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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पावन प्रवचन 12 - गहन गहराइयाँ

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    श्रुत ज्ञान आत्मा का स्वभाव नहीं है। किन्तु आत्म स्वभाव पाने के लिए श्रुतज्ञान आवश्यक है। श्रुतज्ञान होने के उपरान्त ध्यानरूपी बोध के द्वारा उस ज्ञान को ऊपर की ओर ले जाया जाता है। जिसके लिए महान् संयम साधना की आवश्यकता पड़ती है। अव्रती के वश का यह काम नहीं है। श्रुत की सार्थकता तो तभी मानी जायेगी जब हेय उपादेय की जानकारी प्राप्त कर, हेय से बचने एवं उपादेय को ग्रहण करने का प्रयास करेगा।


    अक्षय तृतीया से जो यह मंगल कार्य प्रारम्भ हुआ था इस मंगलमय श्रुत पंचमी के अवसर पर सानन्द सम्पन्न हुआ। आत्मा के पास एक ऐसा धन है ज्ञान का जिस धन के माध्यम से आत्मा धनी कहलाता है और वह धन जब जघन्य अवस्था का अनुभव करने लग जाता है तो वह आत्मा दरिद्र हो जाता है। इन आगम ग्रंथों की वाचना के समय पर निगोदिया जीवों का प्ररूपण आया था और उस निगोदिया जीव का प्ररूपण करते हुए बताया गया उसे सुनकर ऐसा लग रहा था कि आत्मा का यह पतन अन्तिम छोर को छू रहा है। किन्तु सावधान! दरिद्रता का अर्थ क्या होता है? धन का पूर्ण अभाव नहीं किन्तु धन की न्यूनता, बहुत कमी लेकिन बहुत कमी कह करके भी हम उसको अभाव नहीं कह सकते। एक पैसा भी पैसा है और वह पैसा एक रुपये का अंश है। एक-एक पैसा निकालते चले जाइये आप, रुपये का कोई भी अस्तित्व नहीं है। ज्ञान का पतन हुआ लेकिन ध्यान रखें उसका अभाव नहीं हो सकता। यह सही धन है, इस धन का जब हम संरक्षण करते हैं और संरक्षण ही नहीं संवर्धन करते हैं तो आत्मा की ख्याति बढ़ती चली जाती है।


    ज्ञान के माध्यम से आत्मा प्रकाश में आ जाता और आत्मा ऐसे प्रकाश में आ जाता कि विश्व को भी वह प्रकाशित कर देता है। 'श्रुत पंचमी' पर कम समय में भी अपने चिन्तन के माध्यम से कई लोगों ने अपनी बात रखी। स्पर्श इन्द्रिय का विषय आठ प्रकार का, रसना इंद्रिय का पाँच प्रकार का रस, प्राण इन्द्रियो का विषय दो प्रकार की गंध, चक्षु इन्द्रिय का विषय रूप पाँच प्रकार, श्रोत्र इन्द्रिय का विषय है शब्द। पाँच इन्द्रियाँ है हमारे पास, शब्द को सुनने के लिए कर्ण आवश्यक है लेकिन यह ध्यान रखिये सम्यग्दर्शन की उत्पति के लिए जब पंडित जी (पं. कैलाशचन्द्र जी सिद्धान्त शास्त्री, बनारस) वाचना कर रहे थे प्रात:काल की बात है और जय धवलाकार ने बहुत अच्छे ढंग से कहा पाँच इन्द्रियों का होना आवश्यक है लेकिन इतना ही पर्याप्त नहीं है।


    शब्द को सुनने के लिए कान मिल गया तो पर्याप्त हो गया, नहीं! संज्ञी होना आवश्यक है। जो कोई उपदेश देते हैं यह तो असंज्ञी पंचेन्द्रिय भी अपने कानों के द्वारा ग्रहण कर सकता है किन्तु शब्द अलग वस्तु है और तद्विषयक जानकारी अलग वस्तु है। श्रुत यह मन का विषय है और मन का विषय शब्द नहीं हुआ करता है। यह ध्यान रखना कान से शब्द सुने जा सकते हैं किन्तु ध्यान किसके द्वारा होता है? मन के द्वारा। तो मन लगाकर के यदि इन शब्दों को हम सुन लेते हैं तब कहीं जाकर के आचार्यों के भाव हमारे साथ और आत्मा के साथ हो सकते हैं अन्यथा नहीं, पुरुषार्थ इतना अपेक्षित है। केवल वता अपनी बात को रखता और वह श्रोता सारा का सारा पीता चला जाता तो आज तक इन सभी का कल्याण हो जाता।


    श्रुत शब्दात्मक नहीं हुआ करता। यहाँ अभी-अभी कई लोगों ने कहा यह वाचना जो हुई है, पण्डितों ने कितने अच्छे ढंग से इसकी वाचना की है। यह सारा का सारा शब्द ही तो है, नहीं तो कानों से सुनने में आ जाता। शब्द पढ़ने में नहीं आ सकते यहाँ पर शब्द संयोजना नहीं है केवल उन शब्दों के संकेत हैं और ये संकेत सारे अर्थ को लेकर के हैं।


