क्या है यह सुख-दुख?
सुप्रसिद्ध सन्त शिरोमणि दिगम्बर जैनाचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी ने रमणिक स्थल अमरकण्टक में बताया कि सुख की प्रतिक्षा में दुख सहते जीवन बीत जाता है। सुख की अभिलाषा दुख सहने की क्षमता बढ़ा देती है, संसार दुख की खान है जिसमें सुख हीरा की एक कणिका के समान है।
संसार में दुख बहुत बाधा देता है यदि सुख की चाह न हो तो दुख सहन नहीं होता, यह समझाते हुए आचार्य श्री विद्यासागर जी ने कहा कि सुख एक अनुभूति है। सुख की अभिलाषा में दुख सह रहे हैं तो यह सुख ही तो दुख दे रहा है, क्या है यह सुख-दुख? राग द्वेष से दुखानूभूति होती है, राग द्वेष रहित होते ही सुखानुभूति होने लगती है। आचार्य श्री ने बताया कि हीरे की खान में हीरा की अपेक्षा अन्य पदार्थ मिट्टी, पत्थर आदि अधिक निकलता है। टनों टन मिट्टी पत्थर से मन का एक हीरा प्राप्त होता है।
हीरा की एक कणिका और अन्य पदार्थों की बाहुल्यता होते हुए भी खान हीरे की कहते हैं ऐसे ही संसार एक दुख की खान है जिसमें सुख हीरा की एक कणिका के समान है। आपने बताया कि कदिली (केला वृक्ष का तना) की एक – एक परत खोलने पर भी अंत में सार कुछ नहीं रहता और ऐसा ही संसार सारमय नहीं है, संसार भी कदिली की भांति है। सभी परते उतार दो सार प्राप्त नहीं होने वाला, असार है संसार।
आचार्य श्री विद्यासागर जी ने कहा कि त्वचा के रोगी को खुजलाने पर सुख मिलता है, खुजलाते-खुजलाते रक्त निकलने पर जलन होती है, तीव्र पीड़ा से दुखी होकर खुजलाने की क्रिया पर पश्चाताप करते हैं, एक ही क्रिया से सुख की भी अनुभूति होती है वही अगले पल दुखी कर देती है क्या है यह सुख – दुख। सुख-दुख के भ्रम में आयु बीत जाती है।
आपने कहा कि क्रोध के कारण क्रोध आता है तो क्रोध को पकड़ो, ठीक करो, सामने वाले को क्रोध से देखने का क्या औचित्य है, यह समझाते हुए आचार्य श्री विद्यासागर जी ने कहा कि अपने दोषों पर दृष्टि डालते ही क्रोध ठण्डा हो जाता है, पछताते हुए सोचते हैं अब ऐसा नहीं करना है, ऐसा सोचते ही शांति की अनुभूति होने लगती है। एक ऐसा दर्पण मिल जाए जिसमें आत्मस्वरूप दिख जाए, आँखे खोलकर देखें तो संसार दिखता है, आँखे बंद कर देखें तो सार समझ में आता है, दर्पण में मुख निहारते युग बीत गए, दर्पण को कभी नहीं देखा। रूप देख लिया, स्वरूप देख लें।
क्षुधा को शांत करने के लिए अन्न पान का प्रबंध करते हैं, ठण्ड की ठिठुरन से बचने वस्त्र का, धूप, वर्षा से रक्षा के लिए भवन का, सुन्दरता के लिए आभूषण का, दुर्गन्ध दूर करने के लिए सुगंधि पदार्थ का प्रबंध कर पंचेंन्द्रिय की पीड़ा दूर करने का यत्न करते हैं, क्या सुख मिला, नहीं, दुख ही भोग रहे हैं, सुख की चाह है, यह गति तब तक रहेगी जब तक राग द्वेष से रहित नहीं हो जाते।
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