स्व की ओर आने का कोई रास्ता मिल सकता है तो देव-शास्त्र-गुरु से ही मिल सकता है, अन्य किसी से नहीं। हम जैसे-जैसे क्रियाओं के माध्यम से राग-द्वेषों को संकीर्ण करते चले जायेंगे वैसे-वैसे अपनी आत्मा के पास पहुँचते जायेंगे। आत्मा के विकास के लिए वीतराग स्व संवेदन की आवश्यकता है। स्व-संवेदन के माध्यम से हमें वो दर्शन हो सकते हैं जो आज तक नहीं हुए। पथ एक ही है, मार्ग एक ही है, जो सामने चलता है वह मुक्ति का पथ चाहता है और जो ' Reverse ' में चलता है वह संसार का पक्ष चाहता है।
संसारी प्राणी को जो कि सुख का इच्छुक है उसे वीतरागी सर्वज्ञ हितोपदेशी, उपदेश देकर हित का मार्ग प्रशस्त करते हैं। वे भगवान जिनका हित हो चुका है फिर भी जो हित चाहता है उसके लिए वे बहुत कुछ देते हैं, कृतकृत्य होने के उपरान्त भी वे सहारा देते हैं, इशारा देते हैं और हमें भी भगवान के रूप में देखना चाहते हैं। संसारी प्राणी सुख का भाजन बन तो सकता है। किंतु वह अपनी पात्रता को भूल जाता है, अपनी शक्ति को भूल जाता है, इससे यही परिणाम निकलता है कि वह सुखी बन नहीं पाता। वह भेद विज्ञान एक बार हो जाये, बस भगवान बन सकते हैं। महावीर भगवान व अन्य सन्तों ने जोर के साथ कहा है कि जो कोई भी धार्मिक क्रियायें हैं वे सब ‘मैं भगवान बनूँ, मैं भगवान बन सकता हूँ सर्वप्रथम इन्हीं लक्ष्य को लेकर होनी चाहिए, इसके उपरान्त ही वे सारी क्रियायें धार्मिक मानी जा सकती हैं। यह उसकी व्यक्तिगत दृष्टि के ऊपर आधारित है। वह यदि भगवान नहीं बनना चाहता है या भगवान बनने की कल्पना तक नहीं करता है तो ध्यान रहे उसकी सारी की सारी क्रियायें सांसारिक ही कहलायेगी। क्रियायें अपने आपमें न सांसारिक हैं न धार्मिक हैं। दृष्टि के माध्यम से ही वे क्रियायें धार्मिक हो जाती हैं और एक प्रकार से चारित्र का रूप धारण कर लेती हैं।
चलना आवश्यक है किन्तु दृष्टि बनाकर चलना है, जब तक दृष्टि नहीं बनती तब तक उस चलने को चलना नहीं कहते। उदाहरण के लिए समझने के लिए आप कार-गाड़ी चला रहे हैं, चलाते-चलाते उसे रोक देते हैं और उसको 'Reverse' में डाल देते हैं। गाड़ी चल रही है कि नहीं? चल रही है किन्तु उल्टी चल रही है। उल्टी चल रही है तो उसे चलना नहीं कहेंगे । यद्यपि गाड़ी का मुख सामने ही है और आप लोगों का मुख भी सामने ही है लेकिन गाड़ी चल रही है पीछे की ओर, उसी प्रकार आप लोगों की दृष्टि के अभाव में जो कोई भी क्रियायें होती हैं वे सारी क्रियायें 'Reverse' गाड़ी' के अनुरूप होती हैं। गाड़ी जब ‘रिवर्स' में रहेगी तब तक वह पीछे ही जायेगी और पीछे अपने को जाना नहीं है, रास्ता आगे की ओर है। दिखता है कि हम जा रहे हैं, चल रहे हैं किन्तु अभिप्राय यदि संसार की ओर हो, मन में भगवान बनने का भाव न हो तो व क्रियायें ही क्या? वे क्रियायें मोक्षमार्ग के अन्तर्गत नहीं आ सकती। मोक्षमार्गी तभी कहला सकता है जब कि वह मोक्ष पाने की इच्छा करे, और मोक्ष पाने की इच्छा करता है तो निश्चित रूप से वह गाड़ी 'Reverse' में नहीं डालेगा। उसके कदम, उसके चरण अपनी शक्ति के अनुरूप उसी ओर बढ़ेंगे जिस ओर भगवान गये हैं, मुक्ति का पथ जिस ओर है। सामने चलता है तो वह मुक्ति का पथ चाहता है। और 'Reverse' में चलता है तो वह संसार का पथ चाहता है। दो ही तो पथ हैं - एक मुक्ति का और एक संसार का। बल्कि यूँ कह दो आप कि मार्ग एक ही है, एक ही प्रकार है, सामने चलना तो मुक्ति का मार्ग, पीछे की ओर चलना संसार का मार्ग ।
जयपुर से आगरा की ओर जायेंगे तो आगरा का साइन बोर्ड मिलेगा, आगरा से जयपुर की ओर आयेंगे तो इधर जयपुर का साइन बोर्ड मिलेगा, किन्तु पत्थर एक ही है, शिला एक ही है। इस ओर से जाते हैं तो आगरा लिखा मिलता है और उधर से आते हैं तो जयपुर लिखा मिलता है। अर्थ यह है कि मार्ग एक है। सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चरित्र रूप जो मोक्षमार्ग है उससे विलोम कर दो, आप को मिथ्यादर्शन-मिथ्याज्ञान-मिथ्याचारित्र यह संसार मार्ग बन जाता है। ऐसा नहीं है कि दो लाइनें चल रही हैं ये सम्यग्दर्शन की लाइन है और ये मिथ्यादर्शन की लाइन है दोनों एक साथ नहीं चल सकती क्योंकि व्यक्ति एक है और रास्ता भी एक ही है। दिशायें दो हैं, दिशायें भी कोई चीज नहीं है, जब चलता है तब दिशा बनती है, जब बैठा रहता है तो दिशा की कोई आवश्यकता नहीं है न दिशा की, न विदिशा की, न ऊपर की, न नीचे की। जब गति प्रारम्भ हो जाती है तब दिशा- बोध की आवश्यकता होती है जब चलना आरम्भ होता है तभी उल्टा-सीधा इस प्रकार की कल्पनायें उठती हैं। अत: भगवान बनने के लिए जो कोई भी आगम के अनुरूप आप क्रिया करेंगे वह सब मोक्षमार्ग बन जायेगा। इसके लिए क्रम के अनुरूप ही हम अपने कदम बढ़ायेंगे तो अवश्य सफलता मिलती चली जायेगी। सफलता भी ठीक-ठाक चलने से मिलती है और क्रम के अनुरूप चलने से मिलती है एक साथ तो हो नहीं सकती।
हम कहते हैं- "सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:" रत्नत्रय की ओर भी प्ररूपणा करते हैं, सुनते हैं, सुनाते हैं, किन्तु इसमें अनुभूति नहीं होने का सही-सही कारण पूछा जाये तो उस ओर हमारा जीवन ढलता नहीं, वह ऊपर-ऊपर रह जाता है, जहाँ जीवन ढल जाता है वहाँ अनुभूति होती है।