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    अरहंत के द्वारा अर्थ रूप श्रुत का व्याख्यान हुआ है और उसे गणधर देव ने गूंथकर ग्रन्थ का रूप दिया क्योंकि अर्थ हमेशा अनंतात्मक होता है और अनंत को हम ग्रहण करने की क्षमता नहीं रखते और उस अनंत को हम सुन नहीं सकते, शब्द को सुन सकते हैं। शब्द इस अनंत अर्थ को अभिव्यक्त करने में सहायक हो जाता है उस अर्थ का संकेत इसमें किया गया है। कितनी छोटी सी किताब है? बहुत छोटी सी किताब है लेकिन इसके अर्थ की ओर जब देखते हैं तो लोक और अलोक दोनों में जाकर हमारा ज्ञान छोर को छूने के लिये मचलता रहे। वह छोरज्ञेय की छोर, ज्ञेयार्णवान्तर्गता:, ज्ञेय रूपी महान् सागर जिसके ज्ञान में अवतरित हो जाता है, झलक जाता है।


    उस ज्ञान की महिमा अपरम्पार है, उस अर्थ के लिये यह सब संकेत दिये गये हैं, इन संकेतों को सचेत होकर यदि हम पकड़ लेते हैं तो ठीक है अन्यथा नहीं। जिसका मन इन संकेतों को पकड़ने के लिये हो गया है किन्तु वह यदि मूछित है अथवा यूँ कहना चाहिए पञ्चेन्द्रिय के विषयों से प्रभावित हुआ है तो इन संकेतों को पकड़ करके भी वह भावों में अवगाहित नहीं हो सकता। अन्तर्मुहूर्त के भीतर वह जो सर्वार्थसिद्धि के देव हैं, उन्हें भी सुख का अनुभव नहीं हो सकता, उससे बढ़ करके सुख का अनुभव एक संज्ञी पञ्चेन्द्रिय यहाँ पर बैठा हुआ संयत जो है, अनुभव कर रहा है अथवा श्रावक जो है संयमासंयम का अनुभव कर रहा है अथवा त्याग तपस्या की ओर बढ़ते हुए चरण जो कि सवार्थसिद्धि को भी पीछे रख रहे हैं, ऐसा क्यों हो रहा है? इन संकेतों के माध्यम से हमारी गति बाहर नहीं होती किन्तु वह यूँ (हाथ का इशारा) आ जाती है।


    देखो सूर्य प्रकाश देता है, प्रकाश से कार्य होता है लेकिन यह ध्यान रखना प्रकाश से तो कार्य होता है लेकिन सूर्य के प्रकाश देने मात्र से हमारा कार्य पूर्ण नहीं होता। प्रात:कालीन सूर्य प्रकाश तो देता है लेकिन तपता नहीं है। तपना भी आवश्यक होता है वह कब तपता है, जब उदयाचल को छोड़े तब तप सकता है। हमारी वृत्ति श्रुत के अभाव में क्या हो रही है? जिस प्रकार सूर्य प्रात:कालीन किरणों को फेंक देता है पृथ्वी की ओर उस समय हम उसके सामने खड़े हो जाते हैं तो उसके विपरीत दिशा में बहुत लम्बी-चौड़ी छाया हमारी पड़ती है और जब वह अस्ताचल की ओर चला जाता है उस समय में भी पूर्व दिशा की ओर हमारी लम्बी-चौड़ी छाया फैल जाती है, यह दशा हमारी श्रुत के अभाव में हो रही है और जिस समय श्रुत का आधार यह आत्मा ले लेता है उस समय क्या स्थिति आ जाती है। मध्याह्न के समय की बात देखो मध्याह्न में हमारी छाया कहाँ पर होती है, होती भी है या नहीं? होती तो है लेकिन मध्याह्न में दूसरे पदार्थों की पूजा नहीं करती किन्तु हमारे चरणों की आरती उतारती है, पूजन करती है। जिस समय हमारी छाया हमारे चरणों की पूजा करेगी उस समय समझ लेना हम मध्य में रहेंगे मध्यस्थ होकर के रहेंगे, उस समय हमारी आँखें काम नहीं करती क्योंकि इतनी तेज धूप रहती है और पंडितजी (पं. पन्नालाल जी साहित्याचार्य, सागर) बार-बार कहा करते हैं महाराज! हम इसको बोलते हैं ततूरी। ततूरी का अर्थ बहुत अच्छा बताया था। मुझे क्या मालूम था कि ततूरी का अर्थ इतना गंभीर है। तप्ता उर्वी ततूरी। जिस समय उर्वी अर्थात् पृथ्वी तप जाती है, आकाशमंडल सब तप जाते हैं, उस समय ततूरी होती है। ततूरी होती है तो आप क्या करते हैं? अपने पास एक गमछा रखते हैं। गमछा के द्वारा क्या करते हैं? सिर पर उस गमछे को कान के ऊपर से लाकर के यूँ (हाथ का इशारा) बाँध लेते हैं ताकि बाहरी आवाज सुनना बंद हो जाये। भीतरी आवाज को अब सुनो।


