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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

भारत का इतिहास स्वर्णिम था, वर्तमान क्यों नहीं?


संयम स्वर्ण महोत्सव

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उत्थान का आधार क्रमिक विकास है, गति, प्रगति तदोपरान्त उन्नति सोपान है। छलांग लगाकर प्रमाण-पत्र प्राप्त किया जा सकता है, योग्यता प्राप्त नहीं होती। भारत की श्रमण साधना के उन्नायक, प्रख्यात विचारक दिगम्बर जैनाचार्य श्री विद्यासागर जी ने अमरकण्टक में यू.एन.आई. की दिल्ली ब्यूरो प्रमुख सहित अन्य चिन्तनशीलजनों की जिज्ञासाओं का समाधान करते हुए सामाजिक, ऐतिहासिक, शैक्षिक सन्दर्भों में उपरोक्त मत व्यक्त कर बताया कि पाश्चात्य दृष्टि से आंकलन करने की अपेक्षा अपने गौरवशाली अतीत के दर्पण में देखना चाहिए।

आचार्य श्री विद्यासागर जी ने कहा कि भारत का इतिहास स्वर्णिम है, वर्तमान क्यों नहीं? सोने की चिड़िया कहाँ उड़ गई? भारत ज्ञान का सिरमौर था, अब ज्ञान अर्जन के लिए परदेस गमन होता है। अतीत सम भविष्य का एकमात्र सूत्र है, ‘‘रूको, लौट चलें।’’

जटिल जिज्ञासाओं का सरल समाधान करते हुए बताया कि पारंगत होने की एक निश्चित प्रक्रिया है, क्रमिक विकास से ही उत्थान होता है। वयस्क होने की न्यूनतम आयु अठारह वर्ष है, इस आयु के पूर्व लिया गया निर्णय वयस्क का निर्णय नहीं माना जाता, यही नीति है। शिक्षा के क्षेत्र में परिपक्व आयु के पूर्व ही युवा प्रतिभा की दिशा निश्चित कर दी जाती है, किस विषय में अध्ययन करना है यह निर्णय थोप दिया जाता है। अवयस्क आयु के ऐसे निर्णय परिपक्व होने पर युवाओं को असमंजस में डाल देते हैं, ऐसे अनेक उदाहरण हैं, अनेक घटनाएं हैं।

क्रमिक विकास के अभाव से प्रमाण-पत्र प्राप्त हो जाता है किन्तु उत्थान नहीं हो पाता। क्रीम शब्द की व्यापकता पाश्चात्य शैली की परिचायक है, यह समझाते हुए आचार्य श्री विद्यासागर जी ने कहा कि नवनीत (मक्खन) से भारतीयता की सुगंध आती है। नवनीत को तपाकर घृत प्राप्त किया जा सकता है, क्रीम बस क्रीम है। नवनीत से घृत बनाने की निश्चित प्रक्रिया है, इस कथन से ही भारतीय दर्शन को स्पष्ट करके बताया कि विज्ञान के शोध से इतिहास का बोध अधिक मूल्यवान है। संतोष, सौहार्द्र, समन्वय, सहयोग भारतीय संस्कृति की विशिष्टता है, इन गुणों की अपेक्षा असन्तोष बढ़ता जा रहा है। अपना आंकलन पश्चिम की आंखों से किया।

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