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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. पूज्य आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज ने अपने प्रवचनों में कहा क़ि जो भगवान का भक्त होता है बो भक्ति करते समय अपनी भवन व्यक्त करता है । सम्यक दर्शन की विशेषता क्या होती है ये आप सभी को ज्ञात होना चाहिए ताकि आप भक्ति के मार्ग को और सुदृढ़ बना सको ।सम्यक दर्शन होने के उपरांत जो बंध के कारन बिभिन्न परिस्तिथियां जीवन में उत्पन्न होती हैं उसके बारे में ज्ञात होना चाहिये । थोडा सा स्वाध्याय करने से ये ज्ञान भी जागृत किया जा सकता है । जिस दुकान को या व्यापर को आप जिस बारी की के साथ और समूचे बाजार पर नजर रख कर चलाते हो तब आपको लाभ मिलता है उसी प्रकार कर्म सिद्धान्त की भी जानकारी होनी चाहिए। पुण्य और पाप के जो बंध निरंतर चलते हैं बो अपने भावों के माध्यम से आप चलाकर लाभ ले सकते हो । सम्यक दर्शन के माध्यम से आप पुण्य की प्रकृति कर सकते हो ,किसी से मांगने की आवश्यकता नहीं है अपने भावों की निर्मलता से आप सब पा सकते हो। जो हम सुबह कर्मों का बंध करते हैं बो अन्तरमुहर्त्त में काम आ सकता है। जिस प्रकार चोट लगने पर घर पर ही प्राथमिक चिकिसा की जाती है तो अस्पताल नहीं जाना पड़ता उसी प्रकार पुण्य का बंध भी आत्मा के प्राथमिक उपचार में सहभागी होता है। कर्म सिद्धान्त में मांगने का निषेध् है , संतोष को प्राथमिकता दी गई है। आप सभी के पास संतोष होना चाहिए नहिं तो धैर्य की परीक्षा हो जाती है । जो संतोष रखता है विवेक के साथ उसका विश्वास और सम्यक दर्शन प्रगाढ़ होता जाता है । आचार्यों ने ध्यान की अच्छी परभाषा दी है की हाथ पर हाथ रखना ध्यान नहीं है बल्कि जिनवाणी के कथन को ध्यानपूर्वक सुनना भी ध्यान है । जो व्यक्ति संतोष के साथ धैर्य और ईमानदारी के साथ 8 घंटे व्यापर करता है उसे धर्म का लाभ भी प्राप्त होता है। ये किसी सिद्धचक्र विधान से कम नहीं होता है। कर्म सिद्धान्त पर चलने बाला व्यक्ति यदि व्यापर में भी संतोष रखता है तो वो भगवान् की एक तरह से आज्ञा का पालन ही कर रहा होता है। उन्होंने कहा क़ि आप भले ही बहुत व्यस्त रहते हो पर आपसे ज्यादा व्यस्त हम रहते हैं पर हमारा धर्म ध्यान निरंतर चलता रहता है ऐंसे ही आप भी कहीं भी व्यस्त रहें यदि धर्म का चिंतन मनन निरंतर चल रहा है तो आपका पुण्य का बंध हो रहा है , आपके सम्यक दर्शन , ज्ञान ,चारित्र में बृद्धि हो रही है। अन्तरमुहरत में जिन प्रकृतियों का बंध होता है बो प्राथमिक चिकित्सा का काम करते हैं । प्रतिपल , प्रतिक्षण जो भावों का परिणमन चल रहा है ये ही फलदायक होता है । इसलिए मांगने की प्रवत्ति का त्याग करो जो संतोष के साथ करोगे बो शुभ परिणाम देने बाला होगा।
  2. जैन संत आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज ने कहा है कि पानी गरम हो सकता है, बरफ नहीं, इसी प्रकार मनुष्य प्रभावित होता है, संत या मुनि नहीं। उन्होंने कहा कि जल का स्वभाव शीतलता है, लेकिन वह कुछ समय के लिए गरम हो सकता है। उसमें गरम होने की क्षमता है। लेकिन यदि वह बरफ बन जाए तो उसे गरम नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार मनुष्य कुछ समय के लिए प्रभावित हो सकता है, उसमें प्रभावित होने की पात्रता है, लेकिन मनुष्य एक बार सच्चा संत बन जाए तो उसे प्रभावित नहीं किया जा सकता। क्योंकि वह आत्मा में रमण करता है। आचार्यश्री ने कहा कि तीन लोक की शक्तियां भी सच्चे मुनि को पिघला नहीं सकती। क्योंकि उनके ज्ञान में ऐसे शक्तियां होती है। आप कितना ईंधन व्यय कर लो वे पिघलने वाले नहीं है। आत्मा का स्वभाव ऐसा है कि जो इसे महसूस करता है वह बर्फ की तरह उसमें जम जाता है। आचार्यश्री ने कहा कि गर्मी और ठंड में अंतर है। गर्मी सहन की जा सकती है, लेकिन बर्फ को सहन करना मुश्किल है। लेकिन याद रखना कि बर्फ की चटक लाभप्रद भी होती है। शरीर में सूजन हो जाने पर गरम सिकाई से ज्यादा लाभ बर्फ की सिकाई से होता है।
  3. पूज्य आचार्य श्री ने कहा की महोत्सव प्रारम्भ हुआ जीवन में मौलिक क्षण आये चिरप्रतीक्षित समय आ गया है उमंगें तरंगें हैं सभी के मन में महोत्सव की प्रतीक्षा के लिए जिज्ञासा है , सौभाग्य के क्षण, तोरण द्वार सजे हैं , गीत , संगीत बज रहे हैं सबको प्रतीक्षा है उन क्षणों की । रोंगटे खड़े हो जाते हैं किन्तु महोत्सव किसके लिए है ये किन्तु कहते ही सब में जिज्ञासा जागृत है । होता बही है जो ललाट पर लिखा होता है उसे कोई बदल नहीं सकता ये लेखा मिटाया नहीं जा सकता है । लकीर मिटने से समय का लिखा मिटाया नहीं जा सकता । परंतु एक रात में क्या बदल जाय कुछ कहा नहीं जा सकता है । लोकतंत्र में चुनाव 5 बर्ष में होते हैं , लोकतंत्र में 4 काल होते हैं भूत ,वर्तमान्, भविष्य और चौथा कॉल भी होता है बो है आपातकाल। राजा रामचंद्र जी के राज्याभिषेक की तैयारी चल रही होती है परंतु आधी रात को किसी के मोह का जागरण हो गया और शर्तों और अनुबंधों में बंधा राजा विवश हो गया और अपने प्रिय पुत्र राम की जगह कैकेयी पुत्र भरत के राज्याभिषेक और राम के वनवास की मांग को अपने पूर्व बचन का पालन के कारन स्वीकार करना पड़ा । बज्र ह्रदय बाले दशरथ की आँखों में अश्रुओं की धार बेह जाती है परंतु कैकेयी का ह्रदय पिघलता नहीं है । दशरथ मूर्छित हो जाते हैं और शीतोपचार का उपक्रम प्रारम्भ हो जाता है ।उन्होंने कहा की इस तरह के क्षणों पर धिक्कार है जोभारत की पवित्र भूमि पर घटित हो गए जो काला इतिहास लिख गए । कभी कभी शोधित मुहर्त में भी इस तरह की आंधी चल जाती है जो लाखों मनों को विचलित कर जाती है । ये समाचार सुनकर भरत का मन भी उद्धेलित हो जाता है , लक्ष्मण के मन में अनेक विचार जन्म ले लेते हैं परंतु बो भ्राता राम के निर्णय को सहर्ष स्वीकार कर लेते हैं । आचार्य श्री ने कहा की महापुरुषों की ये कथाएँ हमें बार बार पढ़ना चाहिए । राम सबसे पहले ये समाचार सुनकर माँ कौशल्या के पास जाकर वन जाने के लिए आशीर्वाद लेने जाते हैं फिर कैकेयी के पास जाकर आशीर्वाद मांगते है और कहते हैं में भरत के लिए मन वचन काय से राजा बनने का मार्ग प्रशस्त करने की भावना भाता हूँ । पिता की आज्ञा शिरोधार्य करता हूँ । भरत ने राम से निवेदन किया की आप नहीं तो आप की चरण पादुकाएं दे दीजिये में उन्हें ही सिंहासन पर विराजमान करके राज काज चलाऊंगा । अपने पिता के चरण छूकर राम कहते हैं पिताश्री मुझे क्षत्रिय धर्म के पालन की आज्ञा और आशीर्वाद प्रदान करें ।कैकेयी की आँखों में आंसू नहीं आये परंतु उसकी कोख से जन्मे भरत की आँखों से आँसृ की धारा बेह रही थी। शासन तो शासन होता है और प्रजातंत्र तो प्रजातंत्र होता है । हमारे स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस का पूरा पूरा सम्मान करना चाहिए । कर्तव्यों के क्षणों से कभी विमुख नहीं होना चाहिए अहिंसा धर्म का पालन करते हुए अनीति को छोड़ नीति पूर्वक कार्य करने के लिए संकल्पवध्द होना चाहिए । जो आपके सामने लक्ष्य है उसे पूर्ण करने के लिए एकजुट होने की शपथ लें। उत्साह को तालियों तक सीमित न रखकर उसे सदुपयोग में लगाएं । मंदिर के साथ साथ शिक्षा के मंदिर की भी जरूरत है उस दिशा में सबको सोचना चाहिए । आपके कार्यों से आने बाली पीढ़ी को भी प्रेरणा मिलेगी इसलिए संकल्पित हो जाइए ।दिन निकलता है ,शाम होती है , रात होती है पुनः सूर्यनारायण प्रकट होते हैं और हम सोते रहते हैं । हमें जागृत होने की आवश्यकता है ।