    बाहरी आवाज बंद हो गयी, भीतर का संगीत प्रारंभ हुआ और ततूरी के समय यदि कान ठण्डे रह जाते हैं तो आप किसी भी रोग से घिरेंगे नहीं, नहीं तो लू लग जायेगी, इधर-उधर की बातें सुनोगे तो लू लग जायेगी और केवल जिनवाणी का श्रवण करोगे तो फिर कहना ही क्या? बड़े आनंद का अनुभव करोगे। मध्याह्न हमारे जीवन के लिये कल्याणकारी है। किसान लोग आज बहुत शान्ति का अनुभव कर रहे हैं, क्यों कर रहें हैं? इसलिये शान्ति का अनुभव कर रहे हैं कि अब मृगशीतला आ गयी है और कुछ ही दिन के उपरान्त वर्षा होगी तो बीज बोयेंगे फिर कुछ ही दिनों में अंकुरित होकर के फसल लहलहाएगी। यदि धरती तपेगी नहीं तो उसकी कभी भी कीमत नहीं है। तपी हुई धरती में बीज समय पर वर्षा के काल में बोये जाते हैं तो शीघ्र ही अंकुरित हो करके फसल आ जाती है, लहलहाती है और उस समय किसानों के साफा भी ध्वजा के समान लहलहाते हैं। उसी प्रकार जब तक श्रुत के माध्यम से हम अपने आप को नहीं तपायेंगे तब तक उस अनंत केवलज्ञान की उत्पति नहीं होने वाली । हम केवल बाल भानु की किरणों को देखने के लिये (सूर्य को) देखते हैं, या तो Sunrise (सूर्योदय) को देखते हैं या Sunset को, हमें मालूम नहीं पड़ता वो लोग क्या अनुभव करना चाहते हैं? उनसे सही पूछा जाये, इन दोनों को छोड़ दो किन्तु Sunlight (सूर्यप्रकाश) को देखो। देखा नहीं जाता महाराज, इसलिये गोगल (चश्मा) लगा लो और देखो वह क्या कहना चाह रहा है। जिस समय वह श्रुत-आत्मस्थ हो जायेगा तो नियम से उस श्रुत से क्या होगा? विश्रुत होगा। श्रुत का अर्थ तो बता दिया गया, अब. विश्रुत का क्या अर्थ है? विश्रुत का अर्थ है ख्याति। तीन लोक में उसकी ख्याति फैल जायेगी। अभी तक मुहल्ले में ख्याति फैलती थी या तो आसपड़ौस में, ज्यादा से ज्यादा हो तो गाँव में फैल जाये, जिले में फैल जाये, राष्ट्र में फैल जाये लेकिन तीन लोक में किसी की ख्याति नहीं फैलती, तीन लोक में उसी की ही ख्याति फैलती है जो संपूर्ण श्रुत को पीकर के विश्रुत हो गया। श्रुत को गौण करके ऊपर उठ गये विश्रुत अर्थात् श्रुताभाव और विश्रुत का अर्थ प्रसिद्धि भी है। सबसे ज्यादा प्रसिद्धि तीन लोक में उन्हीं की होती है जिन को आप बोलते हैं विश्रुत अर्थात् श्रुत से ऊपर उठे हुए हैं। श्रुतज्ञान भी आत्मा का स्वभाव नहीं है किन्तु आत्म स्वभाव पाने के लिये श्रुतज्ञान कारण है और उस श्रुत के माध्यम से जो अपने आपको तपाता है और ऐसा तपाता है कि बस श्रुतज्ञान नीचे रहकर के वह जो ज्ञान था वह ज्ञान केवल 'ज्ञान' रह जाता है। श्रुतज्ञान आवरणी ज्ञान है अर्थात् आवरण में से झाँकता हुआ वो सूर्य है जो बादलों की घटाओं से झाँक रहा है।


    जब मेघ घटाओं का पूर्ण अभाव हो जायेगा तो सूर्य अपने सम्पूर्ण प्रकाश के साथ बाहर दिखने लगेगा। उस तपे हुए सूर्य पिंड से सारी धरती को प्रकाश मिलेगा और सुख-शान्ति छा जायेगी किसानों के हृदय में। इसी प्रकार श्रुतज्ञानावरण कर्म का जब पूर्ण क्षय होगा तब नियम से आत्मा में एक नई दशा उत्पन्न होगी, इसी दशा को प्राप्त करने के लिये यह श्रुत है और वह केवल मन का विषय है।


    "श्रुतमनिन्द्रियस्य" हमारे पास पाँच इन्द्रियाँ हैं और मन एक है लेकिन वह इन्द्रिय नहीं है, वह श्रुत का अंग है, उपांग है, उसको अनंग बोलते हैं वो अंतरंग है भीतर रहता है उसके पास अंग नहीं है किन्तु अंग के भीतर अंतरंग होता है और उस अंतरंग के द्वारा ही सब कुछ कार्य होने वाला है। यदि अंतरंग विकृत होगा और केवल बहिरंग साफ सुथरा होगा तो उसके द्वारा काम ठीक नहीं होगा। भीतरी अंतरंग जिसका शुद्ध होगा वह सारा का सारा श्रुत पी लेगा। आचार्यों ने कहा है-जिसका अंतरंग ठीक-ठीक हो गया है उसके लिये श्रुत अंतर्मुहूर्त में पूरा का पूरा प्राप्त हो जाता है और अंतर्मुहूर्त के भीतर ही भीतर उसे नियम से कैवल्य की उपलब्धि हो सकती है।


