नर से नारायण हो सकते हैं।
सुप्रसिद्ध साधक श्रमण शिरोमणि दिगम्बर जैन आचार्य श्री विद्यासागर जी ने गर्भस्थ शिशु के वध को घृणित, तिरस्कृत अधोकर्म बताते हुए कहा कि होनहार संभावना का जन्म से पूर्व ही अन्त कर दिया जाता है। शोधों से ज्ञात होता है कि यह दुष्कृत्य अपेक्षाकृत शिक्षित समुदाय द्वारा अधिक अनुपात में किया जाता है। श्रीमान हो, विद्वान हो अथवा सामान्य हो सभी इस कर्म से बचें, इस दुष्कर्म को त्यागें। इन वचनों को सुनते ही अमरकण्टक के सर्वोदय तीर्थ सभागार में उपस्थित हजारों श्रोताओं ने भ्रूण हत्या से बचने का संकल्प लिया।
आचार्य श्री विद्यासागर जी ने कहा कि धरती पर असंख्य जीव हैं, इनमें मनुष्यों की गणना की जा सकती है, की जाती है। जिन्होंने मन और इंद्रियों पर विजय प्राप्त कर ली अथवा मन को जीत लिया, इंद्रियों को अपने वश में कर लिया ऐसे मनुष्यों की संख्या नगण्य है, धन्य है ऐसे महामानव जिन्होंने ऐसा दुर्लभ कार्य कर लिया। इंद्रियों को जीतना सेमीफाइनल और मन पर विजय पाना फाइनल जीतना है। फाइनल जितने पर पुरस्कार मिलता है।
मन अदृश्य है किन्तु सबको अपने अधीन में रखता है, संसार को नचा रहा है। आचार्य श्री विद्यासागर जी ने बताया की लोकतंत्र में सब स्वतंत्र है। वासना से मुक्त होना ही स्वतंत्रता है, यह समझाते हुए कहा कि मन के अधीन और इंद्रियों के दास होकर स्वतंत्र कैसे हो सकते हो? प्रशंसा और ख्याति की चाहत रखना खाई में कूदना है।
आचार्य श्री विद्यासागर जी ने कहा कि अधीनता में रहते अनंत काल हो गया, काया के प्रति निरीह होना ही साधना है, तप है। तप कभी परवश होकर नहीं किया जाता स्ववश होकर ही दुर्लभता की प्राप्ति होती है। बंधन से मुक्ति की प्रक्रिया है बंध मुक्त होते ही स्वतंत्र हो जाते हैं, अनंत काल की परतंत्रता, परवशता छूट सकती है।
आचार्य श्री ने बताया कि भाड़ में चना सेका जाता है, सिककर चना फूट जाता है। वह चना बच जाता है जो उचटकर निकल जाता है, उचट गए तो ठीक नहीं तो गए भाड़ में, ऐसे ही मन और इंद्रियों के भाड़ से उचट कर बच लो। इंद्रियों और कषायों (क्रोध, मान, माया, लोभ) से वशीभूत होकर दूसरे को तो दुख देते हैं स्वयं को भी पीड़ित करते हैं। जीभ के उपयोग से प्रस्फुटित वाणी द्वारा दूसरे जीव को जीत सकते हैं उसी जीभ की वाणी अपनी बत्तीसी भी तुड़वा देती है।
आचार्य श्री ने बताया कि मन और इंद्रियों पर अपना अधिकार है तो मोक्ष मार्ग पर जा सकते हैं और इनके अधिकार में हैं तो मोह मार्ग पर चल रहे हैं। यह निर्णय स्वयं करना है कि अधिपति होना है या दास बना रहना है। मन की आराधना छोड़कर मन को आत्मा की आराधना की ओर लगाना है। क्रोध में आपा खो देते हैं, आपे में आते ही सुख की अनुभूति होने लगती है।
आचार्य श्री विद्यासागर जी ने बताया कि धारणा बनाते ही धारण करने की क्रिया आरंभ हो जाती है। किसी को जीवन दे नहीं सकते तो जीवन लेने का अधिकार किसने दिया? गर्भस्थ शिशु का वध अधोकर्म है, जिससे कि जन्म लेने के पूर्व ही संभावनाओं की समाप्ति हो जाती है। ऐसी हवा से बचना चाहिए। मनुष्य का जीवन वह दुर्लभ अवसर है जिसमें मोक्ष पाने की सामर्थ्य है, नर से नारायण हो सकते हैं।
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