जो नित्य अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशत्व (वशित्व), सकाम रूपित्व इन आठ गुणों से सहित क्रीड़ा करते हैं। जिनका शरीर सुंदर, प्रकाशमान वैक्रियक होता है, वे देव कहलाते हैं।
भवनवासी देव, व्यन्तर देव, ज्योतिषी देव एवं वैमानिक देव के भेद से देव चार प्रकार के होते हैं। जो भवन में रहते हैं, उन्हें भवनवासी कहते हैं। जो पहाड़, गुफा, द्वीप, समुद्र, मंदिर आदि में विचरण करते रहते हैं वे व्यन्तर कहलाते हैं। सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र व तारों में रहने वाले ज्योतिर्मय देव ज्योतिषी कहलाते हैं। जो उध्र्वलोक के विमानों में रहते हैं वैमानिक कहलाते हैं। सोलह स्वर्ग तक के देव कल्पोपपन्न एवं उससे ऊपर के देव कल्पातीत कहलाते हैं।
अणिमा आदि आठ गुणों का स्वरूप -
- अणिमा - अपने शरीर को अणु बराबर छोटा करने की शक्ति अर्थात् इतना छोटा शरीर बनाना कि सुई के छेद में से निकल जावे।
- महिमा - अपने शरीर को मेरु प्रमाण बड़ा करने की शक्ति अर्थात् अपने शरीर को मेरु अथवा हिमालय बराबर बड़ा बना लेना।
- लघिमा - रुई के समान शरीर को हल्का बना लेने की क्षमता अर्थात् मकड़ी के तंतु पर पैर रखने पर भी वह न टूटे।
- गरिमा - बहुत भारी अर्थात् करोड़ो व्यक्ति मिलकर भी जिसे न उठा पाए, इतना भारी, वजनदार शरीर बनाने की शक्ति।
- प्राप्ति - एक स्थान पर बैठे-बैठे ही दूर स्थित पदार्थों का स्पर्श कर लेना, उठा लेने की क्षमता। जैसे यहाँ बैठे-बैठे ही हिमालय के शिखर को छू लेना इत्यादि।
- प्राकाम्य - जल में भूमि की तरह गमन करना और भूमि में जल की तरह डुबकी लगा लेना।
- ईशित्व - जब जीवों तथा ग्राम, नगर एवं खेड़े आदि पर प्रभुत्व की क्षमता।
- सकामरूपित्व - बिन बाधा के पहाड़ आदि के बीच में से गमन करना, अदृश्य हो जाना, गाय, सिंह आदि अनेक प्रकार के रूप बनाने की क्षमता।
- देवों का जन्म उपपाद शय्या पर होता है। जन्म लेते ही सोलह वर्ष के युवक की तरह सुंदर शरीर होता हैं, उन्हें बुढ़ापा नहीं आता, कोई रोग नहीं होता, अकाल मरण नहीं होता। देवों का शरीर मल-मूत्र, सप्तधातु, पसीना, निगोदिया जीवों से रहित होता है। देवों के बाल नहीं होते, पलके नहीं झपकती, शरीर की परछाई नहीं पड़ती। संहनन रहित, समचतुस्त्र संस्थान वाला शरीर होता है। प्रत्येक देव की कम से कम 32 सुंदर देवांगनाए होती हैं।
- देव पलक झपकते ही कोशों की दूरी तय कर लेते हैं। देवों के शरीर की ऊँचाई अधिकतम पच्चीस धनुष तथा जघन्य एक हाथ है।
- देवो में जघन्य आयु दस हजार वर्ष एवं उत्कृष्ट आयु तैतीस सागर प्रमाण होती है। एक सागर की आयु वाला देव १ हजार वर्ष बाद आहार ग्रहण करता है अर्थात् भूख लगते ही उनके कण्ठ में अमृत झर जाता है तथा वही देव १५ दिन के बाद एक बार श्वासोच्छवास ग्रहण करता है। देवियाँ दूसरे स्वर्ग तक ही जन्म लेती है, नियोगि देव उन्हें सोलहवें स्वर्ग तक ले जाते हैं।
सदाचारी मित्रों की संगति आयतन सेवा, सद्धर्म श्रवण, स्वगौरव दर्शन, निर्दोष प्रोषधोपवास, तप की भावना, बहुश्रुतत्व, आगमपरता, कषाय निग्रह, पात्रदान, पीत-पद्म लेश्या परिणाम, मरण काल में धर्म ध्यान रूप परिणति आदि सौधर्मादि स्वर्ग की आयु के बंध के कारण हैं।
- सम्यक दर्शन रूपी रत्न से युक्त देव कर्मक्षय के निमित्त नित्य ही अत्यधिक भक्ति से जिनेन्द्र - प्रतिमाओं की पूजा करते हैं, किन्तु सम्यक दृष्टि देवों से सम्बोधित किये गये मिथ्यादृष्टि देव भी कुल देवता मानकर जिनेन्द्र प्रतिमाओं की नित्य ही नाना प्रकार से पूजा करते हैं।