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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पाठ्यक्रम 21अ - साधु परमेष्ठी की चर्या - २८ मूलगण

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    जो सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक चरित्र रूप रत्नत्रय से युक्त होते हैं, सिद्ध पद की प्राप्ति हेतु निरन्तर साधना करते हैं ऐसे दिगम्बर मुद्रा धारी महापुरुष साधु कहलाते हैं। श्रमण, यति, मुनि, अनगार, वीतराग, संयत, ऋषि, जिनरूप धारी भिक्षु इत्यादि साधु के अपर नाम है। श्रमण के २८ मूलगुण जिनेन्द्र देव ने कहे हैं -

    • पाँच महाव्रत
    • पाँच समिति
    • पाँच इन्द्रियों को वश में करना (पंचेन्द्रिय विजय)
    • छह आवश्यक
    • सात विशेष गुण

     

    महाव्रत

    हिंसादि पाँच पापों का स्थूल एवं सूक्ष्म रूप से पूर्णत: त्याग करना महापुरुषों का महाव्रत है। महाव्रत पाँच होते हैं -

    १. अहिंसा महाव्रत, २. सत्य महाव्रत, ३. अचौर्य महाव्रत, ४. ब्रह्मचर्य महाव्रत, ५. अपरिग्रह महाव्रत

     

    1. अहिंसा महाव्रत - आत्मा में रागद्वेष आदि विकारी भावों की उत्पति नहीं होने देना तथा षट्काय के जीवों की मन, वचन एवं काय से विराधना न करना 'अहिंसा महाव्रत' कहलाता है।
    2. सत्य महाव्रत - रागद्वेष, मोह के कारण असत्य वचन तथा दूसरों को सन्ताप करने वाले ऐसे सत्य वचन को छोड़ना 'सत्य महाव्रत' है।
    3. अचौर्य महाव्रत - बिना दिये हुए किसी भी प्रकार के पदार्थ एवं उपकरण का ग्रहण न करना 'अचौर्य महाव्रत' है।
    4. ब्रह्मचर्य महाव्रत - स्त्री विषयक राग का, संपर्क का मन-वचन-काय से पूर्ण त्यागकर, ब्रह्म स्वरूप अपने आत्म तत्व में चर्या करना 'ब्रह्मचर्य महाव्रत' है ।
    5. अपरिग्रह महाव्रत - अपने शुद्ध आत्म-स्वरूप की प्राप्ति के लिए दस प्रकार के बाहय परिग्रह से बुद्धिपूर्वक स्वयं को मोड़ना एवं चौदह प्रकार के अन्तरंग परिग्रह के त्याग के लिए पुरुषार्थ पूर्वक, मिथ्यात्व, कषाय एवं ममत्व का परित्याग करना 'अपरिग्रह महाव्रत' है।

     

    समिति

    प्राणियों को पीड़ा न होवे ऐसा विचार कर दया भाव से अपनी सर्वप्रवृत्ति करना समिति है। समितियाँ पाँच कहीं गई हैं:-

    १. ईर्या समिति, २. भाषा समिति, ३. एषणा समिति, ४. आदान–निक्षेपण समिति, ५. उत्सर्ग अथवा प्रतिष्ठापन समिति।

     

    1. सूर्य के प्रकाश में प्रासुक मार्ग से (जिस मार्ग पर पहले से आवागमन शुरु हो चुका है) चार हाथ आगे की भूमि देखकर जीवों की विराधना न करते हुए, किसी प्रयोजन वश, संयमी का गमन करना 'ईयाँ समिति' है।
    2.  स्व और पर को मोक्ष की ओर ले जाने वाले कम शब्दों में स्पष्ट अर्थ को व्यक्त करने वाले, सन्देह रहित वचनों का बोलना भाषा समिति है।
    3. श्रद्धा एवं भक्ति से श्रावक द्वारा नवधा भक्ति पूर्वक दिये गये निर्दोष आहार को ग्रहण करना 'एषणा समिति' है।
    4. शास्त्र आदि उपकरणों को आँखों से देखकर, सावधानी पूर्वक प्रमार्जित करके उठाना और रखना आदान-निक्षेपण समिति" है।
    5. साधु वसतिका से दूर, एकान्त, जीव-जन्तु रहित, बिल तथा छेद रहित, विशाल स्थान पर मल, मूत्रादि का क्षेपण करना 'प्रतिष्ठापन अथवा उत्सर्ग समिति' है।

     

    पञ्चेन्द्रिय विजय

    पाँचो इन्द्रियों की स्वच्छन्द प्रवृत्ति को रोककर धर्म ध्यान, आत्महित में लगाना पञ्चेन्द्रिय विजय अथवा पञ्चेन्द्रिय निरोध है।

