देव-गुरु–शास्त्र विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार
- यदि हमारा राग जागृत हो जाये या लोभ जागृत हो जावे उसके कारण हम तत्व को इधर-उधर करने लग जायेंगे, जो हमारे लिए अभिशाप सिद्ध होगा। वह घड़ी वरदान नहीं हो सकती, अभिशाप ही सिद्ध होगी क्योंकि जिनवाणी में परिवर्तन करना महान् दोष का काम है साथ ही महान् मिथ्यात्व का भी बंध होता है।
- जैसे छोटे से वट बीज के गर्भ में विशाल वट वृक्ष छिपा होता है, माटी के गर्भ में मंगल कलश छिपा होता है। ठीक वैसे ही हर आत्मा में परमात्मा बनने की शक्ति छिपी होती है।
- प्रत्येक जीव होनहार भगवान है। कच्चा माल पक्का बन जाने पर मूल्यवान हो जाता है। अत: कच्चे माल को सुरक्षित रखें।
- जैसे कच्चा घड़ा अवा में पकने पर लोगों की प्यास बुझाने में काम आते हैं। वैसे ही यह आत्मा भी तप के द्वारा परमात्मा बनकर धर्मोपदेश देकर धर्म पिपासुओं की प्यास शांत करता है।
- पंच नमस्कार मंत्र की जाप करने से परम स्वाध्याय हो जाता है क्योंकि पंच परमेष्ठी में सातों तत्व पाये जाते हैं।
- शास्त्र के द्वारा केवल उसी जीव की आत्मा जागृत हो सकती जो कान से बहरा नहीं है तथा पढ़ लिख सकता है परन्तु अरिहंत की प्रतिमा का दर्शन तो प्रत्येक मनुष्य के लिए सम्यक्त्व की प्राप्ति में तथा उसकी वृद्धि में सहायक है।
- इस दुनिया में दो बातें श्रेष्ठ हैं-एक गुरु और दूसरे प्रभु।
- गुरु सामने हैं और प्रभु हैं अदृश्य। गुरु हमारे लिए अदृश्य प्रभु तक पहुँचाने के लिए मार्ग दर्शाते हैं।
- आप सम्पदा के पीछे पड़े हैं और अरिहंत भगवान के पीछे संपदा पड़ी है यही दोनों में अन्तर है।
- यदि राग से तुम ऊपर उठना चाहते हो तो रागी को अपना विषय मत बनाओ, उसका ध्यान मत करो क्योंकि वह रागी जो कुछ कार्य कर रहा है, वही कार्य करने के भाव तुम्हारे भीतर आएंगे इसलिए जो रागातीत हैं पंचपरमेष्ठी उनकी उपासना करो।
- भगवान नासा पर दृष्टि रखते हैं। और आप आशा पर दृष्टि रखते हैं, बस इतना ही अन्तर है।
- पूजन में भावों की गौणता नहीं करना चाहिए।
- मन, वचन, काय को समर्पित करके पूजन करिये हेय बुद्धि से नहीं। पूजन में उपादेय बुद्धि रखो एवं भोजन में हेय बुद्धि रखो।
- कर्मफल के प्रति हेय बुद्धि रखो। निर्जरा के साधन को हेय बुद्धि से नहीं उपादेय बुद्धि से करो। जितनी भक्ति से जितने अधिक समय तक पूजन करो, उतनी अधिक कर्म निर्जरा होती है।
- प्रसन्न वदन, प्रसन्न चित्त होकर भावविभोर होकर भगवान् की भक्ति करना चाहिए, हेय बुद्धि से नहीं।
- यदि भगवान के गुणों की गंध आपके पास आ जावे तो पूजा करो, भगवान कभी नहीं कहते मेरी पूजा करो। अविनश्वर सुख के धनी संसारी से क्या चाहेंगे? बिना अपेक्षा के मृदंग जैसे दिव्यध्वनि के माध्यम से उपदेश देते हैं।
- पंच परमेष्ठी की शरण सभी अपायों (दु:खों) को दूर करने का उपाय है।
- दुनिया में संघर्ष है पर प्रभु के चरणों में हर्ष।
- देव गुरु शास्त्र की उपासना के माध्यम से हमें अपनी श्रमण संस्कृति को सुरक्षित रखने का प्रयास करना चाहिए। उसमें चार चाँद लगाना तो बड़े भाग्यशाली जीवों का ही कार्य है लेकिन जितना मिला है उतना तो सुरक्षित रखने का प्रयास हमें करना ही चाहिए।
- सच्चे देव शास्त्र गुरु के प्रति अपने आपको समर्पित करने वाला उनके अनुरूप चलने वाला मुमुक्षु आदर्श बनता है।
- विषय कषाय का चश्मा उतारो तो भगवान जरूर मिलते हैं।
- भगवान ने केवलज्ञान के द्वारा जाना किन्तु प्ररूपणा जो की, वह नयवाद के माध्यम से द्रव्यश्रुत जो है वही दिव्यध्वनि मानी जाती है। मूल श्रुत वही दिव्यध्वनि है। उसके बाद उसी के माध्यम से श्रुत का उद्भव बाद में हुआ है तो मूल श्रुत वह है।
- जब तक इस धरती तल पर सच्चे देव, शास्त्र, गुरु रहेंगे तब तक ही हमारी भीतरी आँखें खुली रहेगी।
- भीतरी आँखें जितनी पवित्रता के साथ खुलेंगी, उतना ही पवित्र पथ देखने में आयेगा। ज्यों ही इसमें दूषण आने लग जायेंगे तो पथ की पवित्रता भी समाप्त हो जावेगी।
- जब तक उपासक स्वयं उपास्य नहीं बन जाता, जब तक उसे उपास्य की उपासना करना अनिवार्य है।