  4. पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने कहा क़ि जब हम यात्रा पर जाते हैं तो वाहन में पेट्रोल की आवश्यकता होती है और हमारा वाहन चालक आवश्यकता अनुसार उसमें पेट्रोल डालता है । अब मानलो क़ि किसी कारन से पेट्रोल पंप में पेट्रोल नहीं होने के कारण वाहन में पेट्रोल नहीं भर पाया तब वाहन उतना ही चलेगा जितना पेट्रोल पहले से भरा हो । ऐंसे ही प्रत्येक जीव एक गति से दूसरी गति में जाता है तो उसे कर्मों की ऊर्जा के हिशाब से चलना पड़ता है चाहे बो संसारी हो , चाहे नारकीय हो ,जहां का निमित्त हो बहिन जाना पड़ता है इसमें कोई घपला नहीं किया जा सकता । आदमी सोचे की उसे मनपसंद भव् मिल जाय तो ये सम्भब नहीं है क्योंकि कर्मों की सरकार अलग प्रकार से चलती है , जो आयु कर्म का बंध आप करते हो कर्मों की सरकार उसी हिसाब से गति का निर्धारण करती है ।जिस प्रकार आज के लोकतंत्र में बहुमत के हिसाब से सरकार चलती है, दो तिहाई बहुमत से उसी प्रकार कर्मों में दो तिहाई कर्म जब आपके पक्ष में होते हैं तब कर्मों की सरकार आपके पक्ष में चलती है ।कर्मों से छिपकर कोई बहार नहीं निकल सकता है ,आप निकलकर तो देख लो सब पता चल जायेगा। उन्होंने आगे कहा क़ि आयु कर्म का बंध बहुत महत्वपूर्ण होता है, जो आपने कर्म किया है उसे तो भोगना ही पड़ेगा । न माता पिता न भाई बहन कोई भी आ जाय आपको अपना कर्म तो भोगना ही पड़ेगा हाँ अपने पुरुषार्थ से कम ज्यादा किया जा सकता है । देव गति में जब आपका आत्मा होता है तो बहाँ से आपको कुछ रियायत मिल जाती है 6 माह पुर्व ही अगले भव् का बंध किया जाता है । ये पूण्य की प्रकृति के कारण होता है । जो सम्यक दृस्टि जीव होता है बो समय रहते संभल जाता है ,आप यदि अपने आपको सम्यक दृष्टि कहते हो तो संभल जाओ । जिस प्रकार आप अपना हिसाब किताब 31 मार्च को व्यबस्थित करते हो ताकि अगले हीसाब में आसानी रहे ।बैसेे ही 6 माह में देवगति में आगामी भव को सुधरने के लिए व्यवस्थित होना पड़ता है । सम्यक दृष्टि जीव सोचता है की मनुष्य भव में ही जीव की मुक्ति की सामर्थ होती है इसलिए बो नर काया को पाने के लिए सुर (देव गति) काया को छोड़नेे तत्पर हो जाता है। उन्होंने कहा क़ि जिस तरह प्रशासनिक वर्ग स्थाई होता है और राजनेता सीमित समय के लिए बनते हैं और राजनेता को जो मौका मिलता है उसे सही दिशा में लगा दे तो बो भी स्थाई बन सकते हैं उसी प्रकार यदि मनुष्य भव को परमार्थ की दिशा की और मोड़ दिया जाय तो सिद्ध शीला पर स्थाई स्थान मिल सकता है । स्वर्ग के बड़े बड़े देव भी मनुष्य भव को पाने तरसते हैं।
  5. पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने कहा की चन्दन का स्वाभाव शीतल होता है आप तिलक के रूप में माथे पर लगते हो जिस जगह लगाते हो बो केन्द्र बिंदु होता है जहाँ से आपको शीतलता का एहसास सब जगह तक होता है। परमात्मा का सबको सुख पहुँचाने का दृष्टिकोण होता है इसे ही वीतरागी विज्ञानं कहते हैं।राग से रहित ज्ञान होता है तो तीन लोक में पूज्य ज्ञान होता है , ज्ञान को पूज्यता तभी प्राप्त होती है जब राग का आभाव होता चला जाता है , ज्ञान की पूज्यता इतनी विश्वव्यापी है की आज भी बो वीतरागिता की महक, सुगंध सर्वत्र बिखरी हुई है। केवल स्मरण मात्र से , दर्शन मात्र से हमें बो सुगंधि प्राप्त हो जाती है , पढ़ने मात्र से हो जाती है , जीवन में उतर जाती है। परमार्थ के माध्यम से स्वार्थ को गौण किया जा सकता है । संसारी प्राणी अपने को छोड़े बिना दुसरे तक नहीं पहुँच पाता , ये संकीर्णता मोह और अज्ञान के कारण होती है , जो हमारे भीतर तक घुसी हुई है। उन्होंने कहा की आप अपने आँगन में जो पुष्प लगाते हो बो सिर्फ आपको ही सुगंध नहीं देता अपितु पूरे मोहल्ले को महका देता है , ऐंसा वातावरण हमें निर्मित करना चाहिए , धर्म की क्रिया का लाभ दूसरों तक भी पहुँचाया जा सकता है , ये पहुँचाने का उपक्रम अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण है । हम अपने आप को ही सुरक्षित रखना चाहते हैं इसलिए हमारी सीमा बंधी हुई है। सब तक पहुँचने का उपक्रम मन से भी किया जा सकता है। उन्होंने आगे कहा की प्रभु का अस्तित्व सर्वत्र है जिसका स्पंदन हरेक जीव को होता है , कोई वंचित नहीं रह सकता । आप लोगों को खवर ही नहीं ,अखबार बालों को खबर ही नहीं जो इसे प्रकाशित कर देते , आप कहीं भी रहिये प्रभु के आत्मा के प्रदेश आप के भीतर प्रवेश कर सकते है परंतु हम इससे अनभिज्ञ रहते हैं ,हमें भान नहीं हो पाता इससे स्पष्ट है छायिक ज्ञान होना आवश्यक है केवल परोक्ष ज्ञान से काम चलने वाला नहीं है , इसलिए ज्ञान का सही सदुपयोग करना चाहते हो तो प्रभु की शरण जाओ । आप संसार की लीला में फंसे रहते हो और प्रभु की ऊर्जा आपको स्पर्श करके चली जाती है । आत्मा के प्रदेशों के ऊपर जो कर्म शेष रह जाते हैं उन्हें सीमित समय में समाप्त करने के लिए धर्म में ये विधि बताई गई है । प्रभु स्वयं आपका दरवाजा खटखटाते हैं फिर भी आप लोगों की नींद नहीं खुल रही है , प्रभु कान के समीप आकर कहते हैं अब तो जाग जाओ, फिर भी होश नहीं रहता हम गाफिल निद्रा में हैं। जिनवाणी के माध्यम से हम जान रहे है की कितने भावों से प्रभु हमें जगाने आ रहे हैं अनंतकाल से निरंतर ये क्रम चल रहा है । अब तो स्वार्थ का विषर्जन करो, परमार्थ का भजन करो , ये ही कल्याण का मार्ग है।
  6. पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने आज अपने प्रवचनों में कहा क़ी गृहस्थ जीवन में धन की आवश्यकता होती है और गृहस्थ आश्रम चलाने के लिए धन को गौंड़ नही करते हुए भी उसे सिरमौर नही बनाना चाहिए इसी तरह धर्म को सुरक्षित रखने के लिए अर्थ का सहारा ले सकते है इसमें कोई बाधा नही है किंतु आज कल की व्यवसथा इसके विपरीत हो गई है व्यवस्था बड़ी हो गई है बड़े बड़े धन वालो की लाइन लग गई है।उन्होंने कहा कि अर्थ के लिए बड़ा कार्य आवश्यक है दुकान यदि मौके पर नही होगी तो पुराना ग्राहक तो आ जायेगा नया नही आएगा और दूकान मौके की होगी तो पगड़ी भी बड़ी ही दी गई होगी । साहूकारी एवं बैंक वाले भी ऐसा ही करते है जो भी ग्राहक बनाये जाते है वह बने रहते है और उनके मुनाफे में से ही नए ग्राहकों को ऋण देते रहते है इसी प्रकार मौके की दूकान होती है तो मकान मालिक अपना किराया बढ़ाता जाता है इसलिए व्यापार को उस हिसाब से मुनाफे का करना पड़ता है इसी तरह आज धार्मिक अनुष्ठान बड़े स्तर के हो रहे है उसमें बड़े स्तर का दान आता है तो खर्चे भी उसी प्रकार होते है इन अनुष्ठानों के माध्यम से जो धर्म से विमुख होता है वह भी इसमें शामिल हो सकता है। केवल पैसे की बात मत किया करो बो तो आएगा ही लक्ष्मी के पीछे भागोगे बह उतनी ही दूर जायेगी तथा लक्ष्मी से जितने दूर होंगे बो उतना ही पास आएगी । लक्ष्मी के पिछलग्गू नहीं बनो। धर्म को हमेशा अपने पास रखो तब अपने आप लाभ होता जायेगा। धन तो आएगा परंतु उसे सिरमौर नहीं बनाओ ।उन्होंने कहा कि मोर की आवाज सुनकर सारे सांप भाग जाते हैं इसलिए उसे सिरमौर कहा गया है।
