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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • दान, अर्थ (धन)

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    दान, अर्थ (धन) विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी  के विचार

     

    1. चोरी करके दिया गया दान, धर्म नहीं, दान नहीं। नीति न्याय के अनुरूप देना दान है। पुरुषार्थ के माध्यम से कमाकर दान देना ही दान है।
    2. पुरुषार्थ के माध्यम से जो चीज आती है वह देना दान है। समुद्र में एकत्रित पानी काम में नहीं आता। ऐसे ही संग्रह किया हुआ अनाप-शनाप धन का दान देना धर्म नहीं है।
    3. घूस लेकर दान देना धर्म नहीं है।
    4. आत्मा के उज्ज्वल परिणामों से इकट्ठा करके दान देना ही धर्मात्मा का लक्षण है।
    5. अर्थ का यदि सदुपयोग नहीं किया जाता है तो उसका कोई अर्थ नहीं है। समय रहते अर्थ (धन) का सदुपयोग कर लेना चाहिए।
    6. त्याग और दान का सही-सही प्रयोजन तो तभी सिद्ध होता है, जब हम जिस चीज का त्याग कर रहे हैं या दान कर रहे हैं उसके प्रति हमारे मन में किसी प्रकार का मोह या मान सम्मान पाने का लोभ न हो ।
    7. बन्धन से मुक्ति की ओर जाने का सरलतम उपाय यदि कोई है तो वह यही त्याग धर्म और दान है।
    8. आहार दान की क्रिया श्रद्धामयी श्रावक और अभिमान रहित साधक के मध्य सम्पन्न होती है। यह दाता और पात्र का आदर्श रूप है।
    9. जैसे वस्त्र की गंदगी साबुन-सोड़े से निकलेगी वैसे ही दान पुण्य के द्वारा अपने अंदर की गंदगी को धो डाले ।
    10. आप अपने धन के बांध में लीकेज न आने दें। धन को दया, करुणा, परमार्थ के कार्य में बहने दें, रोकें नहीं।
    11. अभिमान के साथ नहीं, दया धर्म के साथ दान देना चाहिए।
    12. अभिमान के साथ दिया हुआ दान, दान नहीं माना जाता है उसके माध्यम से तो सम्मान का आदान हो रहा है।
    13. अर्थ को अर्थ ही मानो, परमार्थ नहीं।
    14. अर्थ के द्वारा गुणों की प्राप्ति नहीं हो सकती।
    15. अर्थ का उपार्जन परमार्थ के साधन के लिए है अनर्थ के लिए नहीं।
    16. अभयदान के विषय में जो सोचता है वह सम्यग्दर्शन के बारे में विभिन्न पहलुओं से अध्ययन कर चुका है, यह ज्ञात होता है, क्योंकि तन, मन, धन और वचन इन सबको वह अपने व दूसरे के सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति में ही न्यौछावर करना चाहता है।
    17. दान की महिमा क्या बताऊँ यही एक ऐसा मार्ग है जो गृहस्थ के जीवन को संतुलित किये रहता है तथा सर्वस्व त्यागी तपस्वियों से भी जोड़ देता है।
    18. त्याग और दान का सही-सही प्रयोजन तो तभी सिद्ध होता है, जब हम जिस चीज का त्याग या दान कर रहे हैं, उसके प्रति हमारे मन में किसी प्रकार का मोह या मान-सम्मान पाने का लोभ न हो।
    19. बन्धन से मुक्ति की ओर जाने का सरलतम उपाय यदि कोई है तो वह यही त्याग धर्म और दान है।
    20. पूर्व में, व्यापार करने में चतुर व त्याग करने में चतुर, कोई था तो जैनियों का नाम पहले आता था पर आज हम नाम के पीछे पड़ गये। नाम-निक्षेप के पीछे पड़कर भाव-निक्षेप को हमने नहीं धारा |
    21. भाव-निक्षेप वाला ही कृत-कृत्य कहलाता है। वही सुखी बन जाता है।
    22. हमें अर्थ को चाहते हुए अनर्थ से बचते हुए अर्थ का त्याग करना है, इसमें घाटा नहीं है, दु:ख नहीं है, सुख का यह कारण है।
    23. धन को गाड़कर रखने की अपेक्षा दान देकर धन को गाढ़ा बनाओ।
    24. जो त्याग दिया उसको पीछे मुड़कर क्यों देखना यदि देखता है तो उसका यह भाव भी उसी प्रकार चला जायेगा, जिस प्रकार तेली का बैल आंख पर पट्टी बांध देने से वह यह समझता है कि सुबह से शाम तक हम बहुत बड़ी यात्रा करके आ गये। पर वह वहीं का वहीं बंधा रहता है।
    25. व्रती हो जाने पर अव्रती की ओर नहीं देखना चाहिए।

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