     

    षट् आवश्यक

    जिनके बिना सम्यग् चारित्र का निर्दोष पालन नहीं हो सके, जिनका करना आवश्यक हो, जरूरी हो, उन्हें आवश्यक कहते हैं मुनियों के छह आवश्यक कहे गये हैं वे इस प्रकार हैं।

    १. समता, २. स्तुति (स्तवन), ३. वंदना, ४. प्रत्याख्यान, ५. प्रतिक्रमण, ६. कायोत्सर्ग।

     

    1. शुत्र-मित्र में, बन्धु वर्ग में, सुख-दु:ख में, संयोग-वियोग में, प्रशंसा-निन्दा में, लोह-सुवर्ण में, जीवन-मरण में, प्रिय-अप्रिय में सदा साम्य भाव रखना, राग-द्वेष, हर्ष विषाद नहीं करना 'समता आवश्यक' है।
    2. चौंबीस तीर्थकरों के गुणों का बखान करते हुए स्तुति करना 'स्तवन आवश्यक' है।
    3. किसी एक तीर्थकर को नमस्कार करना, चैत्यालयादिकों के भेद को ग्रहण कर गुणानुवाद करना, नमस्कार करना 'वंदना आवश्यक' है।
    4. आगामी काल में पाप के आस्त्रव को रोकने के लिए पापों का त्याग करना कि मैं ऐसा पाप मन, वचन, काय से नहीं करूंगा तथा अयोग्य का त्याग करना, योग्य का भी जिसे आहार के पश्चात् योग्य काल पर्यन्त आहारादि का त्याग करना, 'प्रत्याख्यान आवश्यक' है।
    5. भूतकाल में लगे हुए दोषों के शोधनार्थ, प्रायश्चित, पश्चाताप व गुरु के समक्ष अपनी निन्दा-गहा करना, 'मेरा दोष मिथ्या हो।' ऐसा गुरु से निवेदन करना 'प्रतिक्रमण आवश्यक' है।
    6. देह के प्रति ममत्व का त्याग करना, खड़े-खड़े अथवा बैठे-बैठे शरीर का तथा कषायों का त्याग कर, आत्म स्वरूप में लीन होना 'कायोत्सर्ग आवश्यक' है।

     

    सात विशेष गुण

    साधु परमेष्ठी के शेष सात गुण निम्नलिखित है -

    १. अचेलकत्व (नग्नत्व), २. अस्नान, ३. अदन्त धोवन, ४. एक मुक्ति, ५. स्थिति भोजन, ६. भूशयन, ७. केशलोंच।

     

    1. वस्त्र, चर्म, पत्र आदि से शरीर को नहीं ढकना, जन्म लिए हुए बालक के समान नग्न रहना 'अचेलकत्व' नामक गुण है।
    2. जलकायिक जीवों की पीड़ा का परिहार करने लिए जल से नहाने रूप स्नानादि क्रिया का सदा के लिए त्याग करना श्रमणों का 'अस्नान मूलगुण' कहलाता है।
    3. अनेक प्रकार के मंजन, चूर्ण, दातौन, काष्ठ औषधि नींबू फल आदि के माध्यम के दाँतो को नहीं मांजना, साफ नहीं करना साधु का 'अदन्त धोवन' नामक मूलगुण है।
    4. श्रावकों के घर में, मौन पूर्वक, हाथ पर रखे हुए आहार को दिन में एक बार ग्रहण करना 'एक मुक्ति' नामक मूलगुण है।
    5. चार अंगुल के अन्तर से समपाद खड़े रह कर, अपने खड़े रहने की भूमि, आहार कराने वाले की भूमि तथा जूठन पड़ने की भूमि, ऐसी तीन भूमियों की शुद्धता (जीव जन्तु मलादि से रहित) से आहार ग्रहण करना 'स्थिति भोजन" नामक मूलगुण है।
    6. अल्प संस्तर (बिछौना) सहित एकान्त स्थान में दण्डाकार, धनुषाकार अथवा एक करवट से सोना 'भूमि शयन' नामक मूलगुण है। अल्प संस्तर का अर्थ जिसमें बहुत संयम का विघात न हो ऐसे तृणमय, काष्ठ मय, शिलमय और भूमि मय इन चार प्रकार का संस्तर लिया गया है।
    7. उपवास पूर्वक सम्मूछन आदि जीवों की हिंसा के परिहार के लिए, शरीर से राग भाव दूर करने हेतु हाथ से मस्तक तथा दाढ़ी,मूंछ के केशों का उखाड़ना, लोच करना 'केशलोंच' नामक मूलगुण कहलाता है।

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    रतन लाल

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    साधु परमेष्ठियों पर विशेष जानकारी प्रदान कर्ता

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