साधु का जीवन वस्तुतः साधना तप ही हुआ करता है लेकिन आगम ग्रन्थों को सरलीकृत प्रस्तुतिकरण के साथ सामान्यजन तक पहुँचाने का भाव भी आत्मसाधना के साथ मानस पटल में उत्पन्न होते रहते हैं। लेखनकला, साहित्यसृजन, काव्यकला ये सब अपने ही उपयोग को स्थिर रखने के साधन हैं, ना कि ख्याति-लाभ-पूजा की दृष्टि से लिखे जाते हैं। यह मूकमाटी महाकाव्य आचार्य गुरुदेव की दृष्टि में आया और उन्होंने संस्कृत भाषा में लिखने का मन बनाया था, बाद में सोचा यह जनहितकारी नहीं बन पायेगा, फिर हिन्दी में लिखने का विचार आया फिर बुन्देली कहावत अनुभवों का सहारा ले कार्य प्रारम्भ हुआ, जिस पर देशभर के ३५० मनीषियों ने समीक्षा लिखी जो मूकमाटी मीमांसा नाम से प्रकाशित हुई, संघ के साधुओं ने भी समीक्षा लिखी। माटी की तीन अवस्थाओं के बारे में लिखा-आचार्य गुरुदेव को यह समीक्षा मैंने पढ़कर सुनाई, उन्हें बहुत पसंद आयी, फिर भी जब प्रकाशन की बात सामने आई तो उन्होंने संघ के साधुओं की समीक्षा ग्रन्थ में शामिल करने का निषेध कर दिया, तब समझ में आया गुरुदेव की सोच के बारे में अपनों के द्वारा लिखी हुई समीक्षा निष्पक्ष कैसे हो सकती है? दिल्ली के एक साहित्यकार रामप्रसाद शर्मा ने समीक्षा कटु आलोचन के साथ लिखी, उसमें जैन आगम में वर्णित वेदों की चर्चा थी। जैसे-स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद इस कथानक को पढ़कर शर्माजी समझे यह दिगम्बर साधु आचार्य विद्यासागर वेदों के आलोचक हैं। तब रामटेक में दिल्ली के डॉक्टर सत्यप्रकाश जैन के साथ आचार्यश्री के दर्शन के लिए एवं चर्चा के लिए आना हुआ, तब वे दर्शन कर अभिभूत हुए चर्चा कर शंका का समाधान हुआ जैन साधु जैनधर्म के प्रति नतमस्तक हुए आचार्यश्री ने समाधान करते हुए कहा-यहाँ वेद ग्रन्थों की चर्चा नहीं है। जैनधर्म कथित स्त्री, पुरुष, नपुंसक वेदों की चर्चा है। अब शर्माजी की मन की कलुषता का अंत हुआ, चेहरे पर प्रसन्नता की लकीरें छा गयीं, तब उनके मन में यही भाव आया। इतने बड़े साहित्यकार संत जीर्ण-शीर्ण स्थान पर अपना बैठना-उठना बनाये रखे हैं। इन ५० वर्षों में गुरुदेव ऐसे तामझाम से दूर रहकर साहित्य-सृजन में लगे रहे।