जीवन में निश्चलता आना ही साधक की साधना का अंग हुआ करता है। वह मन, वचन, काय की चंचलता को रोकने का आयाम करता रहता है। यही उसका व्यायाम, प्राणायाम हुआ करता है। यही उसकी एकाग्रता का प्रतिबिम्ब आत्मदर्पण में प्रतिपल झलकता रहता है। भय को वह स्पंदन से रहित करने के सतत अभ्यास से अपने मन, वचन, काय की प्रवृत्तियों को रोकने में लगाए रखता है। चंचलता के लिए आचार्यों ने आगम ग्रन्थों में, पुराण ग्रन्थों में बंदर के उदाहरण को दिग्दर्शित कराया है। कहते हैं यदि बंदर को शराब पिला दी जाए तो वह और अधिक चंचल हो जाता है। वैसे बुंदेली में कहावत है-बंदरा प्यार में छुपता नहीं, कहने का प्रयोजन यही हो सकता है कि उसे चारा के अंदर या यों कहे घास के अंदर छुपा, दो तो भी सहज पता चल जायेगा कि इसके अंदर बंदर है। आचार्य गुरु देव एक अचल, अटल योगी की तरह निश्चल चंचलता रहित साधना के लिए भारत भूमि पर प्रसिद्धि को प्राप्त कर ५० वर्षों को पूर्ण कर यह दिखा दिया, सिखा दिया है, मेरे शिष्यों चर्या करो, क्रिया करो, अचल, अटल चंचलता रहित। यही निरीहवृत्ति साधक की दशा होना चाहिए।