एक क्षण का क्रोध हमारे जीवन को संपूर्णतः नष्ट कर देता है
परमपूज्य जैनाचार्य 108 श्री विद्यासागरजी महाराज ने रामटेक स्थित भगवान श्री शांतिनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र में उद्बोधन दिया है कि क्रोध रूपी आग मनुष्यों के धर्मवृत को जलाती है। यह क्रोध रूपी आग अज्ञानरूपी काष्ठ से उत्पन्न होती है। अपमान रूपी वायु उसे भडकाती है। कठोर वचन रूपी उसके बडे स्फुलिंग है। हिंसा उसकी शिखा है और अत्यंत उठा बैर उसका धूम है। यदि व्यक्ति कषाय करता तो उसका पाप का प्रमाण वढता है। कषाय करने वालो के उपर हम कषाय नही करेगे, यदि हम यह सोच लेंगे तो मोक्ष की प्राप्ति होगी। अपमान होता है तो क्रोध रूपी अग्नी उसे प्रज्जवलित कर देती है। ज्ञान के द्वारा कषायो का हनन होता है। जब तब व्यक्ति के ऊपर ऋण रहता है तब तक उसे चैन नही आता है। क्रोध इस लोक एवं परलोक मे बहुत दोषकारक है ऐसा जानकर क्रोध का त्याग करना चाहिये। जीव तत्व को देखकर यदि अक्ल आये, उस जीव तत्व पर श्रद्धान हम कैसे माने। श्रध्दान अलग वस्तु है और चर्चा अलग वस्तु है। एक क्षण का क्रोध हमारे जीवन को संपूर्णतः नष्ट कर देता है । अतः हमें क्रोध को त्यागना चाहिये।
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