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सोशल मीडिया / गुरु प्रभावना धर्म प्रभावना कार्यकर्ताओं से विशेष निवेदन ×
नंदीश्वर भक्ति प्रश्नोत्तरी प्रतियोगिता ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • धर्म

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    धर्म विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी  के विचार

     

    1. जैसे कोई व्यक्ति धागे को गले में नहीं लटकाता किन्तु फूलों की माला के साथ वह धागा भी गले में शोभा पाता है, इसी प्रकार यदि धर्म साथ है तो शरीर भी शोभा पाता है। धर्म के अभाव में जीवन शोभा नहीं पाता।
    2. परमार्थ के क्षेत्र में कान खुले रखना चाहिए लेकिन विषय भोग के क्षेत्र में तो कान बहरे ही होना चाहिए।
    3. परमार्थ के क्षेत्र में आँखें खुली रहनी चाहिए और विषय-वासना के क्षेत्र में अन्धा होकर रहना चाहिए।
    4. परमार्थ के क्षेत्र में कर्मों पर विजय पाने के लिए बाहुओं में शक्ति और प्रताप होना चाहिए लेकिन दूसरे के ऊपर प्रहार करने के लिए बलहीन होना चाहिए।
    5. धर्म किसी का नहीं है वह तो एक प्रवाह है यह नदी के समान है उसे कोई बांध नहीं सकता उसमें हम अपने पापरूपी मैल को धो सकते हैं।
    6. जो तत्काल सुख का अनुभव कराये, कर्मों से छुटकारा दिलाये और अभ्युदय की प्राप्ति कराए वही धर्म है।
    7. धर्म को धारण कर फल की आकांक्षा करना भूल है। फल की धारा तब तक अपने आप बनी रहती है, जब तक धर्म से सम्बन्ध बना रहता है।
    8. जब शरीर में ताकत है, तब ही धर्म धारण कर कर्मों से छुटकारा पा सकते हो।
    9. पूर्व में जो कर्ज लिए हैं, धन आने पर उस कर्ज लौटा देना चाहिए। इसी प्रकार जब हमारे पास शक्ति है तब ही बंधे हुए कर्मों से छुटकारा पा लेना चाहिए उसे कहते हैं निर्जरा।
    10. मंदिर, मस्जिद आदि धर्म नहीं है इनके माध्यम से धर्म समझ में आता है ये धर्म को समझने में धार्मिक भाव को जागृत करने में माध्यम है।
    11. जितनी आपके पास चद्दर है उतने ही पैर फैला दो तभी आपका धर्म निभेगा।
    12. जिसका जीवन वक्रता में है वह सरलता को भी गरलता में ही धारण करता है।
    13. अच्छाई को बुराई के रूप में जो अंगीकार करता है वहीं वक्रता को धारण करता है। इसको हटाकर अपने जीवन को आर्जवमय बनाओ।
    14. जिन अक्षरों के पढ़ने से धर्म हो, आत्मा का बोध हो वही अक्षर हमारे लिए सार्थक हैं।
    15. दसों दिशाओं में ये दशलक्षण धर्म दस बाण के समान है, जो रक्षा करने वाले हैं।
    16. दस प्रकार के (अंगरक्षकों) (धर्म) को साथ लेकर के चलते हैं, मुनि महाराज क्योंकि बहुत बड़ा रत्नत्रय का पिटारा है उनके पास।
    17. दसों दिशाओं में वो (दशलक्षण धर्म) चलते रहते हैं और बीच में मुनि महाराज चलते हैं रक्षा के साथ किधर से भी कोई भी आ जाये रणांगन में तब भी ये सुरक्षित रहते हैं।
    18. हम उत्तम प्रकार से मार्दव धर्म धारण कर लें ताकि मान हमारे पास आ न सके क्योंकि मान आने से रत्नत्रय में घाटा लग सकता है। हमारा स्नत्रय का हार टूट सकता है।
    19. जीव का धर्म निश्चय से दशलक्षण धर्म ही माना जाता है। वह ही एक प्रकार से हमारा स्वजन है।
    20. धर्म की ओर जैसे-जैसे हम बढ़ेंगे, वैसे-वैसे स्व का तो विकास या उत्थान होगा साथ ही पर का भी होगा।
    21. स्ववश धर्म होना आज दुर्लभ है, परवश बहुत कुछ हो सकता है।
    22. हमें कहने की आवश्यकता न पड़े और हमारा जीवन स्वयं ही उपदेश देने लगे यही हमारा धर्म है। यही धर्म का माहात्म्य भी है।
