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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • दोष और गुण

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    दोष और गुण विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी  के विचार

     

    1. दोषों के आविष्कार की प्रवृत्ति जब तक रहेगी तब तक वीतराग सम्यक दर्शन की भूमिका भी नहीं बनती।
    2. दोष निवारण के चार उपाय-१. पश्चाताप, २. निवेदन, ३. प्रायश्चित और, ४. सामयिक (समता) ।
    3. कभी भी कोई विसंवाद आदि हो जाये, कोई दोष हो जाये तो उनकी शुद्धि करने के लिए एक कोई भी गाथा के अवलम्बन से जाप कर लिया।
    4. गलती के समय गुरु यदि शिष्य की गलती को नहीं बतायें तो गुणभद्राचार्य ने गुरु को ही अपराधी कह दिया। माँ-पिता जैसे बच्चों को बताते हैं, पालते-पोषते हैं बिल्कुल वैसी ही मुद्रा गुरुदेव की शिष्य को समझाते समय रहती है।
    5. दोष होने के कारण, प्रमाद से, संगति से, व्रतों के प्रति असावधानी बरतने से।
    6. दोषों के निराकरण में बुद्धि लगाओ तो अवश्य गुण बढ़ेंगे।
    7. आपके दोष किसी ने देखे अथवा न देखे तब भी आपको उसे शुद्ध करना है। एक-दूसरे की आलोचना करने की अपेक्षा आत्मा की आलोचना करो।
    8. दोषों के प्रति पश्चाताप होना चाहिए सिर्फ पाठ से कुछ नहीं होता।
    9. कमी को निकालने का नाम ही तो मोक्षमार्ग है।
    10. एक दूसरे की कमी बताने में आत्म आलोचना नहीं होती। अपने-अपने दोषों को सही बताने से सही आलोचना होती है।
    11. समर्पित होने के बाद दोषों की पुनरावृत्ति नहीं होना चाहिए। एक बार यदि गलती (दोष) होने के उपरान्त पश्चाताप प्रायश्चित हो जाता है तो बाद में पुण्यवर्धन होता चला जाता है। बिना प्रायश्चित के नहीं होता। पाप के प्रक्षालन के लिए ही तो प्रायश्चित होता है।
    12. असावधानी से बड़े-बड़े अपराध हो जाते हैं और सावधानी से बड़े-बड़े अपराध टल जाते हैं।
    13. दूसरों के दोष देखने में अंधे, बहरे, गूंगे हो जाना चाहिए, लेकिन हम दूसरों के दोष देखने में सहस्त्राक्ष हो जाते हैं।
    14. दोषों को पहचानो ग्रहण मत करो, गुण ग्रहण का भाव रखो। हंस दूध और पानी को अलगअलग नहीं करता बल्कि दूध को ग्रहण करता है और पानी को छोड़ देता है। उसी प्रकार आप भी दोष और गुण की पहचान रखिये, गुणों को ग्रहण करिये।
    15. दूसरे के दोष न देखना, न लेना ही अपने में गुण पैदा करना है।
    16. दोषों के बारे में जो जानकारी नहीं रखता वह कभी उन्नति नहीं कर सकता।
    17. तप वह रसायन है जिससे अभ्यंतर दोषों की शुद्धि होती है।
    18. दूसरे की आलोचना करने की अपेक्षा दूसरे के गुणों की प्रशंसा करो तो आगे जो शेष गुण अपने में नहीं है वे हमें प्राप्त हो जावेंगे।
    19. जिसकी दृष्टि दोषों की ओर नहीं गई वह अपने सम्यक दर्शन को बढ़ाते हैं परन्तु जो दोषों को देखते हैं वह स्वयं गिरते हैं और गिराते हैं।
    20. जो दूसरों के दोषों को देखता है वह अपना सम्यक दर्शन लुप्त करता है।
    21. गुणों की गवेषणा करने वाला चाहिए। यदि आप एक-एक गुण का चयन करते हैं तो हजारों लाखों गुणों का संचय हमारे पास हो जाता है।
    22. छोटे-छोटे बच्चे रेत के घरौंदे बनाकर अपने पैर को चौखट बना लेते हैं। थोड़ी सी सावधानी के साथ वह पैर को निकालकर एक दरवाजा तो अवश्य बनाते हैं, ऐसे ही एक न एक गुण तो अवश्य ग्रहण करें।
    23. आज तक भगवान हम नहीं बन पाये इसका कारण यही है कि भक्त बनने का एक भी गुण हमने ग्रहण नहीं किया।
    24. गुणों का ही संसार में मूल्य है। इससे ही कद्र होती है। गुणवान की ही हर जगह मांग होती है।
    25. यदि हमारे पास से गुण निकल गये तो हम दिवालिया हो जायेंगे।
    26. हम प्राय: एक-एक गुण को लेकर चलते हैं ये गलत है। गुणों का साम्य हो कोई छोटा बड़ा न हो सभी के गुणों का विकास हो।
    27. जैसे-धीरे-धीरे एक-एक चीज हैं तो बच्चा अच्छे से खाता है और यदि सारी चीजें एक साथ परोस दी तो वह सोचता है क्या खाऊँ? इसी प्रकार छह आवश्यकों में प्रत्येक के प्रति हमारा उत्साह बना रहे तो आनंद आता है।
    28. गुण कभी गुणी नहीं होता व्यक्ति गुणी होता है। गुणी को ध्यान में रखो।
    29. दोष की परिभाषा-गुणों की ओर दृष्टि लाकर स्व दोषों की ओर ध्यान देना है और उन दोषों को हटाना है।
    30. गल्तियों की अनुभूति के लिए उनकी पहचान भी अनिवार्य है।

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