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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पाठ्यक्रम 22अ - मोक्षमहल की प्रथम सीढ़ी – सम्यक दर्शन

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    सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक चरित्र इन तीनों को रत्नत्रय कहते हैं। इन तीनों की एकता ही मोक्ष मार्ग अर्थात मोक्ष प्राप्ति का उपाय है। इसके दो भेद है - व्यवहार रत्नत्रय और निश्चय रत्नत्रय।

     

    सात तत्वों, देव, शास्त्र व गुरु आदि की श्रद्धा, आगम का ज्ञान तथा व्रतादि रूप चारित्र को भेद रत्नत्रय अर्थात् व्यवहार मोक्षमार्ग कहा जाता है। आत्म स्वरूप की श्रद्धा, इसी का स्वसंवेदन ज्ञान और इसी में निश्चल स्थिति या निर्विकल्प समाधि को अभेद रत्नत्रय अर्थात् निश्चय मोक्षमार्ग कहा जाता है।

     

    जीवादि सात तत्वों का और सच्चे देव-गुरु-शास्त्र का पच्चीस (२५) दोष रहित श्रद्धान करना सो व्यवहार सम्यक दर्शन है। प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य इसके लक्षण हैं। क्रोधादि कषायों एवं विकारों के उपशम यानि शान्त होने रूप परिणाम 'प्रशम' है। संसार से भयभीत एवं धर्म में रूचि रूप परिणाम 'संवेग' है। प्राणी मात्र के प्रति दया का भाव होना 'अनुकम्पा' है एवं धर्म, धर्म के फल तथा आत्म स्वरूप पर अकाट्य श्रद्धान होना आस्तिक्य है।

     

    सम्यक दर्शन के आठ अंग

    1. नि:शंकित अंग - जिनेन्द्र देव कथित तत्वादि के विषय में तलवार पर चढ़ाए लोहे के पानी के समान निष्कम्प श्रद्धावान होकर सत्य मार्ग पर अविचल बढ़ते जाना नि:शंकित अंग है। उदाहरण- बाँया पैर
    2. नि: कांक्षित अंग - सत्य मार्ग पर चलते हुए क्षण भंगुर धन-सम्पदा, वैभव विषय-भोगों की प्राप्ति हेतु इच्छा नहीं करना नि:कांक्षित अंग है। उदाहरण- दाँया पैर
    3. निर्विचिकित्सा अंग - रत्नत्रय से पवित्र मुनियों के मलीन शरीर को देखकर ग्लानि नहीं करना 'निर्विचिकित्सा अंग' है। उदा.- बाँया हाथ
    4. अमूढ़ दृष्टि अंग - मिथ्यात्व को बढ़ाने वाले लौकिक चमत्कार पूर्ण कुमार्ग और कुमार्गस्थ व्यक्तियों का समर्थन, प्रशंसा आदि नहीं करना 'अमूढ़ दृष्टि अंग' है। उदाहरण- पीठ
    5. उपगूहन अंग - सन्मार्गी के दोषों एवं अपराधों को सबके सामने, लोक में प्रगट नही करना सम्यक दृष्टि का उपगूहन अंग है। उदा.- गुप्तांग
    6. स्थितीकरण अंग - श्रद्धान एवं मार्ग से किसी कारण वश विचलित हुए प्राणियों को पुन: धर्म मार्ग में स्थिर कराना 'स्थितीकरण अंग" है। उदा- दाँया हाथ
    7. वात्सल्य अंग - साधर्मी भाइयों के प्रति गोवत्स के समान कपट रहित आन्तरिक स्नेह का होना 'वात्सल्य अंग' है। उदा.- हृदय
    8. प्रभावना अंग - सत्साहित्य प्रकाशन, धार्मिक महोत्सव, दान, पूजा, तप आदि के द्वारा जिनधर्म की महिमा का प्रचार-प्रसार करना सम्यक दृष्टि मनुष्य का 'प्रभावना अंग' है। उदा.- मुख

     

    सम्यक दर्शन जिन पच्चीस दोषों से रहित होता है वे इस प्रकार है:- शंकादि आठ दोष, आठ मद, छ: अनायतन और तीन मूढ़ताएं।

     

    - आठ दोष -

    1. शंका - सच्चे देव गुरु शास्त्र एवं उनके वचनों पर संदेह करना 'शंका' नामक दोष है।
    2. कांक्षा - धर्म साधना से विषय भोगों की इच्छा करना 'कांक्षा' नामक दोष है।
    3. विचिकित्सा – गुणवान पुरुषों के प्रति ग्लानि करना 'विचिकित्सा' नामक दोष है।
    4. मूढ़ दृष्टि - सत्य-असत्य, तत्व-कुतत्व की पहचान नहीं होना, 'मूढ़ दृष्टि' नामक दोष है।
    5. अनुपग्रहन - अपने दोषों को छिपाकर दूसरे के दोषों को प्रगट करना 'अनुपगूहन' नामक दोष है।
    6. अस्थितीकरण - सत्पथ से विचलित हुए धर्मात्मा को कषाय के वशीभूत हो धर्म में स्थिर न करते हुए, धर्म से भ्रष्ट कर देना, धर्म से च्युत कर देना 'अस्थितीकरण' दोष है।
    7. अवात्सल्य - साधर्मी भाइयों एवं गुणीजनों से प्रेम न कर उनकी उपेक्षा एवं बुराई करना 'आवत्सल्य' नामक दोष है।
    8. अप्रभावना - अपने आचरण से धर्म का उपहास कराना 'अप्रभावना' नामक दोष है।