    23. आत्मा के स्वभाव की उपलब्धि रत्नत्रय में निष्ठा के बिना नहीं होती और स्नत्रय में निष्ठा दया धर्म के माध्यम से, क्षमादि धर्मों से ही मानी जाती है।
    24. जो मान को जीतने का पुरुषार्थ करता है वही मार्दव धर्म को अपने भीतर प्रकट करने में समर्थ होता है। मानव का उबाल शांत करने पर ही मार्दवधर्म प्राप्त होता है।
    25. सिद्धत्व में ही ऋजुता है क्योंकि स्वभाव में किसी भी प्रकार की विक्रिया सम्भव नहीं होती और विभाव में किसी भी प्रक्रिया के नहीं होती।
    26. सुरक्षा तो सरलता में है। वक्रता या चंचलता में सुरक्षा कभी संभव नहीं है।
    27. उपयोग को विकारों से बचाकर राग से बचाकर वीतरागता में लगाना चाहिए यही ब्रह्मचर्य धर्म है।
    28. टेढ़ापन (तेरापन) नहीं है सीधापन अपनापन है।
    29. धर्म की प्रभावना के लिए धन का उतना महत्व नहीं है जितना कि धन को छोड़ने का महत्व है।
    30. हमारे यहाँ धर्म के अर्जन की बात कही गयी है धन के अर्जन की बात नहीं कही गयी बल्कि धन के विसर्जन की बात कही गयी है।
    31. जब से जीवन प्रारम्भ होता है तब से धर्म का पालन करना चाहिए तब कहीं अंत में जाकर कुछ काम हो सकेगा।
    32. धर्म कोई हल्की-फुल्की चीज नहीं है जिसका पालन बुढ़ापे में हो सके।
    33. मोह के ऊपर प्रहार करने का नाम है धर्म।
    34. धर्म और मोह ये दो विपक्षी दल हैं। मोह धर्म को दबाना चाहता है और धर्म मोह को।
    35. धर्म तो श्रमण धर्म ही है। गृहस्थों का धर्म एक प्रकार से धर्म नहीं है बल्कि उनका अधर्म/ पाप कुछ कम हो गया है। अधर्म को कम करने में लगे हुए हैं गृहस्थ।
    36. संसारी प्राणियों को जो सहारा/आश्रय देता है, रक्षण करता है उसका नाम धर्म है।
    37. आप लोग जिस प्रकार धन की रक्षा करते हैं, उससे भी बढ़कर धर्म की रक्षा करना चाहिए। धर्म के द्वारा ही जीवन बन सकता है।
    38. जिस समय किसी धर्मात्मा के ऊपर संकट आ जाता है उस समय दूसरा धर्मात्मा यदि छुपने का प्रयास करता है तो वह कायर है। धर्मात्मा नहीं।
    39. आज देश में सबसे बड़ी समस्या भूख की नहीं, प्यास की नहीं, बल्कि भीतरी विचारों के परिमार्जन करने की है। इसी से विश्व में त्राहि-त्राहि हो रही है। यह समस्या धर्म और दया के अभाव से ही है।
    40. जो गर्त से निकाल करके उच्च स्थान पर आसीन करा देता है उसका नाम धर्म है।
    41. जिसने धर्म का पालन किया उसकी रक्षा वह धर्म हमेशा-हमेशा करता रहता है। यह श्रद्धान की बात है।
    42. धर्म हमारे भीतर है बस अधर्म को छाँटकर भगाने की आवश्यकता है।
    43. स्वरूप हमारे भीतर है बस कुरूप को छाँटकर बाहर फेंकने की आवश्यकता है।
    44. श्रावक धर्म का समीचीन पालन करो क्योंकि श्रावक की खान से ही मुनि निकलते हैं।
    45. बंधन जब तक नहीं टूटते तब तक कितने भी प्रबंध कर लो फिर भी कुछ होने वाला नहीं है। इस प्रकार के ज्ञान होने को धर्म कहते हैं। इसी को भेद विज्ञान कहते हैं।
    46. जैसे प्रकाश के आते ही अंधकार भाग जाता है वैसे धर्म के आते ही अधर्म भाग जाता है ।
    47. ज्ञानार्जन के लिए अपने आपको हमेशा जवान समझना चाहिए और धर्म के लिए वृद्ध समझना चाहिए। अर्थात् ज्ञानार्जन करते समय सोचना चाहिए कि अभी मुझे बहुत जीना है और धर्म करते समय सोचना चाहिए मौत सामने खड़ी है।
    48. धार्मिक कार्य में श्रीगणेश से लेकर इति तक जितनी भी क्रियाएँ होती हैं वह सब संसार से छूटने के लिए ही हैं।
    49. धर्म एक सुगंध है इसलिए वह आसपास के क्षेत्र को सुवासित कर देता है।
