बाजार में शुद्ध वस्तु का मूल्य अधिक होता है फिर भी उसका क्रय बढ़ता ही चला जाता है, इसके पीछे कारण यही होता है शुद्ध तत्त्व से ही आत्मा के परिणाम विशुद्ध होते हैं, क्योंकि शास्त्रों के पठन-पाठन से संयम के विशुद्धि, लब्धि स्थानों का ज्ञान ही आत्म रुचि में शुद्धता की रुझान को बढ़ावा प्रदान करता है। तन की शुद्धता, मन की शुद्धता, वचन की शुद्धता, ये तीनों शुद्धता साधक के चारित्र को प्रकट करती है। जो शुद्ध तत्त्व के चिन्तन में लगा रहता है, उसका उपयोग भी शुद्ध ही होता है। यदि वह वचन का उपयोग करता है तो वह वचन शुद्ध और विशुद्ध सिद्ध-मंत्र के समान प्रकट हुए जान पड़ते हैं। यदि मन में कोई सोच उत्पन्न होती है वह भी शुद्ध तत्त्व से आच्छादित होती है, वही वचन के द्वारा प्रस्फुटित होती है तो बाह्य जगत् में जनहित के कार्य का परिदर्शन कराती है। इसी कारण मन-वचन के विशुद्ध परिणामों से कायजन्य रोग विनष्ट होते चले जाते हैं, यही शुद्ध उपयोगी श्रमण का श्रामण्य है, जो चक्षु इन्द्रियधारी जीवों को अत्यन्त प्रिय होता चला जाता है, जिसका परिणाम यह होता है, वे लोग उन्हें जिन देवता, शुद्ध विशुद्ध, आचार्य परमेष्ठी के रूप में मान्यता प्रदान कर, शास्त्रों में वर्णित शुद्ध उपयोगी श्रमण का दर्शन ५० वर्षों से इस भारत भू पर निरन्तर चला आ रहा है। जो लोग ऐसा मानते हैं आज साधु परमेष्ठी, आचार्य परमेष्ठी, उपाध्याय परमेष्ठी नहीं होते, उनकी इन मिथ्या धारणाओं को अपनी चर्या, चर्चा से खण्डित करने वाले गुरुदेव जयवन्त हों।