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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. इस अवसर पर पूज्य आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज ने कहा कि बूँद बूँद के मिलन से जल में घट आ जाय बूँद मिले सागर से सागर बूँद समाय। एक बूँद दूसरी बूँद से मिल जाती है तो प्यास बुझाती है। सागर का अस्तित्व क्या है,उत्पत्ति कैंसे है ये जानना जरूरी है। लोग कहते है सरकार सुनती नहीं है, आपकी आवाज में दम होगी तो बेहरी सरकार भी सुन लेती है। स्वर के मिलते ही व्यंजन में गति आ जाती है, आप स्वर बन जाएँ तो सरकार व्यंजन बन जायेगी। कर्ता यदि सरकार है तो कार्य की अनुमोदना आपको करना है। 70 बर्षों में सरकार ने यदि शिक्षा की दिशा में नहीं सोचा तो आप ही सरकार को बनाने बाले हैं। विद्यालय का अर्थ नहीं जान पाये तो ये चल क्या रहा है क्यों स्कूल चलाए जा रहे हैं। आज बाबू बनने की जरूरत नहीं है क्योंकि इसका अभिप्राय मानसिक रूप से गुलामी करना है, सुभास चंद्र बोस ने अपनी माँ को पत्र लिख कर कहा था कि बाबू बनने से अच्छा है मैं राष्ट्र सेवा करूँ। आज नोकरी में पैकेज दहेज़ की तरह बन गया है जिसे पाने के लिए युवा लालायित हो रहे हैं। जिस वाक्य में कर्ता स्वतंत्र न हो उस वाक्य का कोई अर्थ नहीं है। बुद्धि यदि खराव हो जाय तो फिर ठीक नहीं हो सकती। ज्ञान को सही बिषय मिल जाय तो ज्ञान को सही दिशा मिल जाती है नहीं तो विकृति आने से ऊपर बाला भी नहीं रोक सकता है। हमारे यहां अंक से नहीं चलता अनुभव से चलता है इसलिए अनुभव जरूरी है। सरकार सिंधु है जनता बिंदु है। बैठने का नाम सरकार नहीं होता है उसे तो जनता के हित में चलते रहना चाहिए। अपने अतीत को पुनः जाग्रत करने की जरूरत है। केवल बाणी का मंथन करने से नवनीत नहीं मिल सकता। विदेशी शिक्षा नीति ने भारत के इतिहास को पीछे धकेल दिया है 70 बर्षों में भी मंथन से यदि कुछ नहीं निकला तो चिंता का बिषय है। कर्ता का काम करने का है जो अनुभवी लोग हैं उन्हें आगे आकर इस कार्य को आगे बढ़ाना चाहिए। अनुभवी शिक्षाविद् इस दिशा में कार्य करें परंतु इतिहास को सामने रखकर करें ,अपने इतिहास की अच्छाईओ को उजागर करें तो स्वतंत्रता के साथ न्याय हो सकेगा। संस्कृति को संरक्षित करने पर ही सुख शान्ति का अनुभब कर सकते हैं। आज श्रमिक बनकर ही हम राष्ट्र कल्याण की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं। भारत की युवा शक्ति विराट है उसे केंद्रित करने की जरूरत है, उसे मूल तत्व से जोड़ने की जरूरत है। हम समय को भी बाँध सकते हैं यदि प्रतिभा का सही उपयोग करें। शिक्षा परिषद् के अतुल कोठारी ने कहा कि भारत में ही शिक्षा निहित है। शिक्षा के बिभिन्न आयामों को सीखने दुनिया भर के लोग यहां आते थे आज विदेशों में जाते हैं। जब हम भीतर की और झाँकने का प्रयास करते हैं तो सभी समस्याओं का समाधान मिल जाता है,एक दुसरे पर दोषारोपण करते हैं जबकि सभी की सामूहिक जिम्मेदारी बनती है शिक्षा की इस दशा के लिए। जातिवाद,भाषाबाद की गांठों को खोलने की जरूरत है। सबका कल्याण हो ऐंसी शिक्षा नीति बननी चाहिए। प्रत्येक नागरिक को राष्ट्र के प्रति निष्ठावान होना चाहिए, ऐंसी शिक्षा की जरूरत है। शिक्षा की नींव को मजबूत बनाने की जरूरत है।शिक्षा को बदलना है तो पहले मातृभाषा को मजबूत बनाना होगा, विदेशी भाषा को थोपना देश के नागरिकों के अधिकारों पर कुठाराघात है। जिस देश को अपनी मात्रभूमि, मातृभाषा, पर अभिमान नहीं होगा बो देश कभी विकास नहीं कर सकता है । जैन धर्म के इतिहास को शिक्षा के पाठ्यक्रम में शामिल होना चाहिए। इस मंथन से हम अच्छा समाधान लेकर ही उठें ये भावना है।
  2. पूज्य आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज ने कहा कि ज्वालामुखी का फटना अलग बात है, भूकंप अलग बात है और सूर्य की तेज किरणें अलग बात है। कांच पर जब किरणें पड़ती हैं तभी प्रकाश फैलता है । ज्ञान को बाँधने का नाम ध्यान है जब तक ज्ञान को बाँधने का उपक्रम नहीं करेंगे तब तक अन्तर्मुहरत की साधना को गति नहीं मिल पाती है। जब सूर्य की किरणों की उष्णता से कंडे में भी अग्नि प्रज्ज्वलित होती है। समयसार को रटने से ज्ञान प्रज्ज्वलित नहीं हो सकता है जब सूर्य की किरण की तरह वो अंतरात्मा में प्रवेश करता है तब ज्ञान की ज्योति प्रज्ज्वलित होती है। गुरुवर ने कहा कि सोचने से पहले सुनना जरूरी है जब तक हम सुनेंगे नहीं तब तक सोचना व्यर्थ है। सूर्य की भाँती ऊर्जा मनुष्य के अंतर में निहित है परंतु ज्ञान के आभाव में वो ऊर्जा उद्घाटित नहीं हो पा रही है और ज्ञान तभी प्रकट होगा जब हम ज्ञान की खान के निकट पहुंचेंगे । जिनवाणी को पढ़ने भर से काम चलने बाला नहीं है उसे गढ़ना भी पढ़ेगा। ज्ञान का सदुपयोग करने से ही ज्ञान की किरणें हर दिशा में फ़ैल सकती हैं जो सूर्य की किरणों की भाँती प्रत्येक आत्मा को प्रकाशित करने में सक्षम होगी।
  3. पूज्य आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज ने कहा की जब लचक होती है तभी झुकने का उपक्रम होता है । तूफ़ान में भी वही टिक पाते हैं जिनकी जड़ें मजबूत होती हैं ,शीर्षासन से रक्त का संचार सही होता है इसलिए झुकने के परिणाम आने चाहिए । भारत को यदी बड़ा बनना है तो विनय शीलता को कायम रखना होगा । विनय से ही हम दूसरे के लिए पाठ्यक्रम बन सकते हैं । आजकल हाय तौबा का वातावरण बना हुआ है सभी लोग बहुत जल्दी शिखर को छूना चाहते हैं परंतु जब तक लोभ और तृष्णा को अपने ऊपर हावी रखेंगे तो ऊपर उठने की जगह गर्त में ही जाएंगे । उन्होंने कहा की परिग्रह ही दुःख का मूल कारण है ,जब हम याचक की भूमिका में रहते हैं तभी हमें प्राप्ति होती है । भगवान् महावीर ने तो अपने आपको दिवालिया बना लिया परंतु आप भीतर से दिवालिया नहीं हो पा रहे हैं मतलब खाली नहीं हो पा रहे हैं ,अपनी दीवाली को सार्थक बनाना है तो विनय को जीवन का प्रमुख अंग बनाओ ।लोभ और तृष्णा की गहरी खाई आपको कभी ऊपर नहीं उठने देगी । उन्होंने कहा की जो झुकने की कला सीख लेते हैं उन्हें फिर जीवन में किसी के सामने झुकने की जरूरत नहीं पड़ती है ।
  4. पूज्य आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज ने कहा कि हमेशा अग्रिम पंक्ति में रहने बाले लोग अपने पीछे बाली पंक्ति के लोगों को बिसमृत कर देते हैं जबकि जो अधिकार आगे बालों को होते हैं बही अधिकार अंतिम पंक्ति के व्यक्ति को भी होते हैं परंतु आगे बाला हमेशा अपने को श्रेस्ठ साबित करने में लगा रहता है, जरूरी नहीं की जो ज्येष्ठ हो बही श्रेष्ठ हो। श्रेष्ठा का मापदंड बड़ेपन से नहीं बल्कि बड़प्पन से माना जाता है। जो बड़े होते हुए भी कभी अपने को बड़ा सिद्ध करने की होड़ में नहीं लगते उन्ही के भीतर से बड़प्पन झलकता है। उन्होंने कहा कि धर्म कभी भी ये नहीं सिखाता की अपने अधिकारों का दुरपयोग करो बल्कि वो तो हमेशा कर्तव्यों के पालन की सीख देता है। आप सभी अपने कर्तव्यों का निर्बाहन करना प्रारम्भ करें तो कभी अधिकारों की प्राप्ति के लिए संघर्ष नहीं करना पडेगा। समाज की अंतिम पंक्ति के योग्य व्यक्तियों को भी उतना ही संम्मान मिलना चाहिए जितना अग्रिम पंक्ति के व्यक्ति को दिया जाता है तभी सामान नागरिक सहिंता का सिद्धान्त लागु हो सकेगा। गुरुवर ने कहा कि जो सेवा के कार्यों को प्राथमिकता देते हैं समाज में उन्हें स्वयं ही सम्मान मिलने लगता है। चातुर्मास में जो सेवा कार्यों में लगे रहे उनके कार्यों की सराहना की जानी चाहिए क्योंकि उन्होंने निस्वार्थ भाव से सेवा कार्य किया है। विशेष रूप से दूसरों को प्रेम से भोजन कराने बाले कार्यकर्त्ता साधुबाद के पात्र हैं। जो कार्यकर्ता बनकर कार्य करता है उसकी सदैव ही प्रशंसा की जाती है।