    50. जिसके जीवन में धर्म है, न्याय है उसकी हमेशा उन्नति होती है विजय होती है अधर्म और अन्याय हमेशा हारता ही हारता है।
    51. धन साधन है जबकि धर्म साधना है। धन पेट के लिए है और धर्म आत्मा की शांति के लिए है।
    52. धर्म एक नदी के समान है। जो निष्पक्ष होकर सबको जल प्रदान करता है। बस धर्म भी इसी प्रकार होता है।
    53. धर्म एक सूर्य के समान है, सूर्य प्रकाश बिना भेदभाव के सबके घरों में अपना प्रकाश प्रदान करता है। धर्म भी ऐसा ही है।
    54. धर्म वही है जो सबको जीना सिखलाता है, धर्म वहीं है जो सुख से जीना सिखलाता है, धर्म वही जो पक्षपात करना छुड़वाता है, धर्म वहीं है जो शांति से जीना सिखलाता है।
    55. धर्म का अर्थ कर्तव्य होता है और कर्तव्य का अर्थ करने योग्य कार्य।
    56. अपने परिणामों को संभालना अपने आत्म परिणामों की संभाल करना ही धर्म है, यही करने योग्य कार्य है।
    57. जिसके पास क्षमा धर्म है, वही क्रोध का वातावरण मिलने पर भी शान्त रहेगा।
    58. धर्मरूपी रथ को हाँकने के लिए श्रमण और श्रावक रूपी दोनों पहिये की आवश्यकता होती है।
    59. ये हमारा परम सौभाग्य है कि जिस रथ को तीर्थंकरो ने चलाया है उसमें हम भी कुछ सहयोग दे सकते हैं।
    60. धर्म से धर्म बढ़ता नहीं है, त्याग संयम, साधना से धर्म वृद्धि होती है।
    61. शराणागत आए हुए दीन दुखी, असहाय जीवों की आवश्यकताओं की पूर्ति करना संकटों से बचाकर उनका पथ प्रशस्त करना यहीं क्षत्रिय धर्म है।
    62. काल की अपेक्षा श्रावक धर्म और मुनि धर्म में शिथिलता तो आयेगी लेकिन शिथिलता आना बात अलग है और अपनी तरफ से शिथिलता लाना अलग बात है आत्मानुभूति की कलियाँ धीरे-धीरे मुरझाती जायेंगी लेकिन समाप्त नहीं होगी।
    63. धर्म एक चुम्बक की तरह है, जिस तरह चुंबक में लोहा चिपका रहता है, ठीक उसी प्रकार पुण्यात्मा के पास लक्ष्मी बनी रहती है।
    64. धर्म के प्रति भावना जागृत होना बड़े पुण्य के उदय का काम है।
    65. बड़े महान् पुण्य के उदय का काम है जो धर्म ध्वजा धारण करता है ।
    66. धर्म को हम भोग, ऐशो आराम के लिए ख्याति पूजा लाभ के लिए करते हैं परन्तु ऐसा नहीं होना चाहिए हम जो करते हैं वह हमारे लिए ही है, हमारी उन्नति के लिए है, यह विश्वास पहले दृढ़ बनाना चाहिए।
    67. आचार्य कहते हैं ख्याति, पूजा लाभ के लिए नहीं किन्तु कर्मक्षय के हेतु धर्म होना चाहिए।
    68. यदि कोई भी हित है तो वह है धर्म। धर्म को छोड़ करके जितने भी पदार्थ हैं वो सारे के सारे हमारे हित में नहीं हो सकते।
    69. सत्य को छोड़कर मात्र इन्द्रिय सुखों के लिए असत्य का पोषण नहीं करना चाहिए। सत्य, अहिंसा धर्म का पालन करना चाहिए जिनके माध्यम से आत्मा का बल जागृत होता है।
    70. आपके आश्रित धर्म है, धन के माध्यम से धर्म नहीं होता है।
    71. संसाररूपी दुख से आत्मा को ऊपर उठा लें उसका नाम धर्म है।
    72. धार्मिक अनुष्ठानों में कामचलाऊ या खाना पूर्ति का भाव कभी नहीं होना चाहिए। भावपूर्वक एवं विधि पूर्वक समय से कार्य करना चाहिए।
    73. धर्म करने के लिए अधर्म के संस्कारों से बचना चाहिए।
    74. यदि आप लोग अपनी मन रूपी दीवाल पर धर्मध्यान रूपी रंग चढ़ाना चाहते हो तो पहले उस मन की कलुषता को खरोंच-खरोंच कर साफ करो। इसी का नाम संस्कार है।
    75. धार्मिक कार्यों में बाहरी सजावट की नहीं किन्तु भीतरी सजावट की मुख्यता होनी चाहिए।