अनुभूति को आचार्यों ने बहुत महत्व दिया है। ज्ञान को महत्व नहीं दिया किन्तु अनुभूति को महत्व दिया। अनुभूति के साथ ज्ञान अवश्य होगा यह नितान्त आवश्यक है। ज्ञान पहले हो और अनुभूति बाद में ही यह कोई नियम नहीं, जिस समय अनुभूति होगी उस समय ज्ञान अवश्य होगा लेकिन जहाँ ज्ञान हो वहाँ पर अनुभूति हो यह नियम नहीं।
समझने के लिए - लौकिक दृष्टि से कोई डॉक्टर M.B.B.S. हो जाता है, किन्तु वह उपाधि मात्र से डॉक्टर नहीं कहलाता उस परीक्षा के उपरान्त भी उसे Practical (प्रायोगिक) देना आवश्यक होता है। उस Practical (प्रायोगिक) में क्या ज्ञान दिया जाता है ? जो कोई ज्ञान था वह तो ले लिया फिर उसके उपरान्त क्या ज्ञान? ज्ञान और कुछ नहीं किन्तु जो Practical (प्रायोगिक) कर रहे हैं उसको देखना भी आवश्यक होता है, मजबूती के लिए दृढ़ता के लिए। आज तक जो कुछ भी परोक्ष रूप से जाना था उसे आज प्रत्यक्ष रूप से देखेगा प्रयोगशाला में । फिर एकदो साल उनको प्रशिक्षण (Traning) देना पड़ता है। प्रशिक्षण पाने के बाद ही वे अस्पताल खोल सकते हैं या रोगी की चिकित्सा कर सकते हैं। इसी प्रकार आप लोगों ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्रचारित्र के बारे में ज्ञान तो बहुत प्राप्त कर लिया, पर अनुभूति की ओर आपकी दृष्टि नहीं जा रही।
हमने इस ज्ञान को किसलिये प्राप्त किया है ? यह आपका ज्ञान तब तक कार्यकारी नहीं होगा जब तक कि अनुभूति की ओर दृष्टिपात नहीं करेंगे।'Practical' नहीं करेंगे। सैद्धान्तिक व प्रायोगिक (Theoretical &Practical) में यही तो अन्तर है। जो सैद्धान्तिक रूप में हमने जाना, देखा, अनुमान किया है, ध्यान किया है वह सारा का सारा प्रयोगशाला में प्रत्यक्ष हो जाता है। इसलिये आचार्यों ने कहा है जब ज्ञान के माध्यम से उस आत्मानुशासन की ओर कदम बढ़ जाते हैं तो ध्यान रहे, वही मोक्षमार्ग बन जाता है, अन्यथा उस ओर कदम नहीं उठ रहे, कदम किस ओर उठ रहे हैं तो विलोम में Reverse में वह गाड़ी चली जायेगी, वह मिथ्यादर्शन-मिथ्याज्ञानमिथ्याचारित्र के साथ चली जायेगी। इनका ज्ञान कोई मूल्य नहीं रखता।
अनुभूति रागानुरूप हो रही है या वीतरागानुरूप हो रही है, परिणाम उसी के अनुरूप निकलने वाला है। मोक्षमार्ग की अनुभूति तब होगी जब जैसा हमने सुना, देखा, जाना है उसको वैसा ही अनुभव कर लिया जाये और अनुभव के लिए पुरुषार्थ की आवश्यकता है जानने के लिए इतना पुरुषार्थ आवश्यक नहीं जितना कि अनुभव करने के लिए आवश्यक है। कोई भी कार्य बिना पुरुषार्थ के नहीं हो पाता।
बैठे-बैठे जाना जा सकता है किन्तु बैठे-बैठे चला नहीं जा सकता। जिस समय जा रहे हैं उस समय देखा भी जाता है, जाना भी जाता है। मैं सदैव कहता हूँ - देखभाल कर चलना । इसमें कोई संदेह नहीं कि जीवन में जो कोई भी अनुभूति होती है वह इन तीनों की देख-भाल-चलना दर्शन-ज्ञान-चरित्र की समष्टि के साथ ही होगी। इसलिए आप लोगों को रागानुभव हो रहा है फिर भी सैद्धान्तिक (Theoretical) ज्ञान चल रहा है। इसलिए शांति, सुख, आनन्द जो मिलना चाहिए वह नहीं मिल रहा है। कुछ क्षण के लिए भी जो अनुभूति होती है, आचार्य कहते हैं -
"सौ इन्द्र नाग नरेन्द्र व अहमिन्द्र के नाहीं कहयो" इसमें कोई सन्देह नहीं कि चाहे चक्रवर्ती हो चाहे अहमिन्द्र हो, अहमिन्द्र जो कि सर्वार्थसिद्धि इत्यादिक में रहते हैं, उनके पास नियम से सम्यग्दर्शन रहता है सौधर्म इन्द्र के पास क्षायिक सम्यग्दर्शन रहता है इन्द्र हो, नागेन्द्र हो, नरेन्द्र हो, धरणेन्द्र हो, कोई भी हो उसे वह मोक्षपथ उपलब्ध नहीं हो सकेगा क्योंकि ये सारे के सारे असंयमी हैं अर्थात् इन्हें सैद्धान्तिक ज्ञान तो हो सका है किन्तु प्रायोगिक (Practical) नहीं हो सकता। ये बात ठीक है कि प्रायोगिक उसी को मिलता है जिसने सैद्धान्तिक को अपना लिया है। M.B.B.S. उपाधि को जब तक प्राप्त नहीं करेगा, परीक्षा पास नहीं करेगा, तब तक वह प्रयोग में नहीं आ सकता पर जिसने प्रयोग को अपना लिया उसके लिये नितान्त आवश्यक है कि सिद्धान्त उसके पास है ही। तो अनुभव के लिए ज्ञान ही पर्याप्त नहीं है, अनुभव के लिए दर्शन ही पर्याप्त नहीं है, अनुभव के लिए तीनों की आवश्यकता है, समष्टि की आवश्यकता है।
वह अनुभूति, वह अपनी आत्मा की एक प्रकार से परिणति-शुद्ध परिणति है उसमें लीन होने योग्य जो कोई भी परिणमन है वह सारा का सारा उसी व्यक्ति के लिए संभाव्य है। उसी के लिए वह द्वार खुला है जिसने इन तीनों को दर्शन-ज्ञान-चारित्र प्राप्त किया है। जो व्यक्ति भगवान बनना चाहता है उसको सर्वप्रथम परमात्मा के दर्शन करने से जो सैद्धान्तिक बोध प्राप्त-होता है उसके माध्यम से वह अपने प्रयोग Practical पर आ जाता है। यह नितान्त सत्य है कि वह अपनी अनुभूति कर लेता है क्योंकि, 'मैं भगवान बन सकता हूँ इस प्रकार का जो विचार उठेगा वह भगवान को देखे बिना उठेगा नहीं, इसलिए भगवान का दर्शन करना परमावश्यक है। यदि भगवान बनने की जिज्ञासा मन में उत्पन्न होगी, तो वह भगवान बनने का पुरूषार्थ करेगा इसलिए दर्शन परमावश्यक है भगवान का। लेकिन भगवान का दर्शन मात्र करने से यह नक्शा तो बन सकता है; यह भावना तो बन सकती है कि ‘मुझे भी भगवान बनना है" लेकिन इतने मात्र से भगवान नहीं बन सकते। आचार्य कहते हैं कि-यदि भगवान बनना चाहते हो तो आगे की प्रक्रिया और अपनाओ। देख लिया ऑखों से, पर पाया नहीं तो क्या आनन्द? उसे तो पाया कैसे जाता है ? आँखों से नहीं, आँखों से तो देखा जाता है, अनुभूति जो होगी, प्राप्ति जो होगी संवेदना जो होगी, आत्मा की या परमात्मा की उपलब्धि जो होगी उसके लिये संयम नितान्त आवश्यक होता है। यह संयम इन्द्रिय संयम और प्राणी संयम के भेद से दो प्रकार का होता है और इसके उपरान्त वह अपने आप में लीन हो सकता है।
