Jump to content
नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

‘‘शब्द भी होते हैं विस्फोटक’’


संयम स्वर्ण महोत्सव

222 views

अमरकण्टक में विराजमान सन्त षिरोमणि दिगम्बर जैनाचार्य श्री विद्यासागर जी ने कहा कि स्व प्रषंसा, पर आलोचना ध्यान में नहीं लाना एक साधना है। वचनों की व्याख्या करते हुए बताया कि वचन से विस्फोट हो जाता है, अप्रिय वचन अर्पित वचन नहीं है। परस्पर आरोप प्रत्यारोप में व्यस्त पक्ष विपक्ष से राष्ट्रीय पक्ष पीछे रह जाता है।

आचार्य श्री विद्यासागर जी ने षिष्य, साधकों एवं श्रोताओं को समझाते हुए कहा कि कौन से वचन कथनीय है कौन से नहीं, वचन व्यक्त करने के पूर्व विचार कर लेना चाहिए। अपने कथन पर ध्यान नहीं पर कथन की समीक्षा कर रहें हैं। कठोर वचन सुनकर विचार करते हैं कि वह क्रोध शेष में दोष कर रहा है, आवेष का आवेग है। ज्ञानी आवेष के आवेग में नहीं आता। संसार में दोषों के उन्मूलन की व्यवस्था है। आचार्यों से पुराण ग्रन्थों से ज्ञान हो जाता है। संसारी प्राणी संयम के अभाव में आवेषित होकर कठोर व अप्रिय वचनों का उपयोग करता है किन्तु मोक्ष मार्ग का साधक प्रत्येक अवस्था में व्यवस्थित रहता है। आचार्य श्री विद्यासागर जी ने कहा कि आवेग पर नियंत्रण रखने का पुरूषार्थ करें। विस्फोटक पदार्थों में अग्नि के सम्पर्क से भयंकर विस्फोट हो जाता है। ऐसे ही क्रोध के आवेग में कठोर वचनों से भी स्थिति विस्फोटक हो जाती है। हिंसा उत्पन्न करने वाले वचनों का प्रयोग मत करो। संयम धारण करने वाला विस्फोट से स्वयं की रक्षा करने के साथ – साथ अन्य को भी बचा लेता है। यही मोक्षमार्ग है।

सरल शब्द नरम होकर भीतर तक प्रभाव डालते हैं, शब्दों के प्रभाव को समझाते हुए आचार्य श्री विद्यासागर जी ने कहा कि महान तपस्वी स्वयं के दोष देखता है, कोई सुने या न सुने, स्वयं सुनता है एवं प्रायष्चित करता है। दूसरे के गुस्से को पियो और पचाओ। सामने वाला उबाल में और दूसरा उससे अधिक उबल जाता है। ईंट का जवाब पत्थर से देने की योजना बनाते हैं, इससे स्थिति नियंत्रण से बाहर हो जाती है। दो युद्ध हो चुके यदि तीसरा हुआ तो सब समाप्त हो जाएगा तब चैथा तो पाषाण युद्ध ही होगा। संयम और शीतलता ही शांति की धारा है यह बताते हुए कहा कि साबुन से नहीं जल से ही निर्मलता आती है। आचार्य श्री ने कहा कि प्रष्न को उपयुक्त बनाओ तब ही सार्थक उधार मिलेगा। निरर्थक प्रष्न स्वयं प्रष्न वाचक है! हित की विवक्षा में कदाचित कभी अप्रिय वचन की आवष्यकता एक विरेचन की भांति की जा सकती है जिसमें पर का अहित हो ऐसा प्रिय वचन वर्जित है। विरेचन क्रिया का एक सुनिर्धारित क्रम है ऐसा ही क्रम वचनों के प्रयोग के लिए भी प्रयुक्त किया जाता है। स्वयं की प्रषंसा पर की आलोचना संसार की बीमारी है यह असंयम की पहचान है। निष्ठुर वचन से तोबा करने की सीख देते हुए कहा कि अधिक बोलना दण्डनीय होता है, अभिव्यक्ति आवष्यकतानुसार अल्प शब्दों से की जाती है। ऐसे वचनों का प्रयोग हो जिससे पर दोष भी दूर हो जाए।

0 Comments


Recommended Comments

There are no comments to display.

Create an account or sign in to comment

You need to be a member in order to leave a comment

Create an account

Sign up for a new account in our community. It's easy!

Register a new account

Sign in

Already have an account? Sign in here.

Sign In Now
  • बने सदस्य वेबसाइट के

    इस वेबसाइट के निशुल्क सदस्य आप गूगल, फेसबुक से लॉग इन कर बन सकते हैं 

    आचार्य श्री विद्यासागर मोबाइल एप्प डाउनलोड करें |

    डाउनलोड करने ले लिए यह लिंक खोले https://vidyasagar.guru/app/ 

     

     

×
×
  • Create New...