  5. भगवान महावीर स्वामी 24वें तीर्थंकर जिनके शासनकाल में हम सभी श्रावक धर्मचर्या करते हैं आज उनके मोक्ष कल्याणक का महामहोत्सव उन्ही के लघुनंदन आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज के ससंघ सानिध्य में जैन मंदिर हबीबगंज में भक्ति भाव से सानंद सम्पन्न हुआ। पूज्य आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज ने अपने प्रवचनों में कहा कि जो व्यक्ति ऋण ले लेता है और नहीं दे पाता वो दिवालिया हो जाता है आज के दिन भगवान भी संसार के बैभव से दिवालिया हो गए। अनंत सिद्ध परमेष्टि भी संसार की चमक दमक से दिवालिया होकर मोक्ष महल पहुँच गए। उन्होंने कहा कि आज चारों तरफ लोभ लालच का समरे फैला है। आँख बंद हो सकती है परंतु मन बंद नहीं हो सकता, आज मन चलायमान रहता है इसी कारण से चित्त में स्थिरता नहीं आ पा रही है। जब हम चित्त में स्थिर होना प्रारंभ करते हैं तब कर्मों की निर्जरा होती है और तभी हमारी वास्तविक यात्रा प्रारम्भ होती है। हमारी यात्रा अध्यात्म से प्रारंभ होकर मोक्ष मार्ग तक तभी पहुँचती है जब हम भीतर से खाली होना प्रारम्भ करते हैं।
  6. धन्य तेरस पर्व पर पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने कहा कि आज जो त्यौहार है वो दान की प्रेरणा देने वाला है। दान श्रावक का प्रमुख धर्म कहा गया है, दान देने और दान की अनुमोदना से ही कर्मों की निर्जरा होती है परंतु दान वो ही सार्थक होता है जो बोलने के बाद समय से पहले दे दिया जाय। दान के मामले में ग्रामीण अंचल के श्रावक हमेशा आगे रहते हैं और कालान्तर में शहर में रहने के बाद भी उनमें ये प्रवत्ति बनी रहती है। उन्होंने कहा कि मैं जब भोपाल में पंचकल्याणक के लिए आया था तो सबने मिलकर खूब धर्म प्रभाबना की थी और दान भी बढ़ चढ़कर किया था। दान तो दान होता है जो जीवन को सार्थक बनाता है पुण्योदय में कारण बनता है। धर्म कर्म सब करने के बाद भी यदि मोह नहीं छूटता है तो सब व्यर्थ है। मोह को त्यागकर ही दान के भाव निर्मित हो सकते हैं। उन्होंने कहा कि बड़े बड़े तालाब और नेहर आपकी प्यास नहीं बुझा पाते परंतु कुँए की छोटी सी झिर आपको पर्याप्त जल उपलब्ध करा देती है इसी प्रकार धर्म के प्रति छोटी सी भावना भी आपको भव्यता प्रदान करने में कारगर सिद्ध होती है। राजधानी बालों की झिर भी छोटी है परंतु भावनाएं प्रबल हैं। आपकी परीक्षा शुरू हो चुकी है अब तो संकल्प के साथ निर्माण में जुट जाएँ एक दिन निर्वाण की प्राप्ति का पुण्य भी जाग्रत होगा। अज्ञान दशा से बाहर निकलना चाहते हो तो ज्ञान का आवरण पहनलो।
  7. आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने कहा कि भारतीय किसान प्राचीन विज्ञान के हिसाब से खेती करता आया है। खेती का तरीका बदल गया परंतु किसान वही है। किसान कई तरह के बीजारोपण करता है पांच जगह एक बार बीज जाता है यंत्र के माध्यम से। यंत्र में ऊपर ढक्कन लगा रहता है। किसान फिर भी चौकस निगाह रखता है खेत में फसल के साथ खरपतवार भी पैदा हो जाती है। जिसे किसान उखाड़ कर फेंकता जाता है साथ में कुछ अनुपयोगी और कमजोर पौधों को फेंकता जाता है। खरपतवार और फसल एक जैंसी दिखती है तो सावधानी से हटाना पड़ता है। इसी प्रकार आप कर्मों को करते हो तो अच्छे कर्म के साथ बुरे कर्म भी करते हो,आप भी किसान के इस विज्ञान को समझकर गुण, धर्म को सुरक्षित रखने का पराक्रम करो। पूर्व के जो भाव थे उनको आपने लोप कर दिया। संस्कार भी लुप्त हो रहे हैं, खरपतवार को भी गेंहू समझकर ले रहे हो। भारतीय संस्कृति के सभी मूलभूत मापदंडों को ध्वस्त कर दिया है आपने। पुराने पदचिन्हों को मिटाकर नए कदम रखना प्रारम्भ कर दिया है। आप भी गेंहू की फसल की तरह बनो खरपतवार मत बनो। उन्होंने कहा कि आज तीर्थों पर भी प्राचीनता की जगह आधुनिक पद्धति अपनाई जा रही है। भाषा और संस्कृति को लोप कर दोगे तो भाव जाग्रत कहाँ से करोगे। आपने आधुनिकता के रंग में अपना घर बना दिया है उसे घर कैंसे कहेंगे। अपने सहज परिणामों तक पहुँचने के लिए, अपने वास्तविक स्वरुप को पहचानने के लिए जीवन से खरपतवार को हटाना होगा। आप अपने बच्चों को अच्छे संस्कार देना प्रारम्भ करो। आज की आहार व्यवस्था दूषित हो रही है बच्चे का सही पोषण हो नहीं पा रहा है क्योंकि आप सजग नहीं हो खान पान के प्रति। आप मुझसे मार्ग पूछते हो मैं बताता हूँ पर आप चलते नहीं हो,जब तक दया धर्म जाग्रत नहीं होगा आपको चिंता नहीं होगी। हानिकारक और दूषित भोजन से अपनी भावी पीढ़ी को बचा लो। उन्होंने कहा कि आप कृषि में नए प्रयोगों से मूल कृषि को लुप्त किया जा रहा है।आज गंगा तो वह रही है परंतु आपने विकास के नाम पर उसे काली गंगा बना दिया है। इसी प्रकार आपकी आत्मा तो गंगा की तरह शुद्ध है परंतु आधुनिकता के नाम पर उसे दूषित आप बना रहे हो। आधुनिकता का लबादा उतारकर अपने प्राचीन मूल स्वरुप को पहचानो। जो वस्तुएं स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं सबसे पहले उनसे दूरी बनाना प्रारम्भ करो,अपने बच्चों का सुरक्षित भविष्य चाहते हो तो उस पर ध्यान देना प्रारम्भ करो। उसे मोबाइल मैन नहीं बनाओ उसे अच्छा मैन बनाओ।
  8. पूज्य आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज ने कहा कि धार्मिक अनुष्ठान के लिए द्रव्य काल के साथ साथ क्षेत्र भी अपेक्षित है। निंद्रा के समय सम्यकदर्शन की प्राप्ति नहीं हो सकती हाँ सम्यक दर्शन के बाद निंद्रा अवश्य आ सकती है। निंद्रा के समय हम बुद्धिपूर्वक किसी पर पदार्थ को पहचान नहीं पाते । इसलिए हमारा प्रयास बिफल हो जाता है । जितनी निंद्रा आवश्यक है उतनी ही लेना चाहिए। उन्होंने कहा कि जब दिनकर यानि सूर्य का आभाव हो तो भोजन ग्रहण नहीं करना चाहिए क्योंकि पाचन सम्भव नहीं होता और शाम को भोजन भी हल्का लेना चाहिए। भोजन गरिष्ट होगा तो निंद्रा ज्यादा आएगी और फिर साधना नहीं हो सकती। पशु पक्षी भी रात में नहीं खाते केवल रात में जुगाली करते हैं और भोजन को सप्त तत्व में बदल देते हैं और दिन में भोजन करने बाले पशु मनुष्य से अधिक शक्तिशाली होते हैं। उन्होंने कहा कि साधक की सामायिक में यदि जाग्रति नहीं है तो व्रतों का संसोधन नहीं हो पायेगा। व्रतों में निर्दोषी करण होना चाहिए उसी से कर्मों की निर्जरा होती है। उन्होंने आगे कहा कि सामायिक तभी संभव है जब आप मन रुपी घोड़े पर लगाम लगा सको क्योंकि मन सरपट दौड़ता है जिसे नियंत्रित करने के लिए विशेष प्रकार के तप की आवश्यकता होती है।