     

    - आठ मद -

    1. ज्ञान मद - साहित्य-लेखन, वक्तृत्व आदि प्रतिभा विशेष का गर्व करना एवं अन्य की उपहास वृत्ति से उपेक्षा करना 'ज्ञान मद' है।
    2. पूजा अथवा कीर्ति मद - लौकिक ख्याति प्राप्त होने पर उसका अभिमान करना 'पूजा मद' कहलाता है।
    3. कुल मद - पिता की परम्परा क्षत्रिय आदि कुल के उज्वल एवं समर्थ होने पर उसका अभिमान करना 'कुल मद' कहलाता है।
    4. जाति मद - मातृ-वंश के उज्ज्वल एवं शक्तिशाली होने पर माता, नाना आदि को लेकर अहंकार करना 'जाति मद' है।
    5. बल मद - शारीरिक बल एवं अपने आधीन रहने वाली शक्ति पर अभिमान करना 'बल मद' है।
    6. रुप मद - अपने शरीर की सुन्दरता, रूप, रंग, निरोगता हष्ट-पुष्टता आदि का अभिमान करना 'रूप मद" है।
    7. धन मद - धन सम्पति, वैभव से सम्पन्न होने पर उसका अभिमान करना निर्धनों की उपेक्षा करना 'धन मद' है।
    8. तप मद - विशेष तपश्चर्या एवं सदाचार के परिपालन में समर्थ होने पर उसका घमण्ड करना 'तप मद' है।

     

    - छह अनायतन -

    1. असत्य देव भक्ति - क्रोध, मान, माया, लोभ, कषाय सहित परिग्रही देवों को मानना, उनकी पूजा स्तुति आदि करना।
    2. असत्य गुरु भक्ति - विषय लोलुपी, विकार ग्रस्त, गुरुओं की भक्ति करना, उनकों नमस्कार करना इत्यादि।
    3. असत्य धर्म भक्ति - हिंसा, मदिरा पान, गाँजा सेवन आदि पाप कार्यों को धर्म मानकर स्वीकारना तथा उसमें भक्ति रखना।
    4. असत्य देव उपासक भक्ति - मिथ्या देवों की भक्ति करने वाले भक्तों की संगति करना एवं उनके गलत कार्यों में सहयोग प्रदान करना।
    5. असत्य गुरु उपासक भक्ति - मिथ्या गुरु के सेवकों की संगति करना, उनके कार्यों में सहयोग करना दान देना आदि।
    6. असत्य धर्म उपासक भक्ति - मिथ्या धर्म के उपासकों की संगति करना, उनके प्रचार-प्रसार में सहयोग करना।

     

    - तीन मूढ़ता -

    1. देव मूढ़ता - मनोकामना की पूर्ति हेतु राग-द्वेष रूपमल से मलीन देवी-देवताओं के समक्ष बली चढ़ाना, अर्घ चढ़ाना, खाद्य सामग्री चढ़ाना, अनेक प्रकार से स्तुति करना देव मूढ़ता है।
    2. लोक मूढ़ता - अन्ध श्रद्धा से अनेक अविवेक पूर्ण कार्यों में धर्म मानना जैसे नदी में स्नान करने से, अग्नि में कूदने से, पहाड़ से गिरने इत्यादि कार्यों में धर्म मानना लोक मूढ़ता है।
    3. गुरु मूढ़ता - कषाय के वशीभूत हो विभिन्न प्रकार के भेष धारण करने वाले, अभिमानी, विषय लोलुपी, अपने को गुरु मानने वाले व्यक्तियों पर श्रद्धा रखना, उनकी स्तुति, पूजा आदि करना 'गुरु मूढ़ता' कहलाती है।
    • सम्यक दृष्टि जीव प्रथम नरक छोड़ शेष नरकों में, भवनवासी-व्यन्तर-ज्योतिष देवों में, स्त्रीवेद-नपुंसक वेद में, स्थावर कायिकों में, विकलत्रयों में, पशु पर्याय में जन्म नहीं लेते।
    • तीन काल और तीन लोक में जीवों का सम्यक्त्व के समान कुछ भी कल्याणकारी नहीं है तथा मिथ्यात्व के समान अकल्याणकारी भी कोई नहीं है। शुद्ध सम्यक दृष्टि जीव कान्ति, प्रताप, विद्या, वीर्य, यशोवृद्धि, विजय, वैभववान, उच्चकुली, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के साधक तथा मनुष्यों में शिरोमणी होते हैं।

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    रतन लाल

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    मोक्षमार्ग का परिचायक

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