रखा जो शिष्यों के प्रतिकूल वातावरण से भी क्षुब्ध नहीं हुए, यही उनका कषाय रहित जीवन रहा।