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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पाठ्यक्रम 15स - जैन इतिहास - भगवान महावीर की परम्परा

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    जैनाचार्यों के अनुसार इस भरत क्षेत्र में उत्सर्पिणी एवं अवसर्पिणी के छह कालों में वृद्धि एवं ह्रास के अनुसार परिवर्तन देखा जाता है। प्रत्येक दुषमा-सुषमा काल में धर्म तीर्थ के प्रवर्तक चौबीस-चौबीस तीर्थकर होते हैं। वर्तमान में अंतिम तीर्थकर भगवान महावीर का शासन काल चल रहा हैं। भ. महावीर ने ३० वर्ष की आयु में दिगम्बरी दीक्षा धारण की एवं १२ वर्ष की कठोर साधना के पश्चात् केवलज्ञान प्राप्त किया। केवल ज्ञान उत्पन्न होने के बाद ३० वर्ष तक समवशरण की विभूति से सहित,इस भारत भूमि के ग्राम, नगरों में जिनधर्म का प्रचार करते हुए विहार किया एवं अन्त में उन्होंने पावापुर के उद्यान से मोक्ष प्राप्त किया।

     

    भगवान महावीर के निवणि उपरांत उसी दिन सायंकाल में भगवान के प्रधान गणधर गौतम स्वामी को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ, वे चतुर्विध संघ के नायक बने, १२ वर्ष तक संघ गौतम केवली के नेतृत्व में रहा। पश्चात् सुधर्माचार्य को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ और १२ वर्ष तक संघ सुधर्म केवली के नेतृत्व में रहा। इसके बाद जम्बूस्वामी को केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ, ३९ वर्षों तक संघ का नेतृत्व करते हुए अंत में मथुरा चौरासी से उन्होंने निर्वाण प्राप्त किया। इनके पश्चात् क्रमश: विष्णुकुमार, नन्दि पुत्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु ये पाँच श्रुतकेवली हुए जिनके नेतृत्व में संघ चला। इन पांचो के काल का योग १०० वर्ष होता है इन्हें पूर्ण श्रुतज्ञान था। अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहु की मृत्यु के उपरांत साधुओं में मन भेद, संघ भेद एवं गणभेद आदि प्रारंभ हो गये।

     