यह मोक्षमार्ग का सिद्धान्त (Theory) है उसको समझ तो रहे हैं हम, लेकिन यह साहस नहीं कर पा रहे हैं कि उसमें किस प्रकार लीन हो जायें? और उसी को आचार्यों ने भक्ति गाथाओं से प्रत्येक पंक्तियों से यही खुलासा करने का प्रयास किया कि इसकी गति किसी न किसी रूप सेReverse न होकर सामने हो जाये और आप Reverse में ही मजा ले रहे हैं, किन्तु साथ में ध्यान रखो कि Reverse में क्या गाड़ी की गति तीव्र होती है ?. नहीं? धीमी-धीमी होती है, मजा भी नहीं आता। पर हम उसी को समझ रहे हैं कि गाड़ी चला रहे है।
भगवान का दर्शन व आत्मा का दर्शन नितान्त आवश्यक है। भगवान के दर्शन तो हमने किये; किस दृष्टि से किये हैं ? इसका तो आप ही निर्णय कर सकते हैं कि किस दृष्टि से किये हैं। भगवान बनने की दृष्टि से किया होता तो यह अवश्य फलीभूत हो जाता और भगवान बनने की प्रक्रिया भी आपके जीवन में आ जाती। अभी कोई चिन्ह नहीं दिख रहे हैं, इसलिए आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं, कि-अपने जीवन में इस प्रकार का परिवर्तन जब तक नहीं लाओगे तब तक शांति का कोई ठिकाना नहीं। अनुभूति का मात्र विश्लेषण किया है और संसारी जीव की अनुभूति और मोक्षमार्ग की अनुभूति ये दोनों एक रूप नहीं हैं। अनादिकाल से रागरूप ही अनुभूति हो रही है आप लोगों को क्योंकि -सभी संसारी जीवों को जो संवेदना अनुभूति है वह रागानुभूति है। उस संवेदन की, उस अनुभूति की हम बात नहीं कर रहे वह तो नहीं चाहें तो भी हो रही है, उससे संसार का विकास हो रहा है आत्मा का विनाश हो रहा है, आत्मा के विकास के लिए स्वसंवेदन की आवश्यकता है पर, वीतराग स्वसंवेदन की। राग के अलावा, राग के बिना जो जीवन जिया जाता है वह है वीतराग। स्वसंवेदन के माध्यम से हमें वे दर्शन हो सकते हैं जो आज तक नहीं हुए। फिर क्या करें? और कुछ नहीं, आगम में जो उल्लेख किया है उसके अनुरूप अपना आचरण बनाने का प्रयास करो। धीरे-धीरे अपनी दृष्टि को, जिन-जिन पदार्थों को लेकर राग द्वेष उत्पन्न हो रहे हैं उन उन पदार्थों से हटाते चले जायें, जब तक यह प्रयास नहीं होगा तब तक कोई कार्य नहीं होने वाला है। प्रारम्भ यही से होगा और जहाँ राग का अभाव होगा वही पूर्णता आयेगी। जिन पदार्थों को देखकर हमारा मन राग में ढल जाता है, हमारा ज्ञान राग का अनुभव करना प्रारम्भ कर देता है, वह पदार्थ हमारे लिये वर्तमान में इष्ट नहीं है। उससे अलगाव रखो और अपने ज्ञान की शुद्धि करना प्रारम्भ कर दो। धीरे-धीरे पर से स्खलित होते हुए आप अपनी ओर आ जायेंगे।
राग का केन्द्र आत्मा नहीं है, राग का केन्द्र जो कोई भी बनेगा उसमें पर पदार्थ निमित्त बनेगा। इसलिये पर का विचार मत करो, पर को प्राप्त करने की जिज्ञासा मत करो, पर के साथ सम्बन्ध मत रखो, आचार्यों ने यह बार-बार कहा है। ऐसा कोई शार्टकट नहीं जो कि पर के साथ सम्बन्ध रखते हुए भी हम वहाँ पर पहुँच जायें। हाँ, महाराज यह रास्ता तो बहुत दूर दिख रहा है और हम खड़े होकर यही से देख रहे हैं कि कोई शार्टकट हो तो चले जाये। ऐसा शार्टकट कोई नहीं है। इस शार्टकट के पीछे ही सारा अतीत गुजर गया है। रास्ता एक है यह, इस पर आना ही होगा, अगर इस ओर जाना चाहते हैं। किन्तु जाना चाहते हुए भी जो कुछ हमने अर्जित किया है वह टूट न जाये, फूट न जाये यह सोचकर, इन्हीं को सुरक्षित रखना चाह रहे हैं।
एक सेठजी थे, भगवान के अनन्य भक्त थे। एक दिन वे एक गजानन गणेश की प्रतिमा लेकर आये और खूब धूमधाम से पूजा करना प्रारम्भ कर दिया। गजानन को मोदक बहुत प्रिय होते हैं इसलिए एक थाली में मोदक भी सजा कर नैवेद्य रूप में रखे, सेठ जी उस प्रतिमा के समक्ष प्रणिपात हुए, माला फेरी, उसकी आरती की और फिर वहीं पर बैठे उस प्रतिमा को निहारने लगे । इसी बीच एक चूहा आया और उस थाली में से एक मोदक लेकर चला गया। सेठजी के मन में विचार आया कि - देखो ? भगवान का स्वरूप बताते हुए कहा गया है कि जो सबसे बड़ा है वह भगवान है जो सबसे वीर होता है वह भगवान होता है। ये गजानन-भगवान नहीं दिखते हैं, यदि ये भगवान होते तो इस चूहे से अवश्य ही प्रतिकार करते। एक इतना सा चूहा इनका मोदक उठा ले गया और ये कुछ न बोले, उसे हटाने की सामथ्र्य ही नहीं है इनमें, हो सकता है कि चूहा भगवान से बड़ा हो, मेरे समझने में कहीं भूल हो गई है, सेठजी ने उस चूहे को पाल लिया और पिंजरे में रखकर उसकी पूजा करने लगे। दो तीन दिन बाद के उपरान्त एक दिन चूहा