मन के हारे हार है, मन के जीते जीत
सन्त षिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने रमणीक स्थल अमरकण्टक में संस्कृति और विकृति के मध्य भेद का बोध कराते हुए कहा कि विकृति की उपासना कर मानव मन भटक रहा है। संस्कृति की उपासना कर मानव महामानव बन गया। मानव से महामानव बनने का क्रम विष्वास – आस्था से आरंभ होता है। प्रयोग की बताते हुए कहा कि खोज इसके आधार पर ही होती है।
दिगम्बर जैनाचार्य श्री विद्यासागर जी ने बताया कि अठारह दोषों से रहित आत्मा ही भगवान है। आस्था और विष्वास के बल पर प्रयोग किया, साधना कर दोष मुक्त होकर मुक्ति को प्राप्त कर लिया। जीवन के लिए श्वास पर विष्वास रखना ही होता है । विष्वास की शक्ति से रोगी रोग से मुक्त हो जाता है उसे औषधि से उपचार की आवष्यकता नहीं है। विष्वास का अभाव हो तो बचाओ – बचाओ के स्वर गुंजने लगते हैं। यह विचार करो स्वर की शक्ति कहाँ से आयी, यह विष्वास है कि स्वर सुनकर कोई रक्षा करेगा। इसी प्रकार यह विष्वास रखो कि कोई आत्मा का बाल बांका नहीं कर सकता। मौत से निडर रहने वाला ही विष का स्वाद बता सकता है। आहार को औषधि की भांति प्रयोग करने वाला सदैव निरोग रहता है यह समझाते हुये आचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी ने कहा कि विषय रोगी की राषि चिकित्सक के कोष में समाती रहती है। सन्तुलन के महत्व को सहज रूप से दर्षाते हुए कहा कि आहार को पचाने वाला रसायन यदि अधिक मात्रा में हो तो इस रसायन को पचाने के लिए भी उपचार किया जाता है औषधि लेते हैं अन्यथा वमन क्रिया हो जाएगी। आत्मानूभूति रखने वाला ब्रह्मवेŸाा आत्म स्वरूप को जानता है। मन के हारे हार है, मन के जीते जीत। इन पंक्तियों के माध्यम से बताया कि इस पर दृढ़प्रतिज्ञ जीवन पर्यन्त विकार से बच जाते हैं। बाहरी हवा से आत्मा की रक्षा का नाम गुप्ती है। आचार्य श्री ने कहा कि लक्ष्मी की आरती उतारने वालो, समय है सरस्वती की उपेक्षा मत करो।
आचार्य श्री विद्यासागर जी ने कहा कि थल में जितना भार होता है वह नभ में नहीं रहता, भार हीन हो जाता है तथा जल में भी भार कम हो जाता है, क्या है वास्तविक भार ? विज्ञान की इस पहेली को दर्षन के माध्यम से स्पष्ट करते हुए कहा कि आत्मा भार रहित है, मोह कि काया का भार है, मोह का आवरण छूटते ही ऊध्र्व यात्रा आरंभ हो जाती है। आचार्य श्री ने सचेत करते हुए कहा कि भारत में औषधि व सर्जरी ज्ञान पूर्व काल से पारंगत था, भारत में इस ज्ञान का अभाव मानने वालो को इतिहास का ज्ञान नहीं। मोह वष ऋद्धि – सिद्धि कम हो गई। धन संचय के कारण हाथ से यष कम हो गया। स्वास्थ्य सेवा न होकर व्यापार हो गया इसीलिए पूर्वजों से प्राप्त पूर्व काल के ज्ञान का अभाव हुआ। लोभ वह विष है जो निरंतर डस रहा है। लोभ बचा रहे हो पचा नहीं रहे, लोभ पच जायेगा प्राचीन यष पुनः हाथ में आ जाएगा। आचार्य श्री ने बताया की आत्मा अमूर्त है इसीलिए देखो मगर राग द्वेष से मत देखो। बोलो मगर सत्य वचन बोलो, असत्य मत बोलो। इन्द्रिय विजेता को शीघ् सिद्धि प्राप्त हो जाती है, विकृति के कारण न तो योग हो पाता है न हि सिद्धि मिलती, आकाष को देखो वह निर्विकार है निज पर दृष्टि डालो पर में मत उलझो।
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