पाठशाला के संस्कार विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार
- आज के बच्चों को घर की रोटी घी की अच्छी नहीं लगती है और जिसे गैय्या भी नहीं खाती वह बिस्किट अच्छे से खाते हैं।
- आज टी-पार्टी में रोटी-दाल, खिचड़ी, दलिया आदि नहीं चलता है इसके अलावा सब चलता है। नहीं चलने वाला भी चल जाता है तथा चलने वाला बैठ जाता है।
- पहले ऐसी पाठशालाएँ होती थी, अनपढ़ कहलाते थे लेकिन सब व्यवस्थित कार्य करते थे।
- बहिन कहती है भैया से-हमारी रसोई कैसी बनी बताओ? आप सीखने के लिए बनारस गई थी क्या? नहीं, फिर इतनी अच्छी रसोई किससे सीखी? बहिन कहती है। माँ, दादी माँ के पास रहे और सीख गये। ऐसी थी पहले की पाठशाला।
- आज तो पढ़ाई के लिए पानी की तरह पैसा बहाते हैं और रसोई के नाम पर बनाई बाजार की खाद्य सामग्री ले आते हैं क्योंकि बनाने का टाइम नहीं है। कौन बनाये? कौन टाइम वेस्ट करे? इसलिए अब तो सीधी लगी लगाई होटल की थाली ले आओ उड़न तश्तरी जैसे। आधुनिकता में सब भूल गये यह है आज की शिक्षा।
- वह बहिन दादी को देखती रहती थी कि मुट्टी सेनापकर चावल डालकर धोकर फिर अंगुली से पानी नापकर चूल्हे पर सीझने रख देती थी। देख-देख कर वह भी सीख गई इसको बोलते हैं एक्सपीरियंस और इसी के साथ मेमोरी जुड़ गई। आज तो मेमोरी है ही नहीं। मेमोरी होने से ५० व्यक्तियों के लिए वे संकेत दे सकते हैं।
- अंशोपचार करना, संकेत देना, पढ़ना आदि दस प्रतिशत काम करता है जबकि प्रेक्टिकल प्रयोग जो है वह ९० प्रतिशत काम करता है जीवन में। प्रयोग जो है वह जीवन में बहुत प्रेरणा देने वाला होता हैं।