  9. पूज्य आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज ने कहा कि श्रावक को धर्म के दायरे में रहकर ही धर्म के मूल सिद्धांतों का अक्षरशः पालन करना चाहिए। श्रावकों को जीवन में आचार,विचार, आहार, और व्यवहार का विशेष ध्यान रखना चाहिए। उन्होंने कहा कि दृष्टि का उपयोग सही नहीं कर पा रहे हैं। अपने द्रष्टीकोण को सही दिशा में ले जाना है तो उसका उपयोग सही करना होगा। गुरुवर ने कहा कि पानी में रहने वाला प्राणी जितनी आवश्यकता हो उतना ही पानी लेता है पूरा नहीं पी जाता है परंतु आप जरूरत से ज्यादा संग्रह करते हो चाहे वो पानी हो या धन हो। अभिमान करना अनावश्यक है परंतु आपने उसे आवश्यक बना लिया है। लोग कमजोर के सामने मूंछ पर ताव देते हैं और वजनदार के सामने चुप रहते हैं। जो धर्म के सिद्धांत को समझता है वो अभिमान से दूर रहता है। मोह को जीता जा सकता है परंतु क्रम से ही जीता जा सकता है। 18 दोषों से रहित जो आप्त है वो इष्ट हैं।परम में जो उत्कृष्ट हैं वे परमेष्टि होते हैं । ज्ञान तो हम लोगों के पास भी है परंतु अन्धकार के साथ है अथार्थ दिया तले अन्धेरा है। हमारा ज्ञान सामान्य है, अधूरा है। हरेक व्यक्ति के मन में भय व्याप्त होता है, भय रखने से भय कभी छूटता नहीं है। मृत्यु का भय सभी में व्याप्त है परंतु मृत्यु होती किसकी है ये नहीं जानते। जो सैनिक होता है वो कभी पीछे नहीं हट सकता, राजा और मंत्री एक कदम पीछे हट सकते हैं। सैनिक के सामने मृत्यु भी खड़ी हो तो वो मृत्यु से नहीं डरता है। जो व्यक्ति जीवन और मृत्यु को समझ लेता है वो स्वांस और विश्वास से परिपूर्ण रहता है। स्वांस के बिना अनेक तपस्वी लंबे समय तक रह सकते हैं क्योंकि उनके भीतर विश्वास होता है। उन्होंने कहा कि जो अपने स्वागत की चिंता करते हैं वे स्वागत के योग्य होते ही नहीं हैं। स्वागत तो सिर्फ उनका होता है जो सत्कार और पुरष्कार की भावना से दूर रहते हैं। मान कषाय ही पागलपन की ओर ले जाती है। मेरा कोई सत्कार नहीं हुआ, मेरा कोई कीर्तन ही नहीं हुआ बस इसी होड़ में सब लगे हैं और मान कषाय की पुष्टि न होने के कारण विचलित हो जाते हैं। जिसको ये ज्ञात हो जाता है कि सत्कार और पुरुष्कार क्षणिक भर के होते हैं और आत्मा चिर काल तक सम्मानित होती है उसके सामने दुनिया नतमस्तक हो जाती है। नदी के किनारे या जंगल में तपस्या की फ़ोटो निकलवाने से तप और त्याग नहीं होता है। तप तो अंतरंग की प्रक्रिया है जो भीतर ही भीतर चलती है। ये रहस्य जिसके समझ आ जाता है वो रहस्य की गुत्थी को सुलझा लेता है। अपने पीछे या आगे उपाधि लगवाना ये भी एक प्रकार से भूख है जो अनादिकाल से चली आ रही है। उपाधि के चक्कर में अपना मूल नाम भी लोग भुला देते हैं। अपने भीतर की कमियों को ढूंढना प्रारम्भ कर दो तो साधना सध जायेगी। स्वार्थ त्याग का नाम ही परमार्थ होता है। आदर्श मार्ग को वही प्रशस्त कर पाता है जो पहले स्वयं आदर्शों की स्थापना करता है। जो सदमार्ग पर चल रहा है यदि उसके पीछे लग जाओगे तो दुनिया भी तुम्हारे पीछे पीछे आएगी। भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय द्वारा सम्मानित पुस्तक "संपूर्ण योग विद्या" के नवीन संस्करण का विमोचन आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के समक्ष पूर्व कलेक्टर, नगरीय एवं आवास विभाग में उपसचिव श्री राजीव शर्मा जी ने किया। आचार्य श्री ने श्री शर्मा को आशीष प्रदान किया। उक्त पुस्तक योगाचार्य श्री राजीव जैन लायल ने लिखी है। आज दोपहर में मध्यप्रदेश राज्य महिला आयोग की अध्यक्ष श्रीमती लता वानखेड़े ने एवं पूर्व मंत्री श्रीमती अलका जैन ने भिन्न भिन्न समय पर आचार्य श्री को श्रीफल भेंटकर आशीष प्राप्त किया।
  10. पूज्य आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज ने कहा कि वैराग्य का मर्म समझने के लिए अध्यात्म को समझना होगा। आपके बच्चे अभी पारंगत नहीं है फिर भी आप उस पर ऐंसा बोझ डाल रहे हो जो धनुपार्जन की भागदौड़ की सिवाय कुछ नहीं है। उसमें धर्म के संस्कार नहीं डाल रहे हैं। पीढ़ी दर पीढ़ी यही चला आ रहा है। आज आने बाली पीढ़ी को संस्कारों का रोपण जरूरी है। ये संस्कार आपको ही देना होगा। मैं ऐंसा चिकित्सक हूँ जो आपकी नाड़ी देखकर आपको सही इलाज बता सकता हूँ। आप युवा पीढ़ी के सही चिकित्सक बनो,उसे सही प्रक्षिक्षण दो,उसे अच्छे बुरे का भेद ज्ञान कराओ। युवाओं को पहले नागरिक बनाओ फिर जिम्मेदारी का बोझ कन्धों पर डालो। बौद्धिक ज्ञान के साथ आध्यायत्मिक ज्ञान भी जरूरी है। सर्वांगीण और क्रमिक विकास होना जरूरी है बेहतर भविष्य के लिए। बोझ डालने के कारण वो देश के बारे में चिंतन नहीं कर सकता है। न तो भारत के अतीत का ज्ञान है न भारत के बर्तमान दशा का ज्ञान है। आप निर्देशक तो बन जाते हो आप उपदेशक और उद्देशक नहीं बन पाते हो। आप युवाओं को जीवन के उद्देश्यों को बारे में चिंतन करना सिखाइये उन्हें भी चिंतन की धारा से जोड़ने का प्रयास कीजिये। अर्थ के पीछे दौड़ने से अनर्थ ही होता है बल्कि युवा को अर्थ नहीं समर्थ होने की आवश्यकता है। उन्होंने कहा कि आप दादाजी हैं और नाती को सुखी बनाना चाहते हैं तो अर्थ को परमार्थ के रूप में स्वीकार करने के सूत्र उसे दीजिये। अर्थ,व्यर्थ, और अनर्थ के बारे में किशोर अवस्था से ही प्रशिक्षण देने की जरूरत है धर्म का संरक्षण करना है तो बच्चों में संस्कार का बीजारोपण करना प्रारम्भ कर दो।
  11. पूज्य आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज ने कहा कि आपकी दृष्टि दूसरों पर है, पराये दृश्य को आप अपना दृश्य समझ रहे हो तो दोष आपका ही है क्योकि दृष्टि स्वयं के दोषों पर जायेगी तभी निर्दोष चर्या हो सकेगी। उन्होंने कहा कि यदि भेद विज्ञान को मानते हो, यदि स्वाध्याय करते हो तो आपको धर्म की रस्सी बाँधना पड़ेगी ताकि आप संसार में कहीं खो न जाओ। भेद विज्ञान का प्रयोजन है की आप मोह को छोड़कर मोक्ष की तरफ अग्रसर हों। राग द्वेष की प्रवत्ति आपको मोह के बंधन से मुक्त नही होने देती है। अध्यात्म में गहरे रहस्य छिपे हैं जिन्हें समझने के लिए धर्म की धारा में अविरल रूप से निरंतर बहते रहना चाहिए। अध्यात्म को एक पाठ्यक्रम के रूप में स्वीकार करेंगे तो हमारा मोह गलता जाएगा, निरंतरता का आभाव नहीं होना चाहिए। उन्होंने कहा कि भेद विज्ञान के माध्यम से चलेंगे तो मोह की बेड़ियां टर टर टूट जाएंगी और कर्म आपके शिकंजे में कसते चले जाएंगे। क्षमता के अनुसार त्याग की सीढियां चढ़ना चाहिए, प्रतिमा (व्रत) क्रम से अपने शरीर की क्षमता के अनुसार लेना चाहिये। आज दोपहर में पंजाब और हरियाणा के राज्यपाल श्री कप्तान सिंह सोलंकी ने आचार्य श्री को श्रीफल समर्पित कर उनका आशीष ग्रहण किया। इस अवसर पर जनहित के अनेक मुद्दों पर दोनों के मध्य 15 मिनट तक चर्चा हुई। आचार्य श्री ने कहा कि जब लोकतंत्र है तो जनता को उसके पूर्ण अधिकारों की प्राप्ति होनी चाहिए तभी लोकतंत्र बहाल रह सकता है। श्री सोलंकी ने कहा कि राष्ट्रधर्म का पालन करना प्रत्येक नागरिक का परम कर्तव्य है और नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करना शासन और प्रशासन में बैठे लोगों का कर्तव्य है, सबसे बड़ा लोकतंत्र है भारत जहां भाषा, धर्म,संस्कृति की आजादी प्रत्येक व्यक्ति को है। आचार्य श्री ने कहा की शिक्षा को सुलभ और भारतीय परंपरा के अनुरूप बनाने में आप जैंसे विद्वानों को जिम्मेदारी लेनी चाहिए तभी राष्ट्र की तक़दीर और तस्वीर को वेहतर बनाया जा सकेगा। श्री सोलंकी ने कहा कि आप जैंसे तपस्वी और मनीषियों के मार्गदर्शन से ही सबको ऊर्जा मिलती है और कार्य सही दिशा में होते हैं। इस अवसर पर उनके पुत्र तथा भाजपा नेता अनिल अग्रवाल लिली भी उनके साथ थे।