    76. जैसे किसान बीजों को सुरक्षित करके शेष अन्न का सेवन करता है, उसी प्रकार हे भव्य प्राणी तू भी धर्म रूपी बीजों को बचाकर पुण्य रूपी फलों का सेवन करे।
    77. आज तक तुझे जो भी पुण्य रूपी फलों की प्राप्ति हुई है, वह धर्मरूपी बीजों का फल है।
    78. आज व्यक्ति अर्थ की लिप्सा में धर्म को भूल गया है। आज भारत ने अर्थ विकास को ध्यान में रखकर परमार्थ के विकास को भुला दिया है।
    79. धार्मिक कार्य रुचि पूर्वक करो करना पड़ रहा है ऐसा सोचकर नहीं करना किन्तु अन्य गृहकार्यों को करना पड़ रहा है, ऐसा सोचकर ही करो। इस मानसिकता के साथ गृहस्थ घर में रहकर भी धर्मध्यान करके कर्म निर्जरा कर लेता है।
    80. जिसका मन पवित्र होता है वह हमेशा धर्म ध्यान कर सकता है लेकिन जिसका मन कषायों से मलिन होता है, वह शीघ्रता से धर्मध्यान करने की भूमिका नहीं बना पाता। उस मन को डॉट कर अपने धर्मध्यान के विषय में एकाग्र करना आवश्यक होता है।
    81. मन को विषयों से हटाकर आवश्यकों में लगाना ही धर्म ध्यान है। कहीं भी रहो मन को विषय कषायों से बचाकर रखो यही धर्मध्यान है।
    82. राज्य की सीमा पर मिलिट्री सेना खड़ी है वह भी धर्मध्यान कर रही है। बार्डर पर तैनात होकर अपने कर्तव्य करती है, यही उसका धर्म ध्यान है। उसी के बल पर आप भी धर्मध्यान कर पा रहे हैं।
    83. ध्वजा की रक्षा करना हमारा कर्तव्य है अत: मिलिट्री के समान धर्मध्वजा की रक्षा में हमेशा तत्पर रहिये।
    84. गुरु के पग चिह्न ही धर्म पथ हैं।
    85. जो जैनधर्म में कलंक लगाएगा, उसका भव-भव बिगड़ेगा।
    86. जैनधर्म की हंसी न हो ऐसा कार्य करना चाहिए। गुणों की उपासना जो सिखाता है वह अहिंसा धर्म है। जो अपनी आवश्यकताओं को जीतता है वह जैनधर्म है।
    87. बुराई को छोड़ने वाला और छुड़ाने वाला धर्म है धर्म व्यक्ति की अपेक्षा नहीं गुणापेक्षा होता हैं।
    88. मानव धर्म में कहा है- जिसको छोटा बालक भी बुरा कहता है, वह अधर्म है और जो अच्छा कहता है वह धर्म है।
    89. जो धर्म कर्म विनाशक नहीं होता वह समीचीन नहीं हो सकता। धर्म दिखाने और किसी पर मेहरबानी करने के लिए नहीं किया जाता बल्कि कर्म क्षय के लिए किया जाता है तभी वह समीचीन माना जाता है।
    90. पाप करोगे पापी कहलाओगे, धर्म करोगे धर्मात्मा, स्वयं के कार्यों के माध्यम से टाइटल मिलते हैं किसी की कृपा से नहीं। किसी ने कहा गुरुओं की कृपा भी तो काम करती है आचार्यश्री जी बोले कृपा मात्र से कुछ नहीं होता कृपा पाकर पला पौधा (छाया में पला पौधा) अच्छा नहीं होता, लचीला सा लगता है।
    91. इच्छा पूर्वक उत्साह पूर्वक, धर्मामृत का पान करना कराना चाहिए। धर्मामृत का सेवन करें चौबीसों घंटे मुनिराज इसका पान करते रहते हैं।
    92. अति परिचय एवं अति आग्रह से धर्म का, धर्मात्मा का महत्व कम होता जाता है।
    93. धर्म मात्र क्रियात्मक नहीं बल्कि श्रद्धात्मक एवं राग द्वेष का अभाव तथा आत्मस्थ रहना यह धर्म है।
    94. धर्म का पालन करने वाले को अद्भुत फल मिलता है लेकिन उन फलों को भोगने में उसका मन नहीं लगता, वह तो उसी रत्नत्रय की आराधना करता रहता है।
    95. हमारा बंधु/सगा संगी साथी कोई है तो वह है धर्म।
    96. हे आत्मन्! तू रोता क्यों है? तीन लोक की दुर्लभ वस्तु धर्म तुझे प्राप्त हुआ है।
    97. विशुद्धि का नाम धर्म नहीं है, प्रतिकूलता में शान्ति रखने का नाम धर्म है।
    98. पुरुषार्थ के माध्यम से कमाना धर्म है जैनधर्म है।

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