जब बाहर आया तो उसे बिल्ली पकड़ कर ले गई, ओहो! अब अनुभव होता जा रहा है मुझे-सेठजी ने सोचा, मैं अब अनुभव की ओर बढ़ता जा रहा हूँ। जैसे जैसे उसका अनुभव बदलता जा रहा है उसका आराध्य भी बदलता जा रहा है और वह उसकी पूजा में लीन होता जा रहा है। अब उसने बिल्ली को पकड़ लिया क्योंकि सबसे बड़ी वही है। जिस चूहे को गजानन नहीं पकड़ सके उस ‘चूहे को इसने पकड़ लिया, अत: यही सबसे बड़ी उपास्य है। अब बिल्ली की पूजा होने लगी। सात-आठ दिन व्यतीत हो गये। बिल्ली का स्वभाव होता है कि-कितना ही अच्छा खिला दो -पिला दो पर वह चोरी अवश्य करेगी । एक दिन अंगीठी के ऊपर दूध की भगौनी रखी थी, बिल्ली चोरी से दूध पीने गई, सेठानी ने देख लिया -अरे देखो! जब सेठ जी इसे इतने आदर के साथ पाल रहे हैं, प्रतिदिन एक-आध किलो दूध पिलाते हैं तब भी यह चोरी करती है, तब भी इसका चोरी का भाव नहीं गया। सेठानी को क्रोध आया और उसने बिल्ली की पीठ पर एक लट्ट मार दिया, बिल्ली मर गई। सेठजी बाजार से आये, पूछा -बिल्ली कहाँ हैं ? मुझे पूजा करनी है। सेठानी ने कहा-कौन सी पूजन ? वह बिल्ली तो चोर है। सेठजी को पूरी घटना बताई, पहले तो खेद हुआ, लेकिन तुरन्त ही खेद दूर हो गया। खेद की बात थी ही नहीं जो मर गया, वह कमजोर है, वीर होता तो नहीं मरता । धन्य हो देव! धन्य हो! तुमने गजब कर दिया, बहुत अच्छा किया। गजानन चूहे से डर गये थे, चूहा बिल्ली की पकड़ में आ गया था और अब तुमने बिल्ली को समाप्त कर दिया पर तुमको समाप्त करने वाला कोई नहीं है। सेठ जी उसके चरणों में बैठ गये और उसके पैर पूजना प्रारम्भ कर दिया। देखो, अनुभूति बड़ों की ओर बढ़ रही है। अनुभूति होने के उपरान्त वह छूटता चला जाता है जो कि Theoretical है, सैद्धान्तिक है जो हमने मान रखा था। पर जब तक अनुभूति नहीं होती तब तक छोड़ना भी नहीं चाहिए। एक दिन प्रात: सेठ जी ने सेठानी से कहा कि आज हमें दुकान में अधिक काम है, हम साढ़े दस बजे खाना खायेंगे, खाना तैयार हो जाना चाहिए। सेठानी ने कहा ठीक है। प्रतिदिन पूजा होने के कारण सेठानी प्रमादी हो गई थी, समय पर रसोई बनी नहीं। जब सेठ जी आये तो बोली - आइये, आइये! अभी तैयार हो जाती है। सेठजी क्रोधित हो उठे - क्या तैयार हो जाती है, मैं कह कर गया अब भी तैयार नहीं है? सेठजी के हाथ में-जो कुछ था सेठानी पर उसी से वार कर दिया। सेठानी मूछित होकर गिर गई एक घण्टे तक नहीं बोली। सेठजी ने सोचा क्या बात है मर गई क्या? पानी सिंचन किया, थोड़ी देर बाद सेठानी को होश आ गया। सेठ जी सोच रहे थे कि अभी तक तो मैं सेठानी को सबसे बड़ा समझ रहा था किन्तु अब पता चला कि मैं ही बड़ा हूँ। अरे! मैं दुनिया के चक्कर में पड़ गया था। अब मुझे अनुभव हो गया कि मुझ से बढ़कर कोई भगवान है ही नहीं और वह अपने आप में लीन हो गया।
आप लोग समझ नहीं पा रहे हैं रहस्य को। जब तक समझ में नहीं आता तब तक जो कोई प्रक्रियायें है उन प्रक्रियाओं को छोड़ना भी नहीं क्योंकि इन प्रक्रियाओं के माध्यम से अनुभव के लिए कुछ गुंजाइश है।
‘स्व' की ओर आने का कोई रास्ता मिल सकता है तो देव-शास्त्र-गुरु से ही मिल सकता है। अन्य किसी से नहीं मिल सकता है। इसलिये इनको तो बड़ा मानना ही है तब तक मानना है जब तक कि हम अपने आप में लीन न हो जायें।
भगवान का दर्शन करना तो परम आवश्यक है, पर यह ही हमारे लिए पर्याप्त है, यह मन में मत रखना। भगवान बनने के लिए यदि आप भगवान की पूजा कर रहे हैं तो कम से कम मन में तो उठता है कि-अभी तक पूजा कर रहा हूँ पर भगवान क्यों नहीं बन रहा हूँ? दुकान खोलने के उपरान्त आप एक-दो दिन अवश्य रुक जायें पर फिर सोचते हैं कि-ग्राहक क्यों नहीं आ रहे, क्या मामला है? धीरे-धीरे विज्ञापन बढ़ाना प्रारम्भ कर देते हैं, बोर्ड पर लिखवाते हैं, अखबारों में निकलवाते हैं कि घूमते-घूमते कोई आवे तो सही। अर्थ यह है कि इतना परिश्रम करके जिस उद्देश्य से दुकान खोली है, उसका तो कम से कम ध्यान रखना चाहिए। तो भगवान की पूजा हम क्यों कर रहे हैं ? यह भी तो ध्यान रखना चाहिए। भगवान बनने के लिए कार्य कर रहे हैं यह तो ठीक है पर आप लोगों का भगवान बनने का संकल्प नहीं है तो फिर भगवान की पूजा क्यों कर रहे हो? हमें भगवान थोड़े ही बनना है हम तो श्रीमान् बनने के लिए पूजा कर रहे हैं, तभी आप टटोलते रहते हैं कि-पूजा तो कर रहा हूँ पर अभी बन नहीं रहा हूँ। लगता है कि वहाँ से ध्वनि निकल रही है-बन जायेगा। ध्वनि, अपने मन के अनुरूप ही निकलती है, ध्यान रखना। यह मनोविज्ञान है। 'भगवान बन जायेगा।” वहाँ से ऐसी ध्वनि नहीं निकलती। क्योंकि मन में है कि कब साहूकार बन जाऊँ ? तो ध्वनि निकलेगी कि बन जायेगा। उसके माध्यम से आप अभी तक साहूकार बनने में ही लगे हैं। परिश्रम इसी में समाप्त हो रहा है, यह परिश्रम कितने भी दिन करते रहो, जड़ की उपलब्धि हो सकती है, सम्पत्ति की उपलब्धि हो सकती है पर भगवान की उपलब्धि इस दृष्टिकोण से नहीं हो सकती। हम जैसे-तैसे क्रियाओं के, अनुष्ठानों के माध्यम से राग द्वेषों को संकीर्ण करते चले जायेंगे कम करते चले जायेंगे-वैसे-वैसे अपनी आत्मा के पास पहुँचते जायेंगे। यह प्रक्रिया ही ऐसी है इसके बिना कोई भगवान हो ही नहीं सकता।