  7. पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने कहा क़ि चिकनाहट और रूखापन वस्तुओं की प्रकृतियां हैं। बंधन आसान है परंतु बंधन से मुक्ति आसान नहीं है । मिश्री और घी को मिलाते हैं तो इसकी गुणवत्ता अलग होती है और शहद मिलाते हैं बराबर अनुपात में तो उसकी गुणवत्ता अलग हो जाती है बो बिष बन जाता है । बंध की व्यवस्था अपने आप में महत्वपूर्ण है किसके संयोग से लाभ होता है किसके संयोग से हानि होती है ये समझने की बात है । ज्ञान नहीं होने के कारण संसारी प्राणी फंस जाता है , सब सुख की कामना में भटक रहे हैं, दुःख से मुक्ति पाने के लिए दुःख की उत्पत्ति किस सामग्री से हो रही है ये जानना जरूरी है , जिसको सुख मानते हैं बही दुःख का कारन होता है इसलिए आप पहले दुःख की सामग्री की सूची बनालें । भ्रमित ज्ञान दुःख का कारन है जबकि सुलझा ज्ञान कम भी है तो सुख का कारण होता है। बेडा पार करना चाहते तो हैं परंतु लेकिन इन वाक्यों में उलझ जाते हैं ये निषेधवाचक शब्द हैं। उन्होंने आगे कहा की भावों, वचनों और चेष्टाओं की तुलना घी, शक्कर और शहद से निर्मित बिष से की जा सकती है । ये तीनों हमारे जीवन के लिए हानिकारक हो जाते हैं ये बिष का काम करते हैं यदि विपरीत प्रयोग किया जाता है । ये सही दिशा में जाएँ तो पूण्य का कारन बन जाते हैं । पूरा निगाह का खेल है यदि निग़ाह आपकी सही दिशा में जायेगी तो आपको जीवन की गुथ्थी सुलझाने में आसानी रहेगी। बिषय कषाय से बचने के लिए और अपनी आत्मा के खाते को पाप कर्मों से मुक्त करने के लिए अपनी निगाह दुसरे पर न डालकर अपने स्वयं के ऊपर डालना प्रारम्भ करेंगे तो आप अपने ऊपर उपकार करेंगे । इसलिए हमारे भगवान् की नासा दृस्टि होती है जो हमें प्रेरित करती है क़ि निगाह स्वयं के ऊपर डालो तो स्वयं भगवान बन जाओ । भगवान करुणा के सागर हैं और आप संसार के पापों के सागर बने हुए हो, उनके मुख से अमृत झरता है आपके मुख से कषाय का झरना फूटता है । सब भीतर के परिणामों का खेल चल रहा है । परिणामों को समझने पर ही धर्म को समझ पाएंगे ,आत्म विज्ञानं को समझ पाएंगे।
  8. जैन संत आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने कहा है कि महाप्रलय को लेकर कई राष्ट्रों के वैज्ञानिकों द्वारा जो महाप्रयोग किया जाना है वह अभी भी जारी है। लगभग 27 किलोमीटर की सुरंग में महाविस्फोट करके यह प्रयोग किया जाना है। उन्होंने कहा कि ऐसे प्रयोग नहीं होना चाहिए। प्रकृति की कई चीजें प्रयोग की नहीं, श्रद्धान का विषय है और उन्हें श्रद्धान तक ही सीमित रखना चाहिए। आचार्य श्री ने कहा कि मनुष्य जन्म सद्कर्मों से मिला है। इसे केवल खाने-पीने में दुरुपयोग मत करो। जन्म को सार्थक करना है तो आत्मा की लब्धियों को पहचानों और पुरुषार्थ कर परमात्मा बनने का यत्न करो। आचार्यश्री ने कहा कि योग्यता को प्राप्त करना गुणों पर आधारित है, लेकिन योग्यता का उपयोग करना पुरुषार्थ पर आधारित है। जैसे करंट होने के बाद भी यदि बल्व जलाने का पुरुषार्थ न किया जाए तो अंधेरा ही रहेगा। इसी प्रकार आपकी आत्मा में कई लब्धियां हैं, लेकिन उन्हें प्रकट करने का पुरुषार्थ तो आपको करना होगा। आचार्यश्री ने कहा कि मनुष्य जीवन आसान नहीं है। इसे खाने-पीने में गंवाना अज्ञानता है। उन्होंने कहा कि एक इंद्रिय जीव भी अपनी क्षमता अनुसार पुरुषार्थ करता है और पंच इंद्रिय मनुष्य सारी क्षमता होने के बाद भी आलस्य कर जाता है। उन्होंने कहा कि यह जीवन के प्रति अपराध है। आचार्यश्री ने कहा कि अंदर की आवाज को सुनना है और अनुभूति करना है तो बाहर की दुनिया से सम्पर्क विच्छेद करना होगा। हम अपनी पाजीटिव एनर्जी का कितना उपयोग आत्म कल्याण में कर रहे हैं यह स्रोत का विषय हो सकता है। आत्म की कई लब्धियां उपयोग करने से उद्घाटित होती है।
  9. गुरुवर ने कहा क़ि जितना नापा तुला होता है उसका उतना महत्व होता है । जीवन मेला है सब अपने बारे मैं सोच रहे हैं अपनी पर्याय के बारे मैं कोई नहीं सोच रहा। सबका ध्यान सूर्य की और जाता है परन्तु सूर्य के पीछे की असली शक्ति की तरफ नहीं जाता उस शक्ति की तरफ हमारा ध्यान नहीं जा रहा जो भीतर विद्यमान है । आज संपर्क सूत्र एक नंबर मैं सिमट कर रह गया है जो आप पसंद करते हो बो नंबर हासिल कर लेता है। मैंने भी ऐंसे महामरणं का नंबर लगा रखा है जो महामृत्युंजय की और जाता है जो समाधिमरण की और जाता है। उन्होंने कहा की सीमा रेखा का उल्लंघन नहीं होना चाहिए जो निर्धारित मापदंड बनाए गए हैं उनका पालन होना चाहिए । एक कथा के माध्यम से समझाते हुए गुरुवर ने कहा की सीमा का उल्लंघन करता है उसे दंड का भागी बनना पड़ता है । अतिथि सत्कार आपका परम धर्म है परंतु आगंतुक अतिथि या भिक्षुक सीमा रेखा पार करे तो सावधान हो जाना चाहिए । सीमा मैं रहकर अनंत बनने के लिए ध्यान लगाया जा सकता है । बड़े को बड्डे , ज्येष्ठ कहा जाता है छोटे को देवर कहा जाता है । सीता का अपहरण हुआ कंचन मृग की अभिलाषा मैं जिसके पीछे राम गए और लक्ष्मण जी सीमा रेखा बना कर गए ,उसकी मर्यादा को पार किया सीता ने तो उसका अपहरण हो गया बैसे ही हम यदि सरकार की सीमा रेखा का उल्लंघन करते हैं तो हमारे सुख चैन का अपहरण हो जाता है । यदि हम प्रकृति की सीमा रेखा को तोड़ते हैं तो हमारे मानव जीवन का हरण हो जाता है हमारी सृष्टि को नुकसान पहुँचता है । गुरुवर ने कहा की कर्म की रेखा के कारण संसार मैं महापुरुषों को भी बहुत कुछ भोगना पड़ता है ये सीख हमें रामायण की कुछ घटनाओं से मिलता है । सबके जीवन मैं परिवरवर्तन पुरुषार्थ के अंतर्गत किया जा सकता है अपने पुरुषार्थ से कर्म के लेखे को भी परिवर्तित किया जा सकता है परंतु बो पुरुषार्थ तभी प्रारम्भ हो सकता है जा परमार्थ प्रारम्भ होता है । हमारे आदर्श पुरुषों के मार्ग का अनुसरण करने से हम अपने जीवन को आदर्शमयी बना सकते हैं। दुसरे के गुणों पर दोषारोपण करने से हम अपने दोषों से मुक्ति नहीं पा सकते बल्कि हमें स्वयं के भीतर के गुणों को जागृत करना होगा | उन्होंने कहा की भीतर से अशांति का वातावरण है तो बहार की शांति कुछ नहीं कर सकती है पहले भीतर जाओ फिर तर जाओ। गुरुदेव ने कहा की जब शनिवार आएगा तभी तो रविवार आएगा कभी सोमवार के बाद रविवार नहीं आता इसलिए अच्छे समय का भी इंतज़ार करो क्योंकि बो भी निर्धारित समय पर आता है । हमारी कषाएं जब मंद होंगी तभी दुखों की यात्रा कम होगी। कल्पनाओं से बहार निकलकर यथार्थ मैं आने पर श्रद्धान जाग्रत होगा ,पुरुषार्थ करें अपने कर्तव्यों का पालन करते जाएँ ।
