दर्शन-ज्ञान-चारित्र विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार
- ज्ञान दर्शन का विषय स्व और पर दोनों या षट्द्रव्य बन जाते हैं लेकिन चारित्र का विषय नियम से स्व आत्मा ही है चाहे सराग अवस्था हो या वीतराग अवस्था।
- चारित्र लेने के उपरान्त, दीक्षा के उपरान्त ये मत समझो कि हम दूसरों को उपदेश देने के लिए तैयार हो गए। नहीं बल्कि ये समझो कि चारित्र ले लिया तो आत्मा को ही विषय बनाने का लक्ष्य होना चाहिए।
- पेट का लीवर सम्यक दर्शन के समान है। वह ठीक है तो पूरी पाचन प्रणाली, स्वास्थ्य ठीक। उसी प्रकार सम्यक दर्शन है तो मोक्ष का मार्ग भी ठीक है।
- मद एक बार चिपक बस जाये फिर जीवन पर्यन्त नहीं जाता। अत: ये सम्यक दर्शन का घातक है।
- पहले चारित्र अंगीकार करो तब बारह भावना, चिंतन, समिति आदि कार्यकारी होगी।
- समय का दुरुपयोग नहीं समय का सदुपयोग, बड़ों के प्रति विनय, सबके प्रति वात्सल्य इससे अपना सम्यक दर्शन पुष्ट होता है।
- जिस प्रकार सम्यक दर्शन के आठ अंगों का पालन करते हैं उसी प्रकार से सम्यग्ज्ञान के आठ अंगों का भी सूक्ष्मता के साथ पालन करना चाहिए।
- जो परद्रव्य के साथ कर्तव्य, भोकृत्व, स्वामित्व के साथ एक अंश भी सम्बन्ध नहीं रखते है उन्हीं के चरणों में ये क्षायिक सम्यक दर्शन आदि का कार्य होता है।
- सम्यक दर्शन के ये वात्सल्य आदि गुण डिब्बे में रखकर बंद करने योग्य नहीं हैं इन्हें प्रयोग में लाना महत्वपूर्ण है। भावों के माध्यम से, इससे आत्म संतुष्टि और बढ़ जाती है।
- ग्लानि देखकर मन की नाक पहले सिकुड़ जाती है फिर शरीर की। ग्लानि जीतना सहज होना चाहिए प्रदर्शन के लिए नहीं।
- सम्यक दर्शन आज तक किसी को भी गुरु बनाये बिना नहीं हुआ। क्षायिक सम्यक दर्शन के लिए भी गुरु के पादमूल में जाना होगा। उपदेश से, बिम्ब दर्शन से क्षायिक सम्यक दर्शन प्राप्त नहीं होता।
- संज्ञी बने बिना सम्यक दर्शन नहीं हो सकता तो संज्ञी बने बिना मद भी नहीं हो सकता। लेकिन संज्ञीपने को प्राप्त करके आज तक हमने मद ही किया है अब सम्यक दर्शन को सुरक्षित रखना है।
- जैसे-जैसे सम्यक दर्शन आदि के साथ तप में विकास होता चला जाता है, वैसे-वैसे निर्जरा की वृद्धि होती चली जाती है।
- सम्यक दर्शन के साथ जन्म हो सकता है परन्तु वीतरागता जन्म से नहीं आ सकती। इसलिए जन्म से कोई भगवान् नहीं होता।
- समय रहते हुए हम जाग जायें और ज्ञान का जो सही-सही फल अज्ञान की निवृत्ति, कषायों की हानि, आत्मतत्व और स्नत्रय की प्राप्ति एवं रागद्वेष को कम करके चारित्र को अंगीकार करने रूप है उसे प्राप्त करें। इसी में आपकी भलाई है।
- तिर्यच सुनता है गुनता है परन्तु बोलता नहीं। इसी कारण तिर्यच जन्म लेने के कुछ समय बाद सम्यक दर्शन प्राप्त कर सकता है।
- मनुष्य सुनता है गुनता है किन्तु बोलता भी है। मनुष्य स्वयं उलझता है और उलझाता है दूसरों को फैंसाने के लिए जाल बिछाता है किन्तु तिर्यच ऐसा नहीं करते इसलिए सम्यक दर्शन प्राप्त करने की भूमिका मनुष्य से पहले तिर्यच के बन जाती है।
- सम्यक दृष्टि अपना सोचता है, पराया नहीं सोचता और न ही सोचना चाहिए।
- वीतराग सम्यक दृष्टि बनने के लिए, वीतराग सम्यक दर्शन को जो प्राप्त कर चुके हैं उनकी उपासना करो।
- वीतराग सम्यक दृष्टि की उपासना करने से सराग सम्यक दर्शन से वीतराग सम्यक दर्शन प्राप्त करने का सौभाग्य प्राप्त होता है।
- परिणामों में, संकल्पों में, भावनाओं में, जाग्रति रखने वाला व्यक्ति ही सम्यक दर्शन को सुरक्षित रख सकता है।
- यदि थोड़े समय के लिए अनादि काल का संस्कार उखड़ गया तो गुणस्थान ही चला गया। बाहर भले ही ज्यों का त्यों बना रहता है लेकिन भीतर से खोखला हो जाता है।
- सम्यक दृष्टि को यह विश्वास हो जाता है कि जितना जोड़ना है वह मुक्ति से सम्बन्ध जोड़ना है और जितना तोड़ना है वह संसार से सम्बन्ध तोड़ना है।
- रागद्वेष को मिटाने का लक्ष्य जब बन जाता है तो चारित्र को लेना अनिवार्य हो जाता है।
- सम्यक दृष्टि शरीर को गौण करके आत्मा के रत्नात्रय रूप गुणों को मुख्य बनाता है।
- सम्यक दृष्टि कर्म का फल तो भोगता है, पर कर्म करके फल नहीं भोगता।
Edited by संयम स्वर्ण महोत्सव