    वर्तमान में श्रुत ज्ञान जो कुछ भी आप लोगों को उपलब्ध है इससे अब आगे बढ़ने वाला नहीं है। इसमें विकास संभव नहीं है। क्योंकि अवसर्पिणी काल होने से वह धीरे-धीरे घटता चला जा रहा है। और वह समय आया धरसेन आचार्य के जीवन काल में जो कि वह एक-एक अंग का भी पूर्ण ज्ञान नहीं था फिर आज उसका शतांश क्या सहस्रोश भी नहीं रहा। आज सुबह पढ़ लेते हैं, शाम को पूछो तो उसमें से एक कड़ी (पंक्ति) हम ज्यों का त्यों नहीं बता सकते। थोड़ा सा मन इधर-उधर चला गया, उपयोग फिसल गया तो कहाँ से कहाँ चले जाते हैं। संज्ञी में से असंज्ञी मार्गणा में चले जाते हैं या असंज्ञी से संज्ञी मार्गणा में चले जाते हैं। क्या विषय चल रहा था पता तक नहीं पड़ता। पूर्व आचार्यों के उपयोग की स्थिरता उनका श्रुत के प्रति बहुमान आदि देखते हैं, तो उनमें से हमारे पास एक छोटा सा कण भी शेष नहीं रहा किन्तु भाव भक्ति श्रद्धा ही एकमात्र हमारे पास साधन है और यह श्रद्धा विश्वास नियम से वहीं तक ले जायेगा जहाँ तक पूर्व आचार्य गये हैं। उनके पास तक हम भी जा सकते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं किन्तु हम श्रुत को विश्रुत बना करके आत्मा में लीन हो जायें जिसके लिए यह साधन है उस साध्य के लिए ही यह सब कुछ है। एक स्थान पर आचार्य कुन्दकुन्द देव ने समयसार में कहा है -


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    शब्द ज्ञान नहीं क्योंकि शब्द कुछ भी नहीं जानता इसलिए ज्ञान भिन्न है शब्द भिन्न है इस प्रकार भगवान का कथन है। इन संकेतों के माध्यम से हम भीतरी ज्ञान को पहिचान लेते हैं तो इस श्रुत को भी हम ज्ञान कह सकते हैं अन्यथा यह केवल कागज है। भारतीय मुद्रा को लेकर जिस प्रकार अन्यत्र चले जायेंगे तो वहाँ पर कोई कार्यकारी नहीं, वहाँ की मुद्रा को लेना आवश्यक है, वहाँ का व्यक्ति यहाँ पर आ जाता है तो यहाँ की मुद्रा उसे खरीदने की आवश्यकता होती है। इसी प्रकार यदि हम श्रुत का भिन्न क्षेत्र में उपयोग लेते हैं तो इसका कोई भी मूल्य नहीं है। यदि स्वक्षेत्र में काम लेते हैं तो उसे केवलज्ञान होने में मात्र अंतर्मुहूर्त की देरी लगती है। श्रुत को पीते चले जाओ जब तक पेट नहीं भरता, डकार जब तक नहीं आती तब तक इधर-उधर देखो नहीं। हम लोग जो कोई भी कार्य करते हैं वह शिथिलता के साथ और अस्थिरता के साथ करते हैं। पूजन के लिए बैठ जाते हैं तो स्तुति याद आ जाती है, स्तुति के लिए बैठते हैं तो जाप याद आ जाती है, जाप के लिए बैठते हैं तो स्वाध्याय के लिए ग्रंथ सामने आ जाते हैं, ग्रंथ आते ही हमें तो महाराज जी को पड़गाहन करना है, और पड़गाहन से महाराज जी आ भी गये तो बड़े महाराज कहाँ गये? हमारी मन की यात्रा कैसीकैसी चलती है। उन व्यक्तियों के लिए हमारा कहना भैया! आचार्यों ने जो आवश्यक बताये हैं उसको यदि मनोयोगपूर्वक शांति के साथ करोगे तो सारा का सारा फल मिल जायेगा इसलिए कहा है


    "विधि द्रव्यदातृपात्र विशेषात्तद्विशेष:"

    (तत्त्वार्थसूत्र/अध्याय ७/सूत्र ३९)

    कोई भी क्रिया करो विधि के अनुसार करो। कोई भी क्रिया करो दाता और पात्र को देखकर करो। द्रव्य किसके लिए किस रूप में देना चाहिए? इन सभी बातों को ध्यान में रखकर करने से ही क्रिया फलवती होती है। किसी को दवाई में गोली दे दी वैद्य जी ने, कहा सुबह शाम लेते जाओ पेट ठीक हो जायेगा। २० गोली थी उसने पूछा नहीं वैद्यजी से कि एक बार में कितनी लेना है। एक ही दिन में उसने इकट्ठी बीस गोली ले ली। गर्मी ज्यादा हो गई, बर्दाश्त नहीं हुई, २० दिन की खुराक एक दिन में ले लें तो क्या होगा? सहन नहीं कर सका और आंखें जलने लगी भूख-भूख कहने लगा। भूख क्यों लगी, गोली खाने से लगी। अरे भैया! अब तो पेट भी गड़बड़ होने लगा। आस्था बिगड़ गई, अनुपात चाहिए। स्वाध्याय करो कहने से प्राय: ऐसा ही होता है इसलिए संभव है, अष्टमी, चतुर्दशी के दिन वीरसेन भगवान् ने पढ़ने का निषेध किया है। लेकिन हम लोग क्या करते हैं उस व्यक्ति के समान गोली एक दिन में ही खा लेते हैं। एक वर्ष में जो स्वाध्याय करना चाहिए उसे एक माह में कर लेते हैं। रात-दिन एक कर लो किन्तु ऐसा नहीं होना चाहिए। उसके प्रति बहुमान, उसके प्रति विनय, उसके लिए कुछ काल अपेक्षित है। कोई भी एक वस्तु को ग्रहण करते हैं तो उसके बाद ग्रहीत वस्तु का चिंतन करना आवश्यक होता है। फिर धारणा बनाओ और आगे बढ़ो। हम यह नहीं करते हुए बंदर के समान मुख भर लेते हैं, जबकि बंदर इसलिए भर लेता है कि आप लोग ले न लें। एकांत में जाकर उसको निकाल कर खा लेता है और आप लोग क्या करते हैं, कल और सुन लेंगे, क्या बात हो गई उसका कुछ भी पाचन नहीं होता। श्रुत हमारे लिए बहुत बड़ा साधन है। श्रुतज्ञान के बिना आज तक किसी को न मुक्ति मिली और न आगे मिलेगी। अवधिज्ञान, मन:पर्यय ज्ञान का मोक्षमार्ग में कोई महत्व नहीं है किन्तु श्रुतज्ञान का मोक्षमार्ग में महत्व है,केवलज्ञान इसका फल है। यह साधन है तो नियम से फल मिल जाता है और यदि इसका (श्रुत का) अन्यत्र काम लेते हैं तो अर्थ का अनर्थ हो जायेगा। हमें श्रुत के माध्यम से आजीविका नहीं चलाना है, इसे व्यापार का साधन नहीं बनाना है क्योंकि यह पवित्र जिनवाणी है 'वीर हिमाचल' से निकली हुई है। किसी रागी द्वेषी की यह वाणी नहीं है। अत: इसका दुरुपयोग न कर सदुपयोग करना चाहिए। प्राप्त जो श्रुत है उसके माध्यम से स्व-पर कल्याण करना चाहिए। श्रुत का फल बतलाते हुए परीक्षामुख में आचार्य माणिक्यनन्दी जी कहते हैं कि -