ठहराव बाहर नहीं हो सकेगा। ठहराव केन्द्र में ही होगा। आप परिधि के ऊपर घुमा रहे हैं अपने आपको, जो घुमावदार चीज है उसका आश्रय लेने से आप भी घूमेंगे। देव-शास्त्र-गुरु के माध्यम से जिस व्यक्ति ने अपने जीवन को वीतरागता की ओर मोड़ लिया, वीतराग-केन्द्र की ओर मोड़ लिया वह अवश्य एक दिन विराम पायेगा। किन्तु यदि देव शास्त्र-गुरु के माध्यम से जो जीवन में बाहरी उपलब्धि की वाञ्छा रखता हो तो वही चीज उसे उपलब्ध हो सकती है, आत्मोपलब्धि नहीं।
मुझे एक बार एक व्यक्ति ने आकर कहा कि, महाराज! हमने अपने जीवन में एक सौ बीस बार समयसार का अवलोकन कर लिया। कंठस्थ हो गया मुझे! बहुत अच्छा किया। आपने-मैंने कहा अब आपके लिये टेपरिकार्डर की भी कोई आवश्यकता नहीं, क्योंकि कंठस्थ हो गया, लेकिन भैया आपने कंठस्थ किया है मैंने एक ही बार अवलोकन किया है और हृदयस्थ कर लिया। मैंने हृदयंगम कर लिया और आपने शिरोगम कर लिया। आपने उसे मस्तिष्क में स्थान दे दिया, हमने जीवन में स्थान दे दिया। आपको अभी आनन्द नहीं आ रहा है और हमारे आनन्द का कोई पार नहीं है। तो Quantity (संख्या) एक सौ बीस बार से अधिक है या एक की अधिक है ? किन्तु वह ज्ञान है, यह अनुभूति है और अनुभूति ही समयसार है। मात्र जानना समयसार नहीं है।
समयसार की व्युत्पति आचार्य ने बहुत अच्छी की है-"समीचीन रूपेण अयति गच्छति व्याप्नोति जानाति परिणमति स्वकीयान् शुद्ध गुण पर्यायान् यः सः समयः" अर्थात् जो समीचीन रूप से अपने शुद्ध गुण पर्यायों की अनुभूति करता है, उनको जानता है, उनको पहचानता है, उनमें व्याप्त होकर रहता है, उसी में जीवन बना लेता है वह है-'समय और उस समय का जो कोई भी सार है' वह है -'समयसार"। जिस समयसार के साथ व्याख्यान का कोई सम्बन्ध नहीं रहता, आख्यान का कोई सम्बन्ध नहीं रहता और कषाय का कोई निमित नहीं रहता, उसमें मात्र एक रह जाता है बस एक में ही विराजमान हो जाता है, उस एक का ही महत्व है। ताश खेलते हैं आप लोग उसमें एक इक्के का बहुत महत्व है उसी प्रकार 'एक: अहंखलु शुद्धात्मा' ऐसा कुन्दकुन्दाचार्य ने लिखा है। ताश के बादशाह से भी अधिक महत्व रहता है उस इक्के का। एक अपने आप में महत्वपूर्ण है, वह है - शुद्धात्मा। जिस दिन सेठजी ने गजानन को छोड़ दिया, चूहे को छोड़ दिया, बिल्ली को छोड़ दिया, पत्नी को भी छोड़ दिया उस दिन याचना की कोई आवश्यकता ही नहीं रह गई।
इस प्रकार आपने कभी किया नहीं किन्तु यदि अनुभूति के बिना अपने आप में लग जाओगे तो पेट में चूहे कबड़ी खेलने लगेंगे क्योंकि जिसका जीवन पराश्रित है वह व्यक्ति उसी के ऊपर (आश्रय के ऊपर) आश्रित है, निर्भर है। इसलिये उसको उसी में आनन्द आता है और आता रहेगा भी।
देव-शास्त्र-गुरु के माध्यम से हम लोगों को यह रास्ता तो मिल जाता है कि अपनी ओर आना किस प्रकार होता है क्योंकि देव-शास्त्र-गुरु शुद्ध पर्याय हैं। देव के माध्यम से भी शुद्धत्व का भान होता है, गुरु के माध्यम से भी शुद्धत्व का भान होता है, वीतरागता की ओर हमारी दृष्टि जाती है। उनकी जो कोई भी वाणी है उस वाणी में भी राग का, द्वेष का कोई स्थान नहीं रहता और मात्र वीतरागता ही उसमें प्रत्येक पंक्ति में, प्रत्येक अक्षर में मुखरित होती है, इससे उन तीनों के माध्यम से वीतरागता पकड़ में आती है और यह वीतरागता हमारे जीवन का एक केन्द्र बिन्दु होना चाहिए।
आप लोगों को राग है। एक व्यक्ति ने कहा कि-महाराज कुछ न कुछ अंश में तो हमें भी वीतराग मानना चाहिए आपको, हम इतनी वीतरागता की चर्चा आदि सुनते हैं। हमने कहा कि भैया हमने आपको कब रागी कहा? आप भी वीतरागी हैं। आप लोग कहेंगे बहुत अच्छा पर आप वीतरागी कैसे हैं ? वीतरागी इसलिये हैं 'विगत: रागः यस्य आत्मनः' अर्थात् जिस व्यक्ति का आत्मा के प्रति राग नहीं है वह वीतरागी है (श्रोता समुदाय में हँसी) आत्मा के प्रति राग है ही नहीं इसलिये आप लोग भी वीतरागी हैं और मैं रागी हूँ क्योंकि मुझे आत्मा के प्रति राग। इस प्रकार आप भी वीतरागी सिद्ध होते हैं, पर इससे मतलब नहीं, मन में कोई सन्तोष नहीं हो रहा आप लोगों को। इसलिये नहीं हो रहा कि आप अभी अनुभव राग का ही कर रहे हैं, द्वेष का कर रहे हैं, मद का कर रहे है, पर्यायों का कर रहे हैं किन्तु शुद्ध पर्याय का नहीं, अशुद्ध पर्याय का कर रहे हैं। जबकि भगवान ने यह देशना दी है कि-तुम्हारे पास भी यह भगवत्-पद विद्यमान है किन्तु अव्यक्त रूप से है, व्यक्त रूप से नहीं है शक्ति रूप से है व्यक्ति रूप से नहीं। जो अन्दर है उसको बाहर निकालना है, उसका उद्धाटन करना है उसके लिये ही मोक्षमार्ग की देशना है, यह और कोई चीज नहीं है। मोक्षमार्ग और कोई चीज नहीं, बाहर में कोई समयसार थोड़े ही है जो एक सौ बीस बार पढ़ लो आप। एक सौ बीस बार पढ़कर भी चार सौ बीसी करोगे तो कम से कम सोचो तो सही उसका प्रयोजन क्या सिद्ध होगा ?
जिस व्यक्ति को समय की उपलब्धि हो गई, समयसार की उपलब्धि हो गई, क्या वह अपने समय को दुनियादारी में खर्च करेगा ? वह समय का अपव्यय नहीं करेगा। जिस व्यक्ति को निधि मिल जाती है क्या वह दस-बीस रुपये की चोरी करेगा ?