  10. पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने अपने प्रवचनों में कहा की जब हम सुनते हैं तब कान का प्रयोग करते हैं और बाकि 4 इन्द्रियों को काम में नहीं लेते हैं । हाथ में दीपक होता है तो हम दीपक को देखते हैं अन्यत्र नहीं देखते हैं इससे स्पष्ट होता है हमारा उपयोग जब स्थिर होता है तो दिखता है जिसको हम देखना चाहते हैं यदि स्थिर नहीं होता तो बही दिखता है जो मन सोचता है जैंसे दुकानदार ग्राहक को देखता है अपने सामान को बारबार नहीं देखता क्योंकि दुकान उसकी होती है सामान उसका होता है ग्राहक उसका नहीं होता। आप यदि अरबपति हैं तो आपको लखपति दिखाई नहीं देगा परन्तु सच ये है की आपकी रोजी रोटी उस लखपति ग्राहक से ही चलने बाली है और आपको उस गरीब ग्राहक के लिए अपना माल दिखानेे की उठक बैठक तो करनी ही पड़ती है।आज के परिवेश में तो अरवपति ,उद्योगपति अपने उत्पाद को बिक्रय करने के लिए ग्राहक को घर पहुँच सेवा भी प्रदान करने लगे हैं | आज व्यापारी अपने माल को खपाने के लिए तरह तरह के उपक्रम करता है उसे तो बस अपना मुनाफा ही दिखाई देता है न सोता है, न आराम करता है बस नोटों की खुशबू के पीछे उसका मन दौड़ता है आप नोटों की गड्डियों के पीछे न खाना देख रहे हैं ,न पीना देख रहे हैं बस नोटों की गड्डियां देख रहे हैं फिर बाद में इन नोटों की गड्डियों को लेकर डॉक्टर के पीछे दौड़ना पड़ता है। फिर आपकी दृष्टि दवाई की और जाती है और डॉक्टर की दृष्टि नोटों की गड्डियों की ओर। दुनिया इस चक्रव्यूह में हैरान है परंतु ज्ञानी जीव दुनिया के इस चक्रव्यूह को देखकर हैरान है और सोचता है कि मरघट तो सबका एक है चाहे बो अरबपति हो, करोड़पति हो या राष्ट्रपति हो सबको एक ही तरीके से एक सामान व्यव्हार किया जाता है। वहाँ कोई भेदभाव नहीं होता सबका एकसा स्वागत होता है। क्या जीवन है क्या इसकी लीला है ,कहाँ से प्रारम्भ कहाँ इसका समापन है। उन्होंने कहा की जब आप धर्म की गहराई को नापोगे तो समझ आएगा क़ि दुनिया का ये गोल गोल चक्कर बेकार है । अर्थ का अर्थ धन भी होता है और अर्थ का अर्थ जीवन के जटिल प्रश्नों का उत्तर भी होता है अर्थ (धन) के पीछे भागते है उनका जीवन व्यर्थ हो जाता है जो सच्चे अर्थ के पीछे जाते हैं धर्म की शरण में उनका जीवन सार्थक और समर्थ हो जाता है । आपने जीवन का मंथन किया आपको फिर भी कोई सार नहीं मिला बस ये अथाह संसार मिला । आप इस धर्मसभा में आये और आपका मन दुकान की और भाग रहा है , नोटों की गड्डियों की और दौड़ रहा है तो फिर आपको यहां से कुछ हासिल नहीं होने बाला है। सब अपने अपने प्रयोजन के लिए कार्य कर रहे हैं परंतु जो अपने भीतर के प्रयोजन के लिए करेगा उसे सफलता अवश्य मिलेगी।
  11. जैन संत आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज ने कहा है कि हर मनुष्य को भगवान बनने का पुरुषार्थ करना चाहिए। उन्होंने कहा है कि जो उस पार गए वो भगवान बन गए। भगवान आपको उस पार ले जाने की क्षमता रखता है लेकिन पुरुषार्थ तो आपको करना पड़ेगा। आचार्यश्री ने कहा कि जो मनुष्य अपनी आत्मा का कल्याण कर इस संसार से पार चले गए वे भगवान बन गए जो इस पार रह गए उन्हें उस पार जाने के लिए निरंतर पुरुषार्थ करना चाहिए। उन्होंने कहा कि भगवान आपको उधर बुला रहा है, भगवान में क्षमता है कि वह आपको उस पार ले जा भी सकता है, लेकिन आपके पुरुषार्थ के बगैर यह संभव नहीं है। आचार्यश्री ने बुधवार को हाथ पर हाथ रखे और हाथ जोडऩे का विज्ञान बताया। उन्होंने कहा कि सारे कर्म इन हाथों से ही होते हैं। यही कारण है कि हम जो कुछ हाथ में है वह छोड़कर जब दोनों हाथ जोड़ते हैं तो यह कहना का प्रयास करते हैं कि जब तक प्रभु के सामने हूं कोई कर्म नहीं कर रहा हूं। उन्होंने कहा कि तीर्थंकर भगवान जितनी भी मूर्तियां हैं वे नासा दृष्टि हैं, जबकि मनुष्य आशा दृष्टि है। भगवान हाथ पर हाथ धरकर बैठे हैं इसका अर्थ है वे कर्मों से मुक्त हैं। मनुष्य को भगवान बनने का प्रयास करना चाहिए। यदि भगवान नहीं बन सकते तो हाथ जोड़कर भक्त तो बन ही जाना चाहिए। आचार्यश्री ने कहा कि मनुष्य के पास ऊर्जा का बड़ा केन्द्र है। लेकिन वह बटन गलत दबाता है। यदि एकाग्रता के साथ ध्यान किया जाए तो ऊर्जा प्रभावित होती है। उन्होंने कहा कि सामयिक करते समय हथेली के ऊपर हथेली रखो, दोनों के बीच एक सेंटीमीटर का अंतर रखो दोनों टच नहीं होना चाहिए। यदि ऐसी अवस्था में सामयिक की जाए तो ऊर्जा प्रभावित होती है और सामयिक सफल होती है। ऐसी ऊर्जा से हम ऊध्र्व की ओर गमन कर सकते हैं। उन्होंने कहा कि ऐसी ऊर्जा से राजुल गिरनार चढ़ गई थीं।
  12. जैन संत आचार्य विद्यासागर जी महाराज ने कहा है कि आपको अपने निज स्वरूप को पहचानना है तो मोह को हटाना होगा। उन्होंने कहा कि मोह को हटाने का पुरुषार्थ मोक्ष मार्ग की ओर ले जाएगा। आचार्यश्री ने कहा कि मोक्ष मार्ग के लिए क्रमबद्ध पुरुषार्थ आवश्यक है, लेकिन यह मोह के साथ संभव नहीं है। उन्होंने उदाहरण दिया कि चांदी के बर्तन में पानी भरा है और उसमें रंग भी है। इस पानी के अंदर हम झांकने का प्रयास करें तो नजरें आगे नहीं जा सकती। हमें पानी कुछ दिखाई नहीं देता। दरअसल पानी के अंदर घुला हुआ रंग हमारी दृष्टि को रोक देता है। जैसे ही हम रंग को पानी से अलग करते हैं तो पानी पारदर्शी हो जाता है और नीचे का सब दिखाई देने लगता है। इसी प्रकार मनुष्य के जीवन में जब तक मोह है वह आत्म स्वरूप को नहीं पहचान सकता। आचार्यों ने इस मोह को पानी के रंग की तरह माना है। जब तक मोह नहीं हटेगा हम स्वयं को नहीं देख सकेंगे। सच पूछो तो मोह के कारण संसार में मनुष्य अटका हुआ है। वैसे ही जैसे एक मैदान में घोड़ा चारों ओर चक्कर खाते हुए उसी स्थान पर आ जाता है। आचार्यों ने कहा है कि मोह को हटाने का पुरुषार्थ मोक्ष मार्ग में साधक बनता है।
  13. जो राष्ट्र अपनी मातृभाषा से किनारा करके अन्यत्र भाषा के इस्तेमाल में लगते हैं बो अपनी पहचान खोने लग जाते हैं । ईस्ट इंडिया कंपनी देश छोड़ गई परंतु विरासत में इंडिया थोप गई जिसे हम अभी तक ढोते चले आ रहे हैं । अंग्रेजी को सहायक भाषा के रूप में उपयोग करना अलग बात है परंतु उसे जबरदस्ती थोपना गलत है। भारत में शिक्षा हिंदी माध्यम से अनिवार्य होना चाहिए तभी तस्वीर बदल सकते हैं । हमारी गुरुकुल परंपरा को भी क्षति पहुंचाई जा रही है जो तक्षशिला में बड़ा केंद्र था शिक्षा का आज वो कहाँ है। सारी दुनिया के लोग यहां शिक्षा ग्रहण करने के लिए लालायित रहते थे। आज भारत के लोग विदेशों में कौनसी शिक्षा लेने जा रहे हैं। आज हमने इंडिया को विकास के नाम पर जबरदस्ती ओढ़ रखा है और भारत के मूल स्वरुप और संस्कृति को काफी पीछे धकेल दिया है । आज हम हस्ताक्षर भी अंग्रेजी में करने में अपनी शान समझते हैं जबकि विकसित राष्ट्र अपनी मूल भाषा में ही सारा काम करते हैं । हमें संकल्पित होकर अपनी मूल भाषा में ही सारे कार्य करना चाहिए। आज विडंवना ये है की हमारे राष्ट्र के योग्य वैज्ञानिक , तकनीशियन विदेशों में अपनी सेवाएं दे रहे हैं जिनकी राष्ट्र को आज जरूरत है । प्रबंधन के क्षेत्र में हम सबसे आगे थे परंतु हमारी योग्यता की शक्ति प्रोत्साहन के आभाव में भारत में काम न करके विदेशों में काम कर रही है जिसके कारण प्रबंधन में भी हम पिछड़ रहे हैं। गुरुवर ने कहा क़ि भारतीय अर्थशास्त्री सबसे अधिक योग्य हैं इसलिए मंदी का प्रभाव भारत पर नहीं पड़ा क्योंकि यहां सब अभी भी ठीक संचालित हैं । निर्यात नीति में भी सुधार की आवश्यकता है क्योंकि पहले निर्यात संतुलित था ,आज असंतुलन के कारण परेशानी हो रही है । आज स्वदेशी जागरण की भी सबसे ज्यादा जरूरत है। उन्होंने कहा की सारे भारतीय आज कलाओं से परिपूर्ण हैं । अर्थ से ,परमार्थ से हर स्थिति में श्रेस्ठ हैं जरूरत है उन्हें एक सूत्र में पिरोने की , उन्हें उचित मौका प्रदान करने की। गुरुवर ने कहा की मध्यप्रदेश में हरेक क्षेत्र में अंग्रेजी की जगह हिंदी में कार्य करने की कोशिश सरकार द्वारा की जा रही है जो सराहनीय है । आज के दिन संकल्पित हों अपनी स्वतंत्रता का दुरूपयोग नहीं सदुपयोग करेंगे और अपनी राष्ट्रभाषा को मजबूत करने की दिशा में कार्य करेंगे । स्वावलंबी बनने के लिए हथकरघा जैंसे उपक्रमों को अधिक से अधिक प्रारम्भ करने का प्रयास करेंगे। INDIA नहीं भारत बोलो