    भद्रबाहु आचार्य के प्रमुख शिष्यों में अंतिम सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य थे। एक बार भद्रबाहु मुनि जब आहार चर्या के लिए नगर की ओर गये, तब वहाँ एक बालक जो कि झूले में लेटा हुआ था, जोर-जोर से रोने लगा और चले जाओ, चले जाओ (बा बाबा, बा बाबा) शब्द करने लगा। तब भद्रबाहु मुनि अन्तराय मानकर वापस वन की ओर चले गये। तथा समस्त मुनियों को क्ट्ठा करके उनसे कहा -निमित ज्ञान से ऐसा प्रतीत होता है कि पाटलिपुत्र में बारह वर्षों का भीषण अकाल पडने वाला है अत: हम सभी श्रमण संस्कृति एवं धर्म की रक्षा हेतु इस क्षेत्र से अन्यत्र देश की ओर बिहार करें। तब उस नगर के श्रावकों ने साधुओं से निवेदन किया कि हे मुनिवर! हमारे गोदाम धन धान्य से भरे पड़े हैं तेल गुड़ आदि की कोई कभी नही है, बारह वर्ष यूं ही चुटकी बजाते निकल जाएँगे आप लोग निश्चित होकर यहीं रहे अन्यत्र न जावें। श्रावकों के बार-बार आग्रह करने पर भी महामुनि भद्रबाहु ने महाव्रतों के अत्यन्त भंग को जानते हुए विशाखाचार्य (चन्द्रगुप्त) के साथ १२,००० मुनियों के संघ को लेकर दक्षिण प्रान्त की ओर विहार किया। किन्तु यश की इच्छा करने वाले कितने ही साधु (स्थूलभद्र, स्थूलाचार्य, रामल्य आदि) श्रावकों के आग्रह को मानते हुए पाटलिपुत्र में ही रूक गये। कुछ समय व्यतीत होते ही अकाल पड़ने लगा। बारह वर्षीय भीषण दुर्भिक्ष के दौरान लोग अभक्ष्य भक्षण करने लगे, किसी तरह से भूख मिटाना ही उनका लक्ष्य रहा, प्राय: सभी धर्म-कर्म से रहित क्रूरता पूर्ण आचरण करने लगे। उनमें भी कुछ श्रेष्ठी श्रावक अपने व्रतों का पालन करते हुए मुनियों को आहार दान आदि दे रहे थे। कितने ही दिन व्यतीत होने पर एक दिन एक मुनिराज आहार कर लौट रहे थे तब किसी भूखे व्यक्ति ने मुनिराज के पेट को तीव्र पैने नखो से भेद/फाड़ डाला और उनके पेट में स्थित भोजन को जल्दी-जल्दी खा डाला। इस उदर विदारण से मुनि का तत्कालमरण हो गया। इस विषमता को देख श्रावकों ने मुनियों से निवेदन किया हे स्वामी! यह काल अत्यन्त भीषण है अथवा कहिये दूसरा यम ही आया है इसलिए अनुग्रह कर हम लोगों के वचनों को स्वीकार कीजिये और वन को छोड़कर समस्त मुनिराज ग्रामों के बीच में निवास करें। श्रावकों की प्रार्थना साधुओं ने स्वीकार की, श्रावक लोग भी उसी समय समस्त संघ को उत्सव पूर्वक नगर में लिवा लाये और धर्मशाला आदि स्थानों में ठहराये। दुर्भिक्ष दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगा, कई वर्ष व्यतीत होने पर जब मुनि - संघ आहार-चर्या को निकले तो दीन-हीन लोग उनके साथ हो गये, करूणामय वचन बोलने लगे ' हमें देओदेओ। तब कितने ही लोग क्रोधित होकर उन कृश काय लोगो को मारने लगे। दयालु मुनिराज ऐसे लोगो को तथा गृह के द्वार बंद देखकर अपने लिए अंतराय समझ स्व-स्थान पर लौट गये। तब श्रावक भक्ति-भाव से अत्यन्त व्याकुल होकर गुरु के पास गये और प्रार्थना की - सारी पृथ्वी दीन लोगो से पूर्ण हो रहीं है और उन्ही के भय से कोई क्षण मात्र के लिए भी घर के किवाड़ नहीं खोलते है तथा इसी कारण हम लोग रात्रि में ही भोजन बनाने लगे है। अत: आप से निवेदन है कि आप लोग रात्रि के समय ही हमारे गृहों से पात्रो में भोजन ले जाये और दिन होने पर वहीं आहार करें। परिस्थिती को समझते हुए उन्होंने निवेदन स्वीकार किया तथा तुम्बी पात्र में भोजन लाने लगे। कुत्ते आदि के भय से लकड़ी रखने लगे। एक दिन क्षीण काय साधु के हाथ में पात्र और लाठी देखकर यशोभद्र सेठ की गर्भवती पत्नी घबरा गई जिससे उसका गर्भ गिर गया। यह विषम रुप लोगों के भय का कारण है इसलिए कन्धे पर वस्त्र धारण करे, जब तक सुभिक्ष न आ जाये ऐसा करें फिर तपश्चरण धारण करें, ऐसा निवेदन भी साधुओं ने स्वीकार किया और धीरे-धीरे शिथिलाचार बढ़ता गया। बाद में जब सुभिक्ष प्रारम्भ हुआ तब विशाखाचार्य सब मुनियों को लेकर उत्तर भारत आये। इन साधुओं को देखकर प्रतिनमोस्तु नहीं किया। कुछ साधुओं ने प्रायश्चित लेकर पुन: सम्यक् मार्ग प्रारंभ किया किन्तु कुछ हठ के वशीभूत, कैसे अब कठिन चर्या स्वीकारे ऐसा विचार कर उसी मार्ग का अनुकरण करने लगे वे अर्धफालक कहलाये। आगे एक रानी के आग्रह पर उन्होने श्वेत वस्त्र भी अंगीकार कर लिए और तभी से श्वेताम्बर मत भी प्रसिद्ध हुआ। यह मत महाराजा विक्रम की मृत्यु के 136 वर्ष बाद उत्पन्न हुआ, इस प्रकार भगवान महावीर के निर्वाण के पश्चात् यह विशुद्ध जैन धर्म दो सांप्रदायो में बट गया। बाद में श्वेताम्बरों द्वारा अनेक नवीन साहित्य की रचना की गई जिनमें अनेक