     

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    (परीक्षामुख, अध्याय ५/सूत्र १)

    श्रुत की सार्थकता तो तभी मानी जायेगी जब हमारे अन्दर बैठा हुआ मोहरूपी अज्ञानान्धकार समाप्त हो जायेगा और हेय उपादेय की जानकारी प्राप्त करके हेय से बचने का प्रयास करेगा और उपादेय वस्तु को ग्रहण करेगा अर्थात् चारित्र की ओर अपने कदम बढ़ायेगा। भले ही ज्ञान अल्प हो, उसकी चिन्ता नहीं करना बंधुओ क्योंकि यह पंचमकाल है इसमें नियम से ज्ञान में, आयु में, शरीर और अच्छी सामग्रियों में ह्रास होता जायेगा। यह अवसर्पिणी काल है अत: अपने अल्पश्रुत (क्षयोपशमावस्था) की ओर ध्यान न देकर आगे बढ़ने का प्रयास कीजिए। महावीर भगवान् और कुन्दकुन्द के समान तो किसी का ज्ञान है नहीं किन्तु भगवान् महावीर जैसा ज्ञान प्राप्त करने के लिए यानि श्रुतज्ञान को केवलज्ञान में परिणत करने के लिए हमें संयमित होकर के सदा गति करते रहना है और यदि इस प्रकार की हमारी गति हो जायेगी तो हमारी प्रगति, हमारी उन्नति होने में देर नहीं। हमारा यह अल्पज्ञान भी एक अन्तर्मुहूर्त में अनंत में परिणत हो सकता है।


    जिस प्रकार नदी छोटी होकर के भी समुद्र की ओर ढलती है चूँकि उसकी दिशा है इसलिए वह नदी नियम से एक दिन सागर का रूप धारण कर लेती है, उसी प्रकार जिसकी दृष्टि मुक्ति की ओर हो गयी है उसका भी एक दिन ऐसा आयेगा कि वह केवलज्ञान रूपी महान् सागर में समा जायेगा। यही एकमात्र उद्देश्य रहना चाहिए, सम्यक् श्रुतज्ञान से आपूरित हर आत्मा का। इसी भाव को मैंने एक कविता में बाँधा है।


    धरती से फूट रहा है ।
    नव-जात है 
    और पौधा

    धरती से पूछ रहा

    की 

    यह आसमान को कब छुएगा 

    छू.......सकेगा क्या नहीं ?

    तूने पकड़ा है |

    गोद में ले रखा है इससे छोड़ दे ....|

    इसका विकास रुका है 

    ओ.... माँ....|

    माँ की मुस्कान बोलती है  
    भावना फलीभूत हो बेटा....|
    आस पूरी हो।
    किन्तु
    आसमान को छूना
    आसान नहीं है
    मेरे अन्दर उतर कर
    जब छुएगा
    गहन-गहराइयाँ

    तब....कहीं....संभव...हो...
    आसमान को छूना
    आसान नहीं है....।

    (डूबो मत लगाओ डुबकी) 

