कोई राही यदि दूर देश पहुँचने के लिए चलता है तो उसे लगातार चलना होता है, जिसमें श्रम और साधन की आवश्यकता होती है। इसी प्रकार मोक्षमार्ग पर गुरुदेव निरन्तर चले जा रहे हैं। उनके पास कोई साधन नहीं, कोई श्रम नहीं, यहाँ साधन और श्रम का प्रयोजन यही है, परिग्रह नहीं न कोई आरम्भ। मात्र पिच्छिका-कमण्डलु, मोक्षमार्गी के चिह्न है। पिच्छिका से जीवों की रक्षा करना, उठते-बैठते समय परिमार्जन करना। कमण्डलु शुचि उपकरण शरीर की शुद्धि के काम आने वाला। तीसरा शास्त्र ज्ञान अभ्यास के काम आने वाला, इन्हें शास्त्रीय भाषा में त्रय उपकरण कहते हैं, जिससे आत्मा का उपकार होता है। ये कोई न परिग्रह है न कोई आरम्भ के उपकरण। फिर श्रम कैसे हुआ, श्रम परिश्रम बाह्य साधनों में हुआ करता है। मोक्षमार्गी को अविरल मोक्ष के अभ्यास की साधना के साधन में लगा रहता है। जैसे कायोत्सर्ग की मुद्रा में लीन हो जाना। ध्यान, पद्मासन मुद्रा में लीन हो जाना। काय से ममत्व भाव को हटाने का निरन्तर अभ्यास चलता रहता है। मोह रहितोऽहं, राग रहितोऽहं, द्वेषरहितोऽहं, कर्मरहितोऽहं, नोकर्मरहितोऽहं, स्पर्शनइन्द्रिय रहितोऽहं, रसना इन्द्रियरहितोऽहं, घ्राण इन्द्रियरहितोऽहं, चक्षु इन्द्रिय रहितोऽहं, कर्ण इन्द्रिय रहितोऽहं, क्रोधमानमायालोभ रहितोऽहं, मन रहितोऽहं, वचन रहितोऽहं, काय रहितोऽहं, यही अभ्यास आत्मानुभूति में लगाये रखता है। रात-दिन के भेद का त्याग कर चौबीसों घण्टे आत्महित का सम्पादन मोक्ष के पथ का अनुगमन करने वाले गुरु देव लगातार ५० वर्षों से प्रभावना ही नहीं अपनी भावना से पथ का अनुशरण कर रहे हैं, इसलिए उनकी प्रभावना ही यश कीर्ति की पताका फहराती हुई हमें दृष्टिमान हो रही है।