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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पाठ्यक्रम 19ब - श्रावकों के बारह व्रत

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    पाँच पापों के एकदेश अर्थात् स्थूल रूप से त्याग को अणु व्रत कहते हैं। अणुव्रत पांच होते हैं- १. अहिंसाणुव्रत, २. सत्याणुव्रत, ३. अचौर्याणुव्रत,४. ब्रह्मचर्याणुव्रत, ५. परिग्रहपरिमाणुव्रत ।

     

    1. अहिंसा अणुव्रत - हिंसा के स्थूल त्याग को अहिंसाणुव्रत कहते हैं। यह श्रावक संकल्प पूर्वक मन, वचन, काय से किसी भी इस प्राणी का घात अपने मनोरंजन एवं स्वार्थपूर्ति के लिए नहीं करता है तथा शेष तीन प्रकार की हिंसा को अपने विवेक पूर्वक कम करता है। आगम कथित मर्यादा के भीतर की ही खाद्य वस्तुओं का, पानी आदि का प्रयोग करता है। सभी प्राणियों को अपने समान मानकर ही व्यवहार करता है।
    2. सत्याणुव्रत - झूठ के स्थूल त्याग को सत्याणुव्रत कहते हैं। जिस झूठ से समाज में प्रतिष्ठा न रहे, प्रमाणिकता खण्डित होती हो, लोगों में अविश्वास हो, राजदण्ड का भागी बनना पड़े, इस प्रकार के झूठ को स्थूल झूठ कहते हैं। सत्याणुव्रती ऐसा सत्य भी नहीं बोलता जिससे किसी पर आपत्ति आ जावे।
    3. अचौर्य अणुव्रत - स्थूल चोरी का त्याग करने वाला अचौर्य अणुव्रती श्रावक कहलाता है। अचौर्याणुव्रती जल और मिट्टी के सिवा बिना अनुमति के किसी के भी स्वामित्व की वस्तु का उपयोग नहीं करता। लूटना, डाका-डालना, जेब काटना, किसी की धन-सम्पति, जमीन हड़प लेना, गड़ा धन निकाल लेना स्थूल चोरी के उदाहरण हैं। यह श्रावक चोरों की सहायता नहीं करता, चोरी का माल नहीं खरीदता, राजकीय नियमों का उल्लंघन नहीं करता कालाबाजारी एवं मिलावट नहीं करता है।
    4. ब्रह्मचर्य अणुव्रत - इसका दूसरा नाम स्वस्त्री संतोष व्रत भी है। अपनी विवाहिता स्त्री के अतिरिक्त शेष स्त्रियों के प्रति माँ बहन और बेटी का व्यवहार करना ब्रह्मचर्य अणुव्रत है। ब्रह्मचर्याणुव्रती अपने परिवार जन को छोड़कर अन्य जनों के विवाहव्यवसाय नहीं करता और न कराता है। काम सम्बन्धी कुचेष्टाओं को नहीं करता, चारित्रहीन स्त्री-पुरुषों की संगति नहीं करता।
    5. परिग्रह परिमाण व्रत - तीव्र लोभ को मिटाने के लिए परिग्रह की सीमा निर्धारित करना परिग्रह परिणाम व्रत है। धन धान्यादि बाह्य पदार्थों के प्रति ममत्व, मूच्छा या आशक्ति को परिग्रह कहते हैं, धन धान्यादि बाह्य पदार्थों की सीमा बनाकर उसमें संतोष धारण करना परिग्रह परिमाणुव्रत है।

    यह व्रती श्रावक दूसरों के लाभ में विषाद नहीं करता, लाभ हानि में संक्लेशित नहीं होता। लोभ के वशीभूत हो नौकर आदि पर अधिक भार नहीं डालता। चूंकि इस व्रत के द्वारा वह अपनी अन्तहीन इच्छाओं को एक सीमा में बांध देता है। अत: इसे इच्छापरिमाण व्रत भी कहते हैं।

     

    • जिससे अणुव्रतों में विकास होता है उन्हें गुण-व्रत कहते हैं, गुणव्रत तीन हैं- १. दिग्व्रत, २. देशव्रत तथा ३. अनर्थदण्ड त्याग व्रत।