    दिगम्बर मान्यताओं के विरुद्ध बाते लिखी है जिनमें कुछ निम्नलिखित है।

     

    श्वेताम्बर मान्यता                                दिगम्बर मान्यता

    १. केवली कवलाहार (भोजन) करते हैं। १. नहीं करते हैं।

    २. केवली को नीहार (शौच) होता है। २. नहीं होता है।

    ३. सवस्त्र मुक्ति होती है। ३. दिगम्बर होना अनिवार्य

    ४. स्त्री उसी भव से मुक्ति प्राप्त कर सकती है। ४. नहीं कर सकती

    ५. गृहस्थ भेष में केवलज्ञान संभव। ५. असंभव

    ६. वस्त्राभूषण से सुसजित प्रतिमा पूज्य है। ६. दिगम्बर प्रतिमा ही पूज्य है।

    ७. तीर्थकर मल्लिनाथ का स्त्री होना ७. स्त्री तीर्थकर नहीं हो सकती।

    ८. महावीर का गर्भ परिवर्तन, विवाह एवं कन्या का जन्म ८. कल्पना है ऐसा नहीं हुआ

    ९. मुनिगण दिन में अनके बार भोजन कर सकते ९. एक बार ही करपात्र में

    १०. ग्यारह अंग की मौजूदगी १०. अंगज्ञान का लोप हुआ


    विशेष रूप से मतभेद आदि जानने हेतु श्वेताम्बर विद्वान श्री बेचरदास जी दोशी द्वारा रचित "जैन साहित्य में विकार" तथा पं. अजित कुमार शास्त्री द्वारा रचित 'श्वेताम्बर मत समीक्षा' पुस्तक पढ़ना चाहिए। आगे दक्षिण प्रान्त से लौटने के बाद दिगम्बर मुनियों का संघ अहद्बली आचार्य के नेतृत्व में रहा। पंचवर्षीय युग प्रतिक्रमण के अवसर पर उन्होंने दक्षिण देशस्थ महिमानगर जिला-सतारा में यति-सम्मेलन की योजना बनाई। जिसमें १००-१०० योजन तक के यदि आकर सम्मिलित हुए। उस समय उन्होंने महसूस किया कि काल के प्रभाव से वीतरागियों में भी अपने-अपने संघ तथा शिष्यों के प्रति कुछ पक्षपात जाग्रत हो चुका है। यह पक्ष आगे जाकर संघ की क्षति का कारण न बन जाये इस उद्देश्य से उन्होंने अखण्ड दिगम्बर संघ को नन्दिसंघ आदि अनेक अवान्तर संघो में विभाजित कर दिया। आगे अनेक संघ भेद, जैनाभास आदि होते रहे जिनका वर्णन विस्तृत होने से यहाँ नहीं दिया जा रहा है। विशेष जानने के इच्छुक ऐतिहासिक ग्रंथ अथवा जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भाग १ के इतिहास एवं परिशिष्ट को पढ़ सकते है। दिगम्बर साम्प्रदाय के कुछ प्रचलित मतो का संक्षिप्त परिचय यहा देते हैं।

     