  14. पूज्य आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज ने अपनी मंगल देशना में कहा क़ि काया है तो आत्मतत्व है आत्मतत्व है तो सब कुछ है । देह में होनहार देव बैठे है । मायाजाल और जड़ की बहुत पूजा हो चुकी अब तो दुर्लभता की पूजा होनी चाहिए । जीवन त्रैकालिक नहीं होता परंतु शरीर स्वस्थ्य रहेगा तो आत्मा निरोगी रहेगी । घी को घी की तरह लेना चाहिए पानी की तरह नहीं पीना चाहिए भोजन उतना ही लें जितना शरीर के लिए आवश्यक है । अधिक भोजन दुगना भोजन नुकसानदायक होता है उसी तरह संग्रह की प्रवत्ति भी जीवन को परिग्रह के पाप से ग्रस्त कर रही है । आत्मा को बीमार बना रही है । उन्होंने कहा क़ि जंगल तप रहा है नदी नाले सूख रहे हैं एक परिवार उस जंगल में भूख से व्याकुल है सुबह भोजन नहीं मिला शाम की आशा में मन टिका हुआ है , शाम हो जाती है परंतु कुछ खाने नहीं मिला । दुसरे दिन भी सिर्फ पानी से ही भूख प्यास मिटाने की कोशिश की जा रही है । तीसरे दिन आशा का दीपक टिमटिमाने लगा परंतु कुछ घास का चावल मिल जाता है तो उससे घास की रोटी तैयार होती है परंतु सीमित संख्या में और उसी में परिवार को संतुष्ट होना पड़ता है। ये भारत का अमिट इतिहास है ये शौर्य की गाथा है उन महापुरुषों की जिन्होंने संस्कृति की रक्षा में अपने प्राणों की परवाह नहीं की ।महाराणा प्रताप साहस की प्रतिमूर्ति थे, उन्होंने धैर्य नहीं खोया प्रजा की रक्षा की पवित्र भावना को कायम रखा । आचार्य श्री ने कहा की संकट में ही धर्मसंकट आता है परंतु सच्चा राजा वही होता है जो संकट में भी धर्म को नहीं छोड़ता। झीलों का पानी जब बहता है तो सागर में ही विलीन होता है । राणा प्रताप एक तरह से जैन संस्कृति पर ही चला त्याग के पथ पर चला इसलिए तलवार और ढाल का उपयोग अहिंसा के पालन की भावना में ही किया था। गुरुवर ने कहा की राजा तो राजा होता है जो कभी कर्तव्यविमुख नहीं होता परंतु आज राजा छोटे से संकट में भी धर्म से किनारा करने लग जाते हैं । आज इतिहास लुप्त होने के कारण हम संस्कृति को विलोपित करते जा रहे हैं । इतिहास के पुनर्जागरण की आवश्यकता है ,उसे युवा शक्ति को समझने की जरूरत है । हम निरंतर काम करते जाएँ तो थकावट पसीने के माध्यम से निकल जाती है । निष्ठा के आभाव में प्रतिष्ठा भी कुछ नहीं कर सकती है । निःस्वार्थ व्यक्ति ही जीवन में प्रतिष्ठा पाने के योग्य होता है और संसार में तालिया भी उस ही के लिए ही बजती है ।मित्र और दोस्तों के बारे में उन्होंने कहा कि जो आपके बारे में हित, मित और प्रिय सोचे वही सच्चा मित्र होता है और जो एक दूसरे के पूरक हो वो सच्चे दोस्त होते है अगर आप एक दूसरे के पूरक बन जाओ तो जीवन में आनंद ही आनंद है। उन्होंने आगे कहा की आज रईस व्यक्ति औषधियों के सहारे जीवित है और समय पर धन और वैभव भी उसके काम नही आता है केवल धर्म और पुरुषार्थ ही काम आता है।
  15. जैन संत ने दिया देश के नेताओं को संदेश जैन संत आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज ने बुधवार को देश के नेताओं को एक बड़ा संदेश दिया। उन्होंने कहा कि किसी दूसरे राष्ट्र को देखकर कोई भी राष्ट्र विकसित नहीं हो सकता। इसलिए भारत को विकासशील राष्ट्र कहना बंद करो। भारत पहले से ही विकसित राष्ट्र है। उन्होंने कहा कि हम अपने मन के नौकर बन गए हैं और यही हमारी सबसे बड़ी कमजोरी है। आचार्यश्री ने कहा कि भारत अब 70 साल का हो चुका है। एक तरह से परिपक्व राष्ट्र हो चुका है। हमारे नेता आज भी भारत को विकासशील राष्ट्र कहते हैं। हम 70 साल से यही सुनते आ रहे हैं। कहा जाता है कि अमेरिका, जापान, रसिया, फ्रांस, जर्मनी विकसित हो चुके हैं और भारत विकासशील है। दरअसल हम इसलिए विकासशील हैं कि हम दूसरे राष्ट्रों को देखकर विकास की अवधारणा बना रहे हैं, जबकि सच्चाई यह है कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र और विकसित राष्ट्र है। हमने इस नीति से बाहर आना होगा। आचार्य विद्यासागर महाराज ने कहा कि यदि शांति चाहिए तो चिंता और चिंतन से मुक्त हो जाओ जो चीजे अनादिकाल से है उन्हें समाप्त किया जा सकता है। जैसे राग,द्वेष अनादिकाल से है। हम इन्हें समाप्त कर सकते हैं। लेकिन इनके बारे में ज्यादा चिंता और चिंतन करने से सिर दर्द के अलावा कुछ नहीं मिलेगा। उन्होंने कहा कि मनुष्य का सारा पुरुषार्थ सिर्फ पेट के लिए नहीं है। वह मन के वश में है। एक तरह से मन का नौकर बन गया है और मन के पास पेट नहीं पेटी है जो कभी भरती नहीं है। मनुष्य मन की पेटी को भरने के लिए तमाम यतन करता है। मन की इच्छाओं को पूरा करने वह आशीर्वाद मांगने हमारे पास भी आता है। हम कहते हैं मन को मारने का पुरुषार्थ करो तो शांति स्वत: मिल जाएगी।
  16. श्रद्धा और भक्ति से मनाया गया पार्श्वनाथ मोक्ष कल्याण जैन संत आचार्य विद्यासागर जी महाराज ने मंगलवार को जैन धर्म के 23वें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ को याद करते हुए कहा कि संसारी प्राणी यदि मोक्ष चाहता है तो क्रिया (पुरुषार्थ) करें, प्रतिक्रिया की ओर देखना बंद कर दें। पार्श्वनाथ भगवान ने भी ऐसा ही किया था। कमठ एक सप्ताह तक उन पर उपसर्ग करता रहा लेकिन उन्होंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। आचार्यश्री ने कहा कि पार्श्वनाथ भगवान की केवल ज्ञान में कमठ के जीव की भूमिका रही है। कमठ साधना में लीन भगवान पार्श्वनाथ पर एक सप्ताह तक उपसर्ग करता रहा। बड़ी-बड़ी चट्टाने उठाकर फेंकी, तमाम उपद्रव किए लेकिन पार्श्वनाथ भगवान ने कोई जवाब नहीं दिया। क्योंकि वे लाजवाब थे। यदि जवाब देते तो कमठ को आनंद आता। जवाब नहीं दिया इसलिए पार्श्वनाथ भगवान का समोशरण सजा। खास बात यह है कि भगवान के समोशरण में उपसर्ग करने वाला कमठ और उपसर्ग दूर करने वाला यक्ष दोनों उपस्थित थे। लेकिन किसी की दृष्टि उनके ऊपर प्रतिशोध के रूप में नहीं थी। क्योंकि समोशरण में न कोई मित्र होता है न कोई शत्रु। यह भेद विज्ञान के जाने बगैर मोक्ष का मार्ग संभव नहीं है। जिस प्रकार सूर्य के ऊपर से घटाएं छटती हैं और प्रकाश सामने आता है वैसे ही केवल ज्ञान हो जाने पर वीतरागता प्रकट होती है। आचार्यश्री ने कहा कि कमठ के उपसर्ग की घटना सभी के जीवन में प्रेरणादायक है। यदि अनंतकालीन यात्रा और जन्म मृत्यु के बंधन से छुटकारा पाना है तो प्रतिक्रिया से बचो। पुरुषार्थ करो। उन्होंने कहा कि हम भी यह भावना करते हैं कि हमे भी समोशरण में बैठने का अवसर मिले। भगवान की दिव्य ध्वनि सुनने का सौभाग्य मिले और प्रभू जैसा बन जाने का परम सौभाग्य मिले। वे घडिय़ां कितनी आनंददायी होंगी। आचार्यश्री ने कहा कि अतीत को भूलो और भविष्य को सीमित करो तभी संसार से अवकाश संभव है।
