आचार्यों ने परिग्रह को पाप का बाप की संज्ञा दी है, परिग्रह आत्मा के गुणों को बहुत जल्दी नष्ट करता है और बाहर में कलंक के रूप का दर्शन कराता है। किसी व्यक्ति को भूत बाधा हो गई हो, तो तंत्र-मंत्र वादी उसे आसानी से निकाल देता है। लेकिन परिग्रह का भूत तंत्र-मंत्र से नष्ट नहीं होता है। वह तो त्याग के भाव से सहज ही चला जाता है। यदि वह नहीं जाता है। तो वही परिग्रह मूर्च्छा का कारण बन जीव आत्मा के गुणों को नष्ट कर पतन की ओर लेता चला जाता है। एक परिग्रह की कणिका अनंत पापों के बंधन की चूलिका का निर्माण करते चली जाती है। आवक का जीवन परिग्रह से प्रारंभ होता है और साधु का जीवन परिग्रह के त्याग से प्रारंभ होता है। एक त्याग करता है एक धारण करता है। जिसके जीवन में त्याग की प्रधानता रही हो उसके सामने सोने की डली भी पड़ी हो तो उसके मन से ग्रहण करने का भाव कदापि नहीं आ सकता है। इस प्रकार की बाह्य और अभ्यन्तर परिग्रह के त्याग रूपी जीवन शैली में ५० वर्षों तक रहने वाले गुरुदेव ने गृहस्थों का परिग्रह छुड़वाकर एक नया कीर्तिमान स्थापित किया है। जिसके प्रति फलस्वरूप तीर्थों का दिग्दर्शन है।