    क्या कहती है धरती? धरती यह कह रही है कि तू आसमान में चढ़ना चाहता है, भावना बहुत अच्छी है और मैं भी यही चाहती हूँ तू आसमान में जा, ऐसा जा तुझे देखकर के जो पतित व्यक्ति हैं वह भी एक बार मन में विचार लीन हो जायें। हाँ,. हाँ. जीवन इतना उन्नत हो सकता है लेकिन बेटा यह सब बातें मात्र जमा खर्च के रूप में नहीं होना चाहिए। यह यात्रा उस पौधे की तभी संभव है जब वह पौधा गहन गहराईयों में उतरेगा, अंकुर बीज के रूप में रहता है, वह बल, वह शक्ति अंकुर के रूप में आ जाती है। वह ध्यान रखना विकास दोनों ओर से चलता रहता है। इधर अंकुर के रूप में आ गयी वह बीज की शक्ति और ऊपर आ गया, उससे भले आधा होकर वह पौधा नीचे की ओर गया, मुस्कान के साथ, माँ कहती है बेटा तू धरती को कभी नहीं छोड़ना, धरती को छोड़ना चाहता है किन्तु धरती को न छोड़ते हुए आसमान में जाना और आसमान में जाना तभी संभव है जब धरती के भीतर जो कठोरता है उसको भी फोड़कर, भेदकर तुझे नीचे जाना है इसलिए माँ, धरती के साथ सम्बन्ध एकता का होगा। ध्यान रखना ऊपर हवा के द्वारा यूँ यूँ (हिलते हुए हाथ का इशारा) पेड़ कर रहा है लेकिन जड़ में किसी प्रकार का स्पंदन संभव नहीं। जड़ में यदि ऊपर जैसा स्पंदन होने लग जाय तो फिर शीर्षासन जैसा लग जायेगा। शीर्षासन का मतलब ऊपर का नीचे, नीचे का ऊपर हो जाना। मजबूती के साथ रहना सीखी।


    सर्कस दिखाने वाले क्या करते हैं? सारे के सारे अंग को हिलायेंगे भिन्न-भिन्न प्रकार के Action (हाव-भाव) करेंगे लेकिन पैर उनके मजबूत रहते हैं, उसी प्रकार वृक्ष की जड़ें बहुत मजबूत रहती हैं। जब कभी भी पेड़ गिर जाता है, झंझावात, तूफान में तब दूसरे दिन जाकर के देखो ऊपर के साथ-साथ भीतर क्या-क्या आयाम चल रहा था। उस वृक्ष की कैसी-कैसी छोटी बड़ी जड़ें कठिन-कठिन पत्थर को भी काट करके भीतर जाने की कोशिश करती थी और भीतर से ही आहार पानी का प्रबंध करती थी, किंतु धरती से ज्यों ही ढिलाई हो गयी त्यों ही सारा का सारा खेल समाप्त हो गया। पेड़ धरती से संबंध छोड़कर उखड़ गया, जीवन बर्बाद कर लिया।


    बंधुओ! जीवन जब तक रहे तब तक जिनवाणी माता को कभी मत भूलो और जिनवाणी माँ को भूलकर अन्यत्र कहीं चले जाओगे तो तुम्हारी भी वही दशा होगी, पैर ऊपर होंगे और नीचे सिर होगा। शीर्षासन लगाना पड़ेगा।


    हम उन्नति चाहते हैं लेकिन उन्नति किस रूप में होनी चाहिए? किसको उन्नति कहते हैं? यह ख्याल में नहीं है। वह क्या कहता है पौधा? मुझे छोड़ दो, तो धरती कहती है, मैं कैसे छोड़ें, तेरी नादानी बहुत है। तुझे छोड़ दूँ अर्थात् जमीन में दरार पड़ जाये तो तू कहाँ चला जायेगा, क्या आसमान को देख सकेगा? पाताल को ही देख सकेगा और तुम्हारा जीवन समाप्त हो जायेगा।


    श्रुत को आधार बनाकर चलो और श्रुत के द्वारा वहाँ तक जाना है, कहाँ तक? जहाँ तक महावीर भगवान पहुँचे हैं। बारहवें गुण स्थान के अंतिम समय तक उस श्रुत का आधार वह साधक लेता है और हम लोग थोड़ा सा कुछ आने लगा तो अहंकार करने लग जाते हैं। वह माँ कहती है तू नादान है, आप श्रुत का आदर किया करो, किस रूप में करो, तो जिस रूप में बताया गया है उसी रूप में करना आवश्यक है। केवल बाहरी श्रुत का आदर, आदर नहीं है। आचार्यों ने कहा है ज्ञान का फल क्या है? ज्ञान का प्रयोजन क्या है? ज्ञान का प्रयोजन ध्यान है, ध्यान का प्रयोजन केवल ज्ञान है, सुख है, शान्ति है।


    हमारे श्रुत में यदि अस्थिरता होगी तो ध्यान रखना तीन काल में भी हमारी यात्रा ऊध्र्वगति के रूप में नहीं होगी। श्रुत का आधार लो और उन्नति को अपनाते चले जाओ। कहाँ तक अपनाते चले जाओ, जहाँ तक श्रुत की पूर्णता/पूर्ति नहीं होती। जैसे-जैसे ऊपर चले जाओगे वैसे-वैसे देखने में आयेगा वह आसमान बहुत-बहुत विशाल, कितना? जिसकी कोई थाह नहीं। श्रुत की कभी भी थाह नहीं पकड़ सकते हैं।