    भट्टारक पथ

    भट्टारक शब्द पूर्व में जैन धर्म के प्रभावक उन आचार्यों के लिए प्रयुक्त होता था, जिन्होनें अनेक ग्रंथ लिखकर दिगम्बर जैन शासन की प्रभावना की तथापि भट्टारक शब्द कालान्तर में शिथिलाचारी दिगम्बर मुनियों के लिए प्रयुक्त होते-होते, वस्त्रधनादि परिग्रह सहित, मठाधीश, सुविधाभोगी किन्तु पिच्छीधारी एक विशेष वर्ग के लिए रूढ़ हो गया। चौदहवी शताब्दी में दिल्ली की गद्दी से प्रारंभ होकर धीरे-धीरे सम्पूर्ण भारत में भट्टारकों की गादियाँ स्थापित हो गई। वे भट्टारक प्राय: आगमज्ञान से हीन, मंत्र-तंत्रादि में निपुण होने से प्रभावक रहे। उत्तर भारत में श्रावकों की जन-चेतना के कारण भट्टारकों की परंपरा प्राय: समाप्त हो गई तथापि दक्षिण भारत में ये परम्परा आज भी जीवित है। भट्टारक प्रथा मुनियों में बढ़े हुए शिथिलाचार का ही रूप है इसे आगम में कही भी स्वीकार नहीं किया गया है। आचार्य कुन्दकुन्द ने जैन दर्शन में तीन ही लिंग माने है - १ जिनलिंग (दिगम्बर श्रमण का) २ उत्कृष्ट श्रावक (ऐलक छुल्लक का), ३. आर्यिका का। इसके अलावा चौथा कोई लिंग नहीं है। भट्टारकों का पीच्छी रखना भी उचित नहीं है। भट्टारकों की इस पंरपरा में सुधार आपेक्षित है। इस हेतु प. नाथूराम जी प्रेमी द्वारा सन् १९१२ में लिखी पुस्तक 'भट्टारक" पठनीय है।

     

    तेरापथ - बीस पंथ

    संवत् १७०० में कामा (मथुरा) में भट्टारकों के विरूद्ध गृहस्थ जैनो का एक दल उठ खड़ा हुआ। उस दल ने घोषणा कर दी कि पंचमहाव्रत धारी, नग्न दिगम्बर साधु ही जैन गुरु हो सकता है, वस्त्रादि परिग्रह सहित भट्टारक नहीं यह विद्रोह उत्तर भारत में प्राय: सर्वत्र फैल गया और वहाँ सब स्थानों पर भट्टारकों की अमान्यता तेजी से फैलने लगी। कुछ लोग उस समय भी भट्टारकों के अनुयायी बने रहे जो लोग भट्टारकों को गुरु मानने का निषेध किया वे तेरापंथी कहलाये। मुख्य रुप से वर्तमान में पूजन पद्धति को लेकर दोनों में भिन्नता है विशेष कुछ नहीं। तेरह पन्थ के जन्मदाता प. बनारसी दास जी माने जाते है।

     

    तारण  - पथ

    भारतीय इतिहास में सोलहवी शताब्दी को प्रशस्त नहीं माना गया है इस समय भारत में मुगल साम्राज्य छाया हुआ था। हिन्दू व जैन धर्म का दमन हो रहा था तथा जबदस्ती धर्म परिवर्तन कराया जा रहा था, मंदिर और मूर्तिया तोड़ी जा रही थी। तब उस समय संत तारण-तरण नाम के एक व्यक्ति ने इस पंथ को जन्म दिया। जिसमें मूर्ति-पूजा का निषेध करते हुए आध्यात्य का उपदेश व जिनवाणी की वंदन पूजा का मूल उपदेश दिया गया है। इस पंथ से प्रभावित होकर अनेक जैनेतरो ने भी इस पंथ को स्वीकार किया। संत तारण जी ने १४ ग्रन्थों की रचना की इसके अनुयायी इन ग्रंथों की व अन्य आचार्य प्रणीत ग्रन्थों को देव स्थान वेदी पर विराजमान कर उनकी पूजा करते है। संत तारण का प्रभाव मध्य भारत के कुछ ही क्षेत्रो तक सीमित रहा। जहां इनके अनुयायी आज भी है। इनकी संख्या दिगम्बरों की अपेक्षा अत्यल्प है।


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