  17. जैन संत आचार्य विद्यासागर जी महाराज ने कहा है कि ऐसी कहावत है कि फूल बिछाओ, कांटे मत बिछाओ। यदि कांटे देखकर मन में विषमता और प्रतिकूलता आती है तो समझ लो समझ लो वीतरागता का अभाव है। दिगम्बर जैन मुनि मोक्ष मार्ग पर चलते हुए 22 प्रकार के परिषह सहन करते हैं और समता भाव रखते हैं। अपने आर्शीवचन में आचार्यश्री ने कहा कि श्रावक (भक्त) श्रमण (संत) के निकट तो रहते हैं, लेकिन सन्निकट नहीं आते। इसलिए कांटों से बचाव के बारे में विचार करते हैं। जैन मुनि 22 प्रकार के परिषहों को समताभाव सहन करते हैं और उनमें प्रतिकूल का भाव नहीं आता। कर्म की निर्जरा से बचकर मोक्ष मार्ग पर नहीं बढ़ सकते। मोक्ष मार्ग क्या है यदि आप उस पर चल नहीं सकते तो समझने का प्रयास अवश्य करना चाहिए। यह भी एक पुरुषार्थ है। आचार्यश्री ने कहा कि कर्मों की निर्जरा भी बुद्धिपूर्वक करना चाहिए, मजबूरी में नहीं। विवेक के साथ किए गए पुरुषार्थ से ही हमें इस परीक्षा में शत प्रतिशत नंबर मिल सकते हैं। मोक्ष मार्ग की परीक्षा और इसके सवाल कठिन होते हैं। इसमें सुविधा नहीं दुविधा हो सकती है। आचार्य विद्यासागर जी महाराज ने कहा कि वीर के सुपुत्र भी वीर होते हैं। जैन धर्म के अनुयायी भगवान महावीर के उपासक हैं। यदि कर्मों से डरेंगे तो मुक्ति कैसे मिलेगी। उन्होंने कहा कि संत और श्रवण की चर्या देखकर इंद्र भी तालिया बचाते होंगे। क्योंकि ऐसी चर्या उन्हें भी संभव नहीं है।
  18. जैन संत आचार्य विद्यासागर महाराज ने कहा है कि मोहमार्ग को छोड़े बगैर मोक्षमार्ग पर चलना संभव नहीं है। उन्होंने कहा है कि मोक्षमार्ग पर चलने के लिए कई गुनी सावधानी की आवश्यकता है। अपने आर्शीवचन में आचार्यश्री ने कहा कि मोक्षमार्ग सहज नहीं है। इसका मूल्य वह जोहरी ही समझ सकता है जिसने मोह का त्याग कर इस मार्ग को अपनाया हो। जिस प्रकार संसार में अलग-अलग दुकानें होती हैं। चाय, पान, किराना, सब्जी की दुकानें बड़ी संख्या में मिलेंगी लेकिन ऐसे जोहरी की दुकान कम होंगी जिस पर अमूल्य हीरे, माणिक होंगे। इसी प्रकार धर्म के क्षेत्र में भी कई दुकानें हैं, लेकिन मोक्ष मार्ग जोहरी की तरह ऐसा मार्ग है जो भव-भव के बंधन से छुटकारा दिलाने वाला है। आचार्यश्री ने कहा कि जो आया है उसे जाना है, लेकिन कहां जाना है जाने का रास्ता कैसा है यह समझ लो। चारो गतियों में जाने का रास्ता सीधा है। संसार में सभी भटके हुए हैं और जिस प्रकार शहर में रिंग रोड पर घुमते हैं और वापिस वहीं आ जाते हैं ऐसे ही हम चारो गतियों मेें घुम रहे हैं। एकाध कोई व्यक्ति होता है जो इसमें से निकल पाता है और मोक्ष मार्ग पर चल पाता है। वैसे ही जैसे चने के भाड़ से एकाध चना उछलकर बाहर आ जाता है और वह भुनने से बच जाता है।
  19. मंगल प्रवचन : आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज (कुंडलपुर) [06/06/2016] कुंडलपुर। कार्यकर्ता अपने कार्य में व्यस्त हो जाते हैं। कार्य करते समय का ध्यान नहीं रहता है। कर्तव्य करते समय का ध्यान रखें। समय पर कार्य होता जाए। सागर का जल बहुत राशि व्यय के बाद उसको हम उपयोग योग्य बनाते हैं। संग्रह हुआ सागर का जल खारा होता ऊर्जा लगाकर सूर्य नारायण ऊपर उठाते हैं। सूर्य नारायण की ऊर्जा लगते उर्ध्वमान करता वाष्पित हो ऊपर बादलों का रूप धारण कर नीचे बरसना प्रारंभ हो जाता है। धरती-पहाड़ों पर वह पानी गिरता। विद्धानों ने इसे निम्नगा कहा, जो जल नीचे की ओर गिरता। स्वर्गों में खेती नहीं होती, धरती पर ही बीज बोए जाते हैं। ऊपर से पानी की पूर्ति होकर बीज अंकुरित होता है। उक्त उद्गार विश्व संत दिगंबराचार्य पूज्य विद्यासागरजी महामुनिराज ने कुंडलपुर महामहोत्सव में प्रवचन देते हुए व्यक्त किए। आचार्यश्री ने देश के कोने-कोने से आए हजारोहजार श्रद्धालुओं के बीच कहा कि अंकुरित होने की क्षमता मात्र धरती में है। धरती में जो अंकुर उत्पन्न होता है, वह सात्विक हो, जिससे जगत का हित हो। जगत के कल्याण हेतु पुरुषार्थ आवश्यक है। जो व्यक्ति उठ नहीं पा रहा, उसे ऊंचा उठाने का पुरुषार्थ हो। धरती कठोर होती गिरे हुए जल कण से भीग जाती। उसे देख कठोर हृदय भी भीग जाते हैं। आचार्यश्री ने कहा कि हमें अपनी ऊर्जा शक्ति, प्रतिभा का उपयोग करना है। जो नीचे हैं, पतित हैं, उन्हें उठाने का उपक्रम होना चाहिए। संयम के माध्यम से हम ब्रेन को स्थिर कर सकते हैं। 5 इन्द्रियों से मन पागल होता व चंचल रहता, उसे नियंत्रित करें। ज्ञान चिल्लाता है, जब आपत्ति आ जाती है। आस्था का केंद्र दिल होता है, धैर्य होता है, ज्ञान की भूख होती है, प्यास होती है। दिल को जोड़ने का काम दिल ही करता है, ज्ञान माध्यम नहीं हो सकता। दिल से दिल मिलाना बहुत बड़े दिल वाले का काम होता है। प्रत्येक कण में अंकुरित होने की क्षमता है। जल पाते ही अंकुरित हो जाता है। न्यूनका एक नदी का नाम है। नीचे की ओर बहती है। भीतर डला हुआ बीज छोटा क्यों न हो, वह वटवृक्ष का रूप धारण कर लेता। आचार्यश्री ने एक बुंदेलखंडी शब्द ‘हओ’ का प्रयोग प्रवचन में करते हुए हास्य बिखेरते कहा कि हओ यह बुंदेलखंड का मंत्र है। यह सब लोग सीखें। हओ से एक आवाज आती, मंत्र बन जाता है। बड़े से बड़ा कार्य हो जाता हओ कहने से। आचार्यश्री ने कहा कि खारे जल में दाल-चावल-खिचड़ी पकती नहीं। पानी मीठा होता तो उसमें पक जाती। हमें मीठे जल की आवश्यकता है। यह धरती की कृपा है। जहां बीज अंकुरित होता वह मीठा जल है। धरती पर भारी जल भी है। तो वह कोमल हो बीज अंकुरित करने की क्षमता हो। वात-पित्त-कफ के माध्यम से रोग का निदान होता है। बिना कारण कोई कार्य नहीं होता है। हम लोग असंयमित होने कारण आगे नहीं बढ़ रहे हैं। चिकित्सा क्षेत्र में संयमित होना बहुत आवश्यक है। दुनिया में परिवर्तन चाहते हैं। आत्मा में परिवर्तन का उपक्रम जब चाहे आप कर सकते है। चिंता का विषय नहीं, चिंतन का विषय है। जयकुमार जलज ने बताया कि प्रात: बड़े बाबा का महामस्तकाभिषेक करने हेतु श्रद्धालुओं की लंबी कतार लगी रही। एक-एक कर क्रम से आकर बड़ी संख्या में भक्तजनों ने अभिषेक कर पुण्य अर्जित किया। इस अवसर पर मप्र शासन के उच्च शिक्षामंत्री उमाशंकर गुप्ता, पूर्व मंत्री अजय विश्नोई, भारतवर्षीय दिगंबर जैन तीर्थ क्षेत्र कमेटी की राष्ट्रीय अध्यक्ष सरिताजी का सम्मान कुंडलपुर क्षेत्र महोत्सव समिति ने किया। सरिताजी ने अपने उद्बोधन में कहा कि इतने बड़े महोत्सव में आपको अभिषेक करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। पूज्य बड़े बाबा एवं आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज के दर्शन प्राप्त हो रहे हैं। आप लोग तीर्थ क्षेत्र कमेटी के आजीवन सदस्य बनें एवं तीर्थ क्षेत्रों को बचाने हेतु आगे आएं। अपने तीर्थ क्षेत्रों के संरक्षण, संवर्द्धन हेतु सतत प्रयासरत रहें। बड़े बाबा का मंदिर शीघ्र बने। इस अवसर पर वित्तमंत्री जयंत मलैया, दमोह सांसद प्रहलाद पटेल, पथरिया विधायक लखन पटेल, दमोह नगर पालिका अध्यक्ष मालती असाटी ने कुंडलपुर पहुंचकर आचार्यश्री को श्रीफल भेंट कर आशीर्वाद ग्रहण किया।