कंठस्थ करने को मैं महत्व नहीं देता, मुख्यता नहीं देता, मुखाग्र करने को मैं मुख्यता महत्व नहीं देता, महत्व है-हृदयंगम करने का। मात्र शाब्दिक ज्ञान से कुछ नहीं होने वाला भले ही आप समयसार को पी ली, घोंट-घोंट कर पी लो। प्रयास तो आज तक यही हो रहा है।
वैद्यजी के पास एक रोगी गया और ऐसी दवा देने के लिए कहा जिससे वह शीघ्र रोग मुक्त हो जाये। वैद्य जी ने देख लिया - एक पर्चा लिखकर दिया और बोले कि इसको दूध में घोल कर पी लेना। रोगी घर गया, एक कटोरी दूध लिया और उस पर्चे को उसमें घोलकर पी गया। (हँसी) दूसरे दिन वैद्यजी के पास गया। वैद्यजी ने पूछा-क्या बात है ? रोगी ने कहा कि-एक दिन में रोग ठीक थोड़े ही होता है। उन्होंने कहा अरे हमने औषधि ऐसी ही दी थी कि एक दिन में ठीक हो जाये। खैर, कौन-कौन-सी दुकान से दवा लेकर आये थे? गोलियाँ मिल गई थी क्या? रोगी ने पूछा - कौन सी गोली? आपने जो कागज दिया था वही तो थी औषधि। इसी प्रकार समयसार भी वही कागज है भैया! ये औषधि थोड़े ही है। औषधि कहाँ मिलती है ? जिस दुकान पर मिलती है वहाँ जाते, उसे ढूँढ़ते, खरीदते फिर लेते तो रोग ठीक हो जाता। एक सौ बीस बार लेने की (पढ़ने की) कोई आवश्यकता. नहीं थी और आप एक सौ बीस बार क्यों चार सौ बीस बार कर लो तो भी काम नहीं होता।
परिश्रम व्यर्थ हो गया। क्या, आप 'सार्थक हो गया।' ऐसा समझ रहे हैं ? नहीं, सार्थक नहीं है, क्योंकि गाड़ी 'Reverse' में चल रही है। ऐसे यात्रा नहीं होगी, गाड़ी को सीधे रास्ते पर लगाओ। गति दो, तभी प्रगति होगी, मंजिल आयेगी।' Reverse' में जाओगे तो रास्ता कम नहीं होगा बल्कि बढ़ेगा। मंजिल दूर होती जा रही है, इस प्रक्रिया के माध्यम से अनुभूति के अभाव में यह सब एक बोझ का काम कर रहा है। अत: अनुभूति के लिए कुछ ही समय का प्रयास होता है तो कुछ समय के उपरान्त जीवन में क्रान्ति आ सकती है। जैसे-कहाँ तो गजानन गणेश की पूजा थी और कहाँ वह बिल्कुल अपनी ओर आ गया, अपने अलावा और कोई की पूजा नहीं रही।
आप लोगों के लिए मन्दिर वे ही हैं, देव-शास्त्र-गुरु वे ही हैं, सब कुछ हैं किन्तु इसके उपरान्त भी आपकी गति उधर से इधर आ रही है। इसका अर्थ क्या है ? या तो आप घुमावदार रास्ते पर आरूढ़ हो गये हैं जिससे बार-बार घूमकर वहीं पर आ जाते हो, जैसे तेली का बैल आ जाता है। उसी प्रकार आपका जीवन व्यतीत हो रहा है। पहले छोटे थे अब बड़े हो गये किन्तु खड़े वहीं पर हैं।
जो जवान हैं, उसके जीवन में परिवर्तन नहीं आता, जो प्रौढ़ हैं उनके जीवन में कोई परिवर्तन नहीं आता तो कोई बात नहीं! किन्तु जो वृद्ध हैं उनमें भी कोई अन्तर नहीं आये तो क्या मतलब है? वृद्धत्व के उपरान्त भी वृद्धत्व नहीं आता! वही रासलीला! एक साथ अन्तर हो ही नहीं सकता, यह विश्वास जम गया, इसलिए ऐसा हो रहा है। एक समय तो अन्तर आना चाहिए और नहीं आता तो पूछना चाहिए कि क्या बात है ? दो-तीन दिन औषधि लेने के उपरान्त यदि किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं आता तो पुन: Checking हो जाती है, पुन: उसकी चिकित्सा की जाती है कि क्या बात हो गई? कुछ न कुछ लाभ अन्तर तो होना चाहिए था, नहीं आता तो औषधि बदलते हैं पुन: निदान करते हैं। इस बात में तो बहुत शीघ्रता दिखाते हैं, पाँच-छह दिन में स्थिति परिवर्तन के अभाव में चिकित्सा परिवर्तन कर लेते हैं, इसमें महीनों नहीं लगाते, शीघ्रता से सही-सही औषधि देना प्रारम्भ कर देते हैं। घूमते-घूमते और रोग बढ़ता गया और जब असली दवाखाना आ जाता है उस समय वह रवाना हो जाता है। आपका जीवन आदि से लेकर अन्त तक बार्डर पर ही खड़ा है, सीटी बजने की देरी है; ऐसी स्थिति में भी आपका कोई निर्णय नहीं है, जीवन में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं है तो फिर आगे कैसे हो सकेगा? क्योंकि गाड़ी का मुख Platform पर ही मुड़ सकता है।
एक बार स्टेशन से गाड़ी बाहर निकल जायेगी तो बाद में मुड़ नहीं सकेगी दुर्घटना में मुड़ जाये वह बात पृथक् है, किन्तु वह सामान्यत: नहीं मुड़ेगी क्योंकि हमने उसको उसी रास्ते पर चलाया है। स्थिति यही है। मनुष्य जीवन एक प्रकार का Platform है, Station है। अनादिकाल से जो जीव राग द्वेष की ओर मुड़ गया है उस मुख को हम वीतरागता की ओर मोड़ सकते हैं और उस ओर गाड़ी को चला सकते हैं। तो इस (मनुष्य जीवन) Station पर ही चला सकते हैं।
