हम सब लोग आगम ग्रन्थों में पढ़ते सुनते आये हैं, आत्मा गुणों से सुशोभित हो जाने से काया गुणों की महिमा के समान कंचनमय होकर सुशोभित होने लगती है। जैन दर्शन शरीर की पूजा को नहीं किसी के नाम की पूजा को नहीं, गुणों की प्रधानता को लेकर पूज्य-पूजक भाव में अन्तर करता चला आया है। गुण आत्मा के भीतरी तत्त्व हैं। जो साधना के माध्यम से शरीर में दृश्यमान होने लगते हैं, जो अपने आप बाह्य प्रदर्शन को रोकने का संकेत देकर आत्मदर्शन की ओर प्रेरित करता है। आत्मा के गुण ही देहधारियों की मणिरत्न हुआ करते हैं। पर्याय बुद्धि को रखने वाले लोग पहले देह से आकर्षित होते हैं। आत्मदृष्टि रखने वाले लोग देह से नहीं गुणों से आकर्षित होते हैं, क्योंकि आत्म दृष्टा साधक स्वयं गुणों से सुशोभित होता है। गुण आत्मा का खजाना है, जिसे चोर चोरी नहीं कर सकता। कोई शिल्पी उन मणियों के टुकड़े भी नहीं कर सकता। न कोई आकार प्रकार दे सकता है, क्योंकि वे कोई पुद्गलों का पिण्ड नहीं है, जो स्पर्शन इन्द्रिय का विषय बन पाये। यह तो अनुभवजन्य है। देह से गुण प्रकट होने से यह चक्षु का इन्द्रिय का विषय अवश्य बन जाता है। जिसके कारण वचनों से गुणगान का रूप धारण कर लेता है, यह गुणों का रूप ही आत्मा के अन्दर उत्पन्न होने वाली क्रिया भावों का परिचय कराने में एक साधन का कार्य करता चला जाता है। साधक कार्य को नहीं आत्मा में उत्पन्न प्रशस्त भावों की ओर दृष्टि रखता है। बाह्य जगत् के विकारी भावों से मुख मोड़ लेता है। इन ५० वर्षों में गुरुदेव ने आत्मा की ओर दृष्टि रख के बाह्य जगत् से दूरी बनाकर देह को गुणों की मणियों से सुशोभित कर दर्शन प्रदान किया।