  20. मंगल प्रवचन : आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज (कुंडलपुर) [22/05/2016] कुण्डलपुर। रागी व्यक्ति वीतरागी बनने का संकल्प लेता जो वीतरागी बन चुके उनके आधार पर लेता है। वे सफल हुये तो हम भी साधना कर सफल होंगे। मोक्ष मार्ग में जो अनुष्ठान होते हैं। वे अवश्य ही फलीभूत हो सकते हैं। बड़े बाबा के अनुष्ठान में देवें नारकी भाग नहीं ले सकते। मनुष्य ही सहभागी बढ़ सकता है किन्तु जो भोगों में लिप्त है वे सम्मिलित नहीं हो सकते। जो देख रहा है वह दिखता नहीं और जो दिखता है वो देखता नहीं। आँख पूरी दुनिया को देखती है किन्तु अपने आप को नहीं देख पाती। प्राण वाले को प्राणी कहते हैं प्राणी तभी रहता है जब उसमें पानी रहता है। अकाल पड़ा 12 वर्ष का वर्षा नहीं हुई अनुष्ठान करने वाले चपेट में आ गये। शास्त्रों में लिखा है बड़े-बड़े हिंसक पशु, सर्प, मगरमच्छ, जैसे क्रूर पशु भी धर्म मार्ग पर चलकर स्वर्ग जा सकते हैं। आज विचित्र स्थिति है पानी बिक रहा है और प्राणी भी बिक रहा है। पशु-पक्षी यदि मोक्ष मार्ग में पढ़ सकते हैं तो पशुपति के साथ रहने वाले मनुष्य मोक्ष क्यों नहीं पा सकते हैं। पवित्र क्षेत्रों पर प्रदुषित वस्तुएं प्रवेश न कर पाये। तीर्थ क्षेत्रों को 5 स्टार और 7 स्टार जैसी सुविधा जनक मत बनाओं इन पवित्र क्षेत्रों को शुद्ध बना रहने दो। यह अनुष्ठान भारत में शाकाहार का गौंढ़ होना और मांसाहार का प्रचलन बढ़ना शिथिलता के कारण आया है। शाकाहार की ऐसी वस्तुओं का उत्पादन होने लगा जिनमें मांसाहारी पदार्थ डले हैं। ज्ञात नहीं हो पाता है। बाजार की वस्तुएं न लेकर घर में ही निर्माण करके शाकाहार वृत का पालन किया जा सकता है। वृत के पालन करने में कठिनाईयों का आना स्वाभिक है। अहिंसा धर्म के पालन हेतु ऐसी वस्तुओं का त्याग करना चाहिए। जिनमें मांस आदि पदार्थों का उपयोग होता है। आज भी धर्म उपवास करने की परम्परा है। उपवास करना एक औषध की तरह है। इन्द्री के दास होते हैं। आत्मा देखती है किन्तु दिखती नहीं दृढ़ता की कमी है शरीर के अधीन होकर चलागें। बड़े बाबा के पास जाना चाहते हो तो मन वचन मात्र से शुद्ध होना चाहिए। मान, माया, क्रोध लोभ का त्याग होना जरूरी है। एक हाथ में विस्किट और एक हाथ में माला ऐसा प्रचलन प्रारम्भ हो गया है जो सर्वथा विपरीत है। उपरोक्त उद्गार आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने अपने रविवारीय प्रवचनों में विद्या भवन में अभिव्यक्त किए गये।
  21. मंगल प्रवचन : आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज : (कुंडलपुर) [17/05/2016] कुण्डलपुर। सुप्रसिद्ध जैन सिद्ध क्षेत्र कुण्डलपुर में श्रमण शिरोमणी आचार्य श्री विद्यासागर जी ने कहा कि स्व-अर्थ की पूर्ति स्वस्थ होने पर ही संभव है। द्वेष की अग्नि राख में दबे अंगारे की भांति भीतर सुलगती रहती है। अंगारे हो अंदर तो बाहर शांति कैसी? विद्यासागर सभागार में श्रोताओं को सीख देते हुए आचार्य श्री ने कहा कि नत भावों के साथ ही उन्नत बन सकते हैं। आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने कहा कि राम-रावण द्वन्द थम चुका था कि चारों ओर सन्नाटा छाया था। राम ने लक्ष्मण से कहा लक्ष्मण प्रजा पालन की नीति का ज्ञान लेना चाहते हो तो जीओं, रावण से नीति की शिक्षा सीख कर आओ। ऐसा सुनते ही लक्ष्मण की भृकुटी टेढ़ी हो गई, इतना संघर्ष किया जिस रावण से हमारा शत्रु है, इससे ज्ञान सीखना है, ऐसा विचार मन में तैरने लगा। राम ने लक्ष्मण के अर्न्तद्वन्द को भांप लिया। क्या सोच रहे हो प्रजापालक बनना है तो शत्रु से भी ज्ञान मिल, ग्रहण करना चाहिए। रावण नीति निपुण शासक है। लक्ष्मण भ्राता के वचन सुनकर जाने को उक्त हुए तब राम ने कहा कि स्वास्थ्य होने पर ही स्व अर्थ की पूर्ति संभव है। भीतर द्वेष के अंगारे हो तो स्वास्थ्य अच्छा है ऐसा संभव नहीं। लक्ष्मण ने कहा कि आपके वचन का अर्थ समझ गया तथा जैसा आपने कहा कि आपके वचन का अर्थ समझ गया तथा जैसा आपने कहा कि उन्ही वचनों के साथ आग्रह करूंगा। राम की आज्ञा से लक्ष्मण रावण के निकट पहुंचे तथा राम द्वारा बताए वचनों को कहकर नीति ज्ञान प्रदाय करने का आग्रह किया। अहत रावण ने सिर के समीप खड़े लक्ष्मण को देखा और वहां से का संकेत किया। तब लक्ष्मण रावण के इस व्यवहार से खींचते हुए वापस राम के निकट पहुंचे। क्या हुआ लक्ष्मण पूछने पर कहा कि खाली हाथ वापस कर दिया। क्या तुमने स्वस्थ भाव भाव से आग्रह किया था? ज्ञान लेने के लिए तुम्हे रावण के सिर के निकट नहीं चरण के समीप होना था, तुम खींचने गये थे, सीखने वाले का स्थान चरण के निकट होता है। पुनः जाओं जैसा मैने कहा है वैसा ही कहना। लक्ष्मण लौटकर रावण के पास पहुंचे और राव के चरण के समीप विनयपूर्वक नीति ज्ञान देने का आग्रह किया। क्षण भर रावण ने लक्ष्मण की ओर देखा और कहा विनय के बिना प्रजा पालक नहीं बन सकते। जो रावण ने सीख दी वह स्वंय ने पालक किया होता तो परिणाम पृथक होता। रावण ने लक्ष्मण को राज्य शासन और प्रजा पालन तथा धर्म की अनेक नीतियों का ज्ञान प्रदान किया। युद्ध में पराजित होकर भी विनयपूर्वक साधना करने पर रावण ने ज्ञान दान दिया। राम-रावण-लक्ष्मण के इस प्रसंग के माध्यम से आचार्यश्री ने विनय के महत्व को बताते हुए कहा कि ज्ञान सिंर पर चढ़कर नहीं चरण पकड़कर प्राप्त किया जाता है, तथा आचरण में विनम्रता ही सार्थक परिणाम देती है। द्वेष की अग्नि जब तक भीतर सुलगती रहेगी स्वस्थ होना संभव नहीं है, स्व अर्थ की प्राप्ति के लिए तनम न वचन से स्वस्थ्य विनम्र होना आवश्यक है। द्वेष की अग्नि युद्ध से भी अधिक घातक होती है, जैसे ही भावों में विनय का समावेष होता है। द्वेष-द्वन्द्ध समाप्त हो जाता है, शांति व्याप्त हो जाती है। शत्रु को युद्ध से नहीं विनम्रता से पराजित किया जा सकता है। यह शत्रु भीतर हो या बाहर समाधान विनय में ही निहित है। (कुण्डलपुर दमोह से वेदचन्द्र जैन)
  22. मंगल प्रवचन : आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज : (कुंडलपुर) [15/05/2016] कुण्डलपुर। श्रमण शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी ने कहा कि धार्मिक अनुष्ठानों में सर्वाधिक अनुकूल प्रबंधक प्रकृति होती है। बड़े बाबा के मस्तक अभिषेक से पाप कर्म की निर्जरा तथा पुण्य का बंधु सुनिश्चित है। मई की गरमी में मेघों से बड़ी-बड़ी बूंदें होंगी और मंद-मंद सुगन्ध का झोंका चलेगा। सौधर्म इन्द्र भी भगवान का स्पर्श नहीं कर सकता, वह भगवान का रूप देखकर देखने में ही निमग्न हो जाता है। आचार्य श्री विद्यासागर ने कहा कि श्रोताओें की तालियों के साथ मेघों से बड़ी-बड़ी बूंदों की ध्वनि का साम्य से स्पष्ट है कि प्रकृति भी आयोजन के प्रबंध में सहयोगी है। सम्यक दृष्टि मरणोपरांत देव गति को प्राप्त करता है। देव की सेवा के लिए उपलब्ध है, आपकी आशा का पालन करेंगे, सम्यक दृष्टि से देव पर्याय प्राप्त को सेवा नहीं भगवान चाहिए। मौलिक चैत्यालय के दर्शन कर सम्यक दृष्टि देव अचंभित रह जाते हैं। यहां विलासिता है तो वीतरागता भी है। पन्द्रह शताब्दी पूर्व ग्रंथ तिलोएपण्णत्ति का उल्लेख कर आचार्य श्री ने कहा कि वृहद से वृहद और सूक्ष्म से सूक्ष्म वर्णन विद्यमान है। अद्वितीय कृति है। देवगति में भी विषय कषाय में रमने की अपेक्षा देव विषयातीत बिम्ब के दर्शन में रम जाते हैं। जीवन्त भगवान को स्पर्श नहीं कर सकते, यह बंधन नहीं वंदना है। बड़े बाबा हमें मिले हैं। मुनि को तो नवधाभक्ति पूर्व उच्चासन पर बैठाकर अभिषेक कर सकते हैं। साक्षात् भगवान के बिम्ब जिनबिम्ब अभिषेक का अवसर प्राप्त है। आचार्य श्री ने बताया कि सम्यक दृष्टि वीतराग देव का दर्शन अभिषेक करता है मिथ्या दृष्टि और भावों के साथ सम्यक दृष्टि वीतराग देव तो अन्य दृष्टि भाव के साथ कुल देवता के रूप अभिषेक करता है। दृष्टि और भाव में भेद है, मूल में वीतराग देव हैं। गंधोदक का प्रयोग भी भिन्न भिन्न रूप में किया जाता है। वर्ष में तीन बार अष्टान्हिका पर्व पर देव नन्दीश्वर द्वीप जाकर पूरे सप्ताह विशेष महोत्सव करते हैं। महोत्सव तिथि ज्यों-ज्यों समीप आ रही है प्रकृति भी अनुकूल प्रबंध कर रही है। तापक्रम क्रम से अनुकूल हो रहा है। प्रकृति भी अनुकूल हो रही है। भिन्न भिन्न प्रान्तों से आने वालों पर एक स्थान के मौसम का प्रभाव भी भिन्न होता है। राजस्थान प्रान्त के निवासी अमरकन्टक के मौसम से अचंभित रह जाते हैं। यहां ऐसी वर्षा होती है, हमारे यहां तो छीटों के बरसने को भी वर्षा मान लेते हैं। शुद्ध भावना और विशुद्धि के साथ धर्म महोत्सव मनायेंगे तो प्रत्येक को मौसम अनुकूल लगता है।