Station आ जाने पर आपको नींद आ जाती है। आपकी निद्रा भी बहुत सयानी है। आलस्य आता है आपको। क्या करें महाराज? कर्म का उदय ही है कई लोग कहते हैं ऐसा ही है भैया! किन्तु समझो तो सही क्या होता है ? निद्रा वहीं पर क्यों आती है ? आलस्य वहीं पर क्यों आता है ? एक व्यक्ति ने कहा-जैसे ही मैं सामायिक करने बैठता हूँ, जाप करने बैठता हूँ, स्वाध्याय करने के लिए सभा में आ जाता हूँ तो निद्रा आ धमकती है, मुझे सोना ही पड़ता है। अच्छा, बहुत सयानी है न, निद्रा। आपके कर्म भी बहुत सयाने हैं कि ऐसे स्थान आने पर ही निद्रा आती है। इसमें कुछ न कुछ रहस्य अवश्य है। मैंने उनसे पूछा कि-जिस समय आप दुकान में बैठते हैं और नोट के Bundle गिनते हैं, उस समय कभी निद्रा आई है? महाराज उस समय (वहाँ पर) तो भूलकर भी नहीं आती। अच्छा यह अर्थ है। वहाँ पर नहीं आती और यहाँ पर आती है तो निद्रा को भी इस प्रकार अभ्यास कराया है आपने कि यहाँ पर आते ही नींद लेना है, सुनना नहीं है।
एक शास्त्र सभा जुड़ी थी। एक दिन एक व्यक्ति से पंडित जी ने पूछा-क्यों भैया! सो तो नहीं रहे हो? वह कहता है- नहीं! वह ऊँघ रहा था। किन्तु फिर भी वह ‘नहीं’ ही कहता है। एक बार, दो बार, तीन बार, ऐसे ही कहा-उसने भी वही जबाब दिया और ऊँघता ही रहा। फिर पंडित जी अपना वाक्य बदल कर बोले-सुन तो नहीं रहे हो भैया? उसने तुरन्त उत्तर दिया नहीं तो (श्रोता समुदाय में हँसी) ठीक है भैया। ऐसे पकड़ में आये। सीधे-सीधे पूछने पर थोड़े पकड़ में आयेंगे आप लोग। सुन रहे हो? नहीं तो। बस यह 'नहीं तो” आपने याद कर रखा है। यहाँ पर आचार्य कुन्दकुन्द कह रहे हैं-समयसार पढ़ रहे हो? हाँ पढ़ रहे हैं। पढ़ रहे हैं तो परिवर्तन क्यों नहीं आ रहा? समयसार को पूरा पढ़ने की भी कोई आवश्यकता नहीं है, एक गाथा ही पर्याप्त है। समयसार की इतनी बड़ी पुस्तक में तो उन्होंने अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त किया है, मूर्तरूप दिया है, शब्द रूप दिया है किन्तु एक ही शब्द में उन्होंने कह दिया 'समय' और उसका 'सार' इसके शीर्षक के माध्यम से ही सारा काम हो जाता है। शुद्ध आत्मा को ही समयसार कहा है। इसमें (पुस्तक में) नहीं है वह, आप घोंट-घोंट कर किसे पीयेंगे? समयसार नहीं आयेगा। 'समयसार" जीवन का नाम है, चेतन का नाम है और शुद्ध परिणति का नाम है; पर की बात नहीं स्व की बात है।
महाराज! ये बातें आप लोग सुनाते हैं, ये तो हम लोगों को अच्छी नहीं लगती। आप चटक मटक सुनाते चले जायें तो बहुत अच्छा होता एक घण्टा निकल जाता। आप एक घण्टे से इन्हीं बातों की पुनरावृत्ति (Repetition) करते जा रहे हैं।
भैया! आत्मा की बात सुनना चाहते हो या दूसरी बात सुनना चाहते हो? हम क्या हैं ? यह आप लोगों को मालूम नहीं है तो फिर क्या सुनायें ? यह मालूम नहीं इसलिये तो हम यहाँ पर आये हैं – आप यह कह सकते हैं। पर मैं कहूँ उसको सुनना भी तो चाहिए। जिस ओर आपकी रुचि नहीं है उसी ओर तो रुचि जगाना है। जिस ओर रुचि है उसको जगाने की कोई आवश्यकता नहीं है। मेरे उपदेश से उस रुचि को जगाना नहीं है और मैं उस रुचि को जगाने के लिए कहूँगा भी नहीं। बिना उपदेश के ही वह रुचि स्वयं जग जायेगी। धर्मोपदेश, विषयों में रुचि जगाने के लिये नहीं है, आत्मा की रुचि जगाने के लिये है। इस ओर रुचि नहीं हो रही है यह मैं भी जान रहा हूँ इसलिये-नहीं हो रही है कि उधर की चटक-मटक बहुत अच्छी लग रही है।
एक बच्चे ने अपनी माँ से कहा-'माँ मुझे भूख नहीं लगी है आज।” ‘क्यों बेटा! क्या बात हो गई ? माँ ने कहा। कुछ नहीं माँ।” ‘तो खाने का समय तो हो गया खा ले, सब शुद्ध है, शुद्ध आटा है, घी है।” ‘मुझे अभी भूख नहीं है।” कुछ खा लिया था?' आज सुबह तो कुछ नहीं खाया था, आपने परसों एक रुपया दिया था न, वह रखा था, उससे आज मैंने चाट-पकौड़ी खा ली।” अच्छा यह बात है। जिसको चाट-पकौड़ी मुँह लग गयी, जो तेल में तली चीज खाता है उसके लिये अब शुद्ध घी काम नहीं करेगा। फिर कब काम करेगा? उसकी (चाट पकौड़ी की) आदत थोड़ी छूट जाये। हर समय तो आप चाट-पकौड़ी खाकर आते हैं, यहाँ एक घण्टा में शुद्ध घी की जलेबी भी खिला दूँ तो क्या काम चलेगा? यहाँ पर तो चाट-पकौड़ी आयेगी नहीं यहाँ तो शुद्ध घी की बात है। यदि इसमें थोड़ी सी वह (चाट-पकौड़ी) मिला दूँ तो इसका असली बाद बिगड़ जायेगा इसलिए उसको थोड़ा कम करो और फिर इसे चखो तो सही, कितना अच्छा लगता है।
हम लोगों को विषय और कषायों को मन्द करना होगा और मन्द जबर्दस्ती किया जाता है, उसकी ओर रुचि होते हुए भी मन्द करना होगा, तभी स्वाद में बदलाहट आ सकती है, नहीं तो नहीं आयेगी। एक हाथ से वह खाते रहे और दूसरे हाथ से यह, तो हाथ तो दो हैं किन्तु मुँह तो दो नहीं हैं। भैया! जिह्वा तो एक ही है, स्वाद लेने की शक्ति तो एक के ही पास है। अभी जो चर्वण हो रहा है उसके साथ इसको मिलाओगे तो मिश्रण हो जायेगा और मिश्रण में सही स्वाद नहीं आ सकता।
मात्र ज्ञान के साथ वह अनुभूति नहीं आ सकती। उसके साथ संयम की आवश्यकता है, इसलिये-
यों चिन्त्य निज में थिर भये, तिन अकथ, जो आनन्द लहो,
सो इन्द्र नाग नरेन्द्र वा, अहमिन्द्र के नाहि कह्यो।
(छह.)