    श्रुत के माध्यम से ऊपर-ऊपर बढ़ते चले जाओ एक सीमा आयेगी उसके उपरान्त केवलज्ञान हो जायेगा, निरावरण ज्ञान ही उस आसमान को छू सकता है जहाँ पर लोक का अंत भी हो जाता है। अलोक में भी वह प्रविष्ट हो सकता है। ज्ञान की महिमा बड़ी अपरम्पार है। उस ज्ञान की महिमा को पाने के लिए बड़े बड़े आचार्य कुन्दकुन्द जैसे भी कहते हैं। बन्धुओ! मेरे पास कहाँ ज्ञान है? गणधर परमेष्ठी भी कहते हैं- मेरे पास इतना ज्ञान कहाँ हैं? ज्ञान तो वह है जो निरावरण हुआ करता है। जिस प्रकार एक व्यक्ति के पास बहुत कुछ धन है, वह कम धन वाला भी सोचता है कि मेरे पास बहुत कुछ धन हो गया किंतु जब ऊपर देखता है तो लगता है मेरे पास कुछ धन नहीं है। उसी प्रकार गणधर परमेष्ठी भी कहते हैं। मेरा क्या ज्ञान मेरा क्या धन-धन तो वस्तुत: केवलज्ञानी के पास है। श्रुत तो केवल उसका साधन मात्र है। जब साधन मात्र है तो उसको हम साध्य मान करके नहीं चलें किन्तु साध्य तो वही है, निरावरण केवलज्ञान। उसको पाने के लिए आचार्य कुन्दकुन्द देव कहते हैं-हमें ध्यान की बड़ी आवश्यकता है। उस ध्यान में जब लीन होंगे तब स्थिरता के कारण आगे की ओर हमारी यात्रा होगी। आगे की ओर जैसे-जैसे यात्रा होगी वैसे-वैसे हमारा बल भी बढ़ता चला जायेगा, जिम्मेदारियाँ बढ़ती चली जायेंगी।


    पानी का बहाव निम्नगा माना जाता है। वह नीचे की ओर चला जाता है। पानी हमेशा बहता रहता है यात्रा करता रहता है। जल का यह स्वभाव है। उसी प्रकार उपयोग भी यात्रा करता रहता है। उपयोग का भी यही स्वभाव है। अत: देख लीजिये जल का यदि कुछ उपयोग करना है, सिंचन विभाग खोलना है तो क्या करते हैं? क्या कीचड़ के द्वारा बाँध बांधते हैं? नहीं! नदी के तट तो कीचड़ के ही रहेंगे, मिट्टी के रहेंगे, सीमेंट कांक्रीट के नहीं रहते लेकिन बाँध बांधेगे तो कंक्रीट के ही बांधेगे। बाँध बांधने के उपरान्त क्या करते हैं-डेंजर लिख देते हैं- सावधान रहें जल की यात्रा अभी भी चालू है। जब जल नीचे की ओर न जाकर के ऊपर की और चला जाता है तो उस समय खतरा और अधिक बढ़ जाता है। जब तक ऊपर की ओर जल की यात्रा नहीं होगी तब तक सिंचन विभाग सामथ्र्यशाली नहीं हो सकता, जिसके माध्यम से सारी की सारी जमीन तृप्त होगी लेकिन यह बात ध्यान रखना कि वह जल निम्नगा न होकर के ऊध्र्वगा हो जाएगा तो खतरा भी अधिक रहेगा। यदि बाँध टूट जाये तो एक साथ नदी तट आदि सब कुछ समाप्त हो जायेगा।


    ज्ञानोपयोग की धारा हमेशा बहती रहती है। बहने वाले उपयोग का इतना महत्व नहीं है। श्रुतज्ञान होने के उपरांत ध्यान रूपी बाँध के द्वारा उस ज्ञान को ऊपर की ओर ले जाया जाता है जिसके लिए महान् संयम की आवश्यकता है। प्रकृति के वश का यह काम नहीं है। श्रुत का सदुपयोग तो यही है कि उस को संयम का बाँध बना कर के ऊपर उठा लेना और ऐसा उठा लिया कि कुछ मत पूछो भैया! जैसे पंडित जी (पं. कैलाशचन्द्र जी सिद्धांतशास्त्री, बनारस) वाचना के समय बार-बार लब्धि स्थानों के बारे में बताते थे कि कैसे श्रेणी चढ़ी जाती है। किस प्रकार साधक अपनी साधना को ऊपर उठाता है, कितना परिश्रम होता है ? उसके परिश्रम से यह नहीं समझों कि साधना अधिक करनी पड़ती है किन्तु चुटकी बजाते अल्प समय में भावों में विशुद्धता, भावों में उत्कृष्टता ऐसी लाता है कि उसको ऊपर चढ़ने में देर नहीं लगती। इसी प्रकार आप लोगों को भी साधना करना है, बोलते बोलते ही (अल्प समय में) संयमित होकर ऊपर एक एक गुणस्थान चढ़ते जाइये। जैसा कि अभी कहा था कि श्रुतज्ञान रूपी उस प्रवाह में संयम रूपी बाँध बांध करके ऊध्र्वगति दे दी है और ऊपर जाकर के क्षपक श्रेणी में लीन हुआ। बारहवें गुणस्थान में क्षीण-कषाय-वीतरागछद्मस्थ होता है तो अन्तर्मुहूर्त में वह कहाँ चला जाता? वह नीचे नहीं आता ऊपर जाता है, केवलज्ञान उत्पन्न हो जाता है। संयम रूपी बाँध में बंधे हुए श्रुत की यह महिमा है। त्याग तपस्या का यह प्रभाव है।