  12. पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने कहा कि अभिनय करने वाला ऐंसा अभिनय करता है की वास्तविक लगता है परंतु वो वास्तविक नहीं होता बनाबटी होता है। पूर्व के जो कर्म उदय में आते हैं उनसे बचने के लिए बनाबटी बातें नहीं चलेंगी बल्कि वास्तविकता को जानकार उन कर्मों का सामना किया जा सकता है। प्रत्येक सांस में आपके अतीत का फल वर्तमान में परिणाम के रूप में सामने आता है। साक्षी भाव होकर भी एकाक्षी बनकर जो रहते हैं वो कर्मों के यथार्थ को जान नहीं पाते। रुद्राक्ष में एक आँख को लौकिक पद्धति में दुर्लभ माना जाता है । श्रीफल में भी तीन आँखें होती है एक आँख वाला दुर्लभ होता है। उन्होंने कहा कि अतीत के अनुभव का पुट होना चाहिए तभी दोनों आँखों से काम सही लिया जा सकता है। जो पदार्थ का वर्तमान में ज्ञान हो रहा है वो अतीत के अनुभव से ही द्रव्य क्षेत्र काल का निमित्त कराता है। आज जो ज्योतिष से जाना जाता है ये निमित्त ज्ञान तो हो सकता है नैमित्तिक ज्ञान नहीं हो सकता है। आप भौतिक पदार्थों से चिपके हुए हो तब तक आगे बढ़ नहीं सकते जब तक पर से पराया पन नहीं आएगा तब तक आप मोक्ष मार्ग पर नहीं बढ़ सकते। वर्तमान के बशीभूत न होकर अपने सूत्रधार की तरफ देखोगे तभी आपके अभिनय से दर्शक प्रभावित होंगे। आपका सूत्रधार आपका अतीत है उस अतीत को जानने के लिए आपको वर्तमान में ज्ञान की धारा के साथ विश्वास पूर्वक बहना होगा। संतोष को छोड़कर बाकी सभी गुणों को धारण करते जा रहे हैं, जब संतोष को धारण कर लेंगे तभी अतीत के गुण आत्मा में प्रकट हो सकेंगे। संतोष से ही पुण्य का कोष बढ़ता है।
  13. पूज्य आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज ने अपने आशीष वचनों में कहा कि आप नीचे रहकर भी पर्वत के मंदिर और शिखर को देख सकते हैं। एक बार दृष्टी से दिखाई दे जाते हैं। जहां से रास्ता होता है वही से मंदिर की तरफ जाया जाता है। जब पहाड़ चढ़ते हैं तो झुकना पड़ता है,साबधानी रखनी पड़ती है। व्यबधान का समाधान एकाग्रता,संकल्पशक्ति में होता है। रास्ते को सुव्यवस्थित करने से आगे बढ़ा जा सकता है। रास्ते में नदी आती है तो नाव के सहारे नाविक आपको पतवार चलाकर पार लगाता है। जब उस पार पहुँच जाते हैं तो स्वयं चलकर फिर लक्ष्य की और बढ़ना पड़ता है। कोई आपके साथ नहीं जाता है। स्वयं का सम्यक दर्शन, ज्ञान और चारित्र जागृत करने पर ही मोक्ष मार्ग पर बढ़ा जा सकता है। यदि इस मार्ग का अनुशरण करना है तो उस पथ पर आरूढ़ पथगामी का अनुशरण करते जाओ। उन्होंने कहा कि व्यवधान आते हैं परंतु यदि साधन को साधन मानकर उसे पीछे छोड़ कर आगे बढ़ेंगे तो बढ़ते चले जाएंगे। जो संसारी भ्रमजाल में फंसे हैं वे बिकलांग के सामान हैं पहले मानसिक विकलांगता को छोड़ना पडेगा अपने भीतर की ऊर्जा को संचारित करना पडेगा। अपने पैरों को पहले मजवूत बना लो उसके बाद इस कठिन मार्ग की यात्रा का शुभारम्भ करो। सड़क को उपयोग करो उसे अपना मत बनाओ ऐंसे ही मोह को छोड़कर मोक्ष की यात्रा प्रारम्भ करें और सदगुरु को पकड़ कर चलो। सारे व्यवधान को दूर करते हुए आगे बढ़ो। व्यवधान का समाधान अवधान से ही हो सकता है।
  14. गुरुवर ने अपनी अमृतमयी वाणी के प्राशुक जल से सभी को शीतल कर दिया उन्होंने कहा कि प्रमाद और कषाय करने से सुमेरु पर्वत के बराबर कचरा इकट्ठा हो जाता है। जो घाव हुआ था, धीरे धीरे भरते हुए आये औषधि उपचार किया पर प्रमाद के कारण पहले से और ज्यादा गहरा हो गया। पहले सात्विकता होते हुए भी कर्मों के थपेड़े ने एक को कर्जदार बना दिया, चुकाता गया वो थोड़ा सा रह गया अब वो चिंता से थोडा मुक्त हो गया और प्रमाद करने लगा तो फिर ऋणी हो गया। कषाय साफ़ हो जाती है माफ़ नहीं होती। हाथी निकल जाता है पूँछ रह जाती है। कषाय थोडा सा उदय में आ जाय तो गर्त में जाने में देर नहीं लगती। इससे गरीब, अमीर, श्रावक्,मुनि सभी ग्रषित हो जाते हैं क्योंकि कषाय मूर्च्छा परिग्रह का कारण होती है। आजकल मूर्च्छा (कोमा) में जाने की बीमारी से लोग ग्रस्त होते जा रहे हैं क्योंकि प्रमादी हो गए हैं। पहले कण के बराबर होती थी कषाय फिर मन भर होती थी आज टन भर होती जा रही है फिर जीवन टनाटन कैंसे बन सकता है। आज सक्रीय होकर धर्म का पालन करें, अहिंसा धर्म को जीवित रखना है तो वृक्ष की भाँती उसे भी सिंचित करना पडेगा। अहिंसा का बगीचा तभी फल फूल सकता है जब प्रमाद से बहार निकालकर, परिग्रह से मुक्त होना पडेगा, स्वार्थ सिद्धि को छोड़ना पडेगा। आज परमाणु की शक्ति जो एकत्रित की गई है वो बहुत विनाशकारी है। आज राष्ट्र को सशक्त बनाने के पहले अपने आपको सशक्त बनाएं।
  15. गुरुवर ने प्रवचनों में कहा कि इस गोष्टी में विद्वानों ने तत्वों का उदघाटन किया। जिव्हा लोभ के कारण रोग को निमंत्रण दिया जा रहा है और चिकित्सकों को निमंत्रण दिया जा रहा है। जान बूझकर रोग को निमंत्रण देने से बचना चाहिए। उन्होंने कहा कि गुणों के प्रति श्रद्धा भाव होना चाहिए,दुखित है, द्रवित है उसके प्रति आँखों में पानी आना चाहिए। पानी विज्ञान की देनें नहीं है वो तो भीतर से प्रकट होता है। वो पानी एक सात्विक जल है जिसमें दया का प्रतिष्ठापन हुआ है। सब अपने अपने ढंग से रोते हैं, दूसरों को देखकर रोना प्रारम्भ कर देते हैं। ये मानसिक गतिविधियां कष्ट में हुए व्यक्ति को देखकर होनी चाहिए। अर्थ को कोशकारों ने द्रव्य कहा है,व्याकरंकारों ने उसे द्रवण शील बताया है। दुसरे दुखी व्यक्ति को देखकर भी द्रवित न होकर केवल अपने बारे में सोच रहा है। उन्होंने कहा कि पहले नामकरण भविष्य को उज्ज्वलता के हिसाब से किया जाता था। हमने भारत का नामकरण इंडिया कर दिया। इंडिया का अर्थ है अपराधी, क्रूर, लड़ाकू, पुराने ढर्रे का व्यक्ति, ये इसलिए जान बूझकर अंग्रेजों ने किया है। भरत चक्रवर्ती के नाम से ये भरत भूमि थी जिसे विदेशी प्रभावों ने गुलामी की मानसिकता बाला इंडिया बना दिया। हम अपने नामकरण को, अपने प्राचीन इतिहास को स्वयं भुला रहे हैं। अंग्रेजियत मानसिकता के कारण प्रतिभा को दवा रहे है जो कार्य बुद्धि से करना चाहिए आज इंटरनेट के आदि बनकर कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि पश्चाताप के पूर्व ही जाग्रत होना आवश्यक है। हम पूरब वाले, ये पश्चिम वाले हैं, ये दक्षिण वाले हैं ,सही दिशा का बोध हो जाय ,सोई चेतना जग जाय ये पुरुषार्थ तो करना पडेगा । स्वाभिमान के सूत्र, संस्कार की तरफ कदम बढ़ानेकी जरूरत है। आस्था साहस की जननी होती है। परंतु विदेशी शिक्षा की बजह से हम खान पान शुद्ध आहार से भी दूर हो रहे हैं। आपका तो संध्याकाळ पूर्ण हो रहा है नई पीढ़ी का संध्याकाल प्रारम्भ हुआ है। आपकी यात्रा पूर्ण होने से आने वाली पीढ़ी की यात्रा पूर्ण नहीं होती। संध्या की लाली सुलाने वाली होती है और सुबह की लाली जगाने वाली होती है। मूक माटी ने सबको बोलना सिखाया है खुद मौन रहकर। उसने रक्त का संचार चलायमान रखने के सूत्र दिए हैं । पेट ने पीठ से जबसे मैत्री की है जिव्हा दुखी हो गई है अथार्थ ज्यादा पेट हो जाय तो पीठ की तरफ देख नहीं पाते बीमार हो जाते हैं फिर जिव्हा भूखी रह जाती है। उन्होंने आगे कहा कि आज जो परिग्रह की होड़ लगी है जो विदेशी बैंकों में धन जमा किया जा रहा है वो अन्धकार की और ले जाने वाला है। लज्जाजनक कार्य है काला धन जमा करना। आज हम लोगों के प्रमाद के कारण ही शिक्षा के क्षेत्र में अंग्रेजी का थोपा जाना भी लज्जाजनक है ,पहले सारे शोध हिंदी में किये जाते थे आज अंग्रेजी में किये जा रहे हैं। वेद प्रताप वेदिक एक साहित्यकार हैं जिन्होंने विदेश में हिंदी भाषा में शोध प्रबंध किया है क्योंकि अभिव्यक्ति जो हिंदी में हो सकती है वो दूसरी विदेशी भाषा में नहीं हो सकती है। पिता की भाषा नहीं होती मात्र भाषा होती है क्योंकि जो 9 माह गर्भ में रखकर संस्कार दिए जाते हैं वो पिता से नहीं मिल पाते। अपनी मातृभाषा के प्रति अडिग रहना चाहिए । गवेषणा का अर्थ है चिंतन की धरा गहराई तक पहुँचना , जो देश भक्त होता है वो चिंतन को मातृभाषा में ही प्रस्तुत करता है । हजारों ग्रन्थ जिन भाषा में लिखे गए हैं उस भाषा को लोप कर दोगे तो अपनी संस्कृति से युवा पीढ़ी को विमुख कर दोगे।