स्वात्मानुभूति का संवेदन-आत्मा का जो स्वाद है वह स्वाद स्वर्गीय देवों के लिये भी दुर्लभ है और वहाँ के इन्द्र के लिये भी-दुर्लभ है, कहीं भी चले जाओ सबके लिए दुर्लभ है। केवल उसी के लिये मनुष्य के लिये यह साध्यभूत है, संभव है, 'जिन्होंने अपने आप के संस्कारों को परिमार्जित कर लिया है अर्थात् राग-द्वेष के संस्कार जिनमें बिल्कुल नहीं हैं। जिनकी अनुभूति में वीतरागता आनन्द उसको चाहते हो तो उस तरफसे गाड़ी को हटा दो। अब मोड़ दो उसे एक बार देव-शास्त्रगुरु के ऊपर विश्वास करके, इस काम को हाथ में लो, लोगे तभी काम होगा। मैं आपको विश्वास है, मात्र विश्लेषण हो सकता है। हम प्रशंसा कर सकते हैं, उस आत्मा की प्रशंसा कर सकते हैं किन्तु दिखा नहीं सकते।
ऐसा कौन सा बुद्धिमान होगा जो परोक्ष-ज्ञान में अर्थात् श्रद्धान में आने वाली चीज को हाथ में रखकर दिखा देगा। ध्यान रहे केवली भगवान भी इसमें समर्थ नहीं हो पायेंगे। आत्मा आपको देखना होगा, वे आत्मा को दिखा नहीं सकेगे, वे आत्मा की बात बता सकेगे। समयसार पढ़ोगे तो वही बात आयेगी, गुरु के मुख से सुनोगे तो वही बात आयेगी, केवली भगवान के मुख से सुनोगे तो वे भी वही सुनायेंगे, वही वाणी तो इसमें अंकित है। अनन्त शक्ति के धारक होकर भी वे आपको अपनी आत्मा को हस्त में रख कर के दिखा नहीं सकेंगे, वह दिखाने की वस्तु नहीं है वह देखने की वस्तु है। किस प्रकार का उसका स्वरूप है ? यह तो बता देंगे, किन्तु बता देने के बाद आपका यह परम कर्तव्य है, प्रत्यक्ष ज्ञान में उतर कर उसका संवेदन करे। आप परोक्ष ज्ञान के ऊपर ही. निर्धारित रह करके किसी पुस्तक पर विश्वास रखकर के इन्हीं क्रियाओं पर विश्वास कर लेंगे, इसी में धर्म को पूर्ण मान लेंगे तो यह उचित नहीं होगा।
अभी गाड़ी का मुख मात्र मुड़ा है। आप लोगों का मुख मुड़ सकता है, किन्तु अभी चला नहीं है, यात्रा कहते हैं चलने को । हाँ, गाड़ी का मुख मोड़ने को भी यात्रा कहते हैं किन्तु मोड़ने का अर्थ उसकी पृष्ठभूमि है, जब तक गाड़ी मुड़ेगी नहीं यात्रा नहीं होगी। इसलिए मोड़ना भी आवश्यक है आपने बहुत पुरुषार्थ किया, ध्यान रखना गाड़ी मोड़ने के लिये बहुत पुरुषार्थ की आवश्यकता होती है और गाड़ी चालू करने के उपरान्त रेल का ड्राइवर तो आँख बंद करके बैठ सकता है पर कार का ड्राइवर नहीं। कार का ड्राइवर अगर आँख बन्द कर लेगा तो मुश्किल हो जायेगी। रेल का मुख स्टेशन की ओर मोड़ कर उसे गति दे दी जाती है और गाड़ी अपने आप पटरी पर चालू हो जाती है। यह भी पुरुषार्थ है आप लोगों का, कि कम से कम इस ओर दृष्टिपात तो किया, मुख तो मोड़ा पर आपकी गाड़ी चालू नहीं हो रही है। इसमें मुझे ऐसा लग रहा है कि ऐसा न हो कि आप गाड़ी को पुन: उसी ओर मोड़ लें क्योंकि उस ओर मोड़ना तो बहुत आसान है और उधर आपका अनन्तकालीन अभ्यास हो चुका है। इसलिए उस ओर बहुत जल्दी मुड़ सकता है। वीतरागता से राग की ओर मोड़ने में कोई प्रयास की आवश्यकता नहीं है, ऊपर की ओर पत्थर फेकने के लिए तो परिश्रम की आवश्यकता है पर नीचे फेकने के लिए कोई परिश्रम की आवश्यकता नहीं है। आप चाहें या न चाहें पर वह अपने आप नीचे आ जाता है और आयेगा यह नियम है। इसी प्रकार वीतरागता की ओर जाने के लिये तो प्रयास की आवश्यकता है पर राग की ओर जाने के लिये प्रयास की कोई आवश्यकता नहीं है। पूर्व संस्कारवश अपने आप ही आपके कदम उठ जायेंगे।
अब समय हो गया आपके कदम घर की ओर उठ जायेंगे। पर निज घर किधर है यह आप लोगों को पता नहीं। अभी तो कदम उधर ही उठेगे, उनको इस प्रकार का अभ्यास दिया गया है, उनको इस प्रकार की Guidance मिल चुकी है कि वह यूँ भी चलें तो पैर उधर ही जाते हैं। अभ्यस्त हो चुका है जीवन, अपने आप ही Corner पर मुड़ जाते हैं।
मेरा अभ्यास खुद की ओर मुड़ने में बढ़ रहा है और आपका अभ्यास घर की ओर जाने में बढ़ रहा है। यह संस्कार की बात है। प्रतिदिन किया हुआ कार्य इस प्रकार अभ्यस्त होता चला जाता है कि उसको बताने की कोई आवश्यकता नहीं है।
वीतरागता की ओर मोड़ने के लिये बहुत प्रयास हो रहा है, वाचनिक प्रयास, मानसिक प्रयास और कायिक प्रयास, गुरु के उपदेश बार-बार अनेक प्रकार के उदाहरणों के माध्यम से दिये जाते हैं इसके उपरान्त भी आपका उपयोग राग की ओर झुक ही जाता है। एक बार वह समय भी आ सकता है जबकि आपका राग पूर्णत: मिट सकता है क्योंकि संभाव्य ही नहीं नियम है यह कि - "राग आत्मा का स्वभाव नहीं है" और एक बार स्वभाव की उपलब्धि होगी तो फिर विभाव प्राप्त होगा ही नहीं। इसलिये कह सकता हूँकि एक बार प्रयास करके आप इधर आ जायेंगे तो फिर छूटने का कोई सवाल ही नहीं, पर थोड़ा पसीना आने दो, कोई बात नहीं, फिर यात्रा प्रारम्भ हो जायेगी। टिकट खरीदते समय पसीना आता है और लाइन में लगते समय पसीना आता है, ट्रेन में चढ़ते समय पसीना आता है किन्तु फिर बाद में बैठ जायेंगे, गाड़ी चलने लगेगी, इधर-उधर की हवा आनी प्रारम्भ हो जायेगी और आराम के साथ निद्रा लग जायेगी। इसी प्रकार मोक्ष-मार्ग में तकलीफ नहीं है बन्धुओ किन्तु मोक्षमार्ग में लगते-लगते तकलीफ महसूस होती है, कुछ तकलीफ जैसी लगती है, लगेगी कोई बात नहीं। प्रारंभ में औषधि कड़वी लगती है, पर बाद में परिणाम मीठा निकलता है निकलेगा, नियम रूप से निकलेगा। यह मोक्षमार्ग औषधि ही ऐसी है जो अनादिकालीन रोग को निकाल देगा और शुद्ध चैतन्य तत्व की उत्पति उसमें से होगी और आनन्द ही आनन्द रहेगा।
अत: कुन्दकुन्द के साहित्य को पढ़कर अपने जीवन को उसी ओर ढालने का प्रयास करना चाहिए यही स्वाध्याय का, देव-शास्त्र-गुरु की उपासना का वास्तविक फल है, यदि यह नहीं है तो समझ लो कि वह सांसारिक उपलब्धि के लिए ही सिद्ध हो जायगा, कहाँ, क्या और कैसा करना है, किस ओर करना यही मोक्षमार्ग का प्रयास है। संसार मार्ग अनादि काल से चल रहा हो उसे नहीं अपनाना है, नहीं अपनाते हुए भी उस ओर जो उपयोग जा रहा है उससे दूर हटना है। अपनाना है तो एकमात्र मोक्षमार्ग जो कि स्वाश्रित है और स्वाश्रित होने के लिये-देव-शास्त्र-गुरु का आलम्बन नितान्त आवश्यक है।