    जैसे-जैसे जल को तपाया जाता है वैसे-वैसे वह वाष्प बनकर ऊपर चला जाता है। अब उसे किसी आधार की कोई आवश्यकता नहीं वह बहुत ऊपर चला जाता है। एक बार छद्मस्थ अवस्था की सीमा का उल्लंघन हो जाता है फिर बाद में वह अंतरिक्ष (केवलज्ञान प्राप्त होने पर धरती से ऊपर उठ जाता है) में चला जाता है क्षितिज पर नहीं रहता। अंतरिक्ष में जाने के उपरांत कोई बाधा नहीं होती उसके पास ऑटोमेटिक ईंधन (पेट्रोल) है और वह वहीं पर घूमता रहता है। नभमण्डल में क्या हो रहा है? सारा मामला रडार के द्वारा वह पकड़ लेता है। उसी प्रकार श्रुतज्ञान के प्रवाह को संयम के बाँध के द्वारा ऊपर ले जायेंगे तो वह अनंत-शक्ति को लेकर के आसमान में रहेगा। किसी भी प्रकार से उसको क्षति नहीं पहुँचेगी। मैंने एकमात्र यही उदाहरण दिया है। इस उदाहरण के माध्यम से ज्ञान की गति को ऊध्र्वगति देना है। जिसका एक मात्र लक्ष्य संयमी हो जाना है और यही एकमात्र सम्यग्दृष्टि का लक्ष्य होना चाहिए कि मेरा जो उपलब्ध श्रुतज्ञान है इसी में मुझे राजी नहीं होना है। संतुष्ट नहीं होना है किंतु मैं इस ज्ञान को निरावरण कब देखेंगा? निरावरण देखने का एकमात्र यही ध्येय है।


    नीचे वाली वस्तु को ऊपर ले जाने में बहुत कष्ट होता है। आप लोग पाँच खण्ड के ऊपर बैठ कर के टोंटी के द्वारा जल पीते हैं वह जल कैसे आया? टोंटी के द्वारा तो आया लेकिन पाँच खण्ड पर कूप का जल टोंटी के द्वारा आया कैसे? यहाँ वहाँ जब आप देखेंगे, पता लगायेंगे तब मालूम पड़ेगा। पहले कम से कम दस खण्ड ऊँचाई को लेकर एक टैंक बनाया गया है। तब कहीं पांचवें खण्ड में वह पानी आ रहा है वह, नीचे से ऊपर नहीं। पहले ऊपर ले जाया गया, कौन से हॉर्सपावर की मशीन चल रही है वहाँ पर? बहुत बड़ी शक्ति की आवश्यकता है। श्रुतज्ञान को ऊपर उठाना खेल नहीं है हॉसपावर शक्ति आवश्यक है और आप लोगों के पास जो है वह हासपावर तो है ही नहीं। महाराज हमें भी आगे बढ़ाओ, क्या बढ़ाओ इस प्रकार मात्र उपदेश देने से और सुनने से ज्ञान नहीं बढ़ता, ज्ञान को ऊध्र्वगमन नहीं मिलता किन्तु संयम के द्वारा ही हम श्रुतज्ञान को केवलज्ञान में ढाल सकते हैं। आज तक कोई व्यक्ति ऐसा नहीं हुआ जिसने संयम लिये बिना ही श्रुतज्ञान को केवलज्ञान का रूप दे दिया हो ।


    जब कभी भी हमें श्रुतज्ञान से केवलज्ञान मिलेगा उस संयम की बलिहारी है। संयम रूपी बाँध को बाँधने वाले इंजीनियर की भी बलिहारी है ऐसा इंजीनियर कौन होता है? तो आचार्य कुन्दकुन्द देव कहते हैं हमारे पास आ जाओ तो यहाँ मंच पर एक साथ सौ व्यक्तियों को भी अंतर्मुहूर्त में इंजीनियर बना देंगे और वो अपने जीवनकाल में ऐसे बाँध बांध सकेंगे जिसके माध्यम से अनंतकाल तक उसका प्रवाह रहेगा।


    बन्धुओ! श्रुत की क्या विशेषता बतायें श्रुत तो वही है जो केवलज्ञान के लिए साक्षात् कारण माना है उस श्रुत की आराधना आप लोगों ने एक-डेढ़ माह लगातार सिद्धान्त ग्रन्थों के माध्यम से की उसकी वाचना सुनी। जिस जिनवाणी का, गुफाओं में बैठकर के धरसेन, पुष्पदन्त, भूतबली एवं वीरसेन आचार्य जैसे महान् श्रुत-सम्पन्न व्यक्तियों ने सम्पादन किया उसको आप लोग आज एअरकंडीशन में बैठकर सुन रहे हैं, फिर भी कोई बात नहीं लेकिन इस प्रकार के ध्यान अध्ययन की साधना करते-करते एक दिन आपको वह समय उपलब्ध हो सकता है जिस दिन उसी प्रकार का वह संयम आप लोगों के जीवन में प्राप्त हो और नियम से प्राप्त होगा। विश्वास रखना और उसी के द्वारा आपको उसी प्रकार का फल मिलेगा जिस प्रकार का फल महावीर भगवान् को मिला था और अन्त में उन गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज को स्मरण कर रहा हूँ। जिनके परोक्ष आशीर्वाद से ही यह सारे के सारे कार्य निर्विघ्न सम्पन्न हो रहे हैं। उन्हीं की स्मृति में -


    तरणि ज्ञानसागर गुरो, तारो मुझे ऋषीश।

    करुणाकर करुणा करो, कर से दो आशीष।


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    रतन लाल

      

    जिस प्रकार नदी छोटी होकर के भी समुद्र की ओर ढलती है चूँकि उसकी दिशा है इसलिए वह नदी नियम से एक दिन सागर का रूप धारण कर लेती है, उसी प्रकार जिसकी दृष्टि मुक्ति की ओर हो गयी है उसका भी एक दिन ऐसा आयेगा कि वह केवलज्ञान रूपी महान् सागर में समा जायेगा। 

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