भेद – भाव, छुआ – छूत एक बीमारी है
तपोनिधि, ज्ञान वारिधि, साधना षिरोमणि दिगम्बर जैन आचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी ने मैकल पर्वत माला के षिखर अमरकण्टक में कहा कि औषधि का आधार वनस्पति है, संसार की प्रत्येक वनस्पति औषधि गुण युक्त है, वनस्पति के विनाष से औषधि भी नष्ट हो जाती है। ताल (वृक्ष) में पल्लव, कोपल, लता, छाल, जड़ आदि सभी निहित है। सरल हृदय से निकली बोली व्याकरण युक्त सुसंस्कृत भाषा से अधिक प्रभावी है यह समझाते हुए बताया कि छुआ – छूत की भावना एक बीमारी है जो कि ‘स्टैन्डर्ड’ वृद्धि प्रतिस्पर्धा की देन है।
आचार्य श्री विद्यासागर जी ने कहा कि भेद – भाव, छुआ – छूत एक बीमारी है, यह कहाँ से आयी, इसका उपचार कहाँ है ? इसका समाधान करते हुए कहा कि यह सब ‘स्टेण्डर्ड’ वृद्धि की चाह, क्रिया, भाव से उत्पन्न द्वेष की देन है। दूसरे को देखकर अपनी सुविधा साधन सम्पन्नता संग्रहण अधिक करने की लालसा में इस रोग से ग्रस्त हो गए। ऊँच – नीच, भेद – भाव, छुआ – छूत रोग का उपचार के लिए कौन सा चिकित्सालय है ? द्वेष दंभ त्याग दो निदाह हो जाएगा, त्यागी का सानिध्य सर्वोवम चिकित्सालय है संग्रही वृक्ष छूटते ही संयत हो जाते हैं। वस्त्र त्यागने के साथ ही अन्य त्याग स्वमेव हो जाते हैं, वस्त्र का त्याग तब ही संभव है जब संग्रही वृक्ष से छुटकारा मिल जाता है पृथक रूप से भिन्न – भिन्न त्याग के विवरण की कोई आवष्यकता नहीं है । काया के प्रति भी मोह से मुक्त होने वाला ही वस्त्र का त्याग करता है। अपना आंगन छोड़कर पर स्थान गमन करने वाला जीवन पर्यन्त संग्रहण (परिग्रह) करता रहता है किन्तु अपने आंगन की याद कभी नहीं मिटती। अपना गांव छोड़ा, नगर, महानगर जाकर भी संतुष्ट नहीं। वहां कोई कुषल क्षेम पूंछने वाला नहीं। निज को देखो, अपना आंगन भला है। जितनी आवष्यकता है उतनी पूर्ति का प्रयास करो समस्त रोग मिट जाएंगे। कोई प्रभावित न हो तो लम्बा परिचय व्यर्थ है। जीवन गाथा रटने की नहीं खोलने की आवष्यकता है यह समझाते हुए आचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी ने कहा कि सरल हृदय से निकली बोली सुसंस्कृत भाषा से अधिक प्रिय लगती है।
अनेक वाक्य के भाव मे अकथ वाक्य के भाव भी गर्भित होते हैं, जिन्हे पृथक रूप में कथन की आवष्यकता नहीं। जीवन के लिए श्वास लेना आवष्यक है, इस वाक्य में विष्वास होने का भाव भी निहित है। यह बोध कराते हुए आचार्य श्री ने कहा कि अमरकण्टक में प्रदूषण रहित वायु प्रचुरता में है जिसे प्राण वायु भी कहते हैं। प्राणवायु भर लीजिए किन्तु कितनी भर पायेंगे। जब तक अंदर की वायु बाहर नहीं होगी क्या भरना संभव है। प्राण वायु तो उपलब्ध है किन्तु अन्दर की वायु बाहर नहीं निकली तो प्राणवायु भी प्राणों को संकट में डाल देगी। श्वास के पूर्व निष्वास होना अनिवार्य है, रिक्त होगा तब ही भरना संभव है। दोषों से रिक्त होने पर ही सद्गुण भरे जा सकते हैं। प्राण वायु का भी आवष्यकता से अधिक संग्रहण नहीं किया जा सकता। संग्रही प्रवृति हिंसा है। परिग्रह भाव साथ अहिंसा संभव नहीं यह समझाते हुए कहा कि संग्रही असत्य भी बोलेगा, चोरी भी करेगा और वासना से पीडि़त होकर ब्रह्मचर्य खण्डित करेगा। आवष्यकता से अधिक पाने की चाह पथ भ्रष्ट कर देती है इसीलिये संयत वही है जिसने संग्रह का त्याग कर दिया। साधु वस्त्र त्याग देते हैं तात्पर्य है समस्त संग्रह छूट चुके हैं, काया से भी मोह नहीं। काया से निर्मोही केष लोंच करता है, अपना केष अपने कर से लोंच कर पृथक करता है पर से कोई सरोकार नहीं। छोटी चाबी से वृहद् आकार का ताला भी खुल जाता है, संयम की चाबी हमारे हाथ में हैं अब किसी भी ताला की कोई चिन्ता नहीं। गाथा एक ताला है तथा सूत्र चाबी है, इसीलिये सूत्र से किसी भी गाथा का ताला खुल जाता है।
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