  16. पूज्य आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज ने अपने आशीर्वचनों में कहा कि आजकल चित्र का जमाना चल रहा है, सभी लोग चित्र में अपना चित्त लगा कर बैठे हैं परंतु ये चित्र आपके चारित्र को कमजोर कर रहा है। बाहर का चित्र हमेशा आकर्षित करता है जिसके मोह में आप सभी पराश्रित हो जाते हैं । जब हम अंतरंग के चित्र को निहारते हैं तो यथार्थ का बोध होता है और यहीं से चारित्र निर्माण की यात्रा प्रारम्भ होती है। उन्होंने कहा की कोई भी काव्य शब्दों की अभिव्यक्ति को व्यक्त करने का सशक्त साधन होता है। आज विद्यार्थियों को यदि शिक्षा के साथ सार्थक ज्ञान का भी बोध कराया जाय तो शोध की दिशा उन्हें सही दशा तक ले जा सकती है। श्री कुठियाला ने कहा की मूकमाटी में पिरोया हुआ प्रत्येक शव्द एक मोती की भाँती है जो सम्पूर्ण होकर जीवन की एक माला का रूप ले लेती है। आज के जो पत्रकारिता क्षेत्र के विद्यार्थी हैं उन्हें इसके अध्ययन से बहुत ही सशक्त ज्ञान की उपलब्धि हो सकती है। महात्मा गांधी विश्व विद्यालय बर्धा के कुलपति गिरीश्वर मिश्र ने कहा कि प्रत्येक पंक्ति अपने आप में जीवन के यथार्थ को सहेजे हुए लगती है, ये एक महाकाव्य न होकर सम्पूर्ण जीवन दर्शन परिलक्षित होता है। प्रो. श्रीराम परिहार खंडवा ने कहा की प्रत्येक पंक्ति से ऊर्जा का संचार करने वाली तरंगें प्रवाहित होती हैं। मूक माटी काव्य न होकर एक धर्म ग्रन्थ जैंसा है जो आत्मकल्याण का मार्ग प्रशस्त करता है। वरिष्ट साहित्यकार और कवि कैलाश मड़बैया ने अपनी कविता के माध्यम से अपनी भावांजलि प्रस्तुत की।
  17. गुरुवर ने कहा की आप लोग बकताओं को एकाग्रता से सुन रहे थे में भी एक एक श्रोता बनकर सुन रहा था । मंथन में ही जो देखते हैं वो गायब हो जाता है जो नहीं दिखता बो उभर कर सामने आता है । भावों की कोई भाषा नहीं होती है बो तो तैरते हुए ही दिखाई देते हैं । अपने भावों की तरंगें व्यक्त करते रहना चाइये | गुरुवर ने कहा कि कल प्रधानमंत्री जी आये थे तो भारत की बात हुई। कोई कितना भी बड़ा कलाकार हो यदि पूर्ण निष्ठां से कला की अभिव्यक्ति नहीं करेगा तो सार्थकता दिखाई नहीं देगी। भाषा में उलझकर कभी कभी भाव पिछड़ जाते हैं । केंद्र बिंदु की स्थापना करके एक रेखा खींची जाती है तो चारों तरफ हरेक दिशा में केंद्र को छूतेहुए तभी चतुर्भुज बनता है। केंद्र से विचलित न हों तो सम्पूर्ण व्यास परिलक्षित होता है । द्रष्टीकोण से ही व्यवहार में सरलता आती है। जीवन को सम्पूर्ण बनाना चाहते हो तो उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश से ऊपर उठकर केंद्र तक दृष्टि जाना चाहिए। परिधि में सूर्य का बिम्ब तभी दिखाई देता है जब सभी दिशाओं में एकरूपता होती है । शब्दों से ही उपजती है जीवन की विविध रूपताएं। आज भारत के प्राचीन दृष्टिकोण को समझने और समझाने की जरूरत है। जो वीणा का संगीत होता था आज लुप्त हो गया है । शुभ यानि सरश्वती और लाभ यानि लक्ष्मी ये दोनों एक दुसरे की पर्याय हैं परंतु आज सरश्वती का लॉप करके लक्ष्मी के पीछे दौड़ रहे हैं । सरश्वती को मन्त्र बनाकर ही महामंत्र का रूप दिया जाता है। यंत्र और तंत्र सब बेकार हैं मन्त्र के सामने। पीछे भी देखो मगर पिछलग्गू मत बनो। परदेश की यात्रा छोड़कर अपने देश में लौटने पर ही भारतदेश का नवनिर्माण हो सकता है। लाभ के पीछे दौड़कर भला नहीं हो सकता।अंतरंग की लक्ष्मी को पाना है तो बाहर देखना बंद करो भीतर जाओ और तर जाओ। जैंसे रंग का चश्मा लगाओगे बैंसा ही दृश्य दिखाई देता है। आज अंतरराष्ट्रीय होने की जरूरत नहीं है बल्कि अन्तर में राष्ट्रीय भावनाओं को जाग्रत करने की जरूरत है । मंथन से चिंतन उपजता है और फिर नवनीत की तरह मुलायम परिणाम निकलते हैं । प्राचीन भारत की संस्कृति का मंथन करे तभी शुभ परिणाम दिखाई देंगे । विदेशी संस्कृति से भारत की प्रतिभाओं का दोहन हो रहा है ,हमारी संस्कृति का ज्ञान कराने पर ही प्रतिभाएं उभर कर आएँगी । आचार्य महाराज ने जो कहा वो शत प्रतिशत सत्य है क्योंकि मूक-माटी वेद है, पुराण है, बाइबिल है, कुरआन है, आत्मा का सार है, इसमें समाया सम्पूर्ण संसार है, ये पुदगल की व्यथा है, ये भारत की पौराणिक कथा है, ये नारी शक्ति की आवाज है, इसमें छिपे इतिहास के राज है, इसमें पद दलिता का मर्म है, ये चैतन्य का धर्म है, इसमें विज्ञान का सार है, परमाणु का ये विस्तार है, इसमें माटी की सुगंध है, इसमें मनुष्य का अन्तर्द्वन्द है, वीरांगनाओं की है शौर्यगाथा, वीरों का गर्व से उठा माथा, जीवन मूल्य हुआ साकार है, इसमें जिनवाणी का सम्पूर्ण सार है। इस अवसर पर उपस्थित अनेक कुलपतियों का स्वागत आयोजन समिति की और से किया गया । इस अवसर पर सांसद आलोक संजर ने आचार्य श्री को श्रीफल भेंट कर आशीष ग्रहण किया।उन्होंने कहा कि भारतीय साहित्य में हिंदी का योगदान सर्वोच्च है क्योंकि हिंदी में भावों की स्पष्टता दिखाई देती है। मूक माटी एक ऐंसा महाकाव्य है जिसमें जीवन का यथार्थ है। इस अवसर पर पाणिनि संस्कृत विश्वविद्यालय उज्जैन पूर्व कुलपति मिथिला प्रसाद जी ने कहा की माटी तो मूक थी परंतु गुरुवर की कलम ने उसे शब्दातीत बना दिया है। श्री प्रसाद जी ने एक कविता के माध्यम से सम्पूर्ण मूक माटी को अपने विचारों के माध्यम से सशक्त ढंग से प्रस्तुत किया । प्रमुख सचिव संस्कृति, वाणिज्य, पुरातत्व मनोज श्रीवास्तव ने गुरुवर का आशीष प्राप्त किया। इस अवसर पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के वरिष्ठ हस्तीमल जैन ने कहा की पीड़ा भी आनंद का विषय होता है जब उसमें से कुछ अनूठा निकलता है ,गुरुवर ने माटी में से अमृत निचोड़ा है । श्री मनोज श्रीवास्तव ने कहा की जितनी रचनाधर्मिता गुरुवर की कलम में है भारतीय साहित्य समाज में विरला ही है। आजकल अनेक गुरु सर्जन की वजाय अर्जन में लगे हैं परंतु केवल्य के मार्ग को प्रशस्त करने वाले गुरुवर ने साहित्य का जो सर्जन किया है वो अंतरंग के निर्माल्य का परिणाम है । इस महाकाव्य के तारतम्य में स्पष्ट है माटी को अग्नि परीक्षा देनी पड़ती है और उसमें स्वर्ण मयि निखार आ जाता है। आतंकवाद के बारे में लिखी पंक्तिआं ऐंसी लगती हैं मानो अभी 29 सितम्बर के सन्दर्भ में 1988 में ही लिख दिया हो, ये उनकी दूरदर्शिता का परिचायक है । जिसका जीवन कविता हो गया हो उसकी कविता तो जीवनदायनी हो ही जायेगी।