  23. मंगल प्रवचन : आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज (कुंडलपुर) [10/05/2016] कुंडलपुर। सन्त शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर ने वाक्य के अंत में प्रयुक्त शब्द ‘लेकिन’ को प्रतिपक्ष का दयोतक बताते हुये कहा कि इसके प्रकट होते ही भाव पर विराम लग जाता है। शंका ऐ बाधा है, सार्थक श्रम के परिणाम के प्रति शंका क्यों। आचार्य श्री ने श्रोताओं को समझाते हुये बताया कि एक कृषक उत्तम बीज, भूमि और प्रबंध करता है। किन्तु शत् प्रतिशत सफलता नहीं मिलती। यह क्रम बार-बार होने से कृषक के मन में निराशा के बीज अंकुरित हो जाते हैं। सभी विशेषज्ञों से शंका समाधान पूछने पर कहा जाता है कि सभी प्रबंध तो उत्तम हैं लेकिन का उपयोग आचार्य श्री ने कहा कि जब वाक्य के अंत में लेकिन का उपयोग होता है। पूर्व वाक्य के भावार्थ का प्रतिपक्षी भाव उत्पन्न हो जाता है। लेकिन शब्द भाव पर विराम लगा देता है, यह शंका आशंका का दयोतक है। जब तक कार्य के प्रति आशंका विद्यमान है, अपेक्षित परिणाम कभी प्राप्त नहीं होता। वह कृषक गन्ना की कृषि करता था, सबसे उत्तम और मधुर स्वाद के गन्ना की फसल भी होती थी लेकिन………..! शत प्रतिशत फसल नहीं मिलती। गन्ने की नीचे भाग की पोरों की अपेक्षा ऊपर के पोरों में रस की मधुरता और मात्रा में क्षीणता आ जाती है ऊपर के पोरों में रस की न्यूवता स्वभाव है, प्रबंधों के माध्यम से गन्ने की पैदावार में वृद्धि हो सकती है। किन्तु गन्ना का स्वभाव परिवर्तित नहीं हो सकता। ऊपर के पोरों की अपेक्षा अधोभाग में रस और मधुरता अधिक रहेगी। आचार्य श्री ने भाव के प्रति सचेत करते हुये बताया कि आगे की फसल के लिये वही अग्र भाग का गन्ना बीजांकुरित होकर रसवान परिणाम देता है। जिस भाग में रस कम था मधुरता की कमी थी उसी भाग से आगामी फसल आने तक संतोष का भाव हो तथा श्रम और परिणाम पर आशंका न हो तो मधुर फसल का यह क्रम निरन्तर चलता रह सकता है। इसमें फसल तो ठीक है लेकिन शत प्रतिशत नहीं। यह लेकिन अग्र वाक्य का प्रतिनिधी भाव उत्पन्नकर आशंका और निराशा से भर देता है। आचार्य श्री ने कहा कि सार्थक श्रम के प्रति आशंका ने उत्तम परिणाम को भी प्रतिकूल बना दिया। इस दृष्टांत के सापेक्ष आचार्य श्री ने कहा कि वाक्य कें अंत में लेकिन के प्रयोग नहीं होगा तो प्रतिपक्ष भाव की भूमिका से बच सकते है, साथ ही परिणाम यदि शत प्रतिशत नहीं भी तो आगामी परिणाम के लिये उपयुक्त भूमिका बन जाती है, नर को निराश होने की आवश्यकता नहीं है। उत्तम आचरण तदनुसार कार्य से सार्थक सफलता सुनिश्चित है, यह क्रम अनवरत चल सकता है।
  24. कुंडलपुर। व्यक्ति सम्यग्दृष्टि सम्यक ज्ञान के माध्यम से सिद्धांत के बलबूते अपने मोक्ष मार्ग के लिए कार्य करता रहता है। परोक्ष में भी प्रत्यक्ष का दर्शन किया जा सकता है। ज्ञानी लोग अपनी धारणा, अनुभूति एवं आस्था के माध्यम से बड़े-बड़े कार्य कर जाते हैं। परोक्ष में रहते हुए भी चिंतन-मनन से भगवान का ध्यान करते रहते हैं और दूसरों को भी प्रोत्साहित करते रहते हैं। उपदेशों का प्रचार-प्रसार करते जाओ, धर्म की प्रभावना होती जाएगी। गुरुओं ने जो ग्रंथ लिखे, वे आज भी पृष्ठ खोलते ही आत्मा और परमात्मा का स्वरूप हमारे सामने रख देते हैं। उपरोक्त उदगार आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज ने प्रात:काल कुंडलपुर में अपने उद्धबोधन में अभिव्यक्त किए। इसके पूर्व आचार्यश्री की पूजन प्रतिमा स्थली से आई बहनों के द्वारा सामूहिक रूप से संपन्न की गई। इसके पश्चात आचार्यश्री को नवधा भक्ति के साथ आहार प्रदान करने का सौभाग्य शाकाहार उपासना परिसंघ एवं कुंडलपुर कमेटी के वरिष्ठ सदस्य महेश बड़कुल को प्राप्त हुआ। आचार्यश्री ने आगे कहा कि मोक्ष मार्ग में प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं होते हुए भी सुनकर आप अनुभव कर लेते हैं। सांसारिक कार्यों में भी हम पुरानी बातों को याद करके प्रत्यक्षवत अनुभव करते रहते हैं। इसी तरह मोक्ष मार्ग में भी हम उसी क्षेत्र अथवा उसी वस्तु का अनुभव कर सकते हैं, जो आत्मा की ओर ले जाए। परोक्ष में भी प्रत्यक्षवत अनुभव करना ये श्रद्धा व चिंतन-मनन के आधार पर संभव है। यदि कोई व्यक्ति बूढ़ा है और वह बड़े बाबा का चिंतन करता है तो जवान व्यक्ति से भी पहले वह बड़े बाबा के चरणों में पहुंच सकता है। उसे बड़े बाबा के दर्शन आंखें बंद करने के साथ ही हो जाते हैं।
  25. मंगल प्रवचन- आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज (08.05.2016) कुंडलपुर। प्रत्येक आत्मा में उपयोग चेतना विद्यमान है। कोई देव, दानव, कोई मनुष्य है। कोई पढ़ा, कोई अपढ़ है, आदि-आदि। सभी के भीतर चेतना पुंज है। चेतना किस निमित्त से सचेत होती है, हम कह नहीं सकते। कभी सामान्य निमित्त मिलता और सचेत हो जाती है। हम अनुमान भी नहीं कर सकते। हमें बोध नहीं हो पाता। बातें सुन-देख लेते हैं। बहुत पुरुषार्थ करने के बाद भी अनुभूति के क्षण अंतर जगत में लुप्त हो जाते हैं। उक्त उद्गार विश्ववंदनीय परम पूज्य आचार्यश्री विद्यासागर महाराज ने सुप्रसिद्ध क्षेत्र अतिशय क्षेत्र कुंडलपुर में रविवारीय प्रवचन श्रृंखला में व्यक्त किए। पूज्य आचार्यश्री ने आगे कहा कि जिस तरह ओंस के कण एक क्षण में नीचे गिरकर धूल में मिल जाते, ऐसे ही हमारे वे क्षण आते-चले जाते हैं। हम उनको संचित कर सकते हैं। चेतना के जागृति के क्षणों को बार-बार याद करके संचित कर सकते हैं। कभी क्षेत्र, द्रव्य, काल, संगति आदि के माध्यम से हमेशा-हमेशा धार्मिक कुछ बातें सुनने-समझने के लिए भूख को बनाए रखें। आचार्यश्री ने पौराणिक कथा सुकौशल मुनिराज के दृष्टांत को सुनाते हुए बताया कि किस तरह भेद विज्ञान का बोध होता पगडंडी है। दो मुनि महाराज जा रहे हैं। एक सिंहनी आती है और एक मुनिराज को गिरा देती है। भक्षण करती है। इस प्रकार की घटनाएं जब घटती हैं, चिरकाल तक प्रेरणा देती हैं। आचार्यश्री ने आगे कहा कि बार-बार चिंतन करने से व्यक्ति अपने को संभाल लेता है। संभालने की वृत्ति भेद विज्ञान का कारण है। घायल शरीर पड़ा रहा। भीतर का आत्मतत्व घायल नहीं हआ। वे केवली हो गए। सिंहनी की आंखों में निकल रहे हैं। ये वैराग्य के क्षण हैं। जाति स्मरण हुआ करुणा का स्रोत बह रहा है। बार-बार चिंतन करने से क्रूरता का नाश होता है। भेद विज्ञान से रहस्य खुल जाता है। इस कथा को याद रखें, स्मरण में लाएं, दूसरों को सुनाओगे तो इसका स्वाद ही अलग होगा। भेद विज्ञान का बोध होगा। जयकुमार जलज ने बताया कि इस अवसर पर पूज्य बड़े बाबा एवं आचार्यश्री ज्ञानसागरजी महाराज के चित्र का अनावरण एवं दीप प्रज्वलन निहालचन्द्र चेतनजी कोटा (राजस्थान) ने किया। शास्त्र भेंट रंजना भाभी परिवार सरसमल झांझली ने किया। आरती का सौभाग्य पीयूष प्रतीक राहुल केकड़ी ने किया। इस अवसर पर कुंडलपुर क्षेत्र कमेटी अध्यक्ष संतोष सिंघई, वीरेन्द्र बजाज, संदेश जैन, नवीन निराला, मुकेश शाह, देवेन्द्र बड़कुल, शैलेन्द्र मयूर, विमल लहरी, समस्त कमेटी के सदस्यों की उपस्थिति उल्लेखनीय रही।
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