राग का जीवन से रहित हो जाना वैराग्य का भाव समाहित हो जाना। उस पद के अनुरूप जीना प्रारम्भ हो जाना, देह की विकृतियों का नष्ट हो जाना, आत्मा में रत्नत्रय की प्राप्ति बाह्यअभ्यन्तर से साधना की दृष्टि आकर्षण का केन्द्र बाह्य जगत के लिए बनता चला जाता है। प्रभावना की दृष्टि नहीं, बस, शर्त यही है अपनी भावना पर दृष्टि हो, यही भाव सुन्दर अच्छा और सच्चा वीतराग दर्शन का भाव बन जाता है, जिसे देखने मात्र से राग-द्वेष-मोह को छोड़ने का भाव हो जाता है। मोह को छोड़ना ही मोक्ष को चाहने का भाव है। यहाँ तक पहुँचने वाला संस्कारों को लेकर आने वाला योगी होगा, जिसका आज नाम सुनते ही मन प्रफुल्लित हो जाता है। नाम का आकर्षण रत्नत्रय के विशुद्ध परिणाम का प्रतिफल है, जिसे किसी ने देखा न हो, नाम सुनते ही अपने आप में धन्यता का अनुभूत अनुभव कर मन, वचन, काय से समाहित हो जाते हों, फिर साक्षात् दर्शन की बात ही क्या है? जो भी इनके चरणों में आता है, इन्हीं का होए बिना रहता नहीं, विरोधी वैर भूल जाता है। बदले में भक्त बन भक्तपने की भेंट श्रीचरणों में अर्पित कर देता है। आज गुरुदेव के ५० वर्ष संयम साधना के पूर्ण होने जा रहे हैं, फिर भी देखो अभी तक छवि की सौम्यता थी, अब उन चरणों की पूज्यता, सौम्यता का आकर्षण इतना बढ़ा, जाति, वैर, भेदभाव छोड़कर सामान्यजन भी चरण छूने के लिए तत्पर हैं, अपने घर में पूजा मंदिर बनाकर चरणों की पूजा भी अपने ढंग से कर रहे हैं, यही उनके चारित्र की सुभगता का कारण बन आई हैं।