  18. गुरुवर ने कहा कि सम्यक दर्शन की भूमिका में परिणामों की स्थिति बदलती है। नारकीय जीवन बहुत ही बदतर होता है, फिर भी सम्यक दर्शन की स्थिति बन जाती है। नार्कियों की अपेक्षा हमें अपनी स्थिति वेहतर बनाना है इसलिए उनके जीवन के बारे में जानना जरूरी है। प्रधानमंत्री का जीवन भी बहुत ही अनुशासन से बंधा होता है उन्हें आहार विहार और व्यवहार का ध्यान रखना पड़ता है। उन्होंने कहा कि सब अपनी वेदनाओं को लेकर व्यथित हो जाते हैं परंतु जब नारकीय जीवन को जानेंगे तो शायद अपनी व्यथा आपको छोटी लगने लगेगी। नरक की वेदनाओं को शब्दों में नहीं कहा जा सकता है क्योंकि वहा पल पल पर पीड़ाएं होती हैं उधर मृत्यु का भी प्राबधान नहीं होता बल्कि 33 हजार सागर की समय अबधि तक सब सहना पड़ता है जबकि आप स्वछन्द हो, स्वतंत्र हो इसलिए दूसरों पर हंस रहे हो, अपनी मनमानी कर रहे हो। नरक में पछतावा होता है, अपने किये की क्षमा मांगता है जीव। सम्यक दर्शन के लिए, धर्म के लिए तरसता है। आपको धर्म मिला है, सम्यक दर्शन का रास्ता मिलता है फिर भी परिणामों को प्रदुषण से नहीं बचा पा रहे हो जबकि नरक में जब भावना में गलतियों का एहसास होता है तो सम्यक दर्शन की भूमिका बनना प्रारम्भ हो जाती है। उन्होंने कहा कि दुनिया में मोह से बड़ा कोई नशा नहीं होता है जो विद्वानों द्वारा भी नहीं उतरता, जबकि अधयातम में सुगंध है,सुरभि है, महक है परंतु मोह के नशे में अध्यात्म की सुगंध भी आप तक नहीं पहुच पा रही है। जब तक आपके भीतर के परिणाम शुद्ध नहीं हो सकते मैं भी आपके परिणामों की विशुद्धि में कारण नहीं बन पाउँगा। अपने कर्मो को स्वयं सुधारो और कर्तव्य का पालन तुलना से रहित होकर करें।
  19. पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने अपने प्रवचनों में कहा कि सम्यक दर्शन की उत्पत्ति में अनेक कारण होते हैं हरेक गति में धर्म श्रवण होता है, नरक में भी देवलोग जाकर नार्कियों को संबोधित करते हैं। 16 स्वर्ग वाले शुक्ल लेश्या वाले देवों के नीचे वाले देव जाते हैं। अधोगति में अपने ढंग की कषाय अलग होती हैं बहुत तीव्र होती है फिर भी सम्यक दर्शन उन्हें होता है। यदि आप दुसरे से सत्य बुलवाना चाहते हो तो आपको भी सत्य को अंगीकार करना होगा। वात्सल्य चाहते हो तो अपने ह्रदय को वात्सल्य से भरना होगा। अधोलोक में अनुग्रह नहीं होता स्वयं जाग्रत होना पड़ता है। आज समाचार पत्रों में गरम ख़बरों का चलन ज्यादा हो गया है सही ख़बरों का नितांत आभाव हो गया है, आज अपनी विचारधारा थोपने का चलन बढ़ता जा रहा है। सब अपने विचारों को थोपने में लगे हैं। उन्होंने कहा कि जब तक भूख से बच्चा नहीं रोता तब तक माँ उसे खाना नहीं देती,इसी प्रकार आप अपने अंतरात्मा में धर्म की भूख नहीं बढ़ाओगे तब तक आपको कोई गुरु सदमार्ग का अमृतपान नहीं करायेगा। लोकतंत्र में किसी को बाध्य नहीं किया जा सकता है किसी बात को मानने के लिए परंतु अपनी बात पूरी निष्ठा और ईमानदारी से रखना चाहिए। सबको अपनी बात रखने का अधिकार है,अपने गुणों को रखने का अधिकार है परंतु किसी को किसी की आलोचना का अधिकार है, समालोचना तो होना चाहिये। दूसरों के गुणों की जो प्रशंशा करता है समाज में उसका महत्व बढ़ जाता है। जो अपनी आलोचना करता है दुनिया कभी उसकी आलोचना नहीं करती। समालोचना से साहित्यकार को भी समाज में स्वीकार किया जाता है। समाचार पत्रों को आलोचना की ख़बरोंं से बचकर समाज को सही दिशा देने वाले समाचार देना चाहिए तभी समाज और राष्ट्र को सही दिशा मिल सकेगी। उन्होंने कहा कि सम्यक दर्शन कोई छोटी वस्तु नहीं है जो बाजार में मिल जाय वो तो स्वयं की कमियों को दूर करके और अपनी आलोचना से ही सम्यक दर्शन प्राप्त किया जा सकता है।
  20. गुरुवर ने कहा कि पूर्व के कर्म जो बंधे हैं उसमें पुरुषार्थ का योगदान होता है। माचिस की तीली में एक तरफ बारूद लगाया जाता है, उसमें से चिंगारी निकलती है। ऐंसे ही जो कर्म हमने आत्मा पर चिपकाए हैं वो बाद में परिणाम के रूप में परिलक्षित होते हैं। माचिस के आजु बाजू में लगे मशाले में यदि पानी लग जाय तो फिर तीली नहीं जलती है। बारिश में पानी से बचने पर ही वो काम करती है। ऐंसे ही प्रमाद के कारण कर्म के उदय में लापरबाही करते हैं तो कर्म विपरीत हो जाते हैं। आवश्यकता के अनुसार कर्मों का उपयोग करना चाहिए ताकि समय पर कर्म विपरीत न हों। जब बच्चों को विद्यालय जाने का भय होता है तो वो समय पर जाग जाते हैं नहीं तो प्रमाद में सोते रहते हैं। ऐंसे ही पुरुषार्थ को जागृत रखेंगे तो कर्मों के विद्यालय तक पहुँच पाएंगे। जीवन में आग को जलाये रखिये तभी शुभ परिणाम मिलेंगे। आग यदि भीतर ही भीतर जलती रहेगी तो कोई भी अनुष्ठान सफल हो सकेगा। उन्होंने कहा कि भीतर की आग को विकास की गति प्रदान करेंगे, पुरुषार्थ करेंगे तो सही दिशा मिलती रहेगी। दादाजी की गोदी में बालक बैठ था भीतर से आबाज आई तो बालक भीतर से खाने की वस्तु लाया और खुद खाया उत्साह के साथ तो दादाजी को दिया उन्होंने आधी वस्तु बालक को दी परंतु बालक ने देखा दादाजी मेरी तरह उत्साह पूर्वक नहीं खा रहे क्योंकि उनके भीतर का उत्साह संसार के प्रपंचों में समाप्त हो गया था। ऐंसे ही आप बिषयों में रच पच कर जीवन के अनमोल क्षणों को व्यर्थ गंबाते जा रहे हो जबकि सही दिशा में पुरुषार्थ करेंगे तो उत्साह चिरकाल तक बना रहेगा। तृष्णा का जहर जब चढ़ता है तो भवों भवों तक नहीं उतरता है इसलिए तृष्णा की गहरी खाई में जाने के पूर्व संभालना जरूरी है। जीवन में समय समय पर गृहस्थ, वानप्रस्थ आश्रम की व्यवस्था बताई गई है। कर्तव्यों का पालन करते चले जाएंगे तो गृहस्थ आश्रम का जीवन शांति से निकलजायेगा और फिर वानप्रस्थ की और निराकुल भाव से बढ़ सकेंगे नहीं तो बृद्ध आश्रम की और जाना पडेगा। उन्होंने कहा कि शून्य का अविष्कार हमारे आचार्यों ने किया है, शून्य की कीमत तभी होती है जब उसके साथ कोई अंक लगाया जाता है।
  21. आचार्य श्री ने कहा कि सत्य है कटु है सुनने में अच्छा न।हीं लगता, आँखें सत्य को देखना नहीं चाहती परंतु उसे सुनना, देखना और सहन करना पड़ता है ये सत्य है। पाठ्यक्रम को सरसरी निगाह से नहीं देख पाते परंतु उसका चिंतन करना पड़ता है। आज को प्रवचन में उद्घठित हो रहा है बो पुराना है परंतु बार बार सुनने में अच्छा लगता है। इस कथा के माध्यम से ये बता रहा हूँ जब तूफ़ान आता है तो बृक्ष के पत्ते, डाली, फल सभी टूट कर गिर जाते हैं परंतु तना मजबूत होता है वो टिका रहता है। पाठ्यक्रम में जो आया है उसे स्वीकार करना पड़ता है। ये वशुन्धरा रोमांचित हो जाती है महान समर्पित व्यक्तित्व की अतीत की घटना को जानकर मृत्युंजयी और कालजयी होती है। महापुरुषों की जीवन गाथा जो भुलाये नहीं भूली जाती। आज के विद्यार्थी कमजोर इसलिए हो रहे हैं क्योंकि वो ऐंसे पाठ्यक्रम से दूर हो रहे हैं। धरती काँप जाती है, मौसम रंग बदलने लग जाता जब किसी तूफ़ान की बारिश की आहट सुनाई देती है, धरती में भी दरार पड जाती है। जब पुराण पुरुष हो या उसकी पत्नी हो बो पुरुषार्थ उससे भी जुड़ा होता है, वो भी इतिहास की महानायिका होती है। जब भाषा समझ नहीं आती चित्रों से भाव को पकड़ लिया जाता है ये ही भारतीय संस्कृति है। जब गलतियों पर गलतियां होती जाएंगी तब ही स्वीकारने की क्रिया होती है और जो स्वीकारता है बही जीवन को सुधारता है। इस भारत भूमि पर मुस्लिम शासिका ने अपने सर पर पुराण ग्रन्थ को उठाया है क्योंकि यही संस्कृति की ताकत है। इस भारत में राजा की आज्ञा का प्रतिकार नहीं किया जाता भले ही उसकी रानी हो उसे भी स्वीकार करना पड़ता है। भारत की प्राचीन विधियों का नया रूप देकर विदेशों में नए नए प्रयोग किये जा रहे हैं जिसे दुनिया स्वीकार कर रही है। उन्होंने कहा कि क्षत्रिय राजा क्षत्राणी को आज्ञा देता है किसी नोकरानी को नहीं देता। हम पुराण को पढ़कर और समझकर ही भारतीय संस्कृति को जान सकते हैं, बड़े बड़े लेखकों ने इन इतिहास की सत्य घटनाओं को बड़े ही तरीके से संजोया है, संवारा है जिसमें भावों की अभिव्यक्ति परिलक्षित होती है। जिस तरह देवताओं की आँखों में भी इतिहास की उस घटना को देखकर आँसृ की धारा बह निकली हो वह दृश्य कैंसा होगा। सहज रूप से कुंड के सामने स्थान बनाया गया था उस स्त्री को ये अग्नि परीक्षा देनी थी, कूदना था उस अग्निकुंड में जिसमें भीषण लपटें उठ रही थीं और बो सती भी परीक्षा देने तत्पर थी। मर्यादा पुरषोत्तम भी परीक्षा लेने अडिग थे क्योंकि वो राजधर्म की मर्यादा से बंधे थे। गुरुवर ने कहा कि प्रश्न चिन्ह लगाया जाता है उसका उत्तर सही तभी दे सकते हो जब प्रश्न के भाव को समझा जाओ। जब सीता तत्पर हो गई अग्नि में कूदने को तो लोग जल देवता की तरफ टकटकी लगाकर देखने लगे। गुरुवर ने कहा कि जिसके भीतर आत्मविश्वास होता है बो परीक्षा से भयभीत नहीं होता है। इसलिए सीता कूद पड़ी और चमत्कार हो गया अग्नि लुप्त हो गई, कमलासन प्रकट हुआ सीता उस पर जा बैठी। जल और अग्नि का चोली दामन का साथ होता है, जब बिजली अग्नि के रूप में कड़कती है तब ही बारिश होती है। इस दृश्य को देखकर सभी उपस्थित लोग जय जय कार करने लगे। गुरुवर ने कहा कि इसी प्रकार आज के विद्यार्थी आत्मविश्वास के साथ परीक्षा दें, श्रम और पुरुषार्थ को प्राथमिकता दें। खोदने का पुरुषार्थ करें तो सुखी धरती में से भी जल की धारा बह सकती है। सीता की इस परीक्षा को देखकर सबकी आँखों में पानी आ गया। सीता की परीक्षा तो हो गई अब राम की परीक्षा का समय आ गया था। उन्होंने कहा कि जीवन, तत्व, नश्वर क्या है, तेरा क्या है मेरा क्या है इससे बाहर निकलो और नए दिन जो आने बाले हैं जो अच्छे दिन आने बाले हैं उनकी तरफ देखो। सीता ने मौन धारण कर लिया तो राम के माथे पर चिंता की लकीर आ गई क्योंकि बो राजधानी की तरफ नहीं वन की तरफ चल दी। सीता आगे आगे चली और राम पीछे पीछे चले। लोकतंत्र में यदि कर्तव्यों से विमुख हो रहे हैं तो व्यवस्था में सुधार नहीं हो सकता। सीता ने अपने कर्तव्य का पालन किया और आर्यिका प्रथ्वीमति माताजी की शरण में जाकर अपने जीवन को भव्यता प्रदान करने के मार्ग पर आरूढ़ हो गई। आप भी सभी कर्तव्यों का पालन तभी कर पाएंगे जब पुराण से कुछ सबक लेंगे।
  22. पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने कहा कि आज मनुष्यों में विभिन्न प्रकार की बीमारियां पनप रहीं हैं जिनके लिए विशेष योग्यता बाले चिकित्सक बुलाये जाते हैं। मधमेह की बीमारी तो तेजी से पनप रही है। देवलोक में देवों को कभी कोई बिमारी नहीं होती न ही चिकित्सकों की कोई आवश्यकता उनहे पड़ती है। कषाय और चिंता से रहित होने पर ही आरोग्यता शरीर में आती है, इसके विपरीत देवलोक में कषायों की मंदता रहती है,शारीरिक और मानसिक रोगों से रहित होता है देवों का जीवन। उन्होंने कहा कि आत्मपुरुषार्थ अलग बस्तु है और कषायों की मंदता अलग बस्तु है। आप लोग कहते हो कि इतिहास में क्या रखा है, ये किस काम का है, जबकि इतिहास ही हमें जीवन की सही दिशा का बोध कराता है क्योंकि इतिहास के यथार्थ को जानकर ही भविष्य का सही निर्धारण होता है। हमारे भीतर बहुत खटक पटक चलती रहती है, जब तक ये भीतरी खटक पटक समाप्त नहीं होती तब तक बाहर का वातावरण भी प्रदूषित बना रहता है। जिनवाणी या आगम में हमें ये जानने को मिलता है कि हम पूर्व में कहाँ से आये हैं और भविष्य में अपनी अच्छी गति का निर्धारण कैंसे करे। जिस तरह टिकट के लिए लाइन में लगते हो उसी प्रकार स्वर्ग और मोक्ष की टिकट के लिए हमारी कठिन तप बाली लाइन में तो आपको लगना ही पडेगा। उन्होंने कहा कि लोग कहते हैं महाराज आजकल आप धर्म की डोज ज्यादा दे रहे हो,कभी कभी चिकित्सक को रोग के हिसाब से ओषधि की मात्रा भी बढ़ाना पड़ती है। जो पौराणिक रोग होते हैं उनको सही करने के लिए पौराणिक तरीके का इलाज करना पड़ता है। जो शरीर के लिए आवश्यक हो भले ही कड़वी हो परंतु ओषधि देना तो पड़ती है।
  23. जो आप मोबाईल का उपयोग कर रहे हो, इसमें से निकलने वाली घातक किरणें आपके साथ साथ कुछ आकाश में विचरण करने वाले पंछियों के लिए भी नुक्सानदायक हैं। पूज्य आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज ने कहा कि चिड़िया संघी पंचिन्द्रिय जीव होती है। एक अनुसंधान से पता चला है की मोबाइल के टावर से निकलने वाली किरणों से सबसे ज्यादा नुक्सान उनको हो रहा है और उनकी संख्या घटती जा रही है। आप मोबाइल मंदिर परिसर में लेकर घुमते हो तो अहिंसा धर्म का घात होता है। आप कम से कम मंदिर में उपयोग न करने का संकल्प तो ले ही सकते हैं ताकि अनावश्यक हिंसा से बच सकें। गर्भवती महिलाओं पर भी इसका दुष्प्रभाव होता है और आने वाले बच्चे के लिए विकास में भी इसकी किरणे घातक सिद्ध होती हैं। उन्होंने कहा कि जब एक्सरे का निर्माण हुआ तो उससे भीतर की बीमारियां पता लगाईं जाती हैं। जो भीतर की बीमारियां आपको ज्ञात नहीं हो पाती हैं ऐंसे ही मोबाइल से आपके भीतर बीमारियां पनप रही हैं जो आपको दिखाई नहीं देती हैं। आज विज्ञान जगत में जो सूक्ष्म अविष्कार हो रहे हैं वो भविष्य में विकराल रूप धारण कर सकते हैं और मानव जीवन के लिए ख़तरा सिद्ध हो सकते हैं। उन्होंने कहा कि आज कृषि के क्षेत्र में भी विज्ञान के द्वारा कीटनाशक के नए प्रयोग हो रहे हैं जिनके दुष्प्रभाव आपके शरीर पर हो रहे हैं ।नए नए प्रयोगों से बातावरण दूषित हो रहा है । कीटनाशक भारतीय संस्कृति नहीं है बल्कि कीटनिरोधक भारतीय संस्कृति है। आज ऐंसी खाद भी बनाई जा रही है जिसे डालने से मौसम के जो कीट होते हैं वो खेत में पनप ही नहीं पाते हैं ,इसको प्रोत्साहित हो भोपाल ।जो आप मोबाईल का उपयोग कर रहे हो ,इसमें से निकलने वाली घातक किरणें आपके साथ साथ कुछ आकाश में विचरण करने वाले पंछियों के लिए भी नुक्सानदायक हैं । उन्होंने कहा कि अपने राष्ट्र के भविष्य के निर्माता बच्चे हैं उन्हें प्रदूषित बातावरण से मुक्त कर अच्छी दिशा का बोध कराना आप सभी का कर्तव्य है। आज डिब्बा बंद खाद्य पदार्थ खिलाकर आप बच्चों के मानसिक और बौद्धिक विकास से कुठाराघात कर रहे हो। जब तक शुद्ध और पौष्टिक आहार अपने बच्चों को देना प्रारम्भ नहीं करोगे तब तक उनकी बुद्धि का विकास रुका रहेगा। उन्होंने कहा की आज कृषि उत्पादन में फल ,सब्जी, अनाज के साथ अंडा उत्पादन, मछली पालन, मुर्गी पालन को भी सम्मिलित करना राष्ट्र का दुर्भाग्य है। आज कृषि प्रधान भारत में असली कृषि को पीछे धकेल कर मांस उत्पादनों को बढाबा देना कृषि के साथ कुठाराघात है । इस विषय में सभी को चिंता के साथ सोचना होगा तभी अहिंसा धर्म को जीवित रखा जा सकता है।
