श्रुत का अर्थ आगम ग्रन्थ हुआ करता है, जो जिनेन्द्र भगवान् से मुख से निकली जिनवाणी हुआ करती है। इसे ही जैन सिद्धान्त कहा जाता है। जो जैन सिद्धान्तों को जानता है और उस मय ही आचरण करता है। वास्तव में सच्चे श्रुतगामी आचार्य गुरुदेव हैं। जैसा शास्त्रों में लिखा है वैसा ही जीवन जीते हैं। श्रुत को कठिनता को सरलता में व्यक्त करने की योग्यता के धनी हैं। श्रुत को और नया रूप अपने चिंतन के माध्यमों से प्रदान करने का पुरुषार्थ प्रतिक्षण करते रहते हैं। श्रुत की समीचीन व्याख्या समीचीन साधकों के द्वारा ही सम्भव होती है। निष्पक्ष न्याय-नीति से जिस शब्द का जो अर्थ ध्वनित हो रहा है, उसे ही अपनी वाणी का विषय बनाकर जिनवाणी प्रस्तुत करना ही श्रेष्ठ, श्रेष्ठतम माना जाता है। आज समाज में एक ऐसा पंथ आ गया है, जो जिनवाणी के अर्थ का अनर्थ करने में लगे हुए हैं। द्रव्यसंग्रह ग्रन्थ की गाथा मुनि नियम का मुणि णियमा... प्रस्तुत कर पूर्वाचार्यों के द्वारा लिखित गाथाओं का समापन किया जा रहा है। इसे ही आचार्य उमास्वामी महाराज ने तत्त्वार्थसूत्र में निह्नव संज्ञा प्रदान की है। इन ५० वर्षों में इन विवादों दोषों से आचार्य गुरुदेव दूर रहकर अशुद्ध जिनवाणी के सामने शुद्ध जिनवाणी प्रस्तुत करने का भाव बनाये रखें। यही उनका विरोध का तरीका है। छोटी लाइन के सामने बड़ी लाइन, चर्चा से नहीं चर्या से खींचने का आयाम करते रहे इसलिए जैन साहित्य जगत् में आचार्य विद्यासागरजी का नाम एक साहित्यकार के रूप में अंकित हुए बिना रह नहीं पाया। यही उनकी श्रुतभक्ति उन्हें श्रुत में पारगामी बनाने में सफल रही |