तप की महिमा अपरंपार है
परमपूज्य जैनाचार्य 108 श्री विद्यासागरजी महाराज ने रामटेक स्थित भगवान श्री शांतिनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र में उद्बोधन दिया है कि, रोग होता है, जन्म-मरण, रूप, उसकी श्रेष्ठ औषधि तप है। अच्छी चीज के लिए विज्ञापन की आवश्यकता नही होती है वह स्वयं में विज्ञापन होती है। कलकत्ता मे एक वृक्ष है, किसी को पता नही है कि उस वृक्ष का मूल भाग कैनसा है?
संसार रूपी महादाह से जलते हुए प्राणी के लिए तप जल घर है, जैसे सूर्य की किरणो से जलते हुए मनुष्य के लिए धाराधर होता है। तप सांसरिक दुखों को दूर करता है। सम्यक तप करने से पुरूष बंधु की तरह लोगो को प्रिय होता है। तप से व्यक्ति सर्व जगत का विश्वासपात्र होता है। पंचकल्याणक आदि सुख तप से प्राप्त होते है। तप मनुष्य के लिए कामधेनु और चिंतामणि रत्न के समान है। आप लोगो को रोने की आदत पड गयी है। संसार मे मै किसी से बैर नही करूंगा ऐसे भाव रखना चाहिए।
जब शरीर को भोजनरूपी वेतन दिया जाता है। उस पर दया न करके उसको तप की साधना मे लगाना चाहिये। तपेा भावना मे जिसको आनंद नही आता है उसको अभी संयम बहुत दूर है। जीव पर दया की जाती है, शरीर तो जड है पुद्गल है उस पर दया नही करना चाहिये। यदि शरीर का पोषण करते है तो आत्मा का षोषन होता है। संज्ञाये तो बढती चली जाती है और कार्य करने की क्षमता बढती जाती है। भावना जितनी भायेगी उतनी विशुध्दी बढती जायेगी। संयम का फल इच्छा निरोधो तपः होना चाहिये।
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