मोक्षमार्ग पर चलना-चलाना भवसागर से पार लगाना दण्डाधिकारी दण्ड देने का, प्रायश्चित देने का अधिकार आचार्य परमेष्ठी के पास होता है। वे एक निष्पक्ष न्यायाचार होते हैं, इसलिए उन्हें न्याय की मूर्ति की संज्ञा प्राप्त है, वे स्व के कल्याण में हमेशा तत्पर रहते हैं। अपने ही मार्ग पर उनकी सदैव दृष्टि लगी रहती है। अपने ही दोषों की आलोचना में उनका उपयोग कार्य करता है। इस साधना की श्रृंखला में तत्पर रहते हुए भी कोई भूला भटका प्राणी आ जाता है तो उसे भी मार्ग बता देते हैं क्योंकि रास्ता जानने वाला ही रास्ता बता सकता है। रास्ता बताने के लिए आचार्य परमेष्ठी को निश्चित किया गया है।
एक बार एक व्यक्ति ने कहा-मैं संसार में आया हूँ तो मुझे क्या करना चाहिए। आचार्य गुरुदेव ने कहा-हम तो निकल गये हैं आप भटक मत जाना संसार के चक्कर में फँस न जाना गुरु के इन वाक्यों को सुनकर उस व्यक्ति के अंदर वैराग्य का भाव उत्पन्न हो गया, उसने आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत को गुरु के चरणों में बैठकर स्वीकार कर लिया, इसे कहते हैं स्वपर हित पथगामी, आचार्यश्री आगम में वर्णित गमनागमन की क्रिया में लगे हुए थे, रास्ते में किसी भव्य आत्मा ने उसके निवेदन पर रास्ता बता दिया। ऐसे ही एक बार पदयात्रा पर चले जा रहे थे, रास्ते में एक झोपड़ी के सामने एक पाषाण पर बैठ गये, उठने के बाद वह पत्थर पूज्य हो गया, उस ग्रामीण व्यक्ति ने अपने घर उठाकर रख लिया, अब लगा कि गुरु की तन की थकान निकली और उस ग्रामीण की भवसागर में घूमने की थकान कम हो गयी। जिनवाणी का स्वाध्याय करने का आदेश आगम वाक्य है। यह स्वाध्याय आवश्यक क्रिया है। इसके निमित्त से श्रावकजन लाभ लेना चाहे तो यह दोहरा काम हो जाता है। इसे ही स्व परहित कहा जाता है। ऐसे ही प्रवचन की वाणी से लोगों का मिथ्यात्व गलित होता है। वास्तव में प्रवचन अपने ही लिए हुआ करता है। यदि बीच में कोई लाभार्थी लाभ लेना चाहे तो दया, करुणा, वात्सल्य-मूर्ति सुबह-शाम भी जीवों के उपकार के लिए तत्पर रहते हैं। इन ५० वर्षों में अपनी चर्या अपने आत्म-उत्थान के लिए निश्चित रूप से की है। पर कोई दीन-हीन संसारी प्राणी के आ जाने पर समय का दान कर उसका मोक्षमार्ग प्रशस्त किया है। अपने और पर के हित के मार्ग पर चलने वाले गुरुदेव जयवंत हो।