     

    6. दिग्व्रत - जीवन पर्यन्त के लिए दशों दिशाओं में आने-जाने की मर्यादा बना लेना दिग्व्रत है। जैसे कि मैं व्यापार आदि के निमित अमुक दिशा में वहाँ जाऊँगा उससे आगे नहीं।

    7. देशव्रत - दिग्व्रत में ली गयी जीवन भर की मर्यादा के भीतर भी अपनी आवश्यकताओं एवं प्रयोजन के अनुसार आवागमन को सीमित समय के लिए नियन्त्रित रखना देशव्रत है। जैसे कि एक माह तक इस नगर से, मोहल्ले से बाहर नहीं जाऊँगा। अथवा आज मैं घर से बाहर नहीं जाऊँगा इत्यादि।

    8. अनर्थदण्ड त्याग व्रत - बिना प्रयोजन पाप के कार्य करने को अनर्थदण्ड कहते हैं। इनका त्याग करना अनर्थदण्ड त्याग व्रत है। यह व्रती खोटे व्यापार का उपदेश नहीं देता, अस्त्र शस्त्रादि, हिंसक उपकरणों का आदान-प्रदान नहीं करता, किसी ही हार, जीत, लाभ, हानि की व्यर्थ चिन्ता नहीं करता बिना मतलब पृथ्वी आदि नहीं खोदता, अप्रयोजनीय स्थावर जीवों की हिंसा नहीं करता, मन को विकृत करने वाले साहित्य, गीत नाटक आदि कार्यक्रमों को न पढ़ता न सुनता और न देखता है तथा आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह भी नहीं करता है।

    • शिक्षा व्रत - जिनसे मुनि बनने की शिक्षा / प्रेरणा मिले उन्हें शिक्षा व्रत कहते है वे चार हैं। १. सामायिक, २. प्रोषधोपवास, भोगोपभोग परिमाण तथा ३. अतिथि संविभाग।

    9. सामायिक - समय आत्मा को कहते हैं आत्मा के गुणों का चिन्तन कर समता का अभ्यास करना सामायिक है। सामायिक में संसार, शरीर, भोगों के स्वरूप का चिन्तन, बारह भावनाओं का चिन्तन, चैत्य-चैत्यालयों की वन्दना, भक्ति आदि का पाठ तथा णमोकार मंत्र का जाप भी किया जा सकता है। प्रतिदिन दोनों संध्याओं में कम से कम २४ मिनट तक इसका अभ्यास करना चाहिए।

    10. प्रोषधोपवास - अष्टमी चतुदर्शी पर्व के दिनों में एकासन पूर्वक उपवास करना प्रोषधोपवास है। शरीर की शक्ति के अनुसार उत्तम, मध्यम एवं जघन्य विधी से इसको धारण करना चाहिए। उपवास के दिन घर-गृहस्थी और व्यवसाय-धन्धे के समस्त कामों को छोड़कर धर्मध्यान पूर्वक दिन बिताना चाहिए।

    11. भोगोपभोग परिणाम - भोग और उपभोग के साधनों का कुछ समय या जीवन पर्यन्त के लिए त्याग करना भोगोपभोग परिणाम व्रत कहलाता है। इससे गृहस्थ अनावश्यक संग्रह, खर्च और आकुलता से बच जाता है।

    12. अतिथी संविभाग - जो संयम का पालन करते हुए देश-देशान्तर में भ्रमण करते हैं, उन्हें अतिथी कहते हैं। ऐसे अतिथियों को अपने लिए बनाये गये भोजन में से विभाग करके भोजन देना अतिथी संविभाग व्रत कहलाता है।

     

    • उत्तरदायित्व से महान बल प्राप्त होता है। जहाँ कहीं भी उत्तरदायित्व होता है वहीं विकास होता है।
    • हताश न होना ही सफलता का मूल है।
    • उद्यम स्वर्ग है आलस्य नरक ।
    • संसार में सबसे बड़े अधिकार सेवा और त्याग से मिलते हैं।
    • अध्ययन आनन्द का अलंकरण और योग्यता का काम करता है।
    • अभागा वह है जो संसार में सबसे पवित्र धर्म कृतज्ञता को भूल जाता है।

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