  24. पूज्य आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज ने अपने आशीर्वचनों में कहा कि पहले की शिक्षा में तीन चरणों में परीक्षा के माध्यम से विद्यार्थी की योग्यता का मापदंड किया जाता था फिर अगली कक्षा में जाने के लिए भी एक परीक्षा होती थी ताकि सरलता से उसे प्रवेश की पात्रता मिल जाय ।आज सेमिस्टर सिस्टम के माध्यम से हर 6 माह में पाठ्यक्रम की परीक्षा होती है ये अव्यवहारिक तरीका है क्योंकि वह 6 माह में पुनराबलोकन उस पाठ्यक्रम का नहीं कर पाता है और उसकी पढाई की धारा भी टूट जाती है जिससे उसका मनोबल टूटता है ।इस शिक्षा नीति का कुछ लोग बिरोध भी करते हैं क्योंकि ये प्रणाली प्रासंगिक नहीं है। इसमें अभिभावक और विद्यार्थी भी संतुष्ट नहीं है परन्तु उनकी आवाज सुनने बाला कोई नहीं है क्योंकि शिक्षा का ब्यबसायिकरण होता जा रहा है। उन्होंने कहा की आज शिक्षा के नाम पर जो क्षल किये जा रहे हैं बो हमारी संस्कृति पर कुठाराघात है । और ये सब सुनियोजित तरीके से किया जा रहा है । गोधूलि बेल में गाय भैंस लौटकर आ जाते हैं फिर बो जुगाली करते हैं जिससे अंदर सात तत्व बनते हैं जिससे दूध बनता है । आपके लिए भी कुछ सिद्धान्त बनाए गए हैं जो आपके ज्ञान को विकसित करने में सहायक सिद्ध होते हैं ,आप जिनवाणी बगल में नहीं सामने रखोगे तभी ज्ञान की प्राप्ति हो सकेगी। आप बच्चों को भी यदि संस्कारित करना चाहते हो तो उन्हें ज्ञान का सही मार्ग दिखाने का उपक्रम करें।
  25. आचार्य श्री ने कहा की महावीर जयंती पर इस मैदान में प्रवचन हुआ था । सूर्य देवता भी कहीं छुपे हुए हैं । धरती का नाम क्षमा है ,कीट पतंगे , नदी नाले सभी इस धरती की गोदी में विचरण करते हैं । स्वर्ग से अच्छी धरती है ये भारत की धरती । अहिंसा को प्रणाम करने से अहिंसा का पालन नहीं होता । अहिंसा एक निषेधात्मक शब्द है । हिंशा का निषेध् जहां होता है अहिंसा का प्रादुर्भाव बहिसे होता है । उन्होंने कहा कि भोजन चाहते हो तो आपको अग्नि से पाक हुआ भोजन मिलता है । बिना अग्नि के जीवन का निर्माण नहीं होता । कुम्भकार भी मिटटी के बर्तन को अग्नि के हवाले करता है तो अग्नि देवता प्रज्ज्वलित नहीं होते तब कुम्भ कहता है आप अग्नि से इन्हें जलाओगे नहीं बल्कि इन्हें जिलाओगे । हमें पक्का कर दो मेरा जीवन तभी लोगों को शीतलता प्रदान कर पायेगा । आप संकोच मत करो अग्नि देवता मुझे अपना तेज प्रदान करो । उन्होंने कहा की श्रम के बिना पुरुषार्थ के बिना पुरुष का जीवन भी अधूरा होता है इसलिए मुझे पवित्र पावन बना दो तो में एक मंगलकलस बन जाऊंगा । गुरुवर ने कहा की आप जल की शीतलता से ही घबरा जाते हो और मिटटी का कुम्भ अग्नि के तेज से भी नहीं डरता । धरती की दरारें पानी की बूंदों से से भर्ती हैं और जीवन की दरारें क्षमा से भर्ती हैं । पात्र के बिना पानी टिक नहीं सकता और पात्र के बिना प्राणी टिक नहीं सकता । जब तक निस्वार्थ भाव से कार्य करने बाले करपात्री आगे नहीं आएंगे तब तक ये समाज टिक नहीं सक्टा । मुख्यमंत्री जी को ऐंसा ही करपात्र बनना होगा अपने प्रदेश की प्रजा के लिए तभी प्रदेश बिकसित होगा । उन्होंने कहा की पुरुषार्थ और श्रम के आभाव में दुर्दशा होती है । हमारी क्षमा में श्रमिकपन आना चाहिए । शिक्षा हमेंशा कर्म की होती है जबकि आज शिक्षाकर्मी की शिक्षा चल रही है । भारत की मर्यादा खेतीबाड़ी , साडी , हैं। शिक्षा ऐंसी हो जो भारतीय संस्कृति के आधार पर होना चाहैए परंतु बिना सिंग और पूँछ की शिक्षा चल रही है । बड़े बड़े स्नातक आज बेरोजगार घूम रहे हैं ,अनेक इंजीनियर कर्जे से दबे हुए हैं उन्हें ऋणी बना दिया है । विश्व बैंक के कर्जे से भारत की बैंक भी दब रही हैं । आर्थिक गुलामी के दौर से भारत गुजर रहा है । शिक्षा लेकर अपना अच्छा कर्म करें ,पुरुषार्थ करें । सुभाष चंद्र बॉस ने अपनी माँ को पात्र को लिखा था की माँ मुझे बाबू नहीं बनना बल्कि अपने पैरों पर स्वाभिमान से खड़े होना है । गुरुवर ने कहा की भारत के बिना विश्व भी खड़ा नहीं रह सकता है । क्षमा की जो बिधि बताई है क्षमा उस बिधि से ही होती है । बाबू बनने के चक्कर में कर्म से दूर हो रहे हैं देश के युवा । श्रम रहित समाज गुलामी की मानसिकता का प्रतीक बन जाता है । गुरुवर ने कहा कि किसान आज पूरा कर्म करने के बाद भी दुखी क्यों है इस पर विचार करने की जरूरत है । आज इंडिया की नहीं प्राचीन भारत की कृषि को पुनर्जीवित करने की आवशयकता है । आज श्रमिक का जो शोषण हो रहा है सरकार को उसे रोकने के लिए सार्थक कदम उठाना चाहिये तभीएक अच्छे समाज की कल्पना को सार्थक किया जा सकता है । आजशहर शेयर बाजार के चक्कर में आगे बढ़ रहा है और देश को पीछे कर रहा है । मुख्यमंत्री जी आपको जनता ने विधायक बनाया था इसलिए जनता जो शासक है उसके भले को सोचकर ही आगे कदम बढ़ाएं क्योंकि केंद्र कोई भीजनता केंद्रबिंदु है । चुनाब के समय ही नहीं आचार सहिंता हमेशा के लिए लागु होना चाहिए | 70 साल हो गए आजादी को आज आजादी को परंतु जनता का पक्ष कमजोर हो गया है । आज विदेशी भाषा हावी होती जा रही है अपनी राष्ट्रभाषा को पीछे धकेल दिया है । अंग्रेजी को जान्ने बाले गिनती के हैं परन्तु उसे ही हर काममें इस्तेमाल किया जा रहा है । न्याय के क्षेत्र मेंभी इस भाषा के कारन जनता को परेशानी हो रही है । भारत को अपनी भाषा के प्रति गंभीर होना पडेगा तभी हम सही न्याय कर पाएंगे ।राष्ट्र की सभी स्थानीय भाषाओं का उपयोग अंग्रेजी के स्थान पर होना चाहिए । मध्यप्रदेश हिंदी को मजबूत करने के लिए तत्पर है परंतु सम्पूर्ण भारत में इसके लिए अभियान चलाना चाहिए | इसी दिन :- जयंत मलैया जी ने अपने उदगार व्यक्त किये । उन्होंने कहा हमारा सौभाग्य है गुरुवर राजधानी में आज गांधी जी और शाश्त्री जी की जयंती पर हमारे निवेदन पर क्षमावाणी में पधारे । इस अवसर पर सुधा मलैया जी ने भी अपने विचार व्यक्त किये। शिबराज जी ने कहा की हम धन्य हैं जो आचर्य श्री के युग में हमारा जन्म हुआ है । गांधी जी को नहीं देखा परंतु वे गुरुवर से भिन्न नहीं होंगे । जगत के कल्याण के लिए सदमार्ग पर दुनिया को चलाने का कार्य कर रहे हैं और बो सिर्फ जैन के नहीं जन जन के हैं । क्षमा कमजोरों ,कायरों का धर्म नहीं हैं ,क्षमा एक विज्ञान है, वेद है , पुराण है । ये मानव जीवन सफल हो सद्बुद्धि मिलती रहे ,सन्मार्ग पर चलते रहें ये आप जैंसे गुरु से आशीर्वाद मांगते हैं , अनेकान्तवाद की परंपरा हजारों साल से चल रही है जो गुरुवर में परिलक्षित होती है । आदिनाथ भगवान् से महावीर तक की जो परंपरा चली आ रही है जो वसुधैव कुटुम्बकम् को सार्थक करती है । सब अपने लिए जीते हैं परंतु महावीर ने जीव मात्र को जीने की बात कही है । सम्पूर्णता आचार्य श्री में दिखाई देती है जो सबके कल्याण की भावना को लेकर राष्ट्र को जोड़ने का कार्य कर रहे हैं । उन्होंने कहा की जब तक जितनी गाय हैं उतनी गौशालाएं प्रदेश में न खुल जाएँ तब तक में चैन सर नहीं बैठूंगा । नशामुक्त प्रदेश की कल्पना को साकार करना है । क्षणभंगुर शरीर को सार्थक कैंसे बनाएं ये आपसे गुरुदेव